माइक्रोसॉफ्ट जैसी कुछ कंपनियों ने कार्बन उत्सर्जन शून्य करने के साथ-साथ ऐतिहासिक यानी पिछले उत्सर्जन को भी कम करने का लक्ष्य रखा है
बहुत से देशों ने अपने यहां कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने का वादा किया है. उन्होंने ये वचन या तो क़ानून बनाकर दिए हैं. या फिर वो ऐसी नीतियां बनाने की प्रक्रिया में हैं. अब तक पेरिस समझौते में शामिल पाँच देशों ने कार्बन उत्सर्जन शून्य करने के लिये क़ानून पारित कर दिए हैं (Figure 1). ये निश्चित रूप से एक सकारात्मक बदलाव है. लेकिन, इन योजनाओं और इन फ़ैसलों के प्रभाव क्या होंगे, इसका विश्लेषण कर पाना बहुत मुश्किल है. इसकी बड़ी वजह यही है कि कार्बन उत्सर्जन को शून्य करना या ‘नेट ज़ीरो’ की परिभाषा बहुत व्यापक है.
जलवायु परिवर्तन से जुड़े अंतर-सरकारी पैनल ने नेट ज़ीरो की जो परिभाषा तय की है, उसके मुताबिक़, इसका मतलब है- वर्ष 2050 तक कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन इस तरह ‘शून्य’ करना, जिससे ग्लोबल वॉर्मिंग ‘औद्योगीकरण के दौर से पहले के यानी 1.5 डिग्री सेल्सियस के स्तर पर’ रहे. हालांकि, इस बात की कोई परिभाषा तय नहीं है कि नेट ज़ीरो का मतलब क्या है. इसका नतीजा ये हुआ है कि हर देश अपने हिसाब से इसका मतलब निकाल रहा है. उदाहरण के लिए, यूरोपीय संघ ने वचन दिया है कि वो इसके तहत सभी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन रोकेगा. वहीं, चीन ने अपने नेट ज़ीरो के लक्ष्य में केवल कार्बन डाई-ऑक्साईड के उत्सर्जन को शून्य करने का लक्ष्य रखा है.चीन ने मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड को अपने शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य का हिस्सा नहीं बनाया है. कुल मिलाकर, अब तक 25 देशों ने ही ग्रीनहाउस गैसों को अपने शून्य कार्बन उत्सर्जन के वादे का हिस्सा बनाया है.इसके अलावा क्लाइमेट वॉच के आंकड़े बताते हैं कि ऐसे केवल पांच देश हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय परिवहन (यानी समुद्री और वायु यातायात) को अपने लक्ष्यों का हिस्सा बनाया है.
चीन ने मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड को अपने शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य का हिस्सा नहीं बनाया है. कुल मिलाकर, अब तक 25 देशों ने ही ग्रीनहाउस गैसों को अपने शून्य कार्बन उत्सर्जन के वादे का हिस्सा बनाया है.
इसी तरह कंपनियों के शून्य उत्सर्जन के लक्ष्यों में भी अंतर दिखता है. माइक्रोसॉफ्ट जैसी कुछ कंपनियों ने कार्बन उत्सर्जन शून्य करने के साथ-साथ ऐतिहासिक यानी पिछले उत्सर्जन को भी कम करने का लक्ष्य रखा है. वहीं, कुछ अन्य कंपनियों ने अपने कारोबार के केवल एक हिस्से को नेट ज़ीरो के लक्ष्य का हिस्सा बनाया है. ऐसी कंपनियां अपने कारोबार के बाक़ी क्षेत्रों में जीवाश्म ईंधन का उपयोग जारी रखे हुए हैं. एकअध्ययनमें पता चला है कि तमाम कंपनियों द्वारा किए गए वादे के नमूनों की पड़ताल करें, तो उनके लक्ष्यों और ग्रीनहाउस गैसों में काफ़ी फ़र्क़ दिखता है. इसमें ग्रीनहाउस गैसों की जगह दूसरे विकल्प इस्तेमाल करने और उत्सर्जन से कंपनी की गतिविधियों को शामिल करने के साथ साथ, वैल्यू चेन और उत्पादों को भी इन लक्ष्यों का हिस्सा बनाने में भी काफ़ी अंतर दिखता है.
फिर इसके बाद बड़ा सवाल उठता है, समानता का. 2050 का लक्ष्य वैज्ञानिकों के बीच सहमति के बाद सभी देशों के लिए रखा गया है. कार्बन उत्सर्जन शून्य करने से धरती के तापमान में उतार-चढ़ाव को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने में मदद मिलेगी. लेकिन, अगर हम धरती के कुल उत्सर्जन की बात करें, तो उस लिहाज़ से इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करके भी जलवायु परिवर्तन के मौजूदा संकट से नहीं निपटा जा सकता है. अमेरिका जैसे देशों को इसके लिए 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने का लक्ष्य हासिल करना होगा; न कि मौजूदा तय वर्ष 2050 तक.
ऐसे में इस बात पर बहस की पूरी गुंजाइश दिखती है कि क्या विकासशील देशों पर भी विकसित देशों के बराबर समय के भीतर नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने का दबाव बनाना उचित है. इसके अलावा 2050 की मंज़िल तक पहुंचने से पहले के अंतरिम लक्ष्य भी आर्थिक फ़ैसलों को प्रभावित करेंगे. ऑस्ट्रेलिया ने अब तक कार्बन उत्सर्जन शून्य करने की समय-सीमा घोषित नहीं की है और ज़्यादा बड़े लक्ष्य हासिल करने की मांग का विरोध करने के लिए उसकी आलोचना भी हो रही है.
हाल ही में अमेरिका ने जलवायु फंड में अपना योगदान बढ़ाकर 100 अरब डॉलर करने का ऐलान किया है. ये एक सकारात्मक क़दम है, जो ये दिखाता है कि अमेरिका, पेरिस जलवायु समझौते के लक्ष्य हासिल करने को लेकर फिर से प्रतिबद्ध है.ट्रंप के शासन काल में अमेरिका के जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य हासिल करने के वादे को झटका लगा था. हालांकि, ये अभी भी साफ़ नहीं किया गया है कि ये लक्ष्य हासिल कैसे किए जाएंगे.जलवायु फंड में हर विकसित देश कितने का योगदान करेगा या फिर इसमें से कितना पैसा जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य हासिल करने के लिए ज़रूरी बदलाव में निवेश किया जाएगा. इसके अलावा अब जबकि जलवायु परिवर्तन से हिसाब से बदलाव में खरबों डॉलर के निवेश की ज़रूरत है, तो केवल 100 अरब डॉलर का वादा, ज़रूरत को देखते हुए बेहद बुनियादी स्तर का है. इसे जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने की दिशा में बढ़ा पहला क़दम ही माना जा रहा है.
ट्रंप के शासन काल में अमेरिका के जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य हासिल करने के वादे को झटका लगा था. हालांकि, ये अभी भी साफ़ नहीं किया गया है कि ये लक्ष्य हासिल कैसे किए जाएंगे.
और आख़िर में उत्सर्जन रोकने के लिए घरेलू निवेश बनाम अन्य देशों को मदद का सवाल भी है. जब सभी देश संयुक्त राष्ट्र को अपने यहां के उत्सर्जन संबंधी रिपोर्ट सौंपते हैं, तो वो केवल ये बताते हैं कि उन्होंने अपने यहां कितना जीवाश्म ईंधन इस्तेमाल किया. G7 देशों की बैठक के बाद से ऑस्ट्रेलिया पर इस बात का दबाव भी बढ़ रहा है कि वो कोयले से चलने वाले विदेशी बिजलीघरों की मदद करे. ऑस्ट्रेलिया, कोयले का सबसे बड़ा निर्यातक है. चीन ने भी अपने बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत कोयले से बिजली बनाने के कई प्रोजेक्ट में निवेश किया है. विदेशों में प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों में निवेश से इन देशों के कार्बन उत्सर्जन का बोझ भविष्य में सीधे-सीधे कम विकसित और कमज़ोर देशों के ऊपर चला जाएगा. रिसर्च से पता चला है कि कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए बस अपने यहां के प्रदूषण का बोझ दूसरे देश पर डाल देने भर से काम नहीं चलने वाला. फिगर- 3 के आंकड़े दिखाते हैं कि अब तक केवल छह देश ही ऐसे हैं, जिन्होंने अपने लक्ष्यों से अन्य देशों पर डाले गए कार्बन उत्सर्जन के बोझ को अलग रखा है.
पर्यावरण से ग्रीनहाउस गैसों को हटाना बहुत पेचीदा काम है. कार्बन उत्सर्जन को जमा करने वाली तकनीक़ अभी सटीक साबित नहीं हुई है. इसमें अभी और निवेश की ज़रूरत है. इसके अलावा हरित प्रोजेक्ट से कार्बन क्रेडिट हासिल करना जैसे कि पेड़ लगाने के अपने जोख़िम हैं. आगे बढ़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा तो ये होगा कि सीधे कार्बन उत्सर्जन को कम किया जाए. लेकिन, ये बात भी साफ़ है कि कोयले पर निर्भरता कम करना मुश्किल है. अपनी हालिया पंचवर्षीय योजना में चीन ने कहा है कि वो अपनी ऊर्जा सुरक्षा के लिए कोयले का इस्तेमाल करना जारी रखेगा.भारत के लिए भी, आगे चलकर भले ही कोयले का प्रयोग कम करना होगा. लेकिन, इसमें समय काफ़ी लगेगा.चूंकि- ग्रीनहाउस गैसों का 70 प्रतिशत उत्सर्जन जीवाश्म ईंधन से ही आता है. ऐसे में कोयले का इस्तेमाल कम करना या बंद करना बहुत अहम है.
भारत के लिए भी, आगे चलकर भले ही कोयले का प्रयोग कम करना होगा. लेकिन, इसमें समय काफ़ी लगेगा.
शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य जलवायु परिवर्तन से निपटने में अहम भूमिका निभा सकते हैं, बशर्ते निजी क्षेत्र, कारोबारों और सार्वजनिक क्षेत्रों को उनके बारे में सही संकेत दिए जाएं, जिससे कि निवेशक और कारोबारी फ़ैसले इन लक्ष्यों पर आधारित हों. जलवायु परिवर्तन से जुड़ी लक्ष्य हासिल करने के लिए भारत के लक्ष्य अहम होंगे और भारत को शून्य उत्सर्जन की मंज़िल तक पहुंचने के लिए बड़े लक्ष्य और सटीक योजनाएं बनानी होंगी. जवाबदेही तय करने और सही आकलन के लिए, उत्सर्जन मापने के पैमाने और प्रक्रिया भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं.
इसके अलावा, विकसित देशों को पेरिस समझौते के तहत किए गए अपने वित्तीय वादे पूरे करने के लिए ठोस क़दम उठाने पड़ेंगे. मदद और रियायती क़र्ज़ के रूप में दी जाने वाली पूंजी को भी बढ़ाने की ज़रूरत है. इस लिहाज़ से COP 26 बेहद अहम होगा और ये शायद आख़िरी मौक़ा है, जब सभी देश साथ आकर अहम पहलुओं पर चर्चा करें और आम सहमति बनाएं.
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