आईपीसीसी (जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल) की छठी आकलन रिपोर्ट (एआर6) ने पिछले दशक में वैश्विक सतह तापमान में 1850-1900 के स्तरों से लगभग 1.09°C की औसत वृद्धि का अनुमान लगाया है. कार्य समूह द्वितीय (WGII) की एआर 6 जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और जोख़िमों के साथ-साथ उन अनुकूलनों का आकलन करती है जो गैर-जलवायु वैश्विक चिंताओं जैसे जैव-विविधता की क्षति, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन, पारिस्थितिकी के अवनयन, बेलगाम शहरीकरण व जनसांख्यिकीय बदलावों, बढ़ती गैरबराबरी और सबसे हालिया कोविड-19 महामारी के संदर्भ में ज़रूरी हैं.[i]
युग्मित सामाजिक, जलवायु और पारिस्थितिक तंत्रों के बीच अंत:क्रिया को स्वीकार करते हुए, एआर 6 इन युग्मित तंत्रों के बीच अंत:क्रिया से उभर रहे जोख़िमों को समझने के क्रम में प्राकृतिक, पारिस्थितिक और सामाजिक विज्ञानों का उपयोग करती है तथा ऐसी अंत:क्रियाओं से उपजे जोख़िमों के खिलाफ़ हेजिंग (एक जगह से नुक़सान की दूसरी जगह से भरपाई) करते हुए भविष्य के लिए तर्कसंगत समाधान पेश करती है. WGII में, प्रभावों का आकलन एक्सपोज़र, जोख़िम और अनुकूलन के संदर्भ में किया गया है जिसमें टिकाऊ विकास के मॉडलों के आकलन और एक जलवायु-लचीले विकास की संभाव्यता शामिल हैं. जलवायु-लचीले विकास को अपनाने के लिए उन अवस्थाओं की ओर संक्रमण की ज़रूरत होती है जो जलवायु जोख़िमों को कम करें, अनुकूलन व न्यूनीकरण (मिटिगेशन) कार्रवाइयों को सशक्त बनाएं तथा सबसे अहम् है कि इन युग्मित तंत्रों को संरक्षित और फिर से दुरुस्त करें. इसी अनुरूप, यह रिपोर्ट ऊर्जा क्षेत्र में रूपांतरण और प्रणाली संक्रमणों; पारिस्थितिक तंत्रों के संरक्षण; शहरी एवं ग्रामीण अवसंरचना; और उद्योग व समाज पर ध्यान केंद्रित करती है.
जलवायु-लचीले विकास को अपनाने के लिए उन अवस्थाओं की ओर संक्रमण की ज़रूरत होती है जो जलवायु जोख़िमों को कम करें, अनुकूलन व न्यूनीकरण (मिटिगेशन) कार्रवाइयों को सशक्त बनाएं तथा सबसे अहम् है कि इन युग्मित तंत्रों को संरक्षित और फिर से दुरुस्त करें.
जलवायु संबंधी ख़तरों के संपर्क में आने से बहुत सारे जोख़िम खड़े हो सकते हैं, जिनका विभिन्न क्षेत्रों, सेक्टरों, समुदायों पर काफ़ी अलग-अलग असर हो सकता है जो प्रभावित मनुष्यों और पारिस्थितिक तंत्रों की कमज़ोरियों पर निर्भर करता है. ये जोख़िम जलवायु परिवर्तन न्यूनीकरण या अनुकूलन रणनीतियों से भी खड़े हो सकते हैं – एआर6 की जोख़िम अवधारणा के तहत इसे एक नया पहलू माना गया. जलवायु परिवर्तन पहले ही ख़ासा और लगातार बढ़ता अपरिवर्तनीय नुक़सान उत्पन्न कर चुका है, जिसका विस्तार तमाम सामाजिक-आर्थिक-पारिस्थितिक तंत्रों तक है. बार-बार घटित हो रहीं उच्च तीव्रता वाली जलवायु व मौसम संबंधी अतियों ने विभिन्न क्षेत्रों के लाखों जोखिमग्रस्त लोगों को ग़रीबी रेखा के नीचे धकेल दिया है, जिनका सामना गंभीर खाद्य एवं पोषण असुरक्षा, पानी की क़िल्लत, रोज़गार संबंधी जोख़िम और बुनियादी आजीविका गंवाने से हो रहा है. इसके अलावा, इसने भोजन-जनित, जल-जनित या वेक्टर-जनित बीमारियों के साथ-साथ व्यापक विस्थापन (मजबूरन पलायन) से उत्पन्न मानवीय संकटों की घटनाओं को भी बढ़ा दिया है. इस तरह के ज़्यादातर प्रभाव ग्लोबल साउथ और आर्कटिक क्षेत्र के देशों में केंद्रित रहे हैं.
रिपोर्ट के अनुमानों के मुताबिक, वैश्विक स्तर पर 3.3 से 3.6 अरब लोगों पर जलवायु परिवर्तन से जुड़े जोखिमों की चपेट में आने का ख़तरा मंडरा रहा है. इन्सानों पर जोखिम के वैश्विक केंद्रबिंदु ख़ास तौर पर ग्लोबल साउथ, लघु द्वीपीय विकासशील राष्ट्रों और आर्कटिक – क्षेत्रों में सघन रूप से स्थित हैं, जहां चरम ग़रीबी, शासन संबंधी चुनौतियां, संसाधनों तक सीमित पहुंच, हिंसक संघर्ष तथा जलवायु-संवेदनशील आजीविकाओं में उच्च संलग्नता दर है.
प्रमुख चुनौतियां : खाद्य असुरक्षा और पानी की क़िल्लत
जलवायु-जनित जोख़िमों के साथ बढ़े संपर्क (एक्सपोज़र) ने खाद्य एवं पोषण सुरक्षा हासिल करने की संभावना को क्षीण किया है, ख़ास तौर पर दुनिया के जोख़िमग्रस्त क्षेत्रों में. समुद्र-स्तर में ख़ासी वृद्धि के साथ, बार-बार उच्च तीव्रता वाले और गंभीर सूखे, बाढ़ व लू ऐसे जोखिमों को बढ़ाना जारी रखते हैं, ख़ासकर कम अनुकूलन क्षमता वाले क्षेत्रों के लिए. उच्च ग्लोबल वॉर्मिंग की ये राहें मध्यम अवधि में खाद्य एवं पोषण सुरक्षा के लिए और भी ज़्यादा जोख़िम पेश करेंगी. नतीजतन, उप-सहारा अफ्रीका, दक्षिण एशिया, मध्य व दक्षिण अमेरिका के देश तथा छोटे द्वीप ऐसे जोख़िमों के अच्छे ख़ासे ख़तरे में बने रहेंगे. ग्लोबल वॉर्मिंग के साथ धीरे-धीरे मिट्टी की सेहत बिगड़ने और प्राकृतिक प्रकियाओं में बदलाव को देखते हुए, समुद्री जीवों के बायोमास में ख़ासी कमी आने तथा ज़मीन पर और महासागर में भोजन उत्पादकता में बदलाव की उम्मीद है. पानी की उपलब्धता में कमी और बहुत से क्षेत्रों में धाराओं के प्रवाह में बदलाव, जो मुख्यत: उत्तर व दक्षिण अमेरिका, भूमध्यसागरीय क्षेत्र और दक्षिण एशिया में है, खाद्य सुरक्षा के लिए कुछ अतिरिक्त चुनौती पेश करते हैं.
एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व के विकासशील देशों में आबादी के बढ़ते दबाव ने पानी की ख़राब गुणवत्ता, कम उपलब्धता, सीमित पहुंच और ख़राब जल प्रबंधन से जुड़े संकट को और बढ़ाना जारी रखा हुआ है. लिहाज़ा, इन क्षेत्रों में भूगर्भ जल संसाधनों का और ज़्यादा तेज़ी से क्षरण संभावित है.
एआर 6 के मुताबिक़, 7.8 अरब में से लगभग 4 अरब लोग जलवायु और गैर-जलवायु कारकों की अंत:क्रिया के चलते साल में कम-से-कम एक महीना पानी की भारी कमी का सामना करते हैं. एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व के विकासशील देशों में आबादी के बढ़ते दबाव ने पानी की ख़राब गुणवत्ता, कम उपलब्धता, सीमित पहुंच और ख़राब जल प्रबंधन से जुड़े संकट को और बढ़ाना जारी रखा हुआ है. लिहाज़ा, इन क्षेत्रों में भूगर्भ जल संसाधनों का और ज़्यादा तेज़ी से क्षरण संभावित है. सिंचाई के अभाव और बारिश के बदलते पैटर्न के चलते, अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में, मुख्यत: भूमध्यसागर, उप-सहारा अफ्रीका, दक्षिण एशिया और ऑस्ट्रेलिया में, प्रमुख फ़सलों की उपज में पहले ही नकारात्मक वृद्धि देखी जा रही है.
शहरी इलाकों के लिए बात करें, तो इस दशक में, दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में लगभग तीन-चौथाई शहरी ज़मीन के बार-बार बाढ़ का सामना करने का अनुमान है, जबकि अफ्रीका के कुछ हिस्से उसी तीव्रता के गंभीर सूखों का अनुभव कर सकते हैं. अनुकूलन के बग़ैर, जलवायु परिवर्तन के ये जल-संबंधी प्रभाव न सिर्फ़ खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर नतीजे पेश करते हैं, बल्कि ऐसी संभावना है कि ये 2050 तक वैश्विक जीडीपी में 0.49 फ़ीसद की गिरावट का योगदान करेंगे. हालांकि, इसमें ठीक-ठाक क्षेत्रीय भिन्नता रहेगी. अनुमान बताते हैं कि मध्य पूर्व में यह गिरावट 14 फ़ीसद, साहिल में 11.7 फ़ीसद, मध्य एशिया में 10.7 फ़ीसद और पूर्वी एशिया में 7 फ़ीसद के आसपास रहेगी. यहां तक कि एक क्षेत्र के भीतर भिन्न आय स्तर वाले देशों में, इस तरह के जल-संबंधी प्रभावों का समग्र आर्थिक वृद्धि पर प्रभाव अलग-अलग रहने का अनुमान है.
एक जलवायु-लचीले विकास को अपनाना है रास्ता
यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन-जनित जोख़िमों के संपर्क में आना और उनका ख़तरा मंडराना देशों और समुदायों द्वारा अपनायी गयी विकास की दिशा, उनके उपभोग और उत्पादन के पैटर्न, जनसांख्यिकीय दबाव की सीमा और प्रकृति तथा पारिस्थितिक तंत्र और संबंधित सेवाओं के गैर-टिकाऊ उपयोग व प्रबंधन से काफ़ी प्रभावित होता है. आगे चलकर, खाद्य सुरक्षा लक्ष्य हासिल करने के लिए जलवायु जोख़िमों और उन गैर-जलवायु कारकों से निपटना होगा जिनकी वजह से वन आच्छादन अवनयन (जैव-विविधता की क्षति समेत), भूमि अवनयन, उसका मरुस्थलीकरण तथा डूब (मुख्यत: तटीय इलाक़ों में), गैर-टिकाऊ कृषि का विस्तार, भूमि-उपयोग परिवर्तन, और पानी की क़िल्लत हो रही है.
सभी सेक्टरों तक विस्तृत एक व्यवस्थागत स्तर पर अनुकूलन की योजना और उसे लागू करने पर ज़्यादा जोर देना होगा. इस लिहाज़ से, बढ़ती जन जागरूकता और राजनीतिक संज्ञान के बीच, WGII एआर 6 नीति-निर्माताओं और समुदायों को जलवायु-लचीले विकास की राह अपनाने के लिए प्रेरित करती है, साथ ही इसकी सीमाओं और ख़राब अनुकूलन के संभावित प्रभावों के प्रति आगाह करती है. जलवायु परिवर्तन से जुड़े जल-संबंधी जोखिमों के संदर्भ में, रिपोर्ट से एक उदाहरण को उद्धृत करें तो, गैर-संरचनात्मक उपायों (जैसे अर्ली वॉर्निंग सिस्टम); संरचनात्मक उपायों (जैसे आर्द्रभूमियों और नदियों की मूल स्थिति बहाल कर प्राकृतिक जल धारण क्षमता में वृद्धि, तटबंध; भूमि उपयोग की योजना और वन प्रबंधन; खेत में जल भंडारण और प्रबंधन; और मृदा संरक्षण व सिंचाई) का एक पूरक डिजाइन पानी के आर्थिक, संस्थानिक तथा पारिस्थितिकीय लाभों को सुनिश्चित करने में प्रभावी हो सकता है. टिकाऊ खाद्य प्रणालियों को बढ़ावा देने और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए खेती-बाड़ी के टिकाऊ तरीक़ों, कृषि-वानिकी तथा पारिस्थितिक तंत्र की बहाली और इसे हक़ीक़त बनाने के लिए सार्वजनिक नीतियों को समुदायों द्वारा अपनाये जाने की ज़रूरत होगी.
इस लिहाज़ से, बढ़ती जन जागरूकता और राजनीतिक संज्ञान के बीच, WGII एआर 6 नीति-निर्माताओं और समुदायों को जलवायु-लचीले विकास की राह अपनाने के लिए प्रेरित करती है, साथ ही इसकी सीमाओं और ख़राब अनुकूलन के संभावित प्रभावों के प्रति आगाह करती है.
दिलचस्प ढंग से, एआर 6 जलवायु न्याय पर आधारित प्रभावी और व्यवहार्य अनुकूलन समाधानों को रेखांकित करती है, जो विविध सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टिकोणों की मान्यता से अनुपूरित वितरणात्मक एवं प्रक्रियात्मक न्याय को ज़रूरी बनाता है. संकलित और समावेशी व्यवस्था-आधारित समाधान, जो समता और न्याय पर आधारित हों, जोख़िमों को घटा सकते हैं और जलवायु-लचीले विकास को समर्थ बना सकते हैं. समावेशी प्रक्रियाएं, जो प्रभावी अनुकूलन नतीजों में योगदान करने की राष्ट्रों की क्षमता को मज़बूत करती हैं, जलवायु-लचीले विकास को समर्थ बना सकती हैं.
[i] This article is based on a technical summary of the Working Group II’s contribution to the Intergovernmental Panel on Climate Change’s (IPCC) Sixth Assessment Report, titled “Climate Change 2022: Mitigation of Climate Change”, released on 28thFebruary 2022, announced until 1st October 2021.
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