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शिक्षा कूटनीति भारत-जर्मनी संबंधों को नया रूप दे रही है—आवागमन, कौशल और सहयोग मिलकर ‘ब्रेन ड्रेन’ को ‘ब्रेन सर्कुलेशन’ में बदल रहे हैं.
21वीं सदी के आग़ाज़ के साथ ही अंतरराष्ट्रीय शिक्षा के परिदृश्य में धीरे-धीरे काफ़ी बदलाव आ गया है. अब छात्रों के दूसरे देशों में जाकर पढ़ने को कोई देश नुक़सान या फिर ‘ब्रेन ड्रेन’ के तौर पर नहीं देखता, बल्कि इसे राष्ट्रीय संपत्ति पोषित करने का ज़रिया मानता है. इससे ज्ञान के आदान प्रदान, सांस्कृतिक लेन-देन और हुनरमंद लोगों की दो देशों के बीच परस्पर आवाजाही में वृद्धि हुई है, जिसे आज ‘ब्रेन सर्कुलेशन’ कहा जा रहा है. इससे दुनिया भर में नेटवर्क का विस्तार हो रहा है, देशों के बीच आपसी संबंध मज़बूत हो रहे हैं और विदेश पढ़ने जाने वाले छात्र वहां से कमाई करके, विदेशी मुद्रा स्वदेश भेज रहे हैं.
ज्ञान के आदान प्रदान, सांस्कृतिक लेन-देन और हुनरमंद लोगों की दो देशों के बीच परस्पर आवाजाही में वृद्धि हुई है, जिसे आज ‘ब्रेन सर्कुलेशन’ कहा जा रहा है. इससे दुनिया भर में नेटवर्क का विस्तार हो रहा है, देशों के बीच आपसी संबंध मज़बूत हो रहे हैं और विदेश पढ़ने जाने वाले छात्र वहां से कमाई करके, विदेशी मुद्रा स्वदेश भेज रहे हैं.
इस बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण भारत और जर्मनी के रिश्ते हैं. जर्मनी अब सिर्फ़ भारत के छात्रों के लिए पढ़ाई की मंज़िल भर नहीं, बल्कि एक ऐसा साझीदार बन गया है, जो प्रवास और आवाजाही, शैक्षणिक सुधार और कौशल विकास में मददगार साबित हो रहा है. इस लेख का मक़सद शिक्षा के क्षेत्र में भारत और जर्मनी के सहयोग के ट्रेंड, नीतियों, अवसरों और चुनौतियों की पड़ताल करना और भारत के लिए संभावित नीतिगत दिशा अपनाने के सुझाव और परिणाम बताना है.
पिछले पांच वर्षों के दौरान, जर्मनी में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या महामारी के वर्षों के दौरान भी दोगुनी हो गई है. 2018-19 में लगभग 20, 810 भारतीय छात्रों ने जर्मनी के विश्वविद्यालयों में दाख़िला लिया था. 2025 में ये आंकड़ा 60 हज़ार पहुंच चुका है और अगर ये सिलसिला आगे भी जारी रहा, तो 2030 तक जर्मनी में पढ़ रहे भारतीय छात्रों की संख्या 114,000 पहुंच जाने की संभावना जताई गई है (नीचे Figure 1 देखें).

Source: Prepared by the author using data from: Daad, 2023, Times of India, and Economic Times
भारत के छात्र अब जर्मनी के विश्वविद्यालयों में दाख़िला लेने वाले विदेशी छात्रों का सबसे बड़ा समूह बन चुके हैं. ये भारतीय छात्र वहां इंजीनियरिंग (60 प्रतिशत); क़ानून, प्रबंधन और सामाजिक अध्ययन (22 फ़ीसद); गणित (14 प्रतिशत) और नेचुरल साइंसेज (4 फ़ीसद) की पढ़ाई कर रहे हैं.
जर्मनी के प्रति भारतीय छात्रों के इस झुकाव के पीछे कई वजहे हैं. जैसे कि पढ़ाई का सस्ती होना, शिक्षा व्यवस्था का उद्योग से नज़दीकी संबंध, वीज़ा और प्रवास की नरम नीतियां. इसके अलावा, जर्मनी की तेज़ी से बूढ़ी हो रही आबादी की वजह से वहां, कुशल कामगारों की भारी मांग भी है. जर्मनी के प्रति आकर्षण की एक प्रमुख वजह ये भी है कि जर्मनी के ज़्यादातर सरकारी विश्वविद्यालय, विशेष रूप से विदेशी छात्रों से पढ़ाई की बहुत मामूली या फिर बिल्कुल भी फ़ीस नहीं लेते हैं, जिससे वहां उच्च शिक्षा प्राप्त करना, अमेरिका, ब्रिटेन या फिर ऑस्ट्रेलिया की तुलना में काफ़ी सस्ता पड़ता है. पढ़ने के लिए जर्मनी जाने वाले बहुत से छात्र वहां, पार्ट टाइम काम करने की सुविधा को भी पसंद करते हैं, जिसको क़ानूनी तौर पर इजाज़त मिली हुई है. जर्मनी को तरज़ीह देने की एक वजह ये भी है कि अब तक शिक्षा के लिए पसंद किए जाते रहे दूसरे देशों ने वीज़ा के नियम कड़े कर दिए हैं. पढ़ाई की फ़ीस बढ़ा दी है और पढ़ाई के बाद काम के नियम भी सख़्त कर दिए हैं. इस वजह से इन देशों में पढ़ने जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या बढ़ नहीं रही है. मिसाल के तौर पर हाल ही में अमेरिका ने अपने यहां वीज़ा के नियम सख़्त कर दिए हैं; कनाडा ने स्टूडेंट वीज़ा की संख्या सीमित करने के साथ ही दूसरी पाबंदियां भी लगा दी हैं; और ब्रिटेन ने अंतरराष्ट्रीय छात्रों के साथ आने वाले उनके आश्रितों के लिए नियम कड़े कर दिए हैं, जिससे अब विदेश जाने वाले छात्र दूसरे विकल्पों को आज़मा रहे हैं.
जर्मनी को तरज़ीह देने की एक वजह ये भी है कि अब तक शिक्षा के लिए पसंद किए जाते रहे दूसरे देशों ने वीज़ा के नियम कड़े कर दिए हैं. पढ़ाई की फ़ीस बढ़ा दी है और पढ़ाई के बाद काम के नियम भी सख़्त कर दिए हैं. इस वजह से इन देशों में पढ़ने जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या बढ़ नहीं रही है.
जर्मनी ने भारतीय छात्रों को आकर्षित करने के लिए कुछ नए कार्यक्रम भी शुरू किए हैं, जैसे कि स्कॉलरशिप और स्टडी वीज़ा के बाद 18 महीने के लिए काम करने का वीज़ा देना. इससे वहां पढ़ने वाले छात्रों को शिक्षा से रोज़गार और रिहाइश का एक स्पष्ट रास्ता दिखता है, जिसका लाभ उठाकर वो नौकरियों की तलाश कर सकते हैं.
इसके अलावा, जर्मनी कई प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों में कामगारों की भारी क़िल्लत का भी सामना कर रहा है. जर्मनी की फेडरल एम्पलॉयमेंट एजेंसी की ‘बॉटलनेक ऑक्यूपेशन’ रिपोर्ट के मुताबिक़, नर्सिंग और स्वास्थ्य सेवाओं, कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में और हुनरमंद कामगारों की ज़रूरत वाले उद्योगों पर इस क़िल्लत का विशेष रूप से असर पड़ा है. इसके अलावा, इंजीनियरिंग और IT/STEM के क्षेत्रों में बड़ी तादाद में ख़ाली पड़े ओहदों की वजह से जर्मन अर्थव्यवस्था की उत्पादकता पर बुरा असर पड़ा है. कोलोन इंस्टीट्यूट ने जुलाई 2025 में बताया था कि जर्मनी में कुशल पेशेवर कामगारों के ऐसे 630,000 पद ख़ाली हैं, जिनको फ़ौरन भरे जाने की ज़रूरत है. कामगारों की ये क़िल्लत दिखाती है कि जर्मनी में पढ़ाई करने वाले विदेशी छात्रों के लिए रोज़गार की काफ़ी संभावनाएं हैं, जिसमें उनके जर्मनी में बसने की संभावनाएं भी बढ़ेंगी. पढ़ाई के बाद जर्मनी में रुकने वाले छात्रों की संख्या में भी लगातार वृद्धि होती दिख रही है, और बहुत से विदेशी छात्र जर्मनी के श्रमिक बाज़ार का हिस्सा बन रहे हैं. डेस्टैटिस (जर्मनी का संघीय सांख्यिकी कार्यालय) की एक स्टडी में पाया गया है कि 2006 से 2011 के दौरान यूरोपीय संघ (EU) के बाहर से जर्मनी पढ़ने के लिए आने वाले विदेशी छात्रों में से लगभग एक तिहाई छात्र, एक दशक बाद भी जर्मनी में ही रह रहे थे. वहां बस जाने वाले इन विदेशी छात्रों में से लगभग 32 प्रतिशत भारतीय थे.
जर्मनी और भारत के बीच कुशल कामगारों के प्रवास का जो सबसे अहम समझौता हुआ है, वो 2022 का कॉम्प्रिहेंसिव माइग्रेशन ऐंड मोबिलिटी पार्टनरशिर एग्रीमेंट (CMMPA) है. इस समझौते से कुशल कामगारों के जर्मनी प्रवास का मार्ग प्रशस्त होता है और जर्मनी इसके लिए हर साल 30 हज़ार वर्क वीज़ा जारी करता है. यही नहीं, छात्रों जैसे तबक़ों को बार-बार आवाजाही करने और थोड़े वक़्त के लिए ठहरने का एक्सटेंडेड वीज़ा भी जर्मनी जारी करता है. दोनों देशों के बीच व्यवसायिक शिक्षा, प्रशिक्षण और संयुक्त कार्यकारी समूहों को भी आसानी से वीज़ा देने की व्यवस्था है, ताकि प्रवास, वापसी और आवाजाही के मसले सुलझाए जा सकें. इन सबसे इस समझौते में अतिरिक्त क्षमता जुड़ जाती है. ‘ग्रैटिस वीज़ा’ समझौते के तहत स्कूल और कॉलेज के टुअर के लिए कम अवधि के मुफ़्त वीज़ा देकर जर्मनी आबादी के एक बड़े तबक़े और ख़ास तौर से कमज़ोर तबक़ों से आने वाले छात्रों को सांस्कृतिक सहयोग बढ़ाने वाले दौरों और रिसर्च परियोजनाओं के लिए जाने जैसे तजुर्बे करने का मौक़ा देता है.
ये समझौते, दोनों ही देशों के लिए अहम हैं. जर्मनी को इससे ये फ़ायदा है कि उसके यहां पेशेवर लोगों की कमी पूरी होती है और इस व्यवस्था के ज़रिए वो भारत में क़ानूनी तौर पर प्रतिभाशाली लोगों की पहचान करके उनका जर्मनी जाना सुनिश्चित करता है. स्पष्ट योजना और दोबारा दाख़िले की साफ़ सुथरी प्रक्रिया देकर जर्मनी प्रवासियों की आवाजाही का बेहतर प्रबंधन कर सकता है, अनियमित रूप से रुकने को को कम कर सकता है और भारत से इसी बराबरी का सहयोग देने के लिए कह सकता है.
भारत के नज़रिए से देखें, तो भारत और जर्मनी के बीच प्रवास बढ़ने के कई फ़ायदे हैं. पहला तो ये कि जर्मनी में इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट और नेचुरल साइंसेज जैसे विषय बड़ी तादाद में पढ़ रहे भारतीय छात्रों की बड़ी संख्या ये दिखाती है कि भारत, विदेश में काफ़ी अहम मानवीय पूंजी का निर्माण कर रहा है.
भारत के नज़रिए से देखें, तो भारत और जर्मनी के बीच प्रवास बढ़ने के कई फ़ायदे हैं. पहला तो ये कि जर्मनी में इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट और नेचुरल साइंसेज जैसे विषय बड़ी तादाद में पढ़ रहे भारतीय छात्रों की बड़ी संख्या ये दिखाती है कि भारत, विदेश में काफ़ी अहम मानवीय पूंजी का निर्माण कर रहा है. अगर इनमें से कुछ छात्र जर्मनी में रह भी जाते हैं, तो ज़्यादातर अपने देश लौट आते हैं या फिर भारत से किसी न किसी तरह का संपर्क रिसर्च, स्टार्ट-अप सहयोग या फिर भारत के अप्रवासियों के नेटवर्क में योगदान करके अपने पारंपरिक संपर्कों को बनाए रखते हैं. कौसल और ज्ञान का ये प्रवाह, भारत के उच्च शिक्षा सेक्टर, उद्योग और देश की उद्यमिता वाली भावना के रूपे में वापस लाया जा सकता है.
यही नहीं, CMMPA जैसी क़ानूनी रूप-रेखाएं अनियमित प्रवास को कम करने में मदद करती हैं, मान्यताओं के मानक में एकरूपता लाती हैं और विदेश में रहने वाले छात्रों को संरक्षण देती हैं. ऐसे समझौते कई पहलों के ज़रिए सहयोग को बढ़ाते हैं. इनमें इंडो जर्मन ग्लोबल इनिशिएटिव ऑफ अकादेमिक नेटवर्क्स (GIAN), विज़िटिंग एडवांस्ड ज्वाइंट रिसर्च (VAJRA) और स्कीम फॉर प्रमोशन ऑफ अकादेमिक ऐंड रिसर्च कोलैबोरेशन (SPARC) शामिल हैं, जो शिक्षकों और रिसर्चर्स की आवाजाही को सुगम बनाते हैं और संस्थाों के बीच दूरगामी सहयोग में मददगार साबित होते हैं. सहयोग की ये व्यवस्थाएं तकनीक, जलवायु और व्यापार जैसे अन्य क्षेत्रों में भी दोनों देशों के बीच आपसी विश्वास को बढ़ाते हैं और इससे पता चलता है कि दुनिया में हुनरमंद कामगारों के अप्रवास के नेटवर्क में भारत कितना बड़ा योगदान दे रहा है. ये समझौते दोनों देशों की जनता के बीच संबंध बढ़ाने, रिसर्च में सुधार लाने, शैक्षणिक सहयोग बढ़ाते हैं और अन्य देशों के साथ भी भारत को प्रवास बढ़ाने के ऐसे समझौते करने का अवसर देते हैं. यही नहीं, इससे सोच भी बदलती है: भारत सिर्फ़ कामगारों या छात्रों का स्रोत भर नहीं है, बल्कि मिलकर प्रतिभाओं का इकोसिस्टम बनाने में एक सहयोगी भी है.
प्रवास और आवाजाही की साझेदारियों के ज़रिए कूटनीतिक और कौशल का अधिकतम लाभ लेने के लिए भारत निम्नलिखित नीतिगत क़दम उठाने पर विचार कर सकता है:
औपचारिक और व्यवसायिक शिक्षा के क्षेत्र में इन साझेदारियों से भारत के छात्रों के एक व्यापक तबक़े को और ख़ास तौर से उन छात्रों को भी विदेश में जाकर पढ़ने का मौक़ा मिल सकेगा, जो विदेश में पढ़ने का ख़र्च नहीं उठा सकते हैं. इन क़दमों से वो छात्र भी वैश्विक स्तर की शिक्षा हासिल कर सकेंगे, दूसरे देशों की संस्कृति में काम आने वाली प्रतिभा से लैस हो सकेंगे और अंतराष्ट्रीय श्रमिक बाज़ार, ख़ास तौर से जर्मनी में काम करने की क्षमताएं विकसित कर पाएंगे. इसके साथ ही साथ वो भारत में भी प्रतिभाओं के संरक्षण में योगदान दे सकेंगे, जिससे स्वदेशी संस्थान मज़बूत होंगे और राष्ट्रीय विकास के लक्ष्य प्राप्त करने में भी उनका योगदान होगा.
भारत और जर्मनी के बीच शिक्षा के लिए आवाजाही ब्रेन ड्रेन से बदलकर ब्रेन सर्कुलेशन की सोच को दिखाती है, इससे भारत को कौशल, कूटनीति और वैश्विक प्रभाव बढ़ाने जैसे लाभ प्राप्त होते हैं.
भारत और जर्मनी के बीच शिक्षा के लिए आवाजाही ब्रेन ड्रेन से बदलकर ब्रेन सर्कुलेशन की सोच को दिखाती है, इससे भारत को कौशल, कूटनीति और वैश्विक प्रभाव बढ़ाने जैसे लाभ प्राप्त होते हैं. हालांकि, इसकी संभावना का पूर्ण रूप से दोहन करने के लिए ऐसी नीतियां बनाई जानी चाहिए, जो आवाजाही को सुगम बनाए, जिसके परिणाम दोनों देशों को समान रूप से मिलें और विदेश जाने वाले छात्रों का अपने देश से भी मज़बूत रिश्ता बना रहे. सोच-समझकर लागू किया जाए तो शिक्षा की कूटनीति भारत की मानव पूंजी की रणनीति और अंतरराष्ट्रीय संपर्क में मील का पत्थर साबित हो सकती है.
अर्पण तुलस्यान, सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में वरिष्ठ फेलो हैं.
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Arpan Tulsyan is a Senior Fellow at ORF’s Centre for New Economic Diplomacy (CNED). With 16 years of experience in development research and policy advocacy, Arpan ...
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