Author : Preeti Kapuria

Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर किए जाने वाले रणनीतिक अनुसंधानों और टेक्नोलॉजी ट्रांसफ़र से भारत का कृषि क्षेत्र भी जलवायु से जुड़े नाज़ुक हालातों से निपटने में कामयाब हो सकता है.

सूखे की मार झेलता ऑस्ट्रेलिया का कृषि क्षेत्र: ‘वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए उत्पादकता में सुधार और वैश्विक मूल्य श्रृंखला से जुड़ाव’
सूखे की मार झेलता ऑस्ट्रेलिया का कृषि क्षेत्र: ‘वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए उत्पादकता में सुधार और वैश्विक मूल्य श्रृंखला से जुड़ाव’

ऑस्ट्रेलिया जलवायु से जुड़े चरम हालातों का सामना कर रहा है. बार-बार सूखा पड़ने, भीषण गर्मी, बाढ़ और तापमान में भारी बदलाव आने से वहां की खेती और खाद्य उत्पादन व्यवस्था के सामने ज़बरदस्त चुनौती खड़ी हो गई है. ऐतिहासिक आंकड़ों के मुताबिक 18वीं सदी के आख़िरी हिस्से से वहां सूखे की समस्या कृषि क्षेत्र के लिए बड़ा मसला बनती चली गई. सूखे की मार से फ़सल और भंडार के नुकसान से कृषि क्षेत्र पर निरंतर मार पड़ रही है. पानी की आपूर्ति और उपलब्धता लगातार घटती जा रही है. जंगलों में भीषण आग की घटनाएं, धूल भरी आंधियों, मिट्टी के कटाव और पर्यावरण को नुक़सान पहुंच रहा है. जलवायु परिवर्तन से जुड़े प्रभावों के चलते कृषि की आपूर्ति श्रृंखला में भी खलल पड़ रहा है. ख़ासतौर से खाद, खरपतवारनाशक, कीटनाशक, फफूंदनाशक, बीज, मशीनरी और दूसरे कारकों के प्रकारों और परिमाण पर असर पड़ा है. कृषि के लिए ज़रूरी साज़ोसामानों की आपूर्ति में इन बदलावों के नतीजे के तौर पर जोत के स्तर पर उत्पादन में आ रहे परिवर्तनों से  वितरण और भंडारण पर असर पड़ा है. इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया में विनिर्माण के विकल्पों और कृषि क्षेत्र से जुड़े दूसरे उद्योगों पर भी प्रभाव हुआ है. ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से सूखे की समस्या के स्वरूप में बदलाव की संभावना है. इसी को भांपते हुए कृषि क्षेत्र में सूखा प्रबंधन को लेकर संस्थागत प्रतिक्रियाओं को मज़बूत बनाने और बदलती परिस्थितियों के हिसाब से वैकल्पिक तौर-तरीक़े अपनाने को लेकर किसानों की क्षमता तैयार करने पर ज़ोर दिया जा रहा है. मकसद जलवायु परिवर्तन से जुड़े ख़तरों से पूरी सक्रियता के साथ निपटना है. ऑस्ट्रेलिया में 1992 में राष्ट्रीय सूखा नीति तय की गई थी. जलवायु परिवर्तन से जुड़े प्रभावों से निपटने की ज़िम्मेदारी सीधे तौर पर सक्रिय प्रबंधन के ज़रिए किसानों को सौंपी गई. इसके बाद 2013 की नई सूखा नीति में कृषि कारोबारों के प्रशिक्षण के लिए नए रुख़ का प्रस्ताव किया गया. इसके साथ सामाजिक सहायता सेवाओं के लिए तालमेल बिठाते हुए और गठजोड़ के प्रावधान किए गए. बदलती जलवायु में किसानों के स्तर पर सही सूचनाओं वाले फ़ैसले लेने के लिए उपकरणों और तकनीकों के प्रबंधन की बात कही गई. लिहाज़ा विज्ञान-आधारित कृषि और न्यूनतम सरकारी सब्सिडियों (महज़ 2 फ़ीसदी तक) के ज़रिए उत्पादकता बढ़ाने पर निरंतर ध्यान दिया जा रहा है. दूसरी ओर कृषि कारोबार को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए कृषि मशीनरी, आधुनिकतम प्लांट और पशु प्रजनन कार्यक्रमों के क्षेत्र में निरंतर नवाचारों पर ज़ोर दिया जा रहा है. परिवहन को लेकर भी नित नए बेहतर समाधान तलाशने का काम जारी है. स्थानीय तौर पर विकसित उत्पादन प्रणाली, तकनीक और शोध समेत विकास के मसलों पर अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ ऑस्ट्रेलिया में कृषि कारोबार के विकास के अहम कारक हैं. 

2013 की नई सूखा नीति में कृषि कारोबारों के प्रशिक्षण के लिए नए रुख़ का प्रस्ताव किया गया. इसके साथ सामाजिक सहायता सेवाओं के लिए तालमेल बिठाते हुए और गठजोड़ के प्रावधान किए गए.

जलवायु के प्रतिकूल हालातों से निपटने की कोशिश 

जलवायु के प्रतिकूल हालातों से निपटने के लिए किसानों की ताक़त बढ़ाने में कृषि उत्पादकता में सुधार से जुड़ी क़वायद बुनियादी रूप से अहम है. ढांचागत समायोजन, बदलाव, कृषि-स्तर पर जलवायु जोख़िम प्रबंधन से जुड़े नवाचार, मानव संसाधन में निवेश, अनुसंधान, विकास और विस्तार (RD&E) से ये सुधार लाए गए हैं. सबसे अहम बात ये है कि ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने गहन निवेश के ज़रिए पानी की उपलब्धता और कार्यकुशल तरीक़े से उसका इस्तेमाल सुनिश्चित किया है. इन क़वायदों से ऑस्ट्रेलिया विश्व बाज़ार में अपनी प्रतिस्पर्धी क्षमता बरकरार रखने में कामयाब रहा है. साथ ही किसान परिवारों के लिए आर्थिक रूप से टिकाऊ अवसर भी मुहैया कराए जा सके हैं. 

विविधता से भरा ऑस्ट्रेलिया का कृषि क्षेत्र

ऑस्ट्रेलिया में कृषि, मछली पालन और वानिकी क्षेत्र में अपार विविधताएं मौजूद है. वहां अलग-अलग तरह की फ़सलें और पशुपालन से जुड़े उत्पाद उपलब्ध हैं. यहां के प्रमुख उत्पादों में बीफ़, भेड़, गेहूं, डेयरी, बाग़वानी और पशुपालन उत्पाद शामिल हैं. इस क्षेत्र के उत्पादों का सकल मूल्य 2000-01 में तक़रीबन 62 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2019-20 में 67 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया. ऑस्ट्रेलिया में ज़मीन के कुल इस्तेमाल में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 55 प्रतिशत (तक़रीबन 42.7 लाख हेक्टेयर) है. वहीं भूजल निकास के प्रयोग में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 25 प्रतिशत (2018-19 के हिसाब से 3,113 गीगालीटर) है. 2015-16 से 2017-18 तक तीन सालों के औसत के हिसाब से ऑस्ट्रेलिया ने उत्पादन के कुल मूल्य का तक़रीबन 70 प्रतिशत निर्यात किया. 1988 से 2018 के बीच ऑस्ट्रेलिया के निर्यात में कच्चे उत्पादों और न्यूनतम रूप से बदले गए पदार्थों (मुख्य रूप से मीट) का एक बड़ा हिस्सा रहा है. 2019-20 के आंकड़ों के हिसाब से ऑस्ट्रेलिया में कृषि उत्पादों का सकल मूल्य क़रीब 61 अरब अमेरिकी डॉलर था. वहीं कृषि निर्यातों का मूल्य तक़रीबन 48 अरब अमेरिकी डॉलर रहा. निर्यात के नज़रिए से गेहूं और बीफ़ ऑस्ट्रेलिया के दो सबसे बड़े उत्पाद हैं. दरअसल इन्हीं दोनों क्षेत्रों से ऑस्ट्रेलिया का निर्यात सबसे तेज़ गति से आगे बढ़ रहा है. डेयरी, बाग़वानी और सुअर के मांस का स्थान इनसे पीछे है. 

ऑस्ट्रेलिया की समूची कृषि आपूर्ति श्रृंखला में क़रीब 16 लाख लोगों को रोज़गार हासिल है. जलवायु के मोर्चे पर चरम प्रकार के बदलावों से ऑस्ट्रेलियाई किसानों की उत्पादकता और मुनाफ़ा कमाने की क़ाबिलियत पर असर पड़ा है.

रोज़गार निर्माण में कृषि क्षेत्र की भूमिका बड़ी

बात यहीं पूरी नहीं होती. दरअसल ऑस्ट्रेलिया के कृषि क्षेत्र का वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में सक्रिय तमाम उद्योगों के साथ बैकवर्ड और फ़ॉरवर्ड लिंकेज है. ऑस्ट्रेलिया के कृषि उत्पादक वैश्विक बाज़ार में प्रतिस्पर्धा लायक उत्पाद तैयार करने के लिए वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं और आयातित कच्चे मालों पर निर्भर रहते हैं. मिसाल के तौर पर डेयरी क्षेत्र में न्यूज़ीलैंड समेत तमाम दूसरे देशों से विशिष्ट तरीक़े के कच्चे माल हासिल करने के लिए ऑस्ट्रेलिया बैकवर्ड लिकेंज के आसरे है. इन कच्चे मालों की मदद से ऑस्ट्रेलिया का डेयरी निर्यात आज अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में प्रतिस्पर्धी दरों पर उपलब्ध है. ऑस्ट्रेलिया वैश्विक खाद्य मूल्य श्रृंखला से जुड़ा हुआ है. ऑस्ट्रेलिया के कृषि उद्योग को निर्यात प्रतिस्पर्धा से काफ़ी लाभ मिला है. साथ ही वहां रोज़गार निर्माण में भी कृषि क्षेत्र की बड़ी भूमिका है. ऑस्ट्रेलिया की समूची कृषि आपूर्ति श्रृंखला में क़रीब 16 लाख लोगों को रोज़गार हासिल है. जलवायु के मोर्चे पर चरम प्रकार के बदलावों से ऑस्ट्रेलियाई किसानों की उत्पादकता और मुनाफ़ा कमाने की क़ाबिलियत पर असर पड़ा है. इसके बावजूद वैश्विक मूल्य श्रृंखला में जुड़ाव से ऑस्ट्रेलिया को बड़ा फ़ायदा हुआ है. 

1910 के बाद से ऑस्ट्रेलिया की जलवायु औसतन 1.4 डिग्री सेल्सियस गर्म हो चुकी है. 1950 के बाद तापमान में बढ़ोतरी की रफ़्तार और तेज़ हुई है. दक्षिण-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में सर्दियों के मौसम में होने वाली बरसात में 1970 के बाद से 20 प्रतिशत तक की गिरावट आ चुकी है. साल 2000 के बाद से दक्षिण-पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में होने वाली बारिश में तक़रीबन 12 फ़ीसदी तक की कमी आ चुकी है. नतीजतन वहां फ़सल पैदा करने वाले इलाक़ों में बड़ा नुक़सान हुआ है. इन चुनौतियों के बीच कृषि क्षेत्र की उत्पादकता सुधारने के लिए कई तरह के ढांचागत बदलाव हुए हैं. इस क्षेत्र में उत्पादकता में हुई बढ़ोतरी के तक़रीबन आधे हिस्से के पीछे ढांचागत समायोजनों का हाथ रहा है. इनमें जोत (farm) का एकीकरण करने जैसे उपाय शामिल हैं. इससे जोत की तादाद कम (क़रीब-क़रीब आधी) हो गई है. पिछले 60 वर्षों में ऑस्ट्रेलिया में जोत का आकार (farm size) बढ़ गया है. औसत जोत के बड़े आकार के चलते प्रबंधन के उन्नत तौर-तरीक़ों के विस्तार में मदद मिली है. इससे आकार से जुड़ा आर्थिक लाभ (economies of scale) भी बढ़ा है. कुल मिलाकर कृषि क्षेत्र में आमदनी में बढ़ोतरी दर्ज की गई है. बहरहाल, 2018 के राष्ट्रीय सूखा समझौते के तहत सूखे से जुड़ी नीति की दिशा बदल दी गई. किसानों को कुप्रभावों से बचाने और उनकी हिफ़ाज़त की क़वायदों की बजाए अब उन्हें सूखे के लिए तैयार करने और आत्मनिर्भर बनाने पर ज़ोर दिया जाने लगा. जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए रणनीतियों के इस्तेमाल पर ठोस रूप से ज़ोर दिया जा रहा है. तमाम दूसरे उपायों के साथ-साथ किसानों ने बिना जुताई की खेती से जुड़ा तौर-तरीक़ा अपनाया है. इससे मिट्टी का कटाव रोकने में मदद मिलती है और फ़सलों की पराली बरकरार रहती है. लिहाज़ा मिट्टी में कार्बन से जुड़े कारक की मात्रा बढ़ जाती है. इससे कार्बन के संग्रहण और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने में भी मदद मिलती है. मिट्टी का ढांचा सुधरता है और उसका ऊपजाऊपन बढ़ता है. साथ ही पानी के इस्तेमाल में कार्यकुशलता आती है और कच्चे माल से जुड़े कारकों की लागत घटती है. 

2018 के राष्ट्रीय सूखा समझौते के तहत सूखे से जुड़ी नीति की दिशा बदल दी गई. किसानों को कुप्रभावों से बचाने और उनकी हिफ़ाज़त की क़वायदों की बजाए अब उन्हें सूखे के लिए तैयार करने और आत्मनिर्भर बनाने पर ज़ोर दिया जाने लगा.

खाद्य-सुरक्षा के मामले में ऑस्ट्रेलिया दुनिया में अगले पायदान वाले देशों में से एक है. जलवायु से जुड़ी चरम परिस्थितियों से जैव-विविधता के सामने मौजूद ख़तरों के बावजूद वहां सुरक्षित और सेहतमंद भोजन का पर्याप्त भंडार है. ऑस्ट्रेलिया वैश्विक कृषि और खाद्य सुरक्षा का तगड़ा पैरोकार है. वह अपनी भोजन संबंधी ज़रूरतों का क़रीब-क़रीब 90 प्रतिशत घरेलू स्तर पर उत्पादन करके पूरा करता है. ऑस्ट्रेलिया से होने वाले निर्यात दुनिया के कई देशों में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं. ऑस्ट्रेलियाई सरकार वैश्विक कृषि और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम (GAFSP) में निरंतर निवेश करती आ रही है. इसका मकसद निम्न आय वाले देशों को खेती की उत्पादकता बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय रणनीतियां बनाने में मदद करना है. इस कार्यक्रम के तहत किसानों को बाज़ारों से जोड़कर उनके लिए आजीविका के ग़ैर-कृषि माध्यमों में सुधार लाया जाता है. साथ ही उनके लिए जोख़िम भरी परिस्थितियों और नाज़ुक हालातों में कमी लाई जाती है. ऑस्ट्रेलिया द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक तौर पर कृषि से जुड़ी अनेक पहलों की अगुवाई करता है. कृषि से जुड़े शोध में उसके पास उच्च गुणवत्ता वाली तकनीक और प्रबंधकीय क़ाबिलियत मौजूद है. विकासशील देशों में कृषि उत्पादकता में सुधार लाने में उसने काफ़ी मदद की है. 

भारत का कृषि क्षेत्र भी जलवायु से जुड़ी चुनौतियों का सामना कर रहा है. लिहाज़ा जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भी भारत को ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर काम करना चाहिए. 

भारत-ऑस्ट्रेलिया खाद्यान्न साझेदारी

भारत-ऑस्ट्रेलिया खाद्यान्न साझेदारी भारत के लिए फ़सल कटाई के बाद के प्रबंधन के लिए ऑस्ट्रेलिया की विशेषज्ञता से लाभ उठाने का एक सुनहरा अवसर है. इससे नुक़सानों और खाद्यान्नों की बर्बादी को रोकने के लिए ग्रामीण इलाक़ों में अनाज भंडारण और आपूर्ति श्रृंखला को मज़बूत बनाने में मदद मिल सकती है. भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच कृषि के क्षेत्र में गठजोड़ समग्र रणनीतिक साझेदारी का हिस्सा है. दोनों ही देशों ने जून 2020 में वर्चुअल शिखर सम्मेलन के दौरान इसकी घोषणा की थी. वैश्विक स्तर पर बाज़ारों, आपूर्ति श्रृंखलाओं और कारोबार से जुड़े रिश्ते निरंतर जटिल होते जा रहे हैं. इसी के मद्देनज़र हाल ही में जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत ने आपूर्ति श्रृंखला को ठोस बनाने की पहल (SCRI) शुरू की. 2021 में शुरू इस साझा क़वायद के ज़रिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आपूर्ति श्रृंखलाओं से जुड़ी कमज़ोरियों के निपटारे का लक्ष्य रखा गया है. कोविड-19 और खाद्य सुरक्षा के सामने बढ़ते जोख़िमों से इस पूरे इलाक़े के सामने अभूतपूर्व संकट आ गया है. इस पहल के मुख्य उद्देश्यों में आपूर्ति के भरोसेमंद स्रोत तैयार करना, डिजिटल तकनीक के प्रयोग को बढ़ावा देना, कारोबार और निवेश में विविधता लाना और भागीदार देशों के बीच पारस्परिकता पर आधारित पूरक संबंधों को मज़बूत बनाना है. भारत में ऑस्ट्रेलिया को एक कारोबारी साथी के तौर पर देखा जाता है, जो कृषि आपूर्ति श्रृंखला विकसित करने में मददगार हो सकता है. साथ ही ऑस्ट्रेलिया भी भारत में निर्यात के अवसरों की तलाश कर सकता है. ग़ौरतलब है कि महामारी से प्रभावित मौजूदा माहौल में भारत के लिए सुरक्षित, पोषक तत्वों से युक्त और सेहतमंद भोजन सुनिश्चित करना और भी अहम हो गया है. भारत का कृषि क्षेत्र भी जलवायु से जुड़ी चुनौतियों का सामना कर रहा है. लिहाज़ा जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भी भारत को ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर काम करना चाहिए. ऑस्ट्रेलिया के पास कृषि के क्षेत्र में जलवायु से जुड़े बदलावों के बीच तरक़्क़ी करने का लंबा तजुर्बा है. इन अनुभवों में निरंतर उभार जारी है. ऐसे में ऑस्ट्रेलिया के पास मौजूद विशेषज्ञता को भारतीय कृषि की ताक़त में मज़बूती लाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर किए जाने वाले रणनीतिक अनुसंधानों और टेक्नोलॉजी ट्रांसफ़र से भारत का कृषि क्षेत्र भी जलवायु से जुड़े नाज़ुक हालातों से निपटने में कामयाब हो सकता है.

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