Author : Antara Sengupta

Published on Feb 14, 2018 Updated 0 Hours ago

यह तथ्य बहुत व्याकुल करने वाला है कि सरकार ने सभी प्रमुख योजनाएं केवल कुछ चुनिंदा संस्थानों के लिए निर्धारित कर दी हैं जिनमें देश में उच्च शिक्षा के आकांक्षी केवल 2 प्रतिशत छात्र ही दाखिला ले पाते हैं।

बजट 2018: दूसरों की कीमत पर चुनिंदा शिक्षण संस्थानों का कल्याण

वित मंत्री अरुण जेटली ने निश्चित रूप से मोर फ्रॉम लेस फॉर मोर (एमएलएम) नामक लेख पढ़ रखा होगा जिसमें विख्यात वैज्ञानिक और राष्ट्रीय नवोन्मेषण फाउंडेशन के अध्यक्ष, डॉ. आर. ए. मशेलकर भारत के लिए ‘गांधीवादी इंजीनियरिंग’ के मॉडल को अपनाने की त्वरित आवश्यकता पर बल देते हैं जिससे कि समावेशी विकास का सृजन करने के लिए अधिक संख्या में लोगों के लिए कम संसाधनों के उपयोग के जरिये अधिक सफलता अर्जित की जा सके। आम बजट के विश्वविद्यालय शिक्षा वाले हिस्से पर करीबी नजर डालने से ऐसा प्रतीत होता है कि वित मंत्री ने इसका ठीक उलटा करने का प्रयास किया है।

हालांकि कृषि के अलावा, वित मंत्री जेटली के भाषण में सबसे अधिक उपयोग में लाए गए शब्द स्वास्थ्य एवं शिक्षा ही थे जो कि पिछले कुछ वित्तीय वर्षों के लिहाज से एक दुर्लभ उदाहरण है-लेकिन विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए निधियों का बजटीय आवंटन लगातार निराशाजनक बना हुआ है।

जहां स्कूली शिक्षा के लिए 50,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है, उच्चतर शिक्षा के लिए केवल 35,010 करोड़ रुपये का ही आवंटन किया गया। हालांकि उच्चतर शिक्षा में निम्न नामांकन अनुपात को देखते हुए यह संतोषजनक प्रतीत हो सकता है, पर यह उल्लेखनीय है कि केवल राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (आरयूएसए) एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को आवंटित निधियां ही सरकारी विश्वविद्यालयों तक पहुंचती हैं। उच्चतर शिक्षा की प्रमुख योजना आरयूएसए के फंड में केवल 100 करोड़ रुपये की बढोतरी की गई है जबकि यूजीसी को आवंटित निधियों को तो 4,922.7 करोड़ रुपये के पिछले वर्ष के संशोधित अनुमान से घटा कर 4722.7 करोड़ रुपये कर दिया गया है।

हालांकि कृषि के अलावा, वित मंत्री जेटली के भाषण में सबसे अधिक उपयोग में लाए गए शब्द स्वास्थ्य एवं शिक्षा ही थे जो कि पिछले कुछ वित्तीय वर्षों के लिहाज से एक दुर्लभ उदाहरण है-लेकिन विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए निधियों का बजटीय आवंटन लगातार निराशाजनक बना हुआ है।

अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा की स्थिति (एआईएसएचई) 2016-17 डाटा के अनुसार, भारत में 864 विश्वविद्यालय हैं, 40,026 महाविद्यालय हैं, 11,669 स्वनिर्भर संस्थान और उच्चतर शिक्षा के आकांक्षी छात्रों की संख्या 3.5 करोड़ है। इनमें से 79.4 प्रतिशत पूर्वस्नातक स्तर के कार्यक्रमों में नामांकित हैं। एआईएसएचई के डाटा से यह भी प्रदर्शित होता है कि राज्यों के सरकारी विश्वविद्यालयों में नामांकन में वृद्धि पिछले तीन वर्षों (2014-2017) के दौरान ‘काफी अधिक’ रही है और 2016-17 में यह 30 लाख की बहुत ऊंची संख्या तक पहुंच गई है जबकि, केंद्र वित पोषित संस्थानों में नामांकन महज सात लाख है। यह तथ्य बहुत बेचैनी पैदा करने वाला है कि सरकार ने सभी प्रमुख योजनाएं केवल कुछ चुनिंदा संस्थानों के लिए निर्धारित कर दी हैं जिनमें देश में उच्च शिक्षा के आकांक्षी केवल 2 प्रतिशत छात्र ही दाखिला ले पाते हैं।

सितंबर 2016 में सर्कुलेट किए गए कैबिनेट नोट के अनुसार, पुनर्संरचित उच्चतर शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी (एचईएफए) द्वारा वित्तपोषित बेहद चर्चित एवं प्रशंसित योजना ‘शिक्षा में अवसंरचना एवं प्रणलियों का पुनर्जीवन (आरआईएसई)’ का लक्ष्य ‘प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों’ के बुनियादी ढांचे को मजबूत एवं समर्थ बनाना है।

एचईएफए का सृजन केंद्र द्वारा वित्तपोषित उच्चतर शैक्षणिक संस्थानों के बीच उन्हें फंड उधार लेने, पैसे जुटाने एवं ट्यूशन, अनुसंधान आमदनी आदि के माध्यम से खुद आय सृजित करके उन्हें भुगतान करने के द्वारा राजकोषीय अनुशासन को सुगम बनाने के लिए किया गया था।

नोट में कहा गया है कि “एचईएफए .. आईआईटी/आईआईएम/एनआईटी एवं ऐसे अन्य संस्थानों में बुनियादी ढांचों एवं विश्व स्तरीय प्रयोगशालाओं के विकास के लिए परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए 20,000 करोड़ रुपये तक जुटाने के लिए इक्विटी का लाभ उठाएगी।” 2018 के आम बजट में एचईएफए को 2,750 करोड़ रुपये के आवंटन की मंजूरी दी गई है।

शिक्षा की ‘गुणवत्ता’ को कारगर तरीके से लक्षित करने के लिए वांछित था कि सरकार राज्यों के सरकारी विश्वविद्यालयों को अधिक फंड प्रदान करती जो दयनीय स्थिति में-डिजिटल रूप से अपंग, शैक्षणिक रूप से निम्न एवं प्रशासनिक रूप से बंधनों में जकड़े हुए हैं। यह भी जरुरी है कि उन्हें अन्य ‘उत्कृष्ट’ संस्थानों की तरह एचईएफए फंडों की समान रूप से सुविधा प्राप्त हो। पूर्व छात्रों के मजबूत आधार एवं उद्योग जगत के  समर्थन के अभाव में, इन संस्थानों को कार्य करने तथा फलने फूलने के लिए ‘निम्न लागत’ फंडों की कहीं अधिक आवश्यकता है।

शिक्षा की ‘गुणवत्ता’ को कारगर तरीके से लक्षित करने के लिए वांछित था कि सरकार राज्यों के सरकारी विश्वविद्यालयों को अधिक फंड प्रदान करती जो दयनीय स्थिति में-डिजिटल रूप से अपंग, शैक्षणिक रूप से निम्न एवं प्रशासनिक रूप से बंधनों में जकड़े हुए हैं।

हालांकि पीएचडी छात्रों के लिए ‘पीएम रिसर्च फेलोज’ का सृजन एक बेहद सराहनीय कदम है और इसमें देश में गुणवत्तापूर्ण शोधकर्ताओं की संख्या बढ़ाने की क्षमता है, लेकिन इसे भी केवल कुलीन (इलीट) और सरकारी वित्तपोषित संस्थानों तक ही सीमित कर दिया गया है। इस योजना के तहत, प्रमुख संस्थानों से 1,000 सर्वश्रेष्ठ बी टेक छात्रों की पहचान आईआईटी एवं आईआईएससी में पीएचडी करने के लिए की जाएगी और उन्हें 75 हजार रुपये की छात्रवृत्ति दी जाएगी।

ज्यादा विवेकपूर्ण यह होगा कि केवल इस अवसर को केवल आईआईटी के बी टेक छात्रों की जगह बिना किसी भेदभाव के और शुद्ध रूप से प्रतिभा और उम्मीदवार की योग्यता के आधार पर सभी संस्थानों के उम्मीदववारों के लिए खोल दिया जाए। जैसेकि सरकार को उम्मीद है कि ऐसे छात्र स्वैच्छिक रूप से उच्चतर शिक्षा के संस्थानों में पढ़ाना पसंद करेंगे, इस अध्येतावृत्ति के दायरे को विस्तारित किए जाने की आवश्यकता है जिससे कि हमारे महाविद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण प्रोफेसरों की कमी की क्षतिपूर्ति की जा सके।

इस सरकार की एक अन्य महत्वाकांक्षी पहल ‘उत्कृष्टता के संस्थान’ है जिसके फंड आवंटन में पांच गुना बढोतरी की गई है जो पिछले वर्ष के 50 करोड़ रुपये से बढ़ कर इस वर्ष 250 करोड़ रुपये कर दी गई है।

इसे एक विघटनकारी कार्यक्रम की तरह प्रस्तावित किया गया जिसमें भारतीय उच्चतर शिक्षा के भविष्य को रूपांतरित कर देने की क्षमता है, लेकिन बदकिस्मती से यह भी केवल संपन्न संस्थानों का ही समर्थक है। इस योजना के तहत, सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के 10 एवं निजी क्षेत्र के 10 संस्थानों की सहायत करने का प्रस्ताव रखा है और इस बात की केवल कल्पना ही की जा सकती है कि जब इन 10 संस्थानों के लिए प्रतिस्पर्धा करने की बात आती है तो राज्यों के हमारे सरकारी विश्वविद्यालयों की स्थिति कहां है? वैश्विक रैंकिंग सूचियों के लगभग विपरीत, भारत ने अपनी खुद की राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग संरचना (एनआईआरएफ) का निर्माण किया जिससे कि स्थानीय रूप से अनुकूल मानकों के आधार पर संस्थानों की रैंकिंग कर सके। बहरहाल, यह देखना काफी निराशाजनक था कि राज्यों के हमारे सरकारी विश्वविद्यालय वहां भी अपनी पहचान स्थापित करने में विफल रहे।

दुनिया भर के अधिकांश देशों में, नगरों का विकास विश्वविद्यालयों के इर्द गिर्द होता है, अर्थव्यवस्थाएं उनके कारण फलती फूलती हैं, परिसरों में किए गए अनुसंधानों के आधार पर समाज आगे बढ़ते हैं और शिक्षाविद् सरकार के किसी भी नीति आधारित मुद्वे के मामले में सबसे अधिक परामर्श किए जाने वाले विशेषज्ञ होते हैं। भारतीय विश्वविद्यालय इनमें किसी भी काम को अंजाम देने में विफल रहे हैं। इसकी बड़ी वजह सरकार की कभी खत्म न होने वाली उदासीनता रही है जिसने उन्हें अनगिनत सख्त विनियमनों एवं राजनीतिक साजिशों के बंधनों से मुक्त होने की छटपटाहट में दबोच रखा है।

हमारे अधिकांश कुलीन संस्थान स्वायतशासी हैं और पहले ही उन लाभों का आनंद उठा रहे हैं जो स्वायतशासी होने से जुड़ी हैं। अब समय आ गया है कि सरकार लाखों छात्रों को लाभ पहुंचाने के लिए हमारे राज्यों के सरकारी विश्वविद्यालयों का उत्थान करे जो एक न्यायसंगत, टिकाऊ एवं आर्थिक रूप से विकसित भारत को आकार दे सकते हैं। सरकार को निश्चित रूप से अपने चिर परिचित वायदे ‘सब का साथ सब का विकास‘ की मूल भावना को राज्यों के सरकारी विश्वविद्यालयों तक विस्तारित करना चाहिए जो ‘अधिकतम सरकार न्यूनतम शासन’ के चिरकालिक शिकार हैं। यह नारा भी भारत की नौकरशाही की एक अन्य वास्तविकता है जिसे बदलने का मोदी सरकार ने संकल्प लिया है।

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