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ये लेख भारत की बजट आवश्यकताओं पर चर्चा करने वाले तीन भाग की श्रृंखला का पहला हिस्सा है.
भारत का 2025-26 का केंद्रीय बजट एक फरवरी को पेश किया जाएगा. इस बजट का लक्ष्य कोरोना महामारी के बाद फिर से रफ्तार पकड़ रही अर्थव्यवस्था के सुधारों को जारी रखना होगा. इसके साथ ही ये बजट सरकार की राजकोषीय योजनाओं के लिए आधार तैयार करेगा. भारत में राजकोषीय स्थिरता लाने की दीर्घकालिक कोशिशों के लिए ये आवश्यक है. इस बजट का सबसे ज़रूरी हिस्सा राजकोषीय मज़बूती लाना होगा. ये देश के राजकोषीय घाटे को कम करने और व्यापक आर्थिक स्थिरता हासिल करने की रणनीति है. हालांकि, इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि राजकोषीय बुद्धिमत्ता दिखाने की वजह से कहीं विकास की क्षमता या उसके उद्देश्यों में बाधा ना पड़ जाए. बजट पर तीन-भाग के इस विश्लेषण में हम इसी बात पर चर्चा करेंगे कि बजट को तीन प्रमुख क्षेत्रों- राजकोषीय अनुशासन, रोजगार और विकास पर खर्च के बीच संतुलन कैसे बनाना चाहिए.
राजकोषीय घाटे का मतलब सरकार की आय और व्यय का अंतर है. आसान शब्दों में कहें तो अगर सरकार का व्यय उसकी आय से ज़्यादा होगा तो इसे राजकोषीय घाटा कहेंगे. उधार को इससे बाहर रखा जाता है यानी सरकार को अपने खर्च को पूरा करने के लिए कितना उधार लेने की आवश्यकता है.
राजकोषीय समेकन (फ़िस्कल कंसोलिडेशन) क्या है?
राजकोषीय घाटे का मतलब सरकार की आय और व्यय का अंतर है. आसान शब्दों में कहें तो अगर सरकार का व्यय उसकी आय से ज़्यादा होगा तो इसे राजकोषीय घाटा कहेंगे. उधार को इससे बाहर रखा जाता है यानी सरकार को अपने खर्च को पूरा करने के लिए कितना उधार लेने की आवश्यकता है. फ़िस्कल रिस्पॉन्सिबिलिटी और बजट मैनेजमेंट एक्ट (FRBMA), 2003 ने सरकार को 31 मार्च 2021 तक राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 3 प्रतिशत तक सीमित रखने का आदेश दिया था. कोरोना महामारी की वजह से इसमें उछाल आया था और ये सकल घरेलू उत्पाद के 9.16 प्रतिशत तक पहुंच गया था लेकिन 2024-25 में राजकोषीय घाटा 4.94 प्रतिशत तक कम होने का अनुमान है. सकार ने इसमें और कटौती का लक्ष्य रखा है. 2026-27 तक 4.5 प्रतिशत के स्तर को हासिल करने के लिए सरकार राजकोषीय समेकन की कोशिश करेगी, यानी राजकोषीय घाटे को और कम करेगी.
चित्र 1 : जीडीपी के प्रतिशत के रूप में राजकोषीय घाटा (1990-91 से)

स्रोत : आरबीआई
हालांकि इस बात का भी आकलन करना ज़रूरी है कि राजकोषीय एकीकरण का विकास और कल्याणकारी योजनाओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा. राजकोषीय घाटे को दो तरीकों से कम किया जा सकता है-व्यय में कटौती या फिर राजस्व में वृद्धि. इसमें से जो भी तरीका अपनाया जाएगा, वो सीधे तौर पर घरेलू मांग को प्रभावित करेगा. इससे अल्पकालिक गिरावट दिख सकती है. सरकारी खर्च में कमी से घरेलू मांग कम हो जाएगी. निजी निवेश में भी कमी आ सकती है, जिसका नतीजा उत्पादन में कमी के रूप में दिख सकता है. वहीं अगर टैक्स यानी करों की उच्च दर से राजस्व बढ़ाने की कोशिश की जाएगी तो निजी खर्च में कमी आएगी. उद्योगपति भी अपना आर्थिक उत्पादन को धीमा कर सकते हैं. हालांकि अल्पकालिक नकारात्मक नतीजों के बावजूद, राजकोषीय एकीकरण का दीर्घकालिक प्रभाव सकारात्मक ही होता है. अगर सरकार कम उधार ले तो निजी निवेश के लिए संसाधन उपलब्ध होते हैं. इससे कारोबारियों का भरोसा मज़बूत होता है और व्यापक आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा मिलता है. इतना ही नहीं ये राजकोषीय स्थिरता को बढ़ाता है. इससे ये विश्वास पैदा होता है कि सरकार की नीतियों में निरंतरता है और ये भरोसा दीर्घकालिक निवेश को प्रोत्साहित करता है.
राजकोषीय मज़बूती के लिए किए जाने वाले उपायों से जो अल्पकालिक नुकसान होते हैं, उनकी भरपाई की जा सकती है क्योंकि उद्योगपतियों के बीच ये उम्मीद पैदा हो जाती है कि अर्थव्यवस्था में भविष्य की स्थिरता रहेगी और आर्थिक प्रदर्शन अच्छा होगा. हालांकि, ऐसा तभी हो सकता है जब कुछ आवश्यक शर्तों का पालन किया जाए. पहली, राजकोषीय एकीकरण योजना व्यवस्थित होनी चाहिए. इसे लेकर एक दीर्घकालिक नीति बनानी चाहिए, राजकोषीय ऋण स्थिरता को बढ़ाएगी और आर्थिक प्रदर्शन को बेहतर करेगी. दूसरा, इस योजना के ज़रिए रोजगार को बढ़ावा देने और बचत को प्रोत्साहित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. तीसरा, ऐसे परिवारों का अनुपात ज़्यादा होना चाहिए, जो अपनी बचत को अंतर-अस्थायी रूप से समायोजित कर सकें. तीसरी, वित्तीय एकीकरण के नकारात्मक यानी संकुचनकारी प्रभावों को विनिमय दर और/या ब्याज दरों में समायोजन कर उन्हें संतुलित किया जाना चाहिए. हालांकि ये तीसरी शर्त राजकोषीय नीति के लिए जटिल परिणाम देती है. भारतीय जनता पर इसका असर ज़्यादा पड़ता है, इसलिए इस पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत होती है.
राजकोषीय मज़बूती के लिए जब टैक्स बढ़ाया जाता है तो इससे मंदी आ सकती है, जबकि इसकी तुलना में व्यय समायोजन से जुड़ा आर्थिक नुकसान (उत्पादन के संदर्भ में) अपेक्षाकृत कम होता है. एकीकरण समायोजन का सबसे ज़्यादा और सबसे पहला प्रभाव निजी निवेश पर पड़ता है. जब सरकार अपने खर्च में कटौती करती है तो निजी निवेश में भी गिरावट आती है, लेकिन ये तेज़ी से ठीक भी हो जाती है, लेकिन इसकी तुलना में अगर टैक्स में बढ़ोत्तरी की जाती है तो निजी निवेश को बहुत गहरा झटका लगता है और इससे उबरने में बहुत समय लगता है. राजकोषीय एकीकरण हासिल करने के लिए कौन सा तरीका सही है, इस पर अस्पष्टता के बावजूद, इस बात को सभी मानते हैं कि अल्पकालिक नकारात्मक प्रभावों के बावजूद इसके दीर्घकाल में फायदा होता है. कम ब्याज दरों, कमज़ोर विनिमय दरों की वजह से निर्यात बढ़ता है. निर्यात बढ़ने से लंबी अवधि में देश स्थायी विकास की तरफ जाता है. आय और रोजगार सभी बढ़ते हैं.
राजकोषीय एकीकरण हासिल करने के लिए कौन सा तरीका सही है, इस पर अस्पष्टता के बावजूद, इस बात को सभी मानते हैं कि अल्पकालिक नकारात्मक प्रभावों के बावजूद इसके दीर्घकाल में फायदा होता है.
राजकोषीय मज़बूती के लिए कौन सा दृष्टिकोण सही?
उच्च विकास दर के साथ राजस्व घाटे को धीरे-धीरे कम करके राजकोषीय एकीकरण हो सकता है. अगर राजस्व घाटा कम होगा तो ये सरकार को राजकोषीय घाटे को बढ़ाए बिना महत्वपूर्ण पूंजीगत व्यय (कैपेक्स यानी कैपिटल एक्सपेंडेचर) करने की सुविधा प्रदान करेगा. ये एक वैकल्पिक संभावित नीति हो सकती है, क्योंकि वसूली वर्षों में राजस्व घाटा 2020-21 में 4.37 प्रतिशत से घटकर 2024-25 में अनुमानित 1.78 प्रतिशत हो गया है. चित्र 2 से ये पता चलता है कि कोरोना महामारी के बाद की वसूली अवधि में राजकोषीय मज़बूती हासिल करने के लिए सरकार ने इसी रणनीति को अपनाया है. 2020-21 के बाद से कम राजस्व घाटे को बढ़े हुए पूंजीगत व्यय के साथ जोड़ा गया है.
चित्र 2: राजस्व घाटा और पूंजीगत व्यय (जीडीपी के प्रतिशत के रूप में)

स्रोत : आरबीआई
यहां पर ये बात गौर करने वाली है कि राजस्व घाटे को दो तरीके से कम किया जा सकता है. या तो सरकारी खर्च कम किया जाए या फिर राजस्व बढ़ाया जाए. सरकार को मिलने वाले राजस्व में टैक्स और नॉन टैक्स दोनों से ही मिलने वाली रकम शामिल है. हालांकि इसमें टैक्स की हिस्सेदारी करीब 75 प्रतिशत है. लेकिन अगर कॉरपोरेशन टैक्स या इनकम टैक्स में बढ़ोत्तरी की जाएगी तो ये व्यापार वृद्धि और उपभोग में किए जाने वाले खर्च को रोक देगा. नव-शास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें तो टैक्स बढ़ाने से घरेलू बचत पर भी दबाव पड़ सकता है और अर्थव्यवस्था की विकास की क्षमता में बाधा पैदा हो सकती है. इसलिए सरकार को राजकोषीय मज़बूती के लिए राजस्व बढ़ाने की बजाए खर्च पर नियंत्रण का सहारा लेना चाहिए. राजस्व व्यय में सबसे ज़्यादा हिस्सेदारी उधार पर चुकाए जाने वाले ब्याज और सरकारी सहायता और अनुदान की है. सहायता अनुदान का मतलब केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न योजना और गैर-योजना मदों के तहत राज्य सरकारों को की जाने वाली आर्थिक सहायता या हस्तांतरण है. चूंकि भारत में राज्यों में अलग-अलग पार्टी की सरकारें हैं, इसलिए सरकारी खर्चे के पुनर्गठन का काम राजनीतिक रूप से बहुत संवेदनशील है. इसे देखते हुए केंद्र सरकार को राज्य स्तर पर बेहतर वित्तीय प्रबंधन को प्रोत्साहित करना चाहिए. इससे सहयोगात्मक संघवाद को बढ़ावा मिलेगा और केंद्र सरकार पर भी वित्तीय बोझ कम होगा.
पूंजीगत व्यय में सहवर्ती वृद्धि राजस्व व्यय की कमी के नकारात्मक प्रभावों को दूर कर सकती है. करीब पौने तीन गुना मल्टीप्लायर क्षमता के साथ पूंजीगत व्यय को मांग पैदा करने का एक बहुत ही शक्तिशाली माध्यम माना जाता है. बुनियादी ढांचे के विकास के ज़रिए ये उत्पादक क्षमता को भी बढ़ाता है. निजी निवेश पर भी इसका सकारात्मक असर पड़ता है. उच्च पूंजीगत व्यय अगर राजमार्गों (राष्ट्रीय और राज्य) पर किया जाए तो मुद्रीकरण और परिवहन से (गैर-कर राजस्व) रिटर्न के माध्यम से ये और अधिक राजस्व पैदा करेगा. इससे मध्यम से लंबी अवधि में सरकारों को ज़्यादा पूंजी मिलेगी. इसलिए 2025-26 के बजट में उच्च पूंजीगत व्यय और राज्यों को मध्यम अनुदान देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. चूंकि वित्त घाटे के लिए कम उधार लेने से कम ब्याज और ऋण सेवाओं के भुगतान के माध्यम से राजस्व व्यय कम हो जाएगा, इसलिए सरकार व्यय को स्थिर करने पर ध्यान केंद्रित कर सकती है. वित्तीय वर्ष 2025-26 के लिए बिना किसी बढ़ोतरी के, विभिन्न गतिविधियों और कार्यक्रमों में लगातार व्यय के माध्यम से इसे हासिल करने की कोशिश की जा सकती है.
राजकोषीय मज़बूती और मुद्रास्फीति
मुद्रास्फीति (महंगाई) उत्पादकों और उपभोक्ताओं दोनों के लिए हमेशा से चिंता का विषय रही है. इससे प्रभावी मांग और क्षमता का अधिकतम उपयोग, दोनों पर ही असर पड़ रहा है. राजकोषीय एकीकरण मुद्रास्फीति और मुद्रास्फीति अपेक्षाओं को सीमित कर सकता है. सैद्धांतिक रूप से देखें तो ऋण द्वारा वित्त पोषित एकीकरण वास्तविक घटकों को प्रभावित नहीं कर सकता है, जिसे अक्सर रिकार्डियन इक्विवेलेंस (RE) के रूप में जाना जाता है. लेकिन दुर्भाग्य ये है कि भारत में रिकार्डियन इक्विवेलेंस का जो अनुभव है, उसके आधार पर ये कहा जा सकता है कि आरई को भारत में लागू करना बहुत मुश्किल है. सरकारी घाटे का असर उस समय की निजी खपत पर पड़ता है. यानी इस बात की संभावना नहीं है कि आर्थिक एजेंटों (उपभोक्ता/उत्पादक/पूंजी बाज़ार को प्रभावित कर सकने वाले)की अपेक्षाओं या दूरदर्शिता में बदलाव की वजह से राजकोषीय एकीकरण के नकारात्मक प्रभाव सीमित होंगे. हालांकि, मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए ये अच्छा संकेत है.
आर्थिक पूर्वानुमान लगाने वाले जो पेशेवर लोग हैं, उन्होंने नवंबर 2024 में कहा था कि मुद्रास्फीति में वृद्धि 2025-26 की पहली तिमाही तक बने रहने की उम्मीद है. इसी तरह, परिवारों को भी ये आशंका है कि मुद्रास्फीति की मौजूदा उच्च दर अगले तीन महीने और फिर लगातार एक साल तक बनी रहेगी.
आर्थिक पूर्वानुमान लगाने वाले जो पेशेवर लोग हैं, उन्होंने नवंबर 2024 में कहा था कि मुद्रास्फीति में वृद्धि 2025-26 की पहली तिमाही तक बने रहने की उम्मीद है. इसी तरह, परिवारों को भी ये आशंका है कि मुद्रास्फीति की मौजूदा उच्च दर अगले तीन महीने और फिर लगातार एक साल तक बनी रहेगी. हाउसहोल्ड यानी परिवारों के दृष्टिकोण से देखें तो 2025-26 में खर्च को लेकर उनका रुख़ रूढ़िवादी हो सकता है, यानी वो सोच-समझकर खर्च करेंगे. ऐसा इसलिए क्योंकि वो अपने उपभोग के तरीके को सुचारू बनाने की कोशिश करते हैं. खर्च और उपभोग में कमी आएगी तो इससे अगले वित्त वर्ष में मांग और कम हो सकती है, आर्थिक वृद्धि में रुकावट पैदा हो सकती है. हालांकि, ज़रूरी सुधारों के साथ बजट में राजकोषीय एकीकरण की घोषणा परिवारों की चिंताएं कम कर सकती है. मुद्रास्फीति पर भी लगाम लग सकती है. राजकोषीय स्थिति मज़बूत करने के दौरान निजी खपत बढ़ने वो नकारात्मक प्रभाव काफ़ी हद तक कम हो सकते हैं, जो इसे लागू करने की वजह से आ जाते हैं.
चित्र 3: मासिक मुद्रास्फीति दरें (मार्च-दिसंबर, 2024)

स्रोत : MOSPI
चालू वित्त वर्ष में महंगाई की मुख्य सब्जियों की आसमान छूती कीमतें हैं. आलू, प्याज और टमाटर (POT) की महंगाई का असर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) वाली मुद्रास्फीति में दिख रहा है. इससे घरेलू आय पर दबाव भी बढ़ा है. सब्जियों की कीमतों में ये वृद्धि कृषि बाजारों की कमियों और अक्षमताओं की वजह से देखी जा रही है. फल और सब्जी की भंडारण सुविधाओं की कमी है. वैल्यू चेन आपस में ठीक से नहीं जुड़ी हैं. थोक बाज़ार में प्रतिस्पर्धा नहीं है. इस सबकी वजह से उत्पादकों और उपभोक्ताओं पर मौसमी बदलावों का बहुत असर दिखता है. कीमतों में उतार-चढ़ाव की भी ये एक बड़ी वजह है. हालांकि राजकोषीय एकीकरण खर्च में कटौती और अपेक्षित वृद्धि में संशोधन के ज़रिए मुद्रास्फीति को कम कर सकता है. लेकिन मुद्रास्फीति की अस्थिरता को दूर करने के लिए कृषि बाज़ार में सुधारों की ज़रूरत है. ये तभी हो सकता है कि जब इस क्षेत्र में पूंजी का दीर्घकालीन निवेश किया जाए.
भविष्य के लिए क्या उम्मीदें?
2025-26 के बजट में कृषि योजनाओं के लिए ज्यादा राशि का आवंटन होना चाहिए. उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) को 2024-25 के बजट में 7,553 करोड़ रूपये आवंटित किए गए थे. ये योजना कोल्ड स्टोरेज, फसल की कटाई के बाद के प्रबंधन और मशीनीकरण सहित कृषि में बुनियादी ढांचे का समर्थन करने पर केंद्रित है. भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान काफ़ी ज्यादा है. इसे देखते हुए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) और कृषोन्नति योजना पर भी ध्यान देना चाहिए. इन योजनाओं को कृषि उत्पादकता बढ़ाने के मक़सद से शुरू किया गया है. इनके अलावा अन्य योजनाओं पर भी खर्च बढ़ाना होगा. कृषि पर किया गया खर्च ग्रामीण क्षेत्र में मांग को बढ़ा सकता है और राजतोषीय एकीकरण के कारण आने वाले नुकसान को कम कर सकता है.
2025-26 के बजट में लक्षित पूंजीगत व्यय को प्राथमिकता और सहयोगात्मक संघवाद को बढ़ावा देना चाहिए. कृषि सुधारों के माध्यम से मुद्रास्फीति के दबाव को दूर करने पर ध्यान देना चाहिए.
राजकोषीय मज़बूती सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं है. इसके लिए बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता और हर क्षेत्र के समान विकास के प्रति प्रतिबद्धता की ज़रूरत होती है. खर्च पर अंकुश लगाने या राजस्व बढ़ाने के उपाय अपनाने से तात्कालिक चुनौतियां पेश होती हैं, लेकिन एक व्यवस्थित राजकोषीय ढांचा दीर्घकाल में बहुत फायदेमंद होता है. कम उधार लागत, कारोबार के विकास पर विश्वास में वृद्धि और महत्वपूर्ण निवेशों के लिए नए मौके पैदा होना समूची अर्थव्यवस्था के लिए लाभप्रद साबित हो सकता है. 2025-26 के बजट में लक्षित पूंजीगत व्यय को प्राथमिकता और सहयोगात्मक संघवाद को बढ़ावा देना चाहिए. कृषि सुधारों के माध्यम से मुद्रास्फीति के दबाव को दूर करने पर ध्यान देना चाहिए. ये उपाय ना सिर्फ राजकोषीय स्थिरता लाने में मदद करेंगे बल्कि समावेशी विकास को भी बढ़ावा देंगे. ये सुनिश्चित किया जा सकेगा कि आर्थिक सुधार के फायदे देश के सभी क्षेत्रों और हर समाज के लोगों को मिलें.
(आर्या रॉय बर्धन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं).
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