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यूरोप का जलवायु संकट अब भारतीय शहरों के विकास के लिए ख़तरा बन रहा है. विकसित भारत-2047 जलवायु-स्मार्ट विकास विज़न के लिए महत्वपूर्ण मानी जा रही धन, तकनीक और दूसरी साझेदारियां ख़तरे में पड़ रही हैं.
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यूरोप इन दिनों अभूतपूर्व गर्मी की लहर की चपेट में है. यूरोप से लगातार आ रही ख़बरों के मुताबिक फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल, इटली, ब्रिटेन और तुर्की में ज़बरदस्त गर्मी पड़ रही है. तापमान में ये बढ़ोत्तरी एक मौसमी चेतावनी से कहीं ज़्यादा हैं. ये यूरोपीय महाद्वीप के लिए एक गहरे जलवायु आपातकाल का संकेत है. नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि जलवायु परिवर्तन से प्रेरित और मानवीय गतिविधियों से बढ़ी हुई सूखे और लू जैसी चरम मौसम की घटनाएं बढ़ रही हैं. ये घटनाएं यूरोप के वन यानी फॉरेस्ट कार्बन सिंक को काफ़ी कम कर रही हैं. इससे यूरोप के प्रमुख जलवायु बफर्स में से एक पर असर पड़ रहा है.
कोपरनिकस जलवायु परिवर्तन सेवा और विश्व मौसम विज्ञान संगठन द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित यूरोपीय जलवायु स्थिति 2024 रिपोर्ट, इस चेतावनी को पुष्ट करती है. यूरोप अब सबसे तेज़ी से गर्म होने वाला महाद्वीप है, जिसने 2023 में अपना दूसरा सबसे गर्म वर्ष दर्ज किया.
यूरोप में उभरता ये जलवायु संकट भारत को एक ज़रूरी संकेत दे रहा है. एक दशक से भी ज़्यादा समय से भारत और यूरोप ने जलवायु कार्रवाई, खासकर शहरी स्तर पर, पर एक मज़बूत साझेदारी बनाए रखी है.
हालांकि, यूरोप में उभरता ये जलवायु संकट भारत को एक ज़रूरी संकेत दे रहा है. एक दशक से भी ज़्यादा समय से भारत और यूरोप ने जलवायु कार्रवाई, खासकर शहरी स्तर पर, पर एक मज़बूत साझेदारी बनाए रखी है. नवीकरणीय ऊर्जा और शहरी परिवहन से लेकर स्वच्छ तकनीक और तटीय इलाकों में सुधार तक ये साझेदारी देखी जा रही है. यूरोपीय देशों ने भारत के शहरों को भविष्य के जलवायु के लिए तैयार शहरों के तौर पर आकार देने में अहम भूमिका निभाई है. फिर भी, जैसे-जैसे यूरोप बढ़ती जलवायु कमज़ोरियों का सामना कर रहा है, उसकी प्राथमिकताएं अब अनिवार्य रूप से खुद को इस संकट से बचाने की हो सकती हैं. यूरोप का धन और ध्यान इस मुद्दे पर वैश्विक सहयोग से हटकर घरेलू अनुकूलन की ओर जा सकता है. इससे भारत के शहरों के लिए गंभीर चिंताएं पैदा होती हैं, जो अभी भी जलवायु परिवर्तन से निपटने की तैयारियों के निर्माण के शुरुआती चरण में हैं. क्या भारत अपने शहरी परिवर्तन की सह-योजना के लिए यूरोप पर निर्भर रह सकता है? सबसे बड़ा सवाल, इन अनिश्चितताओं के बीच भारत अपने जलवायु लक्ष्यों की रक्षा के लिए अपनी वैश्विक साझेदारियों में विविधता कैसे ला सकता है. भारत ने अपने लिए 2047 तक जलवायु-अनुकूल शहरी विकास पर आधारित एक विकसित भारत बनाने का जो महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है, उसकी रक्षा कैसे की जाए?
भारत का शहरी जलवायु परिवर्तन कार्यक्रम काफ़ी हद तक पहले से निर्धारित वित्तीय प्रवाह पर निर्भर करता है. भारत तेज़ी से शहरीकरण कर रहा है और 2036 तक शहरी आबादी 60 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है. शहरीकरण में ये उछाल अपने साथ भारी ऊर्जा मांग, बुनियादी ढांचे पर दबाव और जलवायु संबंधी संवेदनशीलता लेकर आता है. दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बिजली उत्पादक होने के बावजूद, भारत में 2020 में 0.4 प्रतिशत ऊर्जा घाटा दर्ज किया गया. ऊर्जा घाटे का अर्थ है बार-बार बिजली गुल होना और बिजली की आपूर्ति को लेकर अनिश्चितता के कारण सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में सालाना 1.9 प्रतिशत की अनुमानित हानि की आशंका है.
इस संकट से निपटने के लिए, भारत नवीकरणीय ऊर्जा पर निर्भर है. हालांकि, 2030 तक इस क्षेत्र में 1.25 ट्रिलियन डॉलर के वित्तीय घाटे का सामना करने का अनुमान है. यूरोप इसमें एक मज़बूत साझेदार रहा है. भारत-जर्मनी सौर साझेदारी, ग्रिड से जुड़ी नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देती है. फ्रांस की प्रोपार्को ने भारत के सौर क्षेत्र में 15 मिलियन डॉलर का निवेश किया है. फिर भी, अब इस सहायता में कटौती तेज़ हो रही है. पिछले साल, फ्रांस ने अपनी आधिकारिक विकास सहायता (ओडीए) में 742 मिलियन यूरो की कटौती की, और 2025 के वित्त अधिनियम के तहत ओडीए आवंटन में 39 प्रतिशत की और कटौती की गई. नीदरलैंड ने भी ऐसा ही किया है और अब वो इस धन को आर्थिक एकीकरण और प्रवासन नीति प्राथमिकताओं के लिए इस्तेमाल कर रहा है.
अनुदान-आधारित सहायता से निवेश-संचालित वित्तीय ढांचों की ओर बदलाव दिखाता है कि यूरोप अपनी वैश्विक स्थिति को बड़े पैमाने पर नए सिरे से संतुलित कर रहा है. ये बदलाव भारत के ऊर्जा परिवर्तन में यूरोप की सहायता करने की क्षमता को कम कर सकते हैं. इसका सबसे ज़्यादा असर हरित हाइड्रोजन और अपतटीय (ऑफशोर) पवन ऊर्जा जैसी उभरती प्रौद्योगिकियों में दिखेगा. वित्तीय कटौती से इन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. इस तरह की परियोजनाएं दीर्घकालिक कार्बन-मुक्ति लक्ष्यों के लिए महत्वपूर्ण है.
भारत-यूरोपीय संघ व्यापार और प्रौद्योगिकी परिषद ने समुद्री कूड़े से निपटने और समुद्री कचरे के इर्द-गिर्द सर्कुलर अर्थव्यवस्थाएं बनाने के लिए परियोजनाएं शुरू की हैं.
जलवायु परिवर्तन के कार्यक्रमों के वित्तपोषण के लिए भारत को विविधता लाने के लिए जल्द ही कदम उठाने होंगे. ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने पहले ही सौर पीवी (फोटोवोल्टिक) और हरित हाइड्रोजन पर सहयोग करने में रुचि व्यक्त की है. भारत-ऑस्ट्रेलिया ग्रीन हाइड्रोजन टास्कफोर्स और भारत-ऑस्ट्रेलिया नवीकरणीय ऊर्जा साझेदारी के माध्यम से, शहर-स्तरीय निवेश और अनुसंधान सहयोग को बढ़ावा दिया जा सकता है. इस बीच, वियतनाम का तेज़ी से बढ़ता नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र भी भारत-वियतनाम व्यापक साझेदारी के माध्यम से साझेदारी का अवसर प्रदान करता है.
भारत के शहर बढ़ते जलवायु ज़ोखिमों के लिए तैयार नहीं हैं. स्थिति गंभीर है. 2025 की पहली छमाही एक चेतावनी के रूप में सामने आई. मई 2025 में बेंगलुरु बाढ़ से परेशान था. गुवाहाटी और कोलकाता रिकॉर्डतोड़ गर्मी और उमस से जूझ रहे थे. देर से आए मानसून ने भी कोई खास राहत नहीं दी. हालांकि अटल कायाकल्प और शहरी परिवर्तन मिशन (अमृत) और स्मार्ट सिटी जैसे अभियानों ने कुछ प्रगति तो हुई है, फिर भी भारत अभी भी शहरी बुनियादी ढांचे पर खर्च में प्रति व्यक्ति 100 डॉलर से ज़्यादा की कमी से जूझ रहा है.
यूरोप ने ऐतिहासिक रूप से इस कमी को पूरा करने में मदद की है. यूरोपीय संघ (ईयू) की ऋण देने वाली शाखा, यूरोपीय निवेश बैंक (ईआईबी) ने बेंगलुरु, कानपुर, पुणे और आगरा में इलेक्ट्रिक मेट्रो प्रणालियों की वित्तीय मदद की है. बेंगलुरु की उपनगरीय रेल के लिए 2024 में स्वीकृत 30 करोड़ यूरो के कर्ज़ से कार्बन उत्सर्जन में 42 प्रतिशत की कमी आने का अनुमान है. इसके अलावा, अंतर्राष्ट्रीय शहरी और क्षेत्रीय सहयोग (आईयूआरसी) कार्यक्रम ने शहर-दर-शहर सहयोग को बढ़ावा दिया है. इस कार्यक्रम के तहत सूरत की रॉटरडैम के साथ साझेदारी हुई. ये सहयोग एक लैंडफिल साइट को जल-संवेदनशील सार्वजनिक प्लाज़ा में बदलने के लिए हुआ. इस प्रोग्राम का उद्देश्य भूजल को रिचार्ज करना है.
हालांकि, इस तरह के कार्यक्रम दीर्घकालिक वित्तपोषण और आपसी विश्वास पर निर्भर करते हैं. ब्रुसेल्स और अन्य यूरोपीय राजधानियों में अब इन कार्यक्रम के लिए तय बजट का नए सिरे से आवंटन कर रहे हैं. इन पैसों को अपने यहां खर्च कर रहे हैं. आवंटन की इस समस्या के कारण, भारत में ऐसी परियोजनाओं की निरंतरता खतरे में है. भारत को वैकल्पिक बुनियादी ढांचे के वित्तपोषण की तलाश करनी होगी. एशियाई विकास बैंक (एडीबी) और नव विकास बैंक (एनडीबी) जैसी संस्थाएं पहले से ही इसमें शामिल हैं. एनडीबी द्वारा वित्तपोषित इंफाल की 70 मिलियन डॉलर की जलस्रोत पुनरुद्धार परियोजना इस वैकल्पिक वित्तपोषण का एक उदाहरण है.
इसके अलावा, भारत को आपदा रोधी अवसंरचना गठबंधन (सीडीआरआई) का लाभ उठाना चाहिए. भारत इस गठबंधन का विश्व स्तर पर नेतृत्व करता है. सीडीआरआई, शहरी अवसंरचना कार्यक्रम के माध्यम से, भारत सीमा पार साझेदारी स्थापित कर सकता है. इतना ही नहीं इससे प्राप्त धन का उपयोग वो अपने शहरों में वास्तविक समय की निगरानी तकनीकों, पूर्व चेतावनी प्रणालियों और हरित अवसंरचना के लिए कर सकता है.
भारत का 7516 किलोमीटर लंबा समुद्र तट मुंबई, कोच्चि और तिरुवनंतपुरम जैसे पारिस्थितिक रूप से समृद्ध शहरों का घर है. ये शहर देश के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में 60 प्रतिशत का योगदान करते हैं. हालांकि, इसके साथ ही ये शहर बढ़ते समुद्र तल, खारे पानी के अतिक्रमण और समुद्री प्रदूषण के मामले में भी अग्रणी हैं. औद्योगिक उत्सर्जन और रसायन युक्त कृषि अपशिष्टों ने भी जलवायु ज़ोखिम को बढ़ा दिया है. कोच्चि के बिगड़ते समुद्री प्रदूषण ने पारिस्थितिकी तंत्र और मानव स्वास्थ्य, दोनों के लिए ख़तरा पैदा करना शुरू कर दिया है.
यूरोप ने जलवायु और ऊर्जा के लिए मेयरों की वैश्विक संविदा (जीसीओएम) जैसे मंचों के माध्यम से भारत की तटीय जलवायु कार्रवाई का समर्थन किया है. इन मंचों के ज़रिए भारतीय शहर जलवायु संकट का सामना करने और खुद को बदलती परिस्थिति के हिसाब से ढालने के लिए वैश्विक समकक्षों के साथ जुड़ते हैं. भारत-यूरोपीय संघ व्यापार और प्रौद्योगिकी परिषद ने समुद्री कूड़े से निपटने और समुद्री कचरे के इर्द-गिर्द सर्कुलर अर्थव्यवस्थाएं बनाने के लिए परियोजनाएं शुरू की हैं.
फिर भी, अब यूरोप को जर्मनी में टूटते ग्लेशियरों और पानी के नीचे बने मेट्रो स्टेशनों से निपटने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. ऐसे में भारत जैसे विकासशील देशों में जलवायु परियोजनाओं को प्राथमिकता से हटा दिए जाने का ख़तरा है.
अब भारत को अपनी एक्ट ईस्ट नीति को पुनर्जीवित करना होगा और दक्षिण-पूर्व एशिया पर ध्यान केंद्रित करना होगा. दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ (आसियान) समुद्री शासन में नेतृत्व क्षमता बढ़ा रहा है. उदाहरण के लिए, वियतनाम के पास समुद्री प्लास्टिक कचरे पर एक राष्ट्रीय कार्य योजना है, जो विभिन्न सरकारी स्तरों पर एजेंसियों की भूमिका निर्धारित करती है. भारत भी शहरी तटीय शासन में क्षमता निर्माण और सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने के लिए वियतनाम और अन्य आसियान भागीदारों के साथ त्रिपक्षीय पहल शुरू कर सकता है.
जलवायु परिवर्तन के लिए खुद को तैयार करना भारत का अब सिर्फ एक विकास लक्ष्य नहीं रह गया है, ये एक राष्ट्रीय अनिवार्यता है जो सीधे तौर पर विकसित भारत 2047 विज़न से जुड़ी है. शहर आर्थिक विकास के इंजन, ऊर्जा परिवर्तन के केंद्र और करोड़ों लोगों के घर हैं. ऐसे में अगर भारतीय शहर जलवायु संबंधी ज़ोखिमों से निपटने के लिए तैयार नहीं होते तो ये भारत की दीर्घकालिक समृद्धि के लिए एक ख़तरा है.
2023 के जी-20 शिखर सम्मेलन में, भारत ने इस मामले में खुद को ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ के बीच एक पुल के रूप में स्थापित किया. ग्लोबल नॉर्थ जलवायु संकट से निपटने के तरीके खोज रहा है, और ग्लोबल साउथ खुद को उस हिसाब से ढाल रहा है. इन दोनों के बीच खुद को सेतु के रूप में स्थापित करने की भारत की दोहरी पहचान एक कूटनीतिक संपत्ति है. इस साल ब्राज़ील के बेलेम में COP-30 के निकट आने के साथ, भारत को इस नेतृत्व का लाभ उठाना चाहिए. उसे प्रस्तावों को आगे बढ़ाना, गठबंधन बनाना और ऐसे समाधानों की मध्यस्थता करनी चाहिए, जो शहरी लचीलेपन की विविध आवश्यकताओं को प्रतिबिंबित करते हों.
हालांकि, यूरोप की जलवायु परिवर्तन की गिरावट समझ में आती है, लेकिन ये भारत के शहरी भविष्य के लिए विनाशकारी नहीं हो सकती. अगर यूरोपीय आर्थिक सहायता कमज़ोर पड़ती है, तो भारत को वैश्विक साझेदारों का एक नया नक्शा तैयार करना होगा. ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण-पूर्व एशिया, खाड़ी क्षेत्र के देश, ग्रीन क्लाइमेट फंड और ग्लोबल इंफ्रास्ट्रक्चर फैसिलिटी संगठन इस जलवायु कोष में शामिल हो सकते हैं.
जलवायु परिवर्तन अब कल का ख़तरा नहीं रहा. ये आज की भयावह हक़ीक़त है. भारत के शहरों को सिर्फ सीमेंट और स्टील से ही नहीं, बल्कि रणनीति, एकजुटता और विविध सहयोग के ज़रिए भविष्य के लिए तैयार किया जाना चाहिए.
अपर्णा रॉय ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी में जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा में फेलो और लीड हैं.
अलंकृता दत्ता ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं.
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Aparna Roy is a Fellow and Lead Climate Change and Energy at the Centre for New Economic Diplomacy (CNED). Aparna's primary research focus is on ...
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Alankrita Dutta is a Research Intern at the Observer Research Foundation. ...
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