Published on Apr 15, 2019 Updated 0 Hours ago

अगर न्याय को गरीबों का संकट खत्म करना है तो इसका कवरेज प्रस्तावित योजना से दोगुनी — रु. 60,000 प्रति घर के निम्नतम अनुदान के साथ 100 मिलियन घर होना चाहिए जो रु. 6 ट्रिलियन या जीडीपी का 3 प्रतिशत होगा, जोकि समस्त सार्वजनिक निवेश एवं रक्षा राजस्व बजट को एक साथ मिलाने के बराबर होगा।

गरीबों के लिए ‘न्याय’ का दावा, लेकिन किस कीमत पर

भाजपा के चुनावी गणित को गड़बड़ कर देने वाला राहुल गांधी का दमदार चुनावी तीर पांच करोड़ लोगों में से प्रत्येक को या 20 प्रतिशत निर्धनतम घरों को रु. 72,000 हस्तांतरित करने वाली एक मेगा कल्याणकारी योजना है। इस पर रु. 3.6 ट्रिलियन या जीडीपी के 1.8 प्रतिशत का खर्च आएगा।

इस घोषणा का उद्वेश्य राजनीतिक है अर्थात ऐसे हर कदम की हवा निकाल देना जिसकी योजना भाजपा बना सकती है, जैसाकि नरेन्द्र मोदी ने 2014 में विदेशों में जमा ‘चुराई गई परिसंपत्तियों’ को वापस लाने के द्वारा गरीबों के खाते में 15 लाख रुपये जमा करने का वादा किया था और जो पूरा नहीं हो पाया। इसके अतिरिक्त, ‘न्याय’ वर्तमान में जारी किसी ‘सामाजिक आर्थिक सब्सिडी’ को खत्म नहीं करेगा। यह अधिकतम चुनावी लाभ हासिल करने का एक चतुर सियासी दांव है।

आईये देखें कि केंद्र सरकार पर सब्सिडी पर बोझ है कितना अधिक ? केंद्रीय बजट में साफ साफ कहा गया है कि यह रु. 2.96 ट्रिलियन या जीडीपी का 1.3 प्रतिशत है जिसमें 62 प्रतिशत गरीबों के लिए खाद्य की खुदरा कीमतों को कम करने के लिए, 25 प्रतिशत किसानों के लिए उर्वरकों की कीमत को कम करने के लिए एवं शेष 13 प्रतिशत रसोईगैस की कीमत को कम करने के लिए है। लेकिन यह मसला यहीं समाप्त नहीं हो जाता।

घरेलू रूप से उत्पादित प्राकृतिक गैस का मूल्य निर्धारण आयातित गैस की कीमत से कम पर किया जाता है। यह उपकरण (डिवाइस) बिजली की कीमत एवं उर्वरक उत्पादन के लिए इनपुट की कीमत को बाजार मूल्य से कम रखता है। इसके अतिरिक्त, निम्न आय परिवारों तथा किसानों के लिए बिजली का मूल्य निर्धारण राज्य बिजली केंद्रों (यूटिलिटीज) द्वारा लागत से कम पर किया जाता है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक सस्ते ऋण-प्रत्यक्ष कर्ज — उपलब्ध कराते हैं। कृषि एवं लघु उद्योगों को ऋण सामान्य ब्याज दर से चार प्रतिशत अंक कम पर उपलब्ध कराए जाते हैं।

मध्य वर्ग एवं संपन्न वर्गों को विशिष्ट बचतों और सरकारी ऋण या इक्विटी में निवेश करने पर आंशिक रूप से कम आय कर देना पड़ता है। किराये पर दी गई संपत्ति और खुद के स्वामित्व वाले व्यवसायों में पूंजीगत निवेश से प्राप्त आय पर कर छूट प्राप्त होती है जो कर भुगतान करने के सामान्य प्रवेश बिंदु को प्रभावी तरीके से रु. 0.25 मिलियन से बढ़ा कर रु. 0.8 मिलियन कर देता है। न ही संपदा और न विरासत में प्राप्त संपत्ति पर कोई कर लगता है। माकपा और कांग्रेस के भीतर के कुछ धड़े इस बात पर सहमत हैं कि संपन्न वर्गों के लिए ऐसी कर छूटों को समाप्त किया जा सकता है।

आलोचकों का मानना है कि कांग्रेस को अपने दम पर बहुमत पाने की संभावना नहीं है इसलिए वह आराम से ऐसे सपने देख सकती है। राहुल गांधी भले ही राजनीतिक रूप से भोले भाले हों लेकिन वह एक ईमानदार व्यक्ति हैं। इस बात की काफी संभावना है कि वास्तव में उनका विश्वास हो कि एक लक्षित नकदी हस्तांतरण सचमुच ‘गरीबी को खत्म’ कर सकता है। लेकिन यह तब तक नहीं हो सकता जबतक हम मेगा ट्रांसफर के लिए विशिष्ट समूहों या सेक्टर को दी जाने वाली (नॉन-मेरिट) मौजूदा सब्सिडी की आंशिक रूप से अदायगी नहीं करते।

विश्व बैंक ने दशकों पहले गरीबी को खत्म करने का ‘सपना’ देखा था। लेकिन चीन ने रास्ता दिखाया। एक कम्युनिस्ट अर्थव्यवस्था होने के बावजूद उसने सब्सिडी उपलब्ध कराने का रास्ता अख्तियार नहीं किया। उन्होंने बड़ी तेजी से रोजगारों का सृजन और विस्तार किया। लेकिन चीन के रास्ते का अनुसरण करना धीरे धीरे कठिन होता जा रहा है। दुनिया अब मंदी के चरण में प्रवेश कर चुकी है। चीन के पास प्रचुर विदेशी मुद्रा भंडार द्वारा समर्थित विशाल मात्रा में अतिरिक्त क्षमता है। वे किसी भी निर्यात प्रतियोगिता में दूसरों से आगे निकल सकते हैं।

वस्तुओं का हमारा निर्यात पिछले तीन वर्षों से स्थिर है। हमें रोजगारों की सख्त आवश्यकता है जिसके लिए बुनियादी ढांचे-विशेष रूप से कोल्ड चेन, भंडारण, अधिक सुसज्जित डिजिटल रूप से जुड़े बाजार एवं खाद्य प्रसंस्करण उद्योग जैसे ग्रामीण बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक निवेश आवश्यक है जिससे कि आर्थिक विकास एवं इस रोजगार परक क्षेत्र में आय में बेहतरी आए।

केंद्र सरकार पूंजीगत निवेश पर केवल रु. 3.4 ट्रिलियन-रु. 28 ट्रिलियन की इसकी शुद्ध प्राप्तियों का 12 प्रतिशत खर्च करती है। यह 20 प्रतिशत के आवश्यक आवंटन से काफी कम है। न्याय का वित्तपोषण अस्थायी रूप से सार्वजनिक निवेश में कमी लाने के जरिये किया जा सकता है। लेकिन खो चुके रोजगारों की अल्पकालिक लागत और गवां चुके आर्थिक विकास की मध्यम कालिक लागत इसे एक विनाशकारी जीत साबित करेगी।

न्याय के वित्तपोषण का एक अन्य ‘नरम’ विकल्प केंद्रीय प्रायोजित योजनाओं पर परिव्यय में कमी करना है। इनका कार्यान्वयन राज्य सरकारों की साझीदारी में किया जाता है जिस पर इस वित्तीय वर्ष में रु. 8.6 ट्रिलियन व्यय हुआ। इनका लक्ष्य नागरिकों का ‘कल्याण’ — बेहतर स्वास्थ्य एवं शिक्षा परिणाम, ग्रामीण अवसंरचना, पीने का पानी एवं स्वच्छता है। उन्हें खत्म करने से गरीबी के व्यापक यूएनडीपी सूचकांक में और भी कमी आ जाएगी, भले ही हम अगले वर्ष अस्थायी रूप से आय निर्धनता को समाप्त भी कर दें।

गरीबी के बहुआयामी सूचकांक पर 2018 की यूएनडीपी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 47 प्रतिशत भारतीय या तो गरीब (27.5 प्रतिशत) हैं या दुर्घटनाओं या रोजगार खत्म होने जैसे आर्थिक झटकों केे कारण गरीब हो जाते (19 प्रतिशत) हैं।

चयनशील कल्याण हस्तांतरण के प्रयोजन के लिए दोनों समूहों में अंतर नहीं किया जा सकता। किसी एक खास वक्त किसी व्यक्ति की आय के त्वरित चित्रण के द्वारा गरीबी की व्याख्या नहीं की जा सकती और या तो विश्व बैंक की 1.90 डॉलर प्रति दिन की गरीबी रेखा या पुराने, स्वदेशी तेंदुलकर की तर्ज पर गरीबी को परिभाषित करना लक्षित करने से लिहाज से उचित नहीं है। लोग गरीबी की लाल रेखा में फंसते और इससे बाहर आते रहते हैं। यूएनडीपी की प्रणाली में अधिक मानक माप — घर, साइकिल, या फोन, पीने के साफ पानी और स्वच्छता की सुविधा, स्कूल की सुविधा और उसमें उपस्थिति, शिशु मृत्यु दर एवं पोषण जैसी वास्तविक परिसंपत्तियों का स्वामित्व एवं गुणवत्ता — है। गरीबों की पहचान करने का यह एक अधिक उचित प्रणाली है।

अगर न्याय को गरीबों का संकट खत्म करना है तो इसका कवरेज प्रस्तावित योजना से दोगुनी — रु. 60,000 प्रति घर के निम्नतम अनुदान के साथ 100 मिलियन घर होना चाहिए जो रु. 6 ट्रिलियन या जीडीपी का 3 प्रतिशत होगा, जोकि समस्त सार्वजनिक निवेश एवं रक्षा राजस्व बजट को एक साथ मिलाने के बराबर होगा।

एक दूसरा तरीका भी है। सरकार रुपया छाप सकती है और उसे वितरित कर सकती है। राजकोषीय घाटा (एफडी) वर्तमान 4 प्रतिशत के निचले स्तर से बढ़कर जीडीपी के 7 प्रतिशत तक पहुंच जाएगा। लेकिन इतना राजकोषीय घाटा हम देख चुके हैं। वित्त वर्ष 2010 में राजकोषीय घाटा 6.6 प्रतिशत था जब यूपीए सरकार ने 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी से बाहर आने के प्रयास में अपना खर्च बढ़ाया था। उसी समय की तरह, मुद्रास्फीति भी वर्तमान 3 फीसदी के नीचे के स्तर से उछल जाएगी, उपभोग मांग बढ़ेगी जिससे बिजनेस बॉटम लाइन में सुधार आएगा, हम एक नकारात्मक ब्याज दर व्यवस्था, इससे जुड़ी सुस्त बैंक ऋण और गैर जिम्मेदार निवेश की ओर लौट आएंगे।

संपन्न वर्ग उपभोक्ताओं को अधिक कीमत पर वस्तुएं-सेवाएं उपलब्ध कराने के जरिये और धन संग्रह करेगा जिससे गरीबों को हस्तांतरित रु. 72,000 की क्रय शक्ति कम हो जाएगी। इसके तुरंत बाद सार्वजनिक बैंक की परिसंपत्तियां दबाव में आ जाएंगी। एक बार फिर से उन्हें राहत देने के लिए सार्वजनिक फंड का इस्तेमाल किया जाएगा। इसके बाद फिर से आर्थिक मंदी और रोजगार संकट की स्थिति पैदा हो जाएगी।

हमें इतिहास से सबक लेना चाहिए या अपनी अज्ञानता की कीमत चुकाने को अभिशप्त हो जाना चाहिए। भविष्य में ऐसा ही होने वाला है।


यह टिप्पणी मूल रूप से इ टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी थी।

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