Published on Nov 11, 2021 Updated 0 Hours ago

ऊर्जा के मोर्चे पर हालिया तकनीकी उन्नति से कम कार्बन वाली ऊर्जा की प्रचुर मात्रा की आपूर्ति संभव हो सकती है; हालांकि, इससे जुड़ी ऐसी कई समस्याएं हैं, जिनसे पहले निपटना होगा.

फ्यूज़न एनर्जी में सफलता: क्या प्रचुर मात्रा में कम कार्बन वाली ऊर्जा हमारी पहुंच के भीतर है?

हाल में हुई प्रगति

हाल में आई कुछ ख़बरें ये इशारा करती हैं कि दुनिया फ्यूज़न एनर्जी के मामले में एक बड़ी तकनीकी सफलता के बेहद क़रीब पहुंच चुका है. ख़बर है कि अमेरिका में नेशनल इग्निशन फैसिलिटी, न्यूक्लियर फ्यूज़न रिसर्च से जुड़े जिस लक्ष्य के लिए लंबे समय से कोशिश कर रही थी, अब वो इसके बिल्कुल क़रीब पहुंच चुकी है. ये लक्ष्य, खपत से ज़्यादा ऊर्जा बनाने का है. ब्रिटेन में एक नया रिएक्टर ऐसे ईंधनों को मिलाकर एक अहम परीक्षण करने की तैयारी में है, जिससे आख़िकार ITER (इंटनरेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर या फिर लैटिन भाषा में कहें कि ‘रास्ता’) या दुनिया के सबसे बड़े न्यूक्लियर फ्यूज़न प्रयोग की राह खुलेगी. ITER को भारत समेत 35 देशों की सरकारों से पर्याप्त मात्रा में फंड मिल रहा है. इसका मक़सद फ्यूज़न एनर्जी की वैज्ञानिक और तकनीकी संभावना को साबित करना है. फ्यूज़न एनर्जी, लंबे समय से सरकारी अनुसंधान और अंतरराष्ट्रीय सहयोग वाला क्षेत्र रहा है. लेकिन अब बहुत से निजी निवेशक न्यूक्लियर फ्यूज़न एनर्जी को लेकर गंभीर हो रहे हैं. अमेरिका और यूरोप में फ्यूज़न एनर्जी से जुड़ी 24 निजी कंपनियों को वर्ष 2020 में क़रीब 30 करोड़ डॉलर का निवेश हासिल हुआ था. ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, ये रक़म इन कंपनियों को अब तक हासिल हुए कुल निवेश का 20 प्रतिशत है. हालांकि, अभी ज़्यादातर निजी कोशिशें, बड़े पैमाने पर कारोबार करने की स्थिति में नहीं हैं. लेकिन, इनमें से कुछ का ये यक़ीन है कि वो अगले पांच से दस साल के भीतर फ्यूज़न एनर्जी के क्षेत्र की राह में खड़ी अहम तकनीकी बाधाओं से पार पाने में कामयाब हो जाएंगे.

फ्यूज़न एनर्जी, लंबे समय से सरकारी अनुसंधान और अंतरराष्ट्रीय सहयोग वाला क्षेत्र रहा है. लेकिन अब बहुत से निजी निवेशक न्यूक्लियर फ्यूज़न एनर्जी को लेकर गंभीर हो रहे हैं. अमेरिका और यूरोप में फ्यूज़न एनर्जी से जुड़ी 24 निजी कंपनियों को वर्ष 2020 में क़रीब 30 करोड़ डॉलर का निवेश हासिल हुआ था.

बुनियादी बातें

न्यूक्लियर फ्यूज़न में दो हलके परमाणु नाभिक (हाइड्रोजन या हाइड्रोजन के आइसोटोप ड्यूटेरियम (D) और ट्राइटियम (T) आपस में जुड़कर एक भारी कण (हीलियम) बनाते हैं. इसका नतीजा ये होता है कि उनका एक हिस्सा गतिशील ऊर्जा मे तब्दील हो जाता है. फिर इस ऊर्जा का इस्तेमाल करके भाप की वो टर्बाइन चलाई जा सकती है, जो बिजली बनाती है. इसकी तुलना में न्यूक्लियर फिज़न की प्रक्रिया में यूरेनियम या प्लूटोनियम जैसे तत्वों के भारी कण छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जाते हैं. इनसे दो या तीन न्यूट्रॉन ऊर्जा के साथ निकलते हैं. कणों को ऊर्जा में बदलने के ये दो बुनियादी परिवर्तनों का हिसाब आइंस्टाइन के समीकरण E=mc2 के ज़रिए लगाया जा सकता है. यहां पर E का मतलब है ऊर्जा. M का मतलब है मास या कण और c2 का मतलब है, निर्वात में प्रकाश की गति का वर्ग. थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी से उपजा ये समीकरण, ये बताता है कि कैसे बेहद मामूली कणों के भीतर भारी मात्रा में ऊर्जा क़ैद है.

ड्यूटेरियम, क़ुदरती तौर पर समुद्र के पानी (प्रति घन मीटर में 30 ग्राम) में पाया जाता है. यानी ये ऊर्जा के अन्य स्रोतों की तुलना में प्राकृतिक रूप से ही प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है. वहीं, ट्राइटियम भी मिलता तो प्राकृतिक रूप (ये ब्रह्मांड से आने वाली किरणों से बनता है) से ही है. लेकिन इसकी तादाद बहुत कम होती है और रेडियोएक्टिव होने के चलते ये 12 साल में आधा हो जाता है. इसकी उपयोग के लायक़ मात्रा को किसी पारंपरिक परमाणु रिएक्टर या लीथियम से फ्यूज़न रिएक्टर में भी बनाया जा सकता है. लीथियम, धरती की ऊपरी सतह पर भारी मात्रा (हर दस लाख में 30 कण) में और इससे काफ़ी कम तादाद में समुद्र में पाया जाता है.

किसी फ्यूज़न रिएक्टर में ड्यूटेरियम और ट्राइटियम को मिलाकर बनाए गए न्यूट्रॉन, लीथियम के कणों वाले उस कंबल में सोख लिए जाते हैं, जो रिएक्टर के कोर को चारों तरफ़ से घेरे रहता है. फिर ये लीथियम, ट्राइटियम (जिसे रिएक्टर के ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है) और हीलियम में बदल जाता है. रिएक्टर के कोर को ढंकने वाला ये कंबल इतना मोटा (लगभग एक मीटर) होता है कि वो ऊर्ज़ा से लबरेज़ न्यूट्रॉन की रफ़्तार धीमी कर देता है. न्यूट्रॉन की गतिशील ऊर्जा को कंबल सोख लेता है और ये गर्म हो जाता है. फिर इस गर्मी में क़ैद ऊर्जा को ठंडा करने वाले कूलैंट को कंबल से गुज़ारकर (पानी, हीलियम या दूसरे रासायनिक तत्व) ऊर्जा को इकट्ठा किया जाता है. इसके बाद किसी भी फ्यूज़न बिजलीघर में इसी ऊर्जा का इस्तेमाल करके पारंपरिक तरीक़ों से बिजली बनाई जाती है.

किसी फ्यूज़न रिएक्टर में ड्यूटेरियम और ट्राइटियम को मिलाकर बनाए गए न्यूट्रॉन, लीथियम के कणों वाले उस कंबल में सोख लिए जाते हैं, जो रिएक्टर के कोर को चारों तरफ़ से घेरे रहता है.

फ्यूज़न की रासायनिक प्रक्रिया होने के लिए परमाणु तत्वों के भीतर रासायनिक क्रिया का विरोध करने वाले कूलोंब बल पर क़ाबू पाना ज़रूरी होता है. ये 15 करोड़ डिग्री सेल्सियस पर ही संभव होता है. इतने अधिक तापमान पर ईंधन प्लाज़्मा की अवस्था (बेहद गर्म तत्व जिसमें इलेक्ट्रॉन, परमाणु से अलग होकर आयन सरीखी गैस का रूप धारण कर लेते हैं, जिसे तत्व की चौथी अवस्था भी कहा जाता है) में पहुंच जाता है और फिर उसे चुंबक के ज़रिए सीमित किया जाता है. इस अवस्था में तापमान, घनत्व और समय के पैमाने आपस में बदलकर, तत्व को इकट्ठा किया जा सकता है. इन सबका अधिकतम मेल लॉसन पैमाना कहा जाता है. इस समय तत्वों पर क़ाबू पाने के दो प्रायोगिक तरीक़े, फ्यूज़न पर रिसर्च कर रहे सरकारी और निजी केंद्रों में आज़माए जा रहे हैं: मैग्नेटिक कनफाइनमेंट फ्यूज़न (MCF) और इनर्शियल कनफाइनमेंट फ्यूज़न (ICF). पहली प्रक्रिया में गर्म प्लाज़्मा पर क़ाबू पाने के लिए ताक़तवर चुंबकीय क्षेत्रों का इस्तेमाल किया जाता है. वहीं, दूसरी प्रक्रिया के तहत फ्यूज़न ईंधन को बेहद अधिक घनत्व वाली नली में इकट्ठा किया जाता है. इसके लिए ताक़तवर लेज़र या पार्टिकल किरणों का इस्तेमाल होता है.

इस समय जिस MCF तकनीक का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल, लॉसन पैमाना हासिल करने के लिए किया जा रहा है, वो टोकामाक परिकल्पना पर आधारित है. टोकामाक परिकल्पना को वर्ष 1951 में सोवियत वैज्ञानिकों आंद्रेई सखारोव और इगोर टैम ने मिलकर किया था. प्राइवेट सेक्टर के कई फ्यूज़न पॉवर प्रयोगों में इसी के तमाम रूपों का इस्तेमाल किया जा रहा है. एक पारंपरिक टोकामाक डोनट के आकार का होता है. इसके चारों तरफ़ सुपरकंडक्टिंग इलेक्ट्रो-मैग्नेट होते हैं. इसमें प्लाज़्मा ईंधन होता है, जो ड्यूटेरियम और ट्राइटियम से मिलकर बना होता है. ये चुंबक प्लाज़्मा को गर्म करने और फिर इसे क़ाबू में रखने का दोहरा काम करते हैं. इस तरह से वो प्लाज़्मा का घनत्व बरक़रार रखते हुए उसे रिएक्टर की स्थिर दीवार से दूर रखते हैं. अगर ये प्लाज़्मा दीवार को छू लेता है, तो फिर ये तुरंत ही ठंडा हो जाता है.

टोकामाक बहुत बड़े आकार के उपकरण होते हैं. लेकिन, एक निजी पहल में छोटे आकार का टोकामाक इस्तेमाल हो रहा है. इसमें बहुत ताक़तवर चुंबक लगे हुए हैं, जिससे चुंबकीय क्षेत्र बहुत कम जगह में समा गया है. तापमान अधिक होने पर ये चुंबक ऊर्जा के सुपरकंडक्टर बन जाते हैं. इसलिए, इन्हें तरल नाइट्रोजन के इस्तेमाल से ठंडा किया जा सकता है. तरल हीलियम की तुलना में तरल नाइट्रोजन काफ़ी सस्ती होती है. फ्यूज़न का प्रयोग कर रही एक और संस्था ज़्यादा गोलाकार टोकामाक इस्तेमाल करती है, जिसमें प्लाज़्मा ज़्यादा स्थिर रहता है और फिर इस पर क़ाबू पाना और आसान हो जाता है. फ्यूज़न रिएक्टर अब तक 1.5 करोड़ डिग्री सेल्सियस के प्लाज़्मा तापमान का स्तर हासिल कर चुका है. लॉसन पैमाने तक पहुंचने के लिए टोकामाक को 15 करोड़ डिग्री सेल्सियस तापमान तक पहुंचना होता है. ये उसका दो तिहाई है. एक कंपनी ड्यूटेरियम, ट्राइटियम और बोरॉन के बजाय सामान्य हाइड्रोजन का इस्तेमाल कर रही है. हीलियम के नाभिक और न्यूट्रॉन के बजाय इस रिएक्टर से हीलियम के तीन नाभिक पैदा होते हैं. लेकिन इस फ्यूज़न रिएक्टर को अरबों डिग्री सेल्सियस तापमान तक गर्म करने की ज़रूरत होती है. ये किसी भी फ्यूज़न प्रयोग में पहुंचे तापमान से कई गुना अधिक है.

फ्यूज़न का प्रयोग कर रही एक और संस्था ज़्यादा गोलाकार टोकामाक इस्तेमाल करती है, जिसमें प्लाज़्मा ज़्यादा स्थिर रहता है और फिर इस पर क़ाबू पाना और आसान हो जाता है. फ्यूज़न रिएक्टर अब तक 1.5 करोड़ डिग्री सेल्सियस के प्लाज़्मा तापमान का स्तर हासिल कर चुका है.

MCF और ICF तकनीक को मिलाकर एक नया तरीक़ा विकसित किया गया है, जिसे चुंबकीय लक्ष्य फ्यूज़न (MTF) कहते हैं. इसे मैग्नेटो इनर्शियल फ्यूज़न (MIF) भी कहा जाता है. इस समय कई तरह के MTF सिस्टम को प्रयोगों में इस्तेमाल किया जा रहा है. इस तकनीक में प्लाज़्मा को सीमित रखने के लिए चुंबकीय क्षेत्र को लेज़र के ज़रिए दबाव बनाकर तापमान बढ़ाया जाता है. इसे इलेक्ट्रोमैग्नेटिक या मेकैनिकल लाइनर इंप्लोज़न कहते हैं. पुरानी तकनीक की तुलना में, इस मिले जुले तरीक़े से प्लाज़्मा को लंबे समय तक सीमित रखने में कम समय लगता है. इसके उलट चुंबकीय दबाव को अक्रियता की स्थिति में सीमित करने की तुलना में, कम समय में हासिल किया जा सकता है. इससे मैग्नेटिक, केमिकल या तुलनात्मक रूप से कम ताक़त वाले लेज़र ड्राइवर के ज़रिए प्लाज़्मा पर दबाव बनाया जाता है. प्लाज़्मा को स्थिर करने और सही दबाव की स्थिति बनाने में कम समय लगने के कारण MTF तकनीक को कम लागत वाले आसान तरीक़े के रूप में देखा जा रहा है. पारंपरिक फ्यूज़न प्रोजेक्ट के मुक़ाबले इस तकनीक से फ्यूज़न एनर्जी बनाने पर आजकल ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है.

स्टेलार्टर, MCF की परिकल्पना पर आधारित हैं. लेकिन वो ग़ैर असमान कॉइल का इस्तेमाल करते हैं, जिससे तीन आयामों में प्लाज़्मा को स्थिर किया जा सके. फ्यूज़न तकनीक का फिशन के साथ मेल भी किया जा सकता है. इसे हाइब्रिड न्यूक्लियर फ्यूज़न कहते हैं जहां पर रिएक्टर के कोर के चारों तरफ़ लिपटा कंबल सब-क्रिटिकल फिशन रिएक्टर होता है. फ्यूज़न रिएक्शन, इस कंबल के लिए न्यूट्रॉन के स्रोत का काम करता है. इसी कंबल में न्यूट्रॉन को पकड़कर रखा जाता है, जिनमें फिशन रिएक्शन होता है. इससे और भी न्यूट्रॉन बनते हैं. किसी हाइब्रिड फ्यूज़न सिस्टम में, कंबल में जो ईंधन होता है, उसे न्यूट्रॉन की लगातार बमबारी जारी रखने के लिए नए तत्वों के विकास की ज़रूरत नहीं होती. जबकि किसी पारंपरिक फ्यूज़न सिस्टम में ये ज़रूरत होती है. हाइब्रिड सिस्टम का एक और फ़ायदा ये है कि खपत से ज़्यादा बिजली बनाने के लिए, फ्यूज़न की प्रक्रिया से उतने न्यूट्रॉन बनाने की ज़रूरत नहीं होती, जितने न्यूट्रॉन बनाने की ज़रूरत ग़ैर-हाइब्रिड फ्यूज़न रिएक्टर में होती है. इस मामले में बड़े पैमाने पर बिजली बनाने की क्षमता रखने वाले हाइब्रिड फ्यूज़न रिएक्टर का इतना बड़ा होना ज़रूरी नहीं होता, जितना बड़ा रिएक्टर सिर्फ़ फ्यूज़न तकनीक वाले सिस्टम में चाहिए.

कोल्ड फ्यूज़न के दावों के कारण, अब नैनोटेक्नोलॉजी के स्तर पर कम ऊर्जा वाले न्यूक्लियर रिएक्शन (LENR) पर रिसर्च चल रही है. इसमें कमज़ोर परमाणु गतिविधियों (न कि फ्यूज़न या फिज़न जैसी मज़बूत शक्ति) के माध्यम से कम ऊर्जा वाले न्यूट्रॉन बनाए जाते हैं. फिर इन न्यूट्रॉन को पकड़ने की प्रक्रिया के दौरान इनमें आइसोटोपिक या ट्रांसम्यूटेशन के ज़रिए बदलाव किया जाता है. इसमें फौरी तौर पर तेज़ रेडिएशन भी नहीं होता है. LENR के प्रयोगों में हाइड्रोजन या ड्यूटेरियम को एक उत्प्रेरक परत से गुज़ारा जाता है और इसकी किसी धातु से प्रतिक्रिया कराई जाती है. शोधकर्ताओं ने बताया है कि इससे खपत से थोड़ी ही ज़्यादा मात्रा में ऊर्जा निकलती है. 2015 से 2019 के दौरान गूगल ने तीन प्रोजेक्ट में 30 रिसर्चरों को पूंजी मुहैया कराई थी. इसमें निष्कर्ष ये निकला कि LENR के प्रयोग का सफल होना मुमकिन नहीं है. लेकिन इन प्रयोगों से मापने और तत्वों के विज्ञान की तकनीक में कुछ प्रगति हुई है. इस बात के संकेत भी सामने आए थे कि पैलेडियम पर आधारित दो प्रोजेक्ट में अभी और अध्ययन की संभावनाएं हैं.

LENR के प्रयोगों में हाइड्रोजन या ड्यूटेरियम को एक उत्प्रेरक परत से गुज़ारा जाता है और इसकी किसी धातु से प्रतिक्रिया कराई जाती है. शोधकर्ताओं ने बताया है कि इससे खपत से थोड़ी ही ज़्यादा मात्रा में ऊर्जा निकलती है.

नियंत्रित फ्यूज़न के रिसर्च का मक़सद इग्निशन हासिल करना है. ये तब होता है जब पर्याप्त मात्रा में फ्यूज़न रिएक्शन होते हैं और ये प्रक्रिया ख़ुद से आगे चलने लगती है. इसे जारी रखने के लिए बस ताज़ा ईंधन डालने की ज़रूरत होती है. जैसे ही इस इग्निशन के स्तर को हासिल कर लिया जाता है, तो जो भी ऊर्जा बनती है वो विशुद्ध लाभ होती है. अमेरिका के मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (MIT) के मुताबिक़ दबाव के क्षेत्र के साथ ही बनाई जा रही बिजली की मात्रा भी बढ़ती जाती है. मतलब ये कि अगर दबाव को चार गुना ज़्यादा कर दिया जाए, तो बिजली उत्पादन भी बढ़ जाता है. जापान की ओसाका यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ़ लेज़र इंजीनियरिंग में हुए प्रयोग ये संकेत देते हैं कि कम तापमान में भी इग्निशन हासिल किया जा सकता है, अगर बहुत अधिक घनत्व वाली लेज़र किरणों को, दबे हुए ईंधन में रखे एक मिलीमीटर ऊंचे सोने के कोण से गुज़ारा जाए और ये प्रक्रिया दबाव के उच्च स्तर के समय के साथ हो. इस तकनीक को ‘फास्ट इग्निशन’ कहा जाता है. इसका मतलब ये है कि ईंधन पर दबाव को इग्निशन के लिए हॉट स्पॉट बनाने की प्रक्रिया से अलग कर दिया जाता है. इससे ये संपूर्ण प्रक्रिया ज़्यादा व्यवहारिक हो जाती है. इस क्षेत्र में एक बिल्कुल अलग ही परिकल्पना ज़ेड-पिंच (या ज़ीटा पिंच) भी आज़माई जा रही है. इस प्रक्रिया में प्लाज़्मा से बिजली की ताक़तवर धारा गुज़ारी जाती है, जिससे एक्स-रे बनें, जो ड्यूटेरियम और ट्राइटियम ईंधन के छोटे से सिलेंडर पर दबाव बनाएं.

ITER के साथ-साथ बहुत से विकसित देशों में राष्ट्रीय फ्यूज़न कार्यक्रम भी चल रहे हैं. हाल के दिनों मे, इन सबमें चीन में किए जा रहे प्रयोगों ने सबसे ज़्यादा सुर्ख़ियां बटोरी हैं. वर्ष 2017 में चीन की अकादमी ऑफ़ साइंसेज़ हेफेई इंस्टीट्यूट ऑफ़ फिज़िकल साइंस (HFIPS) में एक्सपेरिमेंटल एडवांस्ड सुपरकंडक्टिंग टोकामाक (EAST) के ज़रिए हाइड्रोजन प्लाज़्मा को 5 करोड़ डिग्री सेल्सियस तापमान पर तैयार करके, क़रीब 102 सेकेंड तक स्थिर रखा गया था. नवंबर 2018 में इसी संस्थान ने 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस तापमान को 10 सेकेंड तक बनाए रखने में सफलता हासिल की थी. इसमें सिर्फ़ 10 मेगावाट की बिजली लगी थी. जुलाई 2020 में EAST प्रयोग में 100 सेकेंड से ज़्यादा समय तक प्लाज़्मा को स्थिर रखने में कामयाबी मिली थी. इसे चीन के फ्यूज़न इंजीनियरिंग टेस्ट रिएक्टर (CFETR) भविष्य के लिहाज़ से बहुत अहम सफलता माना गया था. मई 2021 में इस प्रयोग ने एक नया विश्व रिकॉर्ड तब बनाया था, जब 101 सेकेंड तक प्लाज़्मा का तापमान 12 करोड़ डिग्री सेल्सियस बनाए रखा गया था. इस प्रयोग में 20 सेकेंड के लिए प्लाज़्मा का तापमान 16 करोड़ डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था.

फ्यूज़न एनर्जी का अर्थशास्त्र

फ्यूज़न एनर्जी के नफ़ा नुक़सान पर हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि इसके लिए ज़रूरी सब्सिडी की दर 141 डॉलर प्रति मेगावाट घंटे है. वहीं, अगर हम समुद्र में पवन चक्की से बिजली बनाने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी देखें तो साल 2012 में ये दर 136 मेगावाट प्रति घंटे थी, वो भी 2015 की क़ीमतों के आधार पर. वहीं, अगर हम सौर ऊर्जा बनाने वाले बिजलीघरों को दी जाने वाली सब्सिडी देखें, तो ये 2015 की क़ीमतों के आधार पर 249 डॉलर प्रति मेगावाट घंटे थी. तो, इस हिसाब से फ्यूज़न एनर्जी काफ़ी सस्ती पड़ेगी. नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के संसाधनों को दी जाने वाली इन सब्सिडी में कोयले, गैस या जल विद्युत परियोजनाओं को स्टैंड बाय के तौर पर लगातार चलाते रहने की लागत नहीं जुड़ी हुई है. अगर हम फ्यूज़न एनर्जी पर निर्भर होते हैं, तो ऐसे प्लांट को चलाए रखने की ज़रूरत ही नहीं होगी. इस स्टडी के मुताबिक़, अगर हम परमाणु ऊर्जा और जीवाश्म ईंधन से बिजली बनाने की तुलना फ्यूज़न एनर्जी से करें, तो इसका औसत (LCOE) ज़्यादा बैठता है. वहीं, अगर हम फ्यूज़न तकनीक से बिजली बनाने की तुलना सौर ऊर्जा से बिजली बनाने से करें, तो इसकी लागत का औसत काफ़ी कम हो जाता है. अगर हम इसमें बिजली बनाने से जुड़े अन्य बाहरी ख़र्चों (जैसे कि जलवायु परिवर्तन, इंसानों की सेहत को नुक़सान, परमाणु बिजलीघर की सुरक्षा, ऊर्जा सुरक्षा वग़ैरह) से करें, तो फ्यूज़न एनर्जी की कुल लागत (TCOE), परमाणु ऊर्जा के बाद सबसे कम बैठती है. इस लागत में फ्यूज़न बिजलीघर बनाने की तुलनात्मक लागत (LCOE) और अन्य बाहरी ख़र्च शामिल हैं.

अन्य चुनौतियां

आज की तारीख़ तक फ्यूज़न एनर्जी के किसी भी प्रोजेक्ट ने इतनी अधिक मात्रा में बिजली नहीं बनाई है, जो इसे बनाने में लगने वाली बिजली से कहीं ज़्यादा हो. लेकिन, अगर ये उपलब्धि हासिल हो जाती है, तो इसका मतलब ये होगा कि दुनिया को प्रचुर मात्रा में कम कार्बन उत्सर्जन वाली बिजली की आपूर्ति हो सकती है. ड्यूटेरियम और ट्राइटियम के बीच हर बार फ्यूज़न से 17.6 MeV (मिलियन इलेक्ट्रॉन वोल्ट) निकलता है, जो यूरेनियम के सामान्य परमाणु रिएक्शन से चार गुना अधिक ऊर्जा है. गैस में फ्यूज़न के रिएक्शन से पैदा होने वाली बिजली का घनत्व ठोस ईंधन वाले फिज़न रिएक्शन से कम होता है, और इससे गर्मी भी लगभग 70 गुना कम निकलती है. इसलिए, थर्मोन्यूक्लियर फ्यूज़न से निकलने वाली बिजली का घनत्व न्यूक्लियर फिज़न रिएक्शन से हमेशा बहुत कम होगा. इसका मतलब ये है कि किसी फिज़न रिएक्टर के बराबर बिजली पैदा करने वाला फ्यूज़न रिएक्टर आकार में कहीं ज़्यादा बड़ा और महंगा होगा. इसके अलावा परमाणु विखंडन (Fission) करने वाले रिएक्टर ठोस ईंधन का इस्तेमाल करते हैं. इसलिए, इनसे निकलने वाली ऊर्जा ज़्यादा घनी होती है. वहीं, फ्यूज़न प्रक्रिया से निकलने वाली न्यूट्रॉन की ऊर्जा, विखंडन से अधिक यानी 2 MeV की तुलना में गभग 14.1 MeV होती है. इससे रिएक्टर बनाने में इस्तेमाल होने वाले तत्वों को लेकर कई अहम चुनौतियां खड़ी होती हैं.

आज की तारीख़ तक फ्यूज़न एनर्जी के किसी भी प्रोजेक्ट ने इतनी अधिक मात्रा में बिजली नहीं बनाई है, जो इसे बनाने में लगने वाली बिजली से कहीं ज़्यादा हो. लेकिन, अगर ये उपलब्धि हासिल हो जाती है, तो इसका मतलब ये होगा कि दुनिया को प्रचुर मात्रा में कम कार्बन उत्सर्जन वाली बिजली की आपूर्ति हो सकती है.

1 ग्राम फ्यूज़न ईंधन 12 टन कोयले के बराबर होता है. इसका मतलब ये होगा कि भारत को अपने कोयले के सभी बिजलीघरों की जगह फ्यूज़न एनर्जी के लिए हर साल केवल 70 टन फ्यूज़न ईंधन चाहिए होगा. आधुनिक दौर के किसी भी पश्चिमी देश के घर को गर्म रखने के लिए हर साल 55 हज़ार बैरल तेल की ज़रूरत होती है. ऐसे ही दस हज़ार घरों को फ्यूज़न एनर्जी से गर्म रखने के लिए पानी से निकाले गए बस एक लीटर ड्यूटेरियम और ट्राइटियम की ज़रूरत होगी. और जहां 55 हज़ार बैरल तेल जलाने से 23,500 कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) निकलती है. वहीं, फ्यूज़न एनर्जी तैयार करने में बिल्कुल भी कार्बन डाई ऑक्साइड नहीं निकलती. किसी रिएक्टर के पूरे जीवनकाल में तो सौर ऊर्जा या पवन ऊर्जा से भी कम कार्बन उत्सर्जन होगा (अगर हम रिएक्टर के निर्माण, बिजली बनाने और प्रति किलोवाट/ घंटे बिजली बनाने के दौरान निकले वाली कार्बन डाई ऑक्साइड को पैमाना बनाएं).

फ्यूज़न रिएक्टर में किसी प्रक्रिया के बेक़ाबू होने का ख़तरा भी नहीं रहेगा. क्योंकि रिएक्टर की बनावट ही ऐसी है कि कोई भी ख़राबी आने पर प्लांट ख़ुद ब ख़ुद बड़ी तेज़ी से बंद हो जाएगा. वैसे तो फ्यूज़न से लंबे समय तक ख़तरनाक बने रहने वाले रेडियोएक्टिव तत्व नहीं निकलते हैं. वहीं जो गैस जलने से बच जाएगी, उससे पावर प्लांट में ही निपटा जा सकेगा. वहीं, रिएक्टर बनाने में इस्तेमाल होने वाले तत्वों के चलते कम और मध्यम अवधि के लिए ही रेडियोएक्टिव कचरा पैदा होगा. किसी भी रिएक्टर के जीवनकाल के दौरान उसे बनाने में लगे कुछ तत्व ज़रूर रेडियोएक्टिव विकिरण पैदा कर सकते हैं, क्योंकि उन पर ऊर्जा से लबरेज़ न्यूट्रॉन की बमबारी की जाएगी. आख़िर में ये तत्व रेडियोएक्टिव कचरे में तब्दील हो जाएंगे. विखंडन वाले मौजूदा परमाणु रिएक्टरों से पैदा होने वाले रेडियोएक्टिव कचरे की तुलना में, फ्यूज़न रिएक्टर से पैदा होने वाला परमाणु कचरा कुछ ख़ास कम नहीं होगा. लेकिन, इन कचरों में वैसा ज़हरीला विकिरण देखने को नहीं मिलेगा, जो विखंडन से ऊर्जा बनाने वाले परमाणु ईंधन से निकलता है. वहीं, रिएक्टर को चलाने में इस्तेमाल होने वाले तत्वों के कचरे से कुछ साल बाद उसी तरह निपटा जा सकता है, जिस तरह मौजूदा परमाणु बिजलीघरों के कचरे का निपटारा किया जाता है.

विखंडन वाले मौजूदा परमाणु रिएक्टरों से पैदा होने वाले रेडियोएक्टिव कचरे की तुलना में, फ्यूज़न रिएक्टर से पैदा होने वाला परमाणु कचरा कुछ ख़ास कम नहीं होगा. लेकिन, इन कचरों में वैसा ज़हरीला विकिरण देखने को नहीं मिलेगा, जो विखंडन से ऊर्जा बनाने वाले परमाणु ईंधन से निकलता है.

फ्यूज़न एनर्जी बनाने को लेकर कुछ और भी चिंताएं हैं. ये मुख्य रूप से ट्राइटियम के पर्यावरण में घुल-मिल जाने से जुड़ी हैं. ट्राइटियम ऐसा रेडियोएक्टिव पदार्थ है, जिस पर क़ाबू पाना बेहद मुश्किल है. क्योंकि ये कंक्रीट, रबर और कुछ तरह के स्टील में भी घुसपैठ कर सकता है. हाइड्रोजन के एक आइसोटोप के तौर पर ये आसानी से पानी में भी मिल जाता है. इससे ख़ुद पानी भी हल्का सा रेडियोएक्टिव या विकिरण छोड़ने वाला हो जाता है. बारह साल में आधे होने के चलते, ट्राइटियम अपने बनाए जाने के लगभग सवा सौ साल तक सेहत के लिए ख़तरा बना रह सकता है. ये पानी में हो या गैस के रूप में, अगर अधिक मात्रा में होगा तो, सेहत के लिए ख़तरनाक होगा. ये सांस के साथ शरीर के भीतर जा सकता है. या फिर त्वचा के ज़रिए शरीर में घुसपैठ कर सकता है. सांस के ज़रिए शरीर में घुसने पर ट्राइटियम मुलायम पेशियों में फैल जाता है. फिर पानी में घुला ट्राइटियम शरीर में मौजूद पानी के हर रूप में शामिल हो जाता है. वैसे तो किसी भी फ्यूज़न रिएक्टर में ट्राइटियम की बहुत थोड़ी सी यानी कुछ ग्राम मात्रा होती है. लेकिन हर एक रिएक्टर को चलाने के दौरान इससे, ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षित व्यवस्था होने और सावधानियां बरते जाने के बावजूद, लीकेज के ज़रिए काफ़ी मात्रा में ट्राइटियम निकल सकता है. वहीं, कोई हादसा होने पर बाहर निकल सकने वाले ट्राइटियम की मात्रा और बढ़ सकती है. इसी वजह से फ्यूज़न एनर्जी में उम्मीद की रौशनी देख रहे लोग, ट्राइटियम के बजाय ड्यूटेरियम और ड्यूटेरियम के फ्यूज़न से बिजली बनाने की उम्मीद कर रहे हैं. जब तकनीक विकसित हो जाएगी, तो फ्यूज़न एनर्जी से दुनिया की बिजली की ज़रूरत को काफ़ी हद तक पूरा किया जा सकता है. लेकिन, अगर इसे भविष्य में ऊर्जा के सबसे बड़े स्रोत के रूप में विकसित करना है, तो इससे जुड़ी इन चुनौतियों का हल तलाशना भी ज़रूरी होगा.

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Authors

Lydia Powell

Lydia Powell

Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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