भारत के पूरब और पश्चिम में चीन और अमेरिका के बीच शीत युद्ध 2.0 बड़ी तेज़ी से बढ़ता जा रहा है. इस उभरते शीत युद्ध ने भारत के सामने कुछ मुश्किल विकल्प रखे हैं. या तो भारत इस शीत युद्ध की धुरी बन जाए और अपनी स्थिति का फ़ायदा उठा कर ख़ुद को सामरिक और आर्थिक तौर पर सुरक्षित बना ले. या फिर दूसरा विकल्प ये है कि भारत ख़ुद को सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सभ्यता के पुराने संबंधों वाले छलावे को पकड़कर लटकता रहे. और इस तरह से वो सामरिक तौर पर एक दोस्ताना और अच्छे पड़ोसी के साथ संबंध रखने के धोखे में ख़ुद को बनाए रखे. जिससे होने वाले आर्थिक लाभ अनिश्चित हैं. ऐसा करने के लिए भारत को इस शीत युद्ध में अपने आपको दोनों पक्षों से दूर बनाए रखना होगा (जिसका अर्थ है गैट निरपेक्षता 2.0). इसमें भारत के सामने न केवल अपनी सुरक्षा और अर्थव्यवस्था को जोखिम में डालने की चुनौती होगी, बल्कि ये क़दम भारत के लिए अपने भविष्य को दांव पर लगाने जैसा ही होगा. आज हम जिस दौर से गुज़र रहे हैं, उसमें दुनिया नए सिरे से ध्रुवीकृत हो रही है. ऐसे हालात में भारत को भी ये चुनाव करना ही होगा कि वो किस पक्ष में जाएगा. क्योंकि, अगर भारत ये चुनाव नहीं करता है, तो वो पूरब और पश्चिम दोनों ही तरफ़ से पिस जाएगा. पहले शीत युद्ध के दौरान भारत के पास ख़ुद को किसी भी खेमे से दूर बनाए रखने का अवसर था. क्योंकि, वो कोल्ड वॉर भारत की सरहदों से बहुत दूर, अन्य भौगोलिक क्षेत्रों में लड़ा जा रहा था. पहले शीत युद्ध का आख़िरी मोर्चा ज़रूर भारत के क़रीब अफ़ग़ानिस्तान में था. लेकिन, ये जो इक्कीसवीं सदी का शीत युद्ध है, इसका मैदान भारत के बेहद क़रीब है. आज भारत इस संघर्ष के केंद्र में है कि इक्कीसवीं सदी में दुनिया को कैसे चलाया जाना चाहिए.
पिछले कुछ वर्षों से अमेरिका और चीन के संबंध लगातार ख़राब होते जा रहे हैं. जनवरी 2018 में घोषित अमेरिका की नेशनल डिफेंस स्ट्रैटेजी में साफ़ तौर पर ‘चीन और रूस को ऐसी सरकारों के तौर पर चिह्नित किया गया था, जो अमेरिका के सामरिक प्रतिद्वंदी हैं और उसके लिए चिंता का प्रमुख बिंदु हैं.’ इसके कुछ महीनों बाद ही, अमेरिका ने चीन पर निशाना साधते हुए पहला वार किया था. जब अमेरिका और चीन के बीच ‘व्यापार युद्ध’ शुरू हुआ था. तब से लेकर अमेरिका और चीन के बीच का ये संघर्ष बहुत बढ़ चुका है. जिस समय कोविड-19 की महामारी ने दुनिया पर हमला किया, उससे पहले ही शीत युद्ध 2.0 के काले बादल विश्व पर मंडराने लगे थे. कोविड-19 की महामारी ने अमेरिका और चीन के बीच के टकराव को और रफ़्तार दे दी है. चीन ने बेहद आक्रामक और टकराव वाली कूटनीति अपना कर दुनिया में एक साथ कई मोर्चे खोल दिए हैं. ये सुरक्षा से भी जुड़े हैं और कूटनीतिक मसले भी हैं. आज चीन, भारत ही नहीं, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, हॉन्गकॉन्ग, जापान, ताइवान और वियतनाम जैसे देशों के साथ अलग अलग मोर्चों पर उलझा हुआ है. इसके कारण, चीन के ख़िलाफ़ पूरी दुनिया में माहौल बन गया है.
अमेरिका ने पहले ही इस बात के पर्याप्त संकेत दे दिए थे कि वो भारत के पूरब में, चीन को कोई रियायत नहीं देने वाला है. अमेरिका ने चीन की कंपनियों और वहां के छात्रों पर तरह तरह की पाबंदियां लगा दी हैं. शिन्जियांग में मानवाधिकारों के उल्लंघन के हवाले से चीन के कई अधिकारियों पर भी अमेरिका ने पाबंदियां लगा दी हैं. और अपनी शक्ति का खुल कर प्रदर्शन करने के लिए अमेरिका ने अपने दो एयरक्राफ्ट कैरियर को दक्षिणी चीन सागर में तैनात कर दिया है. अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो हों या व्हाइट हाउस के चीफ ऑफ़ स्टाफ़ मार्क मीडोज़. दोनों अमेरिकी अधिकारियों के बयानों ने ये बात साफ़ कर दी है कि हवा का रुख़ किधर है.
जिस समय भारत के पूरब में ये तनातनी बढ़ रही थी, ठीक उसी वक़्त भारत की पश्चिमी सीमा पर एक बड़ा कूटनीतिक धमाका हुआ, जब ईरान और चीन ने एक बड़े सुरक्षा और आर्थिक समझौते का एलान किया. इसके कुछ दिनों बाद ही भारत के लिए एक और कूटनीतिक झटके वाली ख़बर तब आई, जब ईरान ने भारत को अपने यहां के एक रेल प्रोजेक्ट से बाहर कर दिया. ये रेलवे लाइन, ईरान के चाबहार बंदरगाह से अफ़ग़ानिस्तान और ईरान की सीमा पर स्थित ज़ाहेदान तक बिछाई जानी थी. पाकिस्तान में चीन की सामरिक मौजूदगी और बलूचिस्तान के ग्वादर में चीन के संभावित नौसैनिक अड्डे की वजह से भारत के लिए पहले ही एक बड़ी सामरिक चुनौती खड़ी हो चुकी थी. अब ईरान के साथ अपने रिश्तों को चीन ने एक नई ऊंचाई पर पहुंचाकर, भारत को तगड़ा झटका दिया है. चीन और ईरान के बीच हुए समझौते को चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) जैसा ही एक और समझौता कहा जा रहा है. इस समझौते के कारण, ईरान भी पाकिस्तान की तरह, चीन की कठपुतली बन जाएगा. भारत के लिए इस समझौते ने भयानक सामरिक चुनौतियां पेश कर दी हैं. कुल मिलाकर कहें, तो ईरान के साथ समझौता करके, चीन ने भारत की घेरेबंदी के अपने लक्ष्य को अंजाम तक पहुंचा दिया है.
ईरान और चीन के बीच हुए इस समझौते का त्वरित प्रभाव हम, अफग़ानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिशों पर होते देखेंगे. ईरान ने अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंच बनाने के लिए भारत को एक वैकल्पिक रास्ता देने का प्रस्ताव दिया था. अमेरिका ने पहले ही अफ़ग़ानिस्तान को अलविदा कहने का फ़ैसला कर लिया है. ऐसे में ईरान और चीन के क़रीब आने से भारत के विकल्प बहुत सीमित हो गए हैं. अब ईरान, चीन के इशारे पर काम करेगा (बल्कि यूं कहें कि चीन और पाकिस्तान के हितों के लिए काम करेगा), तो भारत अब केवल हवाई रास्ते से अफ़ग़ानिस्तान तक पहुंच बना सकेगा. हवाई माध्यम से संपर्क बढ़ाने की अपनी सीमाएं हैं. इससे न केवल व्यापार और आर्थिक मदद की संभावनाएं सीमित हो जाती हैं, बल्कि युद्ध की स्थिति में सैन्य मदद भी मुश्किल से पहुंचाई जा सकती है. कुल मिलाकर कहें, तो हक़ीक़त ये है कि भारत के लिए अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते लगभग बंद ही हो चुके हैं. वैसे भी चीन की सरकार, पाकिस्तान के माध्यम से अफ़ग़ानिस्तान में अपने समीकरण बिठा रही है. और अब चीन ने ईरान को भी अपने पाले में कर लिया है. ऐसे में मध्य एशिया और रूस पर चीन की पकड़ को देखते हुए, हम ये मान सकते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत का खेल कम-ओ-बेश ख़त्म हो चुका है. चीन ने पहले ही अफ़ग़ानिस्तान में बड़ी भूमिका निभाने के लिए ज़ोर लगा रखा है. इसके संकेत अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान-चीन के बीच त्रिस्तरीय बातचीत से पहले ही मिलने लगे थे.
अब इससे भी ज़्यादा चिंता की बात है कि भारत की राह में चार देश मिलकर कांटे बिछा सकते हैं. इन्हें PRIC कहा जा रहा है. यानी-पाकिस्तान, रूस, ईरान और चीन. पाकिस्तान के सामरिक विशेषज्ञ लंबे समय से इस गठबंधन को लेकर ख़्वाब देख रहे थे. और अब पाकिस्तानी सामरिक विशेषज्ञों का ये ख़्वाब हक़ीक़त बनने के बेहद क़रीब पहुंच गया है. बल्कि ये कहें कि पाकिस्तान का ये सपना बस पूरा ही होने वाला है, तो ज़्यादा ठीक होगा. हालांकि, शुरुआत में इस गठबंधन का मक़सद केवल अफ़ग़ानिस्तान में अपनी सामरिक गोटियां बैठाना था. लेकिन, अब चीन के नेतृत्व में मौजूदा विश्व व्यवस्था को चुनौती देने में इस गठबंधन की भूमिका और महत्वपूर्ण हो सकती है. कम से कम ये तो तय है कि इन चार देशों के साथ आने से भारत के लिए उसकी पश्चिमी सीमा पर सामरिक माहौल बेहद ख़राब कर देगा. पाकिस्तान, रूस, ईरान और चीन के साथ आने से भारत की आर्थिक, ऊर्जा संबंधी, राजनीतिक और सरहदी सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा ख़तरा पैदा हो जाएगा.
इसमें कोई दो राय नहीं कि ईरान ने वही किया है, जिससे उसका सबसे ज़्यादा हित सधे. अमेरिका ने ईरान को एकदम कगार पर धकेल दिया था. ऐसे में ईरान के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था कि वो चीन द्वारा प्रस्तावित तिनके के सहारे को पकड़ ले.
2016 में जब चीन के राष्ट्पति शी जिनपिंग, ईरान के दौरे पर गए थे. तब दोनों देशों ने कई समझौते किए थे. उस समय दोनों देशों ने आपसी व्यापार को अगले दस वर्षों में बढ़ाकर 600 अरब डॉलर के स्तर तक पहुंचाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया था. लेकिन, अमेरिका द्वारा ईरान पर नए प्रतिबंध लगाने के कारण, ऐसा लगता है कि चीन ने इस महत्वाकांक्षी योजना को फिलहाल टाल दिया है. ईरान के साथ नए आर्थिक सामरिक समझौते को अंजाम देकर, ऐसा लगता है कि चीन ने उससे भी महत्वाकांक्षी योजना की शुरुआत कर दी है. चीन की कम्युनिस्ट सरकार को इस बात का यक़ीन है कि वो अमेरिका से मुक़ाबला कर सकते हैं. चीन के विस्तारवाद को रोकने के लिए अमेरिका ने जो शुरुआती क़दम उठाए हैं, वो अभी स्पष्ट नहीं हैं. ऐसे में चीन के हौसले बुलंद हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं कि ईरान ने वही किया है, जिससे उसका सबसे ज़्यादा हित सधे. अमेरिका ने ईरान को एकदम कगार पर धकेल दिया था. ऐसे में ईरान के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था कि वो चीन द्वारा प्रस्तावित तिनके के सहारे को पकड़ ले.
अमेरिका को ठेंगा दिखा कर चीन पहले से ही मध्य पूर्व में अपनी धमक बढ़ानी शुरू कर दी है. एक दौर में मध्य पूर्व में अमेरिका की तूती बोलती थी. लेकिन, आज वहां चीन एक बड़ा खिलाड़ी बनकर उभरा है. ईरान के साथ समझौता करके चीन से अमेरिका की लक्ष्मण रेखा को भी पार कर लिया है. अमेरिका ने इस मसले पर चीन के घर में घुसकर पलटवार किया. और दक्षिणी चीन सागर पर लंबे समय से हीला हवाली करते रहने के बाद आख़िरकार कह दिया है कि वो साउथ चाइना सी को मुक्त व्यापारिक परिवहन मार्ग के तौर पर देखता है. अमेरिका ने दक्षिणी चीन सागर में चीन के दावों को ख़ारिज करते हुए कहा है कि, ‘साउथ चाइना सी के समुद्री संसाधनों पर चीन का दावा पूरी तरह से ग़ैरक़ानूनी है और दूसरे देशों पर धौंस जमाने का चीन का अभियान भी अवैध है.’ इसके अलावा अमेरिका ने ये भी कहा कि, ‘दुनिया, चीन को साउथ चाइना सी को उसका समुद्री साम्राज्य किसी क़ीमत पर नहीं बनने देगी.’ चीन ने भी अमेरिका के इस बयान पर तुरंत प्रतिक्रिया दी. अमेरिका में चीन के दूतावास ने अमेरिका पर आरोप लगाया कि, ‘अमेरिका, चीन और उसकी समुद्री सीमा के क़रीब स्थित देशों के बीच लड़ाई लगाने की कोशिश कर रहा है.’ इस बयान में चीन ने ये भी कहा कि, ‘अमेरिका अपनी ताक़त की नुमाइश कर रहा है, इलाक़े में तनाव बढ़ा रहा है और लोगों को संघर्ष के लिए उकसा रहा है.’
साफ़ है कि अब अमेरिका और चीन एक दूसरे के ख़िलाफ़ खुलकर मोर्चेबंदी कर रहे हैं. ये तय है कि आने वाले समय में दोनों देशों के बीच तनाव और भी बढ़ेगा. इसकी एक वजह ये भी है कि दुनिया के तमाम देशों के बीच नए सिरे से ध्रुवीकरण हो रहा है. अब तक ख़ुद को किसी एक पाले में करने से बचने वाले देश जल्द ही कोई न कोई खेमा चुन लेंगे. भारत के लिए ये फ़ैसले का समय है. कई बरस से अमेरिका और भारत जैसे तमाम देश इस हक़ीक़त से आंख फेरे हुए थे कि तानाशाही और विस्तारवादी चीन, विश्व व्यवस्था की स्थिरता के लिए ख़तरा है. चीन की बढ़ती ताक़त की अनदेखी करके इन देशों ने तबाही को निरंतर अपने क़रीब आने दिया. लेकिन, चीन के आक्रामक विस्तारवाद के चलते, कम से कम अब भारत अपनी गहरी नींद से एक झटके में जागा है. ऐसे ही अब चीन के ख़तरे को लेकर अमेरिका की आंख भी खुली है. क्योंकि अब अमेरिका को अचानक ये लगने लगा है कि चीन न तो विनम्र है और न ही कोई शांति प्रिय देश है.
चीन के आक्रामक विस्तारवाद के चलते, कम से कम अब भारत अपनी गहरी नींद से एक झटके में जागा है. ऐसे ही अब चीन के ख़तरे को लेकर अमेरिका की आंख भी खुली है. क्योंकि अब अमेरिका को अचानक ये लगने लगा है कि चीन न तो विनम्र है और न ही कोई शांति प्रिय देश है.
कई बरसों से अमेरिका के अधिकारी बड़ी ईमानदारी से अपने भारतीय समकक्षों से ये कहते रहे हैं कि, भारत के पूरब की ओर अमेरिका और भारत के 95 प्रतिशत हित एक जैसे हैं. जबकि भारत के पश्चिम में दोनों के हितों में केवल पांच प्रतिशत का मेल है. इनमें से जो मतभेद के प्रमुख क्षेत्र हैं, वो निर्विवाद रूप से ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान हैं. लेकिन, अब दूसरे देशों द्वारा उठाए गए क़दम से ऐसे हालात बन गए हैं कि अब भारत के पश्चिमी ओर भी अमेरिका और उसके हित, भले ही पूरब की तरह लगभग एक जैसे न हुए हों, लेकिन कम से कम 50 फ़ीसद तो एक जैसे हो गए हैं. अब ईरान के चीन के खेमे में चले जाने से भारत के लिए अपने हितों को अमेरिका के साथ तालमेल बिठाना काफ़ी आसान हो गया है. अब इसमें इस संभावना को भी जोड़ लें कि अफग़ानिस्तान में भी भारत को हाशिए पर धकेल दिया जाएगा, तो अमेरिका और भारत के हितों के टकराव का एक और मोर्चा ढह जाता है. भारत और अमेरिका के समीकरणों से अफ़ग़ानिस्तान के बाहर होने के बाद, भारत के लिए पाकिस्तान की पहेली को हल कर पाना भी आसान हो जाएगा. अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना हटने के बाद, पश्चिमी देशों के लिए पाकिस्तान की उपयोगिता बेहद कम रह जाएगी. अब अगर हम इस बात को ध्यान में रखें कि पाकिस्तान उस चीन का ग़ुलाम देश है, जिसके खिलाफ़ अमेरिका को गठबंधन बनाना है, तो पाकिस्तान को लेकर भारत के साथ उसके वो मतभेद अपने आप ख़त्म हो जाएंगे, जो लंबे समय से दोनों देशों के क़रीब आने की राह में रोड़े बने हुए हैं.
भारत के पूर्वी क्षेत्र में चीन लगातार अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा रहा है. नेपाल की सरकार का खुल कर भारत विरोधी रुख अपनाना इस बात की बस छोटी सी मिसाल है. ऐसे में भारत की सामरिक चुनौतियां लगातार बढ़ती जा रही हैं. चीन और पाकिस्तान के साथ एक समय पर युद्ध की आशंका से भारत पहले से ही जूझ रहा था. अब डर इस बात का है कि इसी दौरान भारत के ख़िलाफ़ कई और मोर्चे भी खुल सकते हैं. ऐसे में चीन द्वारा अपनी सामरिक घेरेबंदी की हदों से बाहर निकलने के लिए भारत को अमेरिका और उसके सहयोगियों से नज़दीकी और बढ़ानी चाहिए. ये एक ऐसा फ़ैसला है, जिसे लेने से भारत लंबे समय से कतराता रहा है. लेकिन, चीन की दुश्मनी और विस्तारवाद के साथ साथ इस क्षेत्र के अन्य देशों द्वारा चीन से नज़दीकी बढ़ाने के कारण, अब भारत के पास ये अवसर है कि वो अपने सामरिक संकोचों का परित्याग कर दे. क्योंकि इन्हीं के चलते, भारत किसी एक देश के साथ खुलकर खड़ा होने से बचता आया था.
भारत की सामरिक चुनौतियां लगातार बढ़ती जा रही हैं. चीन और पाकिस्तान के साथ एक समय पर युद्ध की आशंका से भारत पहले से ही जूझ रहा था. अब डर इस बात का है कि इसी दौरान भारत के ख़िलाफ़ कई और मोर्चे भी खुल सकते हैं.
अब ये साफ़ दिख रहा है कि भारत एक नए शीत युद्ध के केंद्र में बैठा हुआ है. ये कोल्ड वॉर उसके चारों और फैल रहा है. ऐसे में ये बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत उस सवाल की धुरी बन चुका है कि आने वाले समय में दुनिया कैसे और किस दिशा में चलेगी. अगर भारत समझदारी से अपनी चालें चलता है, तो उसे इस शीत युद्ध से सबसे अधिक लाभ हो सकता है. वहीं, दूसरी ओर अगर भारत दुविधा का शिकार बना रहता है. और अपने पत्ते चलने से पहले और सोच विचार में उलझा रहता है, तो इस शीत युद्ध में सबसे ज़्यादा नुक़सान भी उसी का होगा. नए उभरते समीकरणों में भारत के लिए गुट निरपेक्ष बने रहने का विकल्प सबसे ख़राब होगा. भारत, चीन के साथ बिल्कुल भी नहीं जा सकता क्योंकि, चीन के साथ जाने का मतलब होगा उसकी गुलामी मंज़ूर करना. जबकि अमेरिका और उसके साथी देशों के साथ जाना असल में एक साझेदारी होगा. हालांकि, ये काफ़ी हद तक असमान साझेदारी होगी. दोनों देशों की शक्ति में व्यापक असंतुलन होने के कारण, ये तय है कि अपने गठबंधन में अमेरिका के पास ही नेतृत्व की कमान होगी. फिर भी, अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन के साथ जाने से भारत को व्यापार में भी फ़ायदा होगा और सुरक्षा के मोर्चे पर भी उसे लाभ होगा. अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन में भारत को बराबरी का दर्जा मिलने की संभावना ज़्यादा है. वहीं, अगर भारत चीन के साथ जुड़ा रहता है तो उसे चीन के शोषणवादी, दमनकारी, दंभी और विस्तारवादी रवैये का शिकार बनना पड़ेगा.
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