Author : Shashidhar K J

Published on May 02, 2020 Updated 0 Hours ago

सरकारें और कंपनियां ये समझती हैं कि वायरस के असर से निपटने के लिए प्राइवेसी को सस्पेंड करना ज़रूरी है. लेकिन जब संकट गुज़र जाएगा तो इस लंबे-चौड़े निगरानी तंत्र का क्या होगा? इसे ख़त्म करने के लिए क्या क़दम उठाए जाएंगे?

कोविड-19  के कारण नागरिकों की ‘प्राइवेसी’ ख़तरे में!

कोविड-19 बीमारी के पूरी दुनिया में अभूतपूर्व ढंग से फैलने और मरने वालों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी के बाद गूगल और फेसबुक जैसी बड़ी तकनीकी कंपनियों ने महामारी पर नियंत्रण पाने में सरकार की मदद के लिए अपनी कोशिशें तेज़ कर दी हैं. इस महीने की शुरुआत में द वॉशिंगटन पोस्ट ने ख़बर दी कि गूगल और फेसबुक महामारी से लड़ाई में अमेरिकी सरकार से बात कर रही हैं. स्मार्टफ़ोन से यूज़र्स का लोकेशन डाटा बटोरकर दोनों कंपनियां सरकार से शेयर करेंगी. अमेरिका के बाद इन कंपनियों ने ये भी एलान किया है कि वो इस तरह का डाटा शेयर करने के लिए यूनाइटेड किंगडम की सरकार और कुछ टेलीकॉम कंपनियों से बात कर रही हैं ताकि वहां बीमारी का मुक़ाबला किया जा सके.

इसके पीछे आइडिया ये है कि यूज़र्स का डाटा इस्तेमाल करने से स्वास्थ्य अधिकारी देख सकेंगे कि क्या लोग वाकई में सामाजिक दूरी का पालन कर रहे हैं. उदाहरण के तौर पर अगर बहुत ज़्यादा आदमी किसी ख़ास जगह जा रहे हैं और एक साथ यात्रा कर रहे हैं तो अधिकारी डाटा का इस्तेमाल कर लोगों को ठहरने की जगह या उन्हें उनके घर तक पहुंचने में मदद कर सकेंगे.

एक और उपाय जिसका इस्तेमाल स्वास्थ्य अधिकारी करते हैं वो है कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग. इसमें लोकेशन डाटा का इस्तेमाल कर वास्तविक या संदिग्ध मरीज़ों की निगरानी की जा सकेगी और उन्हें मैसेज भेजकर अनुरोध किया जा सकेगा कि वो अपना टेस्ट करवाएं और संक्रमण को फैलने से रोकें. कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग अलर्ट में आम तौर पर संक्रमित व्यक्ति की उम्र, लिंग और उनके आवागमन का विस्तार से रिकॉर्ड शामिल रहता है. इसमें क्रेडिट कार्ड कंपनियों से मिले अतिरिक्त डाटा से मदद मिलती है. इस वक़्त चीन, ताइवान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और इज़रायल ने आपात उपायों के तहत मोबाइल फ़ोन के ज़रिए कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग को मंज़ूरी दी है.

अभी तक गूगल और फेसबुक ने कहा है कि वो यूज़र का सटीक लोकेशन डाटा सरकारों को नहीं दे रही हैं. गूगल ने कहा कि उसे कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग की इजाज़त देने के लिए कई अनुरोध मिले लेकिन उसके पास इस चीज़ के लिए उपयुक्त डाटा नहीं है. हालांकि इन तकनीकी दिग्गजों के लिए उपयुक्त डाटा नहीं होने का ये मतलब नहीं कि उनके पास इसकी क्षमता नहीं है. गूगल यूज़र के GPS लोकेशन डाटा की विस्तार से जानकारी रखता है. (यूज़र चाहें तो GSP को बंद कर इस निगरानी से बाहर निकल सकते हैं)

इस बीच फेसबुक के CEO मार्क ज़करबर्ग ने ध्यान दिलाया है कि डाटा फॉर गुड इनिशिएटिव के तहत कंपनी ने एक डिज़ीज़ प्रिवेंशन मैप विकसित किया है. ये मैप लोकेशन डाटा का इस्तेमाल कर त्रासदी की हालत में लोगों के आने-जाने पर नज़र रखता है. ये मैप मौजूदा डाटा से जोड़कर बनाया गया है. अभी तक इस मैप का इस्तेमाल मलावी में वैक्सिनेशन अभियान को तेज़ करने और मोज़ाम्बिक़ में कोलरा के ख़तरे का पता लगाने के लिए स्वास्थ्य अधिकारियों ने किया है. दूसरी तरफ़ गूगल ने अपनी सहयोगी कंपनी वेरिली के साथ मिलकर एक प्रोजेक्ट शुरू किया है जिसमें यूज़र अपनी मर्ज़ी से रिसर्चर और दवा कंपनियों के साथ अपना मेडिकल डाटा शेयर कर सकते हैं. ये प्रोजेक्ट अभी भी शुरुआती दौर में है और इसमें यूज़र को अपनी सेहत के बारे में एक प्रश्नावली भरने के लिए कहा जाता है. इसमें मिले इनपुट का इस्तेमाल कर यूज़र को सैन फ्रांसिसको बे एरिया की तीन टेस्टिंग साइट की तरफ़ भेज दिया जाता है.

इसमें कोई शक नहीं है कि ये टूल नीति निर्माताओं और रिसर्चर की इस बात में मदद करेंगे कि लोग सामाजिक दूरी के नियमों का पालन कर रहे हैं या नहीं. लेकिन प्राइवेसी का मुद्दा उठाने वाले पुरानी चिंताओं की तरफ़ ध्यान दिलाते हैं.

हालांकि तकनीकी कंपनियां कहती हैं कि वो यूज़र की गुमनामी को सुनिश्चित करेंगी लेकिन ये बार-बार देखा गया है कि तकनीक और डाटा कलेक्शन के ज़रिए यूज़र की पहचान हो गई है. उदाहरण के लिए 2018 के एक अध्ययन ने दिखाया कि कलाई में पहनने वाले एक्टिविटी ट्रैकर से जुटाया गया डाटा तकनीक की मदद से जगज़ाहिर हो गया. इस अध्ययन में इस्तेमाल डाटा में लोकेशन हटा दिया और सेहत की जानकारी बचा ली गई (जिसमें नाम, फ़ोन नंबर, ई-मेल इत्यादि शामिल हैं). अध्ययन ने दिखाया कि 4,720 वयस्कों में से 94.9% और 2,427 बच्चों में से 87.4% को सफलतापूर्वक पहचान लिया गया.

कोविड-19 महामारी के बारे में सबसे ज़्यादा चिंताजनक तथ्य ये है कि सरकारें ख़ुद अपनी मर्ज़ी से मरीज़ों और संभावित संक्रमित लोगों की संवेदनशील जानकारी मुहैया करा रही हैं. विज्ञान पत्रिका नेचर ने ध्यान दिलाया है कि अनगिनत एप और वेबसाइट बन गई हैं जो सरकारी वेबसाइट से वायरस पॉज़िटिव लोगों की जानकारी लेकर प्रकाशित कर रही हैं

लेकिन कोविड-19 महामारी के बारे में सबसे ज़्यादा चिंताजनक तथ्य ये है कि सरकारें ख़ुद अपनी मर्ज़ी से मरीज़ों और संभावित संक्रमित लोगों की संवेदनशील जानकारी मुहैया करा रही हैं. विज्ञान पत्रिका नेचर ने ध्यान दिलाया है कि अनगिनत एप और वेबसाइट बन गई हैं जो सरकारी वेबसाइट से वायरस पॉज़िटिव लोगों की जानकारी लेकर प्रकाशित कर रही हैं. इसमें वायरस पॉज़िटिव व्यक्ति की ट्रैवल हिस्ट्री, किस अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है, उम्र, लिंग, राष्ट्रीयता, दूसरे संक्रमित व्यक्ति से पारिवारिक रिश्ता इत्यादि जानकारी शामिल हैं. उदाहरण के तौर पर COVID19SG एक वेबसाइट है जो सिंगापुर के स्वास्थ्य मंत्रालय से जानकारी और डाटा हासिल करती है.

भारत में देखें तो कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्यों ने ऐसे अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों की जानकारी प्रकाशित करनी शुरू की है जिन्हें क्वॉरन्टीन के लिए कहा गया है. हालांकि इसमें यात्रियों का नाम नहीं बताया जाता है लेकिन उनके बारे में बाक़ी सभी जानकारी प्रकाशित की गई है जिनमें उनके घर का पता, पासपोर्ट नंबर और टिकट शामिल हैं.

ट्रेसिंग और ट्रैकिंग के ज़रिए प्राइवेसी में और भी ज़्यादा खलल हांगकांग में शुरू किया गया है जहां अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल से बाहर आने वाले यात्रियों को कलाई में पहने जाने वाला एक बैंड दिया जा रहा है. उन्हें एक एप डाउनलोड करने के लिए कहा जाता है जो उनकी लोकेशन पर नज़र रखता है ताकि उनके क्वॉरन्टीन को सुनिश्चित किया जा सके

प्राइवेसी पर रिसर्च करने वालों का कहना है कि हर मामले की जो ख़ास जानकारी प्रकाशित की जाती है, उससे वो चिंतित हैं. कोविड-19 से बीमार व्यक्ति या क्वॉरन्टीन किए गए लोगों की पहचान आसानी से हो सकती है और उनके प्राइवेसी के अधिकार का हनन होता है. इन हालात में प्राइवेसी छिनने से वो व्यक्ति सामाजिक भेदभाव का शिकार हो सकता है. इसकी वजह से लोग वायरस का टेस्ट कराने से भी भागेंगे क्योंकि अगर उनका टेस्ट पॉज़िटिव मिलता है तो उनकी जानकारी सार्वजनिक हो जाएगी. व्यापक स्तर पर इस लिस्ट का दुरुपयोग हो सकता है. ई-कॉमर्स कंपनियां ऐसे लोगों की निगेटिव लिस्ट बना लेंगी और संक्रमण के डर से उनके पते पर डिलीवरी से इनकार कर सकती हैं. इस तरह जब ज़्यादातर दुकानें बंद हैं तो ऐसी हालत में लोगों को ये महत्वपूर्ण सेवा नहीं मिल पाएगी.

ट्रेसिंग और ट्रैकिंग के ज़रिए प्राइवेसी में और भी ज़्यादा खलल हांगकांग में शुरू किया गया है जहां अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल से बाहर आने वाले यात्रियों को कलाई में पहने जाने वाला एक बैंड दिया जा रहा है. उन्हें एक एप डाउनलोड करने के लिए कहा जाता है जो उनकी लोकेशन पर नज़र रखता है ताकि उनके क्वॉरन्टीन को सुनिश्चित किया जा सके. बैंड उस व्यक्ति पर नज़र रखेगा और जैसे ही वो घर से बाहर निकलेगा सरकारी अधिकारियों को अलर्ट कर देगा. कर्नाटक सरकार ने क्वॉरन्टीन किए गए लोगों को हर घंटे एक सेल्फी सरकारी एप पर भेजने के लिए कहा है ताकि वो साबित कर सकें कि वो घर पर ही हैं. ऐसा नहीं करने पर उन्हें एक सामूहिक क्वॉरन्टीन केन्द्र में भेज दिया जाएगा.

ये असाधारण समय है जिसमें कोविड-19 से नुक़सान को कम करने के लिए असाधारण उपायों की ज़रूरत है. लेकिन ज़्यादा दहशत फैलने के साथ सुरक्षित भविष्य के लिए प्राइवेसी को त्यागने की ज़्यादा कोशिश होगी. डिपार्टमेंट फॉर प्रमोशन ऑफ इंटरनल ट्रेड एंड इंडस्ट्री (DPITI) के एक हालिया वेबिनार में ये दिखा जहां टेक स्टार्टअप इकोसिस्टम के दिग्गजों ने बीमारी को नियंत्रित करने पर मंथन किया. इसमें जिन उपायों पर चर्चा की गई उनमें दवा दुकानों पर जोखिम वाले लोगों (बुजर्गों, बीमार लोगों, सांस की बीमारी वालों इत्यादि) के प्रिस्क्रिप्शन का इस्तेमाल करने की भी चर्चा हुई. प्रिस्क्रिप्शन को संवेदनशील व्यक्तिगत डाटा समझा जाता है लेकिन वेबिनार में शामिल लोगों ने महसूस किया कि लोगों की भलाई के लिए प्राइवेसी की ज़रूरत को सस्पेंड कर देना चाहिए.

प्राइवेसी को नज़रअंदाज़ करने की ये ज़रूरत मेडिकल डाटा से आगे भी है. वेबिनार में इस बात पर भी चर्चा हुई कि आधार ई-केवाईसी को फिर से लागू किया जाए ताकि फिनटेक इकोसिस्टम को फ़ायदा मिले. सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद आधार ई-केवाईसी को बंद कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्राइवेट कंपनियां आधार का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं क्योंकि इससे व्यक्तिगत जानकारी बिना किसी ज़रूरत के सार्वजनिक होती हैं. पॉलिसी बाज़ार के CEO याशीष दहिया ने दलील दी कि उनके ग्रुप की कंपनी पैसा बाज़ार की आमदनी क़रीब-क़रीब शून्य हो गई है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा घोषित लॉकडाउन की अवधि के दौरान उनके कर्मचारी कर्ज़ देने के लिए फिज़िकल केवाईसी करने में असमर्थ हैं. इसलिए आधार ई-केवाईसी की ज़रूरत है. ये आधार डाटा के इस्तेमाल से प्राइवेसी की चिंताओं को नज़रअंदाज़ कर उनके बिज़नेस मॉडल को फ़ायदा पहुंचाने की उनकी मौक़ापरस्ती को दिखाता है.

9/11 के बाद अमेरिकी सरकार ने नेशनल सिक्युरिटी एजेंसी के ज़रिए सुरक्षा और भविष्य के हमलों से बचने के लिए बिना किसी ज़रूरत के काफ़ी संख्या में लोगों की निगरानी शुरू कर दी. बाद में छानबीन से पता चला कि इस निगरानी से मक़सद हासिल करने में बहुत कम मदद मिली

सरकारें और कंपनियां ये समझती हैं कि वायरस के असर से निपटने के लिए प्राइवेसी को सस्पेंड करना ज़रूरी है. लेकिन जब संकट गुज़र जाएगा तो इस लंबे-चौड़े निगरानी तंत्र का क्या होगा? इसे ख़त्म करने के लिए क्या क़दम उठाए जाएंगे? दुनिया की बड़ी तकनीकी कंपनियों ने यूज़र की प्राइवेसी की रक्षा के लिए ज़रूरी क़दम न उठाकर काफ़ी दौलत बनाई है. ऐसा इसलिए क्योंकि उनका विज्ञापन का कारोबार चलता रहे. सरकारें और कंपनियां व्यक्तिगत प्राइवेसी में खलल नहीं डालने के लिए कितनी तैयार हैं?

इस महामारी को 9/11 के बाद पहली त्रासदी बताया गया है. 9/11 के बाद अमेरिकी सरकार ने नेशनल सिक्युरिटी एजेंसी के ज़रिए सुरक्षा और भविष्य के हमलों से बचने के लिए बिना किसी ज़रूरत के काफ़ी संख्या में लोगों की निगरानी शुरू कर दी. बाद में छानबीन से पता चला कि इस निगरानी से मक़सद हासिल करने में बहुत कम मदद मिली. इसके बदले पारंपरिक छानबीन के तरीक़े, मुखबिर से मिली जानकारी और खुफ़िया ऑपरेशन का फ़ायदा मिला. इसी तरह सार्वजनिक स्वास्थ्य सिस्टम के लिए पारंपरिक तरीक़ों पर ज़ोर देने की ज़रूरत है जैसे कि डॉक्टर और अस्पताल की संख्या बढ़ाना, भविष्य की महामारियों के लिए पर्याप्त मात्रा में उपकरणों और दवाओं की सप्लाई रखना, टेस्टिंग की मुफ़्त सुविधा इत्यादि. स्वास्थ्य देखभाल की क्षमता बढ़ाने से गैर-ज़रूरी प्राइवेसी में ख़ल पर रोक लगेगी और व्यक्तिगत अधिकार और जनहित में बेहतरीन संतुलन बनाया जा सकेगा.

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