Published on Feb 14, 2018 Updated 0 Hours ago

एमएसपी को बढ़ा देने भर से किसानों को मदद नहीं मिलेगी, क्योंकि कई बार कृषि मूल्य एमएसपी से नीचे पहुंच जाते हैं।

बजट 2018: पूरा ध्यान ग्रामीण गरीबों पर

केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली का बजट 2018 पूरी तरह से एक चुनावी बजट है। कई बड़े बदलावों का प्रस्ताव किया गया है, खास कर स्वास्थ्य के क्षेत्र में, लेकिन यह एनडीए सरकार के कार्यकाल के बिल्कुल अंत में क्यों किए गए? स्वास्थ्य क्षेत्र में की गई पहल का फायदा मिलने में समय लगेगा, क्योंकि पहले इसकी योजना बनानी होगी और फिर सवाल है कि ‘क्या यह एक साल के समय में हासिल किया जा सकेगा?’ किसी भी सूरत में यह यूनिवर्सल हेल्थ केयर व्यवस्था कायम करने के लिहाज से एक सराहनीय कदम है। सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली की ओर बहुतों ने इशारा किया है और समाज के सभी वर्ग इसे महसूस कर रहे हैं। साथ ही पिछले साल तक स्वास्थ्य पर होने वाला सार्वजनिक खर्च सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का दो फीसदी से ऊपर नहीं उठ सका है। स्वास्थ्य पर लोगों की अपनी जेब से होने वाले खर्च के लिहाज से हिंदुस्तान दुनिया के सबसे ऊपर के पायदान पर मौजूद देशों में है।

एक झटके में स्वास्थ्य बीमा का दायरा बढ़ा कर 10 करोड़ निम्न आय वर्ग के परिवारों तक पहुंचा दिया गया है (यानी 50 करोड़ लोग) साथ ही उनको मिलने वाले कवर की रकम भी पांच लाख सालाना है जो काफी अच्छी है। मेदांता के प्रमुख नरेश त्रेहन जैसे प्रसिद्ध डॉक्टरों ने इसकी सराहना की है। लेकिन गरीब वर्ग और खास कर ग्रामीण इलाकों में सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचागत सुविधाओं की उपलब्धता के मुद्दे की और गहन पड़ताल करनी होगी। नए मेडिकल कॉलेज की योजना बनाई गई है ताकि ग्रामीण इलाकों और शहरों में लोगों का ध्यान रखने के लिए और डॉक्टर उपलब्ध हो सकें, लेकिन इन सभी उपायों में समय लगेगा। अगला कदम निजी क्षेत्र को साथ लेने का हो सकता है, जिससे डॉ. त्रेहन पूरी तरह से सहमत हैं। लेकिन बीमा योजना का फायदा उठाने के लिए लोगों को बीमा कंपनियों की चालाकियों से सुरक्षित रखना होगा।

बजट में इसके बाद जहां सरकार का ध्यान दिखा है वह है ग्रामीण अर्थव्यवस्था। पिछले बजट में भी इस पर काफी ध्यान था। बजट 2018 में जेटली किसानों की आय को दुगना करने के लक्ष्य के कुछ और करीब आते दिखाई दिए। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बाजार की कीमत से 1.5 गुना पर रखा जाना है और इसमें सिर्फ खाद्यान्न की बजाय और फसलों को भी शामिल किया गया है।

एमएसपी को बढ़ा देने भर से किसानों को मदद नहीं मिलेगी, क्योंकि कई बार कृषि मूल्य एमएसपी से नीचे पहुंच जाते हैं। इसके साथ ही भंडारण और दूर बैठे ग्राहकों तक उनकी पहुंच को सुनिश्चित करने जैसे कदम भी काफी अहम हैं। ग्रामीण हाट (22,000) को मनरेगा का इस्तेमाल कर अपग्रेड किया जाएगा और इन्हें एपीएमसी (कृषि उपज बाजार समिति) के नियमों के दायरे से बाहर किया जाएगा, ताकि किसानों को दूसरे राज्यों के ग्राहकों तक भी सीधे पहुंचने की छूट मिल सके। लेकिन इसके लिए राज्यों को खुद आगे आ कर सहयोग करना होगा और एपीएमसी को समाप्त करना होगा। अब तक बहुत कम ने ही ऐसा किया है। इसके अलावा किसानों की लागत कच्चे तेल की कीमत पर भी निर्भर करती है, जो लगातार बढ़ रही है और जब कच्चे तेल की कीमत बढ़ रही होगी तो सरकार बेहतर एमएसपी देने की जिम्मेवारी से पीछे नहीं हट सकती।

ग्रामीण विद्युतीकरण, गृह निर्माण, सड़क और स्वच्छता सभी को पिछले बजट की तरह इस बार भी काफी जोर मिला है। अब गांवों का बदलाव इनके अमल पर निर्भर करता है।

हैरानी की बात है कि इस बजट में मध्यम वर्ग को पूरी तरह भुला दिया गया है। स्पष्ट है कि यह गरीबों को ध्यान में रख कर बनाया गया बजट है और मान लिया गया है कि मध्यम वर्ग पिछले साल इनकम टैक्स के स्लैब को बढ़ा दिए जाने से ही खुश है। कारपोरेट टैक्स पर लगने वाले सेस को 3 प्रतिशत से बढ़ा कर 4 प्रतिशत कर दिया गया है ताकि सरकार के शिक्षा और स्वास्थ्य कार्यक्रमों के लिए धन जुटाया जा सके। बड़े एमएसएमई (250 करोड़ रुपये तक के वार्षिक लेन-देन तक वाले) को 25 प्रतिशत कारपोरेट टैक्स देना होगा लेकिन लगभग 7,000 बड़ी कंपनियों को पहले की ही तरह 30 प्रतिशत टैक्स देना होगा। हालांकि वित्त सचिव के ताजा टीवी इंटरव्यू के मुताबिक प्रभावी दर 24 प्रतिशत ही होगी। इससे कारपोरेट क्षेत्र दुखी है साथ ही लिस्टेड इक्विटी और इक्विटी ओरिएंटेड म्यूचुल फंड पर 10 प्रतिशत लोंग टर्म गेन ने भी है।

जीएसटी लागू करने में आई अड़चनों की वजह से हुए 2017-18 के दौरान राजस्व घाटे पर बाजार ने नकारात्मक रूप से प्रतिक्रिया दी है और कुछ अंक नीचे चला गया है। पारंपरिक अर्थशास्त्री इसे काफी गंभीरता से लेते हैं। किसी भी हाल में अगले साल का राजस्व अपने लक्ष्य को हासिल कर लेगा। लेकिन सरकार ने इस कमी की भरपाई के लिए बाजार से जो रकम उठाई है उसका ब्याज दरों पर प्रभाव पड़ेगा, जिसे ऊपर किया जा सकता है जिससे निवेश और घटेगा। सरकार के खजाने में भविष्य के विनिवेश से रकम आ सकती है और जेटली ने अच्छी खबर दी है कि विनिवेश अपने लक्ष्य के अनुसार आगे बढ़ रहा है। लेकिन एयर इंडिया की बिक्री अभी लटकी ही है और इसे पारदर्शी तरीके से किया जाना अभी बाकी है।

नए निवेश को बढ़ावा देने के लिए बजट में कुछ नहीं है, जो जीडीपी विकास में गिरावट का मुख्य कारण होने के साथ नौकरी तलाश रहे युवाओं को पर्याप्त रोजगार उपलब्ध नहीं होने का भी कारण है। बजट में इस बात का ध्यान नहीं दिया गया है कि कैपिटल फोरमेशन 2007-08 के 33 फीसदी से घट कर 26 फीसदी पर पहुंच गया है।

रोजगार पैदा करने के लिए, सरकार की ओर से प्रोविडेंट फंड सब्सिडी को सभी उद्योगों के नए कर्मचारियों के लिए उपलब्ध करवा दिया गया है। नियत समय के कांट्रैक्ट की व्यवस्था जो पहले ऐपेरल और फुटवियर क्षेत्र को ही उपलब्ध थी, वह अब सभी उद्योगों को उपलब्ध करवा दी गई है। इससे निजी क्षेत्र में और रोजगार पैदा होने की उम्मीद है।

बजट में घोषित किए गए स्वास्थ्य और ढांचागत क्षेत्र के बड़े कदमों के लिए धन जुटाने के लिए बहुत से सामानों पर सीमा शुल्क को बढ़ा दिया गया है। शैशव कालीन उद्योगों को सुरक्षित रखना विकासशील देशों के लिए सामान्य बात रही है, लेकिन ऊंचा सीमा शुल्क लगाना और उसी समय मुक्त व्यापार और खगौलीकरण की बात करना जैसा कि मोदी ने दावोस में किया है, थोड़ा असामान्य लगता है। लेकिन ‘मेक इन इंडिया’ परियोजना का बचाव संभवतः राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है और इसकी शर्त पर लक्जरी उपभोक्ता सामानों के बिना शुल्क आयात की इजाजत नहीं दी जा सकती।

हमेशा की तरह, वरिष्ठ नागरिक और महिला, खास कर मुफ्त गैस कनेक्शन पाने वाली ग्रामीण महिलाओं को बजट में जगह मिली है। कर छूट के जरिए वरिष्ठ नागरिकों की आय को बढ़ाने की कोशिश उन्हें खुश करने में ज्यादा मदद नहीं कर सकेगी। गरीब ग्रामीण महिलाओं की आय नहीं बढ़ाई गई तो गैस सिलेंडर खाली हो जाने के बाद उसे भरवाना उनके लिए मुश्किल हो सकता है। आय बढ़ाने वाली योजनाओं के जरिए उनकी आय बढ़ाने को ले कर कोई चर्चा नहीं हुई।

कई तरह से यह बहुत असामान्य बजट है, क्योंकि यह साफ तौर पर संसाधनों को अमीरों व मध्यम वर्ग से गरीबों को हस्तांतरित करने का लक्ष्य रखता है जो सिद्धांत के तौर पर अच्छा है क्योंकि यह जीडीपी को बढ़ाने के साथ ही समावेशी विकास के लक्ष्य को पूरा करने के में मददगार है। लेकिन समस्या तो इसे लागू करने में आती है और क्या इसका फल पाने के लिए पर्याप्त समय है। साथ ही सवाल यह भी है कि क्या अगले चुनाव से पहले गरीबों को इसका लाभ मिल पाएगा। सबसे दिलचस्प बात है कि बजट में बहुत से वादों को 2022 तक पूरा करने की बात कही गई है, जिसका मतलब है कि यह तभी पूरा हो पाएगा अगर 2019 में दुबारा एनडीए सरकार सत्ता में आए।

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