Published on Aug 06, 2021 Updated 0 Hours ago

हमारे सामने ऐसे तमाम सबूत मौजूद हैं,जो ये दिखाते हैं कि सीमाओं के आर-पार कनेक्टिविटी बढ़ाने से संबंधित देशों को बहुत से फ़ायदे होते हैं. बंगाल की खाड़ी और हिंद-प्रशांत क्षेत्र जैसे भौगोलिक,आर्थिकऔर सामरिक रूप से अहम क्षेत्र के देशों के बीच आपसी संपर्क बढ़ाना हाल के वर्षों में और भी महत्वपूर्ण हो गया है.

प्रांतीय व क्षेत्रीय सहयोग के ढांचे में देश के उत्तर-पूर्व के राज्यों की भूमिका का विश्लेषण

हमारे सामने ऐसे तमाम सबूत मौजूद हैं,जो ये दिखाते हैं कि सीमाओं के आर-पार कनेक्टिविटी बढ़ाने से संबंधित देशों को बहुत से फ़ायदे होते हैं. बंगाल की खाड़ी और हिंद-प्रशांत क्षेत्र जैसे भौगोलिक,आर्थिकऔर सामरिक रूप से अहम क्षेत्र के देशों के बीच आपसी संपर्क बढ़ाना हाल के वर्षों में और भी महत्वपूर्ण हो गया है. इस रिपोर्ट में हम इस संभावना की समीक्षा करेंगे कि बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में भारत, दक्षिणी पूर्वी एशिया में उसके पड़ोसी देशों और जापान की सक्रिय भूमिका से सहयोगात्मक भागीदारी के ढांचे के तहत आपसी संपर्क बढ़ाने में कौन सी संभावनाएं हैं. इस रिपोर्ट में हमने ऐसी कोशिशों में भारत के उत्तर-पूर्व क्षेत्र की भूमिका पर ध्यान केंद्रित किया है.

प्रस्तावना

क्षेत्रीय स्तर पर परस्पर संपर्क और सहयोग के फ़ायदे लेने के लिए,एक ख़ास स्तर की कनेक्टिविटी होनी ज़रूरी है. अलग-अलग देशों के राष्ट्रीय हित अलग हो सकते हैं. जिनमें जियोपॉलिटिकल, भू-सामरिक और भू-आर्थिक हित शामिल है. ये ज़रूरी है कि हम कनेक्टिविटी को एक समग्र परिकल्पना के तौर पर देखें, जो लोगों के जीवन में बदलाव लाने का काम करती है, न कि इसे हम फौरी सामरिक और कारोबारी फ़ायदे के लिए मूलभूत ढांचे के निर्माण के रूप में देखें.

इसके साथ ही साथ, मौजूदा जियोपॉलिटिकल माहौल में भारत को और प्रमुख और ज़्यादा सक्रिय भूमिका निभाने की ज़रूरत है. इसके लिए पड़ोसी देशों, ख़ास तौर से पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी एशिया के देशों के साथ संपर्क बढ़ाने की ज़रूरत है. इन देशों के साथ संपर्क और संवाद बढ़ाने से राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्तर पर क्षेत्रीय एकजुटता का भाव पैदा होगा. इस संदर्भ में क्षेत्रीय एकजुटता बनाने में बे ऑफ़ बेंगाल इनिशिएटिव फ़ॉर मल्टी सेक्टोरल टेक्निकल ऐंड इकॉनमिक को-ऑपरेशन (BIMSTEC) सकारात्मक रूप से योगदान दे सकता है, क्योंकि ये संगठन एक बार फिर से दक्षिण और दक्षिणी पूर्वी एशिया के बहुपक्षीय मंचों के बीच अहम होता जा रहा है. हिंद महासागर और हिंद प्रशांत समुदाय के निर्माण का सामरिक लक्ष्य हासिल करने में बिम्सटेक काफ़ी मददगार साबित हो सकता है. भारत का उत्तर पूर्वी क्षेत्र (NER) दक्षिण एशिया और दक्षिणी पूर्वी एशिया के बीच भौगोलिक संपर्क का माध्यम बन सकता है.

इस क्षेत्र की, यहां के बाशिंदों और उनकी अनूठी संस्कृति की बाहरी लोगों के अप्रवास से सुरक्षा करने के लिए अंग्रेज़ शासकों ने उत्तर-पूर्वी भारत के ज़्यादातर हिस्से को ‘पिछड़ा हुआ इलाक़ा’, बाहरी क्षेत्र, और ‘आंशिक रूप से अलग थलग इलाक़ा’ घोषित किया हुआ था. 

इस रिपोर्ट में हम इस बात की समीक्षा करेंगे कि बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में सीमा के आर-पार संपर्क बढ़ाने की कोशिशों में भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्र को केंद्र में रखकर संभावनाएं तलाशेंगे. इस रिपोर्ट में उत्तर-पूर्व के अनूठे सामाजिक राजनीतिक और भौगोलिक आयाम का विश्लेषण करके इस क्षेत्र में कनेक्टिविटी की कोशिशों की संभावनाओं और चुनौतियों की समीक्षा करेंगे; रिपोर्ट में हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत की भूमिका पर भी चर्चा की गई है और ये समझने की कोशिश की गई है कि हिंद प्रशांत क्षेत्र के अहम खिलाड़ियों जैसे कि आसियान देशों और जापान, और बिम्सटेक में इसकी भूमिका किस तरह से इस क्षेत्र में सुरक्षा, विकास और समृद्धि को आगे बढ़ा सकती है.

क्षेत्रीय कनेक्टिविटी का केंद्र भारत का उत्तर पूर्वी क्षेत्र

उत्तर-पूर्वी क्षेत्र,भारत की सबसे पूर्वी सीमा बनाता है. इस क्षेत्र में आठ राज्य आते हैं, जो मुख्य रूप से पहाड़ी इलाक़े हैं – अरुणाचल प्रदेश,असम,मिज़ोरम,मेघालय,मणिपुर,त्रिपुरा,सिक्किम और नगालैंड. ये इलाक़ा,चीन,बांग्लादेश,नेपाल, भूटान और म्यांमार के साथ भारत की क़रीब 5,812 किलोमीटर की अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाता है.चारों तरफ़ से ज़मीन से घिरा उत्तर पूर्वी क्षेत्र,भारत की मुख्य भूमि से सिर्फ़ एक संकरे सिलीगुड़ी गलियारे से जुड़ा है,जो 22 किलोमीटर लंबा है.इस गलियारे के एक तरफ़ नेपाल है तो दूसरी तरफ़ बांग्लादेश स्थित है. इस गलियारे को ‘चिकेन नेक’ भी कहा जाता है. [1]

उत्तर-पूर्वी भारत की सामाजिक जातीय बनावट बहुत जटिल है. इस इलाक़े में कई आदिवासी क़बीले आबाद हैं, जो क़रीब 220 भाषाएं [2] बोलते हैं. हर क़बीले की अपनी ख़ास सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान है. इनमें से ज़्यादातर आदिवासी समुदाय, भारत की मुख्यभूमि के आदिवासियों से बिल्कुल अलग हैं. [3] कुछ तो भारत की बाहरी सीमा में होने के कारण और कुछ तो अपनी अनूठी सामाजिक विरासत, आबादी के जटिल स्वरूप और पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर और आर्थिक विकास के चलते, भारत का उत्तरी पूर्वी इलाक़ा, देश के व्यापक राजनीतिक और विकास संबंधी आयाम से अलग-थलग ही रहा है. राजनीतिक हिंसा, उग्रवाद, जातीय संघर्ष और अवैध घुसपैठ के चलते इस क्षेत्र की चुनौतियां और भी बढ़ गई हैं. लगभग चारों तरफ़ से अन्य देशों से घिरा होने के चलते उत्तर-पूर्वी भारत की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि इसकी सुरक्षा एक बड़ी चिंता बन जाती है.

इस क्षेत्र की, यहां के बाशिंदों और उनकी अनूठी संस्कृति की बाहरी लोगों के अप्रवास से सुरक्षा करने के लिए अंग्रेज़ शासकों ने उत्तर-पूर्वी भारत के ज़्यादातर हिस्से को ‘पिछड़ा हुआ इलाक़ा’, बाहरी क्षेत्र, और ‘आंशिक रूप से अलग थलग इलाक़ा’ घोषित किया हुआ था. इसके ज़रिए आदिवासी जनता को अपने मामलों को काफ़ी हद तक ख़ुद ही संभालने की छूट मिली हुई थी. 1873 के बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर एक्ट के तहत अंग्रेज़ों ने इस क्षेत्र में एक अंदरूनी रेखा या ‘इनर लाइन’ भी खींची हुई थी. बाहर से आने वालों और ख़ासतौर से कारोबारी हित के लिए यहां आने वालों को इस लाइन से आगे बढ़ने के लिए परमिट लेने की ज़रूरत होती थी. [4]

भारत ने आज़ादी के बाद भी इन्हीं नीतियों पर चलने का फ़ैसला किया और 1947 से पहले के इनर लाइन की व्यवस्था को बरक़रार रखा. पहले के अलग-थलग और आंशिक रूप से अलग रखे गए इलाक़ों से जुड़े पारंपरिक संस्थानों को भी भारत ने आज़ादी के बाद मज़बूत किया. ज़मीन के मालिकाना हक़ को सुरक्षित रखने के लिए स्वायत्त परिषदों का गठन किया गया. mइन उपायों के ज़रिए भारत ने बाहरी आबादी की आवाजाही को नियंत्रित किया और इन इलाक़ों में कारोबारी हितों के लिए ज़मीन पर क़ब्ज़े और शोषण से भी बचाया. [5]

इसमें कोई दो राय नहीं कि इन उपायों ने काफ़ी हद तक इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान को बचाने का काम किया है. [a]  लेकिन, ये उपाय उत्तरी-पूर्वी भारत के आर्थिक विकास और बुनियादी ढांचे के विकास की राह में बाधा भी बन गए हैं.

ऐतिहासिक रूप से देखें तो भारत की मुख्यभूमि के दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों से बेहद नज़दीकी आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध रहे हैं. मणिपुर और असम इन संबंधों में पुल का काम करते रहे हैं. भारत और दक्षिणी पूर्वी एशियाई कारोबारियों के बीच कारोबारी रिश्ते, ईसा की तीसरी सदी से ही चले आए हैं. ये देखा गया है कि, ‘भारतीय विचार, कला के स्वरूप और राजनीतिक संगठन बनाने के तरीक़ों’ को दक्षिणी पूर्वी एशिया की स्थानीय संस्कृति में अपनाया गया था और ये सिलसिला उपनिवेशवादी दौर में भी जारी रहा था. [6] साम्राज्यवाद के ख़ात्मे के बाद, दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों ने ऐतिहासिक बांगडुंग सम्मेलन (1955) में भारत के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पंचशील सिद्धांतों का समर्थन किया था.

क्षेत्रीय संपर्क बढ़ाने के भारत के नज़रिए में उत्तर पूर्व की अहमियत कोई नया विचार नहीं है. भारत 1990 के दशक की शुरुआत से ही अपनी ‘लुक ईस्ट’ नीति के तहत पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के साथ कूटनीतिक संबंध बढ़ाने को प्राथमिकता देने का काम कर रहा है. इस विचार को 2014 में लायी गई ‘एक्ट ईस्ट’ नीति से और मज़बूती मिल गई है. 

1960 के दशक से ‘दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के साथ भारत के संवाद की जगह धीरे धीरे बनती दूरी ने ले ली, क्योंकि विचारधारा के संघर्ष और महाशक्तियों के टकराव ने एक दूसरे से काफ़ी मेल खाने वाले इस क्षेत्र के देशों को शीत युद्ध के दो अलग अलग खेमों का हिस्सा बना दिया था.’ [7] ये तो जाकर शीत युद्ध के ख़ात्मे के बाद हुआ कि जब जियोपॉलिटिकल समीकरण बदलने और अर्थव्यवस्था के तेज़ी से हो रहे भूमंडलीकरण ने भारत और दक्षिणी पूर्वी एशिया के मंद पड़ चुके संपर्क में नई जान डाली. भारत का उत्तरी पूर्वी इलाक़ा इस संवाद का केंद्र बनकर उभरा.

क्षेत्रीय संपर्क बढ़ाने के भारत के नज़रिए में उत्तर पूर्व की अहमियत कोई नया विचार नहीं है. भारत 1990 के दशक की शुरुआत से ही अपनी ‘लुक ईस्ट’ नीति के तहत पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के साथ कूटनीतिक संबंध बढ़ाने को प्राथमिकता देने का काम कर रहा है. इस विचार को 2014 में लायी गई ‘एक्ट ईस्ट’ नीति से और मज़बूती मिल गई है. बंगाल की खाड़ी और हिंद प्रशांत क्षेत्र में स्थित देशों के साथ संपर्क बढ़ाने के कई कार्यक्रम इसी एक्ट ईस्ट नीति के तहत शुरू किए गए हैं. [b],[8] भारत की पहले की नीति की बुनियाद और लक्ष्य वही बने हुए हैं. लेकिन, एक्ट ईस्ट नीति से उनका स्तर बढ़ाकर उनमें और तेज़ी लाई गई है. एक्ट ईस्ट नीति से भारत का अपने दक्षिणी पूर्वी एशियाई पड़ोसियों से संबंध तीन प्रमुख क्षेत्रों में बढ़ा है: वाणिज्य, संस्कृति और कनेक्टिविटी.

दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों और ख़ास तौर से म्यांमार व थाईलैंड के साथ दोबारा संपर्क बढ़ाने की इस प्रक्रिया के दौरान उत्तर पूर्वी भारत से सड़क, रेल, वायु और जलमार्ग के ज़रिए इन देशों से संपर्क बढ़ाने पर मोदी सरकार ने काफ़ी ज़ोर दिया है. बांग्लादेश के सक्रिय सहयोग के बिना भारत की मुख्य भूमि से उत्तरी पूर्वी राज्यों तक संपर्क नहीं बढ़ाया जा सकता है. इसीलिए, भारत के लिए बांग्लादेश के साथ अच्छे रिश्ते बनाए रखना भी बेहद ज़रूरी है.

अपनी सरकार आने के बाद से ही नरेंद्र मोदी ने लुक ईस्ट, लिंक वेस्ट पॉलिसी पर भी ज़ोर दिया है. इसके तहत वो भारत को हिंद प्रशांत क्षेत्र में फैली वैश्विक वैल्यू चेन से जोड़ना चाहते हैं. [10] इस संदर्भ में भारत की विज़न 2020 पहल के तहत उत्तर पूर्वी भारत में तीन अहम प्रोजेक्ट शुरू किए गए हैं: कलादान मल्टीमोडल प्रोजेक्ट; भारत और म्यांमार्क के बीच रेल संपर्क का निर्माण और भारत, थाईलैंड व म्यांमार के बीच त्रिपक्षीय हाइवे का निर्माण. भारत ‘पड़ोसी पहले’ की नीति पर भी अमल कर रहा है. इस नीति के तहत भी भारत अपने पूर्वी पड़ोसियों के साथ क्षेत्रीय संवाद बढ़ा रहा है. इसके लिए भी उत्तरी पूर्वी क्षेत्र अहम हो जाता है.

हालांकि, बहुत सी नीतिगत पहलों के बावजूद, उत्तर पूर्वी क्षेत्र को क्षेत्रीय कनेक्टिविटी का केंद्र बनाने की पूरी संभावना का अब तक उपयोग नहीं हो सका है. उत्तर पूर्वी क्षेत्र को केवल इंसानों और कारोबारी यातायात को हिंद प्रशांत क्षेत्र जाने के माध्यम के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि उसे अनूठी सामाजिक आर्थिक प्राथमिकताओं और सांस्कृतिक असुरक्षाओं वाले विशिष्ट इलाक़े के तौर पर भी देखा जाना चाहिए. [11]

इंफ्रास्ट्रक्चर की कड़ियों को मज़बूत बनाना

उत्तर पूर्वी भारत को एक समृद्ध और स्थिर क्षेत्र बनाने के लिए भारत के पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी इलाक़े में स्थित देशों के साथ मज़बूत ज़मीनी संपर्क बनाने के साथ साथ इस इलाक़े के लोगों के बीच कनेक्टिविटी बढ़ाना भी ज़रूरी है.इस क्षेत्र के भीतर ज़मीनी कनेक्टिविटी को तीन अहम नज़रियों से मज़बूत बनाया जाना चाहिए. पहले तो बरसों से कम विकास,उग्रवाद और हाशिए पर पड़े इस क्षेत्र के भीतर कनेक्टिविटी को सुधारना होगा.दूसरे,उत्तर-पूर्वी भारत और देश के अन्य हिस्सों के बीच संवाद और कनेक्टिविटी को और बेहतर करना होगा. तीसरे,उत्तर-पूर्व को पास-पड़ोस के क्षेत्रों के साथ जोड़ने को प्राथमिकता देनी होगी,जिससे उस क्षेत्र में विदेशी निवेश बढ़े,जो कई वर्षों से कम औद्योगिक विकास और रोज़गार के सीमित अवसरों जैसी दिक़्क़तों का सामना कर रहा है.[12]

संयुक्त राष्ट्र के 2030 तक टिकाऊ विकास के एजेंडे पर दस्तख़त करने वाले देश के तौर पर भारत का लक्ष्य लचीले बुनियादी ढांचे का निर्माण करना और इनोवेशन को बढ़ावा देना(स्थायी विकास का लक्ष्य नंबर 9)है. ऐसा करने के लिए उत्तर पूर्वी क्षेत्र के अपने सीमावर्ती इलाक़ों का विकास करना और सीमा पर व्यापार को बढ़ावा देना भी ज़रूरी है.हाल के वर्षों में बांग्लादेश और म्यांमार के साथ भारत के व्यापार में तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ है,जिससे ऐसे व्यापार की संभावनाएं साबित होती हैं.[13]

दोनों देशों के बीच कई जगह पर रेलवे लाइन बिछी है. इसके अलावा दोनों देश नदियों के ज़रिए जल परिवहन के रास्तों का भी इस्तेमाल कर रहे हैं.वहीं,ज़मीनी सीमा पर इंटीग्रेटेड चेक पोस्ट भी स्थापित की गई हैं.

भारत ने म्यांमार के साथ (मणिपुर सीमा के मोरेह से म्यांमार के तामू होते हुए,160 किलोमीटर दक्षिण में स्थित कलेवा तक) सड़क संपर्क क़ायम कर लिया है.इसके अलावा,भारत ने मोरेह- तामू और म्यांमार से लगने वाली मिज़ोरम की सीमा पर जोवखाथार और उस पार री में इंटीग्रेटेड चेक पोस्ट स्थापित करके व्यापार के केंद्र भी बना लिए हैं.इसी तरह भारत और बांग्लादेश के बीच भी सीमा के आर-पार कनेक्टिविटी काफ़ी बढ़ गई है. दोनों देशों के बीच कई जगह पर रेलवे लाइन बिछी है. इसके अलावा दोनों देश नदियों के ज़रिए जल परिवहन के रास्तों का भी इस्तेमाल कर रहे हैं.वहीं,ज़मीनी सीमा पर इंटीग्रेटेड चेक पोस्ट भी स्थापित की गई हैं.बांग्लादेश ने भारत को उत्तर पूर्वी क्षेत्र में सामान भेजने के लिए अपने मोंगला और चट्टोग्राम [c] बंदरगाहों का इस्तेमाल करने की भी इजाज़त दे दी है.दो क़रीबी पड़ोसी देशों के बीच इस सहमति से बांग्लादेश भूटा भारत और नेपाल (BBIN) के बीच मोटर व्हीकल समझौता, साझा ऊर्जा प्रोजेक्ट और पश्चिम बंगाल से बांग्लादेश को तेल और गैस की आपूर्ति के लिए एक पाइपलाइन बिछाने का समझौता भी हुआ है. बांग्लादेश के कॉक्स बाज़ार से उत्तर पूर्व को डिजिटल कनेक्टिविटी बढ़ाने से दोनों ही देशों के बीच मूलभूत ढांचे के विकास की कोशिशों को बढ़ावा मिला है.बांग्लादेश,भारत- म्यांमार- थाईलैंड के बीच त्रिपक्षीय हाइवे प्रोजेक्ट का भी हिस्सा बनना चाहता है,जिससे वो दक्षिणी एशिया और आसियान देशों के साथ अपना संपर्क बढ़ा सके.

उत्तर पूर्व के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए मुख्य संस्था उत्तर पूर्व परिषद्(NEC)है. इसके सदस्यों में उत्तर पूर्व के आठ राज्यों के राज्यपाल और मुख्यमंत्री शामिल होते हैं.ये परिषद पूरे क्षेत्र में मूलभूत ढांचे के विकास की फंडिंग करती है. उत्तर-पूर्व परिषद द्वारा उठाए गए कुछ हालिया क़दम इस तरह से हैं:[14]

हवाई अड्डे के प्रोजेक्ट: भारतीय हवाई अड्डा प्राधिकरण की मदद से इस क्षेत्र के पांच हवाई अड्डों- गुवाहाटी, डिब्रूगढ़, जोरहाट, इम्फाल और उमरोई को बेहतर बनाना. उत्तर पूर्व परिषद की वित्तीय मदद से अरुणाचल प्रदेश के तेज़ू में एक नए हवाई अड्डे का भी निर्माण किया जा रहा है. [15] 

सड़क परियोजनाएं: उत्तर पूर्व के राज्यों में क़रीब 10,500 किलोमीटर सड़कों का विकास करके इनके रख-रखाव की ज़िम्मेदारी राज्यों के हवाले कर दी गई है. इस क्षेत्र के विकास के लिए एनईसी द्वारा किए जा रहे अन्य प्रयासों में उत्तर पूर्व सड़क क्षेत्र विकास योजना के तहत ब्रह्मपुत्र नदी के समानांतर एक्सप्रेस हाइवे का निर्माण करना: सीमावर्ती इलाक़ों में सामरिक रूप से अहम सड़कों का निर्माण जिसमें दोईमुख (अरुणाचल प्रदेश से हरमुती (असम) सड़क; तुरा (मेघालय) से मनकाचर (असम) के बीच सड़क बनाना और वोखा (नगालैंड) से मेरापानी होते हुए गोलाघाट (असम) तक सड़क बनाना शामिल है; राष्ट्रीय हाइवे और मूलभूत ढांचा विकास निगम (NHIDCL) के तहत 14 परियोजनाओं का विकास, ट्रांस अरुणाचल हाइवे प्रोजेक्ट का विस्तार; अरुणाचल फ्रंटियर हाइवे और पूरब पश्चिम गलियारे (प्रस्तावित) जैसी योजनओं का विकास शामिल हैं.SARDP-NE के तहत नामांकित सड़कों और हाइवे के विकास की योजनाएं 2019 तक पूरी की जा चुकी हैं.यहां तक कि उत्तर पूर्वी परिषद की पहल पर 2001 में तैयार की गई दृष्टिकोण योजना पर भी सड़क परिवहन और राजमार्ग विकास मंत्रालय विचार कर रहा है. इससे उत्तर पूर्व क्षेत्र में मूलभूत ढांचे का और भी विकास किया जा सकेगा.[16]

रेल परियोजनाएं: असम में ब्रह्मपुत्र नदी पर बोगीबील रेल और सड़क पुल बनाया जा चुका है;20 बड़ी रेल परियोजनाओं के ज़रिए रेल संपर्क बढ़ाया जा रहा है,इसमें 13 नई रेलवे लाइनें,पटरियां चौड़ी करने के दो प्रोजेक्ट और 2624 किलोमीटर रेलवे लाइन का दोहरीकरण अभी चल रहा है; मिज़ोरम के बैराबितो सैरांग में ब्रॉडगेज की रेलवे लाइन का निर्माण;उत्तर पूर्व सीमावर्ती रेलवे ज़ोन का विकास करना.[17] हालांकि,उत्तर पूर्व में कनेक्टिविटी बढ़ाने की राह में ऐसी कई चुनौतियां हैं,जिनसे पार पाना ज़रूरी है.तभी ये क्षेत्र कनेक्टिविटी की अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल कर सकेगा.

बांग्लादेश अपने चट्टोग्राम बंदरगाह पर एक नया कंटेनर टर्मिनल विकसित कर रहा है और दूसरा टर्मिनल पैंगांव में भी बना रहा है. इससे भारत के साथ कम दूरी के समुद्री रास्ते से व्यापार को काफ़ी बढ़ावा मिलने की उम्मीद है.इससे पहले,भारत और बांग्लादेश को अपने सामान का व्यापार करने के लिए कोलंबो,सिंगापुर या क्लांग बंदरगाह पर निर्भर रहना पड़ता था.

जल मार्गों के ज़रिए जोड़ने का काम

1947 में भारत के आज़ाद होने से पहले,उत्तर पूर्व से भारत की मुख्य भूमि का ज़्यादातर व्यापार उन रास्तों से होता था, जो आज बांग्लादेश का हिस्सा हैं.तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से होकर रेलवे और नदियों के ज़रिए परिवहन 1965 तक चलता रहा था.उस साल भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ने और फिर युद्ध होने के चलते,पूर्वी पाकिस्तान से होकर उत्तर पूर्व के लिए सभी तरह के संपर्क मार्ग बंद कर दिए गए थे. हालांकि,1972 में बांग्लादेश बनने के बाद,नदियों के ज़रिए परिवहन को दोबारा सीमित स्तर पर शुरू किया गया था. ये परिवहन बढ़ने से दोनों देशों को होने वाले फ़ायदे को देखते हुए,भारत और बांग्लादेश एक बार फिर से पुराने रास्तों को सक्रिय करने में दिलचस्पी ले रहे हैं. भारत के लिए तो ख़ास-तौर से बांग्लादेश से होकर आवाजाही और सामान लाने- ले जाने से उत्तर-पूर्व की अर्थव्यस्था को नई मज़बूती मिलेगी और ये राज्य बंगाल की खाड़ी तक पहुंच बना सकेंगे. [18] उत्तर-पूर्व के चार राज्यों – असम,मेघालय,त्रिपुरा और मिज़ोरम की सीमाएं बांग्लादेश से मिलती हैं. मेघालय,जिसकी केवल ज़मीनी सीमा बांग्लादेश से मिलती है को छोड़ दें, तो बाक़ी के सभी राज्यों और बांग्लादेश के बीच ज़मीन के साथ -साथ नदियां भी सीमा बनाती हैं. त्रिपुरा और मिज़ोरम की ऐसी सीमाएं सबसे लंबी हैं और अगर बांग्लादेश से होकर आने जाने में कोई बाधा न हो,तो इन राज्यों को बहुत फ़ायदा हो सकता है. मिसाल के तौर पर,अगर हम पहले सिलीगुड़ी गलियारे या‘चिकेन नेक’और फिर गुवाहाटी और शिलॉन्ग होते हुए अगरतला से कोलकाता जाते हैं,तो ये दूरी 1650 किलोमीटर है. वहीं,बांग्लादेश से होकर जाने पर ये दूरी महज़ 350 किलोमीटर रह जाती है.

बांग्लादेश अपने चट्टोग्राम बंदरगाह पर एक नया कंटेनर टर्मिनल विकसित कर रहा है और दूसरा टर्मिनल पैंगांव में भी बना रहा है. इससे भारत के साथ कम दूरी के समुद्री रास्ते से व्यापार को काफ़ी बढ़ावा मिलने की उम्मीद है.इससे पहले,भारत और बांग्लादेश को अपने सामान का व्यापार करने के लिए कोलंबो,सिंगापुर या क्लांग बंदरगाह पर निर्भर रहना पड़ता था.इसके साथ साथ,चट्टोग्राम बंदरगाह के ज़रिए उत्तर पूर्वी राज्यों को भी भारत से भी सामान भेजा जा सकेगा.कोलकाता से कार्गो अलग अलग परिवहन का इस्तेमाल करते हुए चट्टोग्राम या मोंगला या उत्तर पूर्व तक पहुंचाया जा सकता है. बांग्लादेश ने भारत को इन रास्तों का इस्तेमाल करने की इजाज़त दी है: चट्टोग्राम/मोंगला से अगरतला (त्रिपुरा), चट्टोग्राम/मोंगला से डॉकी (मेघालय),चट्टोग्राम/मोंगला से सुतरकांडी(असम)और चट्टोग्राम/मोंगला से श्रीमंतपुर (त्रिपुरा). बांग्लादेश के पैंगांव की तरह भारत में नदी पर स्थित फरक्का और बंदेल बंदरगाहों को भी तटीय जल परिवहन समझौते (2015)के तहत‘पोर्ट ऑफ़ कॉल’का दर्जा दिया गया है.[20]

भारत और बांग्लादेश के बीच 1972 में जिस इनलैंड वाटर ट्रांज़िट ऐंड ट्रेड प्रोटोकॉल अपने आप में ऐसा पहला क़दम था. इस प्रोटोकॉल के दोनों देशों की सीमा के भीतर आपसी व्यापार के लिए आठ जलमार्गों की पहचान की गई थी. 2020 में इन्हें बढ़ाकर पहले 10 किया गया और अब पहले के जलमार्गों पर नए ठिकानों को भी शामिल किया जा रहा है:  गुमटी नदी के दाउदखांडी (93 किलोमीटर लंबा) रास्ता भारत और बांग्लादेश के बीच प्रोटोकॉल का रूट नंबर 9 और 10 बनाने से त्रिपुरा और आस-पास के राज्यों को दोनों ही देशों के अंदरूनी इलाक़ों से जोड़ने में मदद मिलेगी. ये उम्मीद की जा रही है कि राजशाही धुलियां राजशाही मार्गों और उनको अरिछा(270 किलोमीटर)से जोड़ने वाले रास्ते से बांग्लादेश में मूलभूत ढांचे का विकास होगा. क्योंकि,इससे ये बांग्लादेश के उत्तरी इलाक़ों तक पत्थर तराशने से निकलने वाले टुकड़ों को ढोने की लागत कम होगी. इस जलमार्ग से परिवहन बढ़ने पर ज़मीनी सीमा शुल्क केंद्रों पर भी दबाव कम होगा. रूट (1) और (2) (कोलकाता-शिलाघाट-कोलकाता) और रूट (3) और (4) (कोलकाता-करीमगंज-कोलकाता)में भारत के कोलाघाट को भी जोड़ा गया है.रूट (3) और (4)(कोलकाता-करीमगंज-कोलकाता)और रूट (7) और (8)(करीमगंज-शिलाघाट-करीमगंज)को भारत के बदरपुर तक बढ़ाया गया है.इन मार्गों में बांग्लादेश के घोड़ासाल को भी जोड़ा गया है. इस प्रोटोकॉल के तहत मौजूदा समय में भारत और बांग्लादेश में छह-छह पोर्ट ऑफ़ कॉल हैं. इनके अलावा पांच और पोर्ट ऑफ़ कॉल को भी जोड़ा गया है:  बांग्लादेश में राजशाही, सुल्तानगंज,चिलमरी,दाउदकांडी और बहादुराबाद और भारत में धुलियां,मैया,कोलाघाट,सोनामुरा और जोगीगोफ्स.इसके अलावा बांग्लादेश में मुक्तारपुर और घोड़ासाल और भारत में त्रिबेनी और बदरपुर को भी पोर्ट ऑफ़ कॉल में शामिल किया गया है.[d],[22]

राष्ट्रीय जलमार्ग(NW) 16 (बराक नदी पर)इन रास्तों से जुड़ा हुआ है और अब वो भारत के उत्तरी पूर्वी इलाक़ों को कोलकाता से जोड़ने में अहम भूमिका निभा रहा है. बराक नदी,उत्तर पूर्वी भारत की दूसरी सबसे बड़ी नदी है.ये नगालैंड में नगालैंड-मणिपुर सीमा पर कोहिमा के दक्षिण से शुरू होकर,नगालैंड,मणिपुर और असम से होकर गुज़रती है और भंगा में ये सुरमा और कुशियारा नाम की दो धाराओं में बंट जाती है.ये दोनों धाराएं बांग्लादेश के मारकुली में फिर एक हो जाती हैं और इसके बाद नदी का नाम मेघना हो जाता है. बराक-मेघना नदी की कुल लंबाई 900 किलोमीटर है: इसमें से 524 किलोमीटर भारत में है. 31 किलोमीटर हिस्सा भारत-बांग्लादेश सीमा पर है और बाक़ी का हिस्सा बांग्लादेश में पड़ता है.भारत में लखीपुर से लेकर भंगा तक बराक नदी पर 121 किलोमीटर हिस्से पर जल-परिवहन किया जा सकता है.2016 में इसे राष्ट्रीय जलमार्ग नंबर 16 घोषित किया गया था. राष्ट्रीय जलमार्ग 16 पर मूलभूत ढांचे के विकास के लिए कई परियोजनाओं पर पहले ही काम शुरू हो चुका है. [23]

हालांकि,बांग्लादेश और भारत के बीच साझा प्रोटोकॉल के तहत आने वाले ज़्यादातर जलमार्ग मौसमी हैं और इनके वैकल्पिक रास्तों की भी ज़रूरत है. अंदरूनी जलमार्ग के ज़रिए कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए, भारतीय आंतरिक जलमार्ग प्राधिकरण(IWAI) भंगा में सुविधाओं का विकास करेगा,जो करीमगंज से 19 किलोमीटर पहले पड़ता है.इसके अलावा बराक घाटी में बदरपुर में भी सुविधाएं बेहतर बनाई जाएंगी.

17 सितंबर 2020 को भारत और बांग्लादेश के बीच हुए वर्चुअल शिखर सम्मेलन में,दोनों देशों ने कनेक्टिविटी बढ़ाने के द्विपक्षीय उपायों की समीक्षा की और हालिया कोशिशों का स्वागत किया. इनमें मई में प्रोटोकॉल से जुड़े दूसरे परिशिष्ट पर हस्ताक्षर(जिसके तहत प्रोटोकॉल में सोनामुरा दौड़कांडी को जोड़ा गया और मौजूदा मार्गों का विस्तार किया गया)और कोलकाता से चटगांव होते हुए अगरतला तक सामान ढुलाई का परीक्षण दौरा शामिल है.दोनों ही देशों के प्रधानमंत्रियों ने इस बात पर सहमति जताई कि चट्टोग्राम और मोंगला बंदरगाहों से भारत के सामान की ढुलाई को तेज़ी से आगे बढ़ाया जाएगा.भारत ने बांग्लादेश से अपनी वो गुज़ारिश दोहराई कि बांग्लादेश अपने यहां ज़मीन पर स्थित कम से कम एक बंदरगाह को चालू करे,जिससे वो अपने पड़ोस में स्थित भारत के राज्यों से कारोबार कर सके और निर्यात के लिए प्रतिबंधित सामानों की सूची(नकारात्मक सूची) को सीमित रखे और इसकी शुरुआत भारत में अगरतला और बांग्लादेश में अखौरा के के बीच की जाए.बांग्लादेश ने प्रस्ताव रखा कि भारत,त्रिपुरा को बांग्लादेश से जोड़ने वाले फेनी पुल का इस्तेमाल बांग्लादेश के ट्रकों को करने की इजाज़त दे,जिससे चट्टोग्राम से उत्तर-पूर्व को सामान भेजा जा सके.[24]

चूंकि, भारत और म्यांमार के बीच कलादन मल्टी मोडल ट्रेड ऐंड ट्रांज़िट प्रोजेक्ट को चालू करने में देर हो रही है. ऐसे में बांग्लादेश के आशुगंज बंदरगाह को भारत, म्यांमार के सित्वे की जगह इस्तेमाल कर सकता है. इससे उत्तर पूर्व के व्यापारिक मार्गों में नई जान डाली जा सकेगी. इसमें कोई शक नहीं कि इस समय, आशुगंज के नदी पर बने बंदरगाह को बड़े पैमाने पर नहीं इस्तेमाल किया जा सकता है, क्योंकि ये परिवहन के अन्य माध्यमों से अच्छे से नहीं जुड़ा हुआ है. लेकिन, भारत इसके विकास की गति बढ़ाने में मदद कर सकता है, जिससे त्रिपुरा और दूसरे उत्तर पूर्वी राज्यों को कार्गो भेजना आसान हो जाएगा.

हिंद-प्रशांत में संयोजन की संभावनाओं की तलाश

हिंद-प्रशांत क्षेत्र के बहुत से देश, इसे ‘हिंद प्रशांत’ कहने पर सवाल उठाते हैं. मोटे तौर पर इसे ‘एशिया और अफ्रीका के बीच आपस में जुड़े हुए इलाक़े के तौर पर देखा जाता है, जो हिंद महासागर और प्रशांत महासागर में फैला हुआ है.’ ये विश्व व्यापार के सबसे अहम समुद्री मार्गों में से एक है, और ‘ये दो महासागर मलक्का जलसंधि के मुख्य व्यापारिक मार्ग के ज़रिए आपस में जुड़े हुए हैं.’ [25]

सामरिक हो या फिर कार्यकारी ज़रूरतें, दोनों के लिए ही इस क्षेत्र में तमाम देशों के बीच संवाद और कनेक्टिविटी की ज़रूरत है. पहली बात तो ये कि हिंद प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती सैन्य और कूटनीतिक ताक़त को देखते हुए, ये इलाक़ा उन क्षेत्रीय शक्तियों और दूसरी बड़ी ताक़तों के लिए सामरिक संतुलन बनाने का इलाक़ा बन गया है, जो बेहद आक्रामक चीन से निपटने के लिए आपसी सहयोग से एक ठोस नीति बनाना चाहते हैं. दूसरी बात ये कि, इस क्षेत्र के अन्य भागीदार जैसे कि अमेरिका, जापान,भारत, दक्षिण कोरिया, आसियान के सदस्य देश और हिंद प्रशांत क्षेत्र में स्थित अन्य देश भी आपसी संवाद बढ़ाकर,कनेक्टिविटी सुधारकर और कारोबारी रिश्ते मज़बूत करके हिंद प्रशांत की व्यापक आर्थिक संभावनाओं का दोहन करना चाहते हैं.

भारत इस क्षेत्र की जियोपॉलिटिक्स के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण है और उससे और अहम व सक्रिय भूमिका अपनानी चाहिए. भारत ने एक ऐसे हिंद प्रशांत क्षेत्र में नियमों पर आधारित व्यवस्था स्थापित करने को अपना समर्थन दोहराया है, जो मुक्त,स्वतंत्र और समावेशी है और ये सुनिश्चित करता है कि सभी देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करते हुए उन्हें इस क्षेत्र से गुज़रने की आज़ादी मिलनी चाहिए; भारत इस क्षेत्र में विवादों का बातचीत के ज़रिए शांतिपूर्ण समाधान का समर्थक है; और चाहता है कि सभी देश अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का पालन करें.भारत के इस सकारात्मक और समावेशी नज़रिए को देखते हुए ही अमेरिका और जापान जैसे देश इस क्षेत्र में भारत को और अहम भूमिका निभाने के लिए कह रहे हैं. ये बात भारत के अपने उन कूटनीतिक प्रयासों से भी मेल खाती है,जिसके तहत वो इस क्षेत्र से और क़रीबी संबंध विकसित करना चाहता है और जिसके लिए भारत ने ‘नेबरहुड फर्स्ट’ और ‘एक्ट ईस्ट’ जैसी नीतियां शुरू की हैं. करीबी क्षेत्रीय संवाद के इस नज़रिए को हक़ीक़त बनाने के लिए भारत को अपने पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को कई स्तरों पर आगे बढ़ाना होगा.

चूंकि, भारत और म्यांमार के बीच कलादन मल्टी मोडल ट्रेड ऐंड ट्रांज़िट प्रोजेक्ट को चालू करने में देर हो रही है. ऐसे में बांग्लादेश के आशुगंज बंदरगाह को भारत, म्यांमार के सित्वे की जगह इस्तेमाल कर सकता है. इससे उत्तर पूर्व के व्यापारिक मार्गों में नई जान डाली जा सकेगी. 

इस काम में एक बहुपक्षीय संगठन के रूप में बिमस्टेक(BIMSTEC) सकारात्मक भूमिका निभा सकता है.इसके ज़रिए दक्षिणी पूर्वी एशिया के देशों के साथ आर्थिक,ज़मीनी और लोगों के बीच संपर्क बढ़ाने में मदद मिल सकती है. भारत,बिमस्टेक को मज़बूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, जिससे इसे हिंद प्रशांत क्षेत्र की एक असरदार संस्था के रूप में मज़बूत बनाया जा सके. बंगाल की खाड़ी,भौगोलिक रूप से हिंद प्रशांत क्षेत्र के बीचो-बीच पड़ती है. और इससे जुड़ा अंडमान सागर,भारत को एक व्यापक महासागर क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार करने का रास्ता मुहैया कराता है. हिंद प्रशांत क्षेत्र की परिकल्पना ‘बहुत सी वैश्विक चुनौतियों और अवसरों’ वाले प्राकृतिक क्षेत्र के रूप में करके, भारत ने हिंद प्रशांत महासागरीय पहल (IPOI) की शुरुआत की है,जिससे वो सात स्तंभों पर अपना ध्यान केंद्रित कर सके: समुद्री पारिस्थितिकी; समुद्री संसाधान; क्षमता का निर्माण और संसाधनों को साझा करना; प्राकृतिक आपदा के जोख़िम को कम करना और उनसे निपटना;  वैज्ञानिक,तकनीकी और अकादमिक सहयोग को बढ़ाना; और समुद्री परिवहन के ज़रिए व्यापारिक संपर्कों को बढ़ाना.चूंकि इस क्षेत्र में कनेक्टिविटी बढ़ाने में जापान का तजुर्बा काफ़ी व्यापक है,[26] तो IPOI  के कनेक्टिविटी से जुड़े मसलों पर जापान से सहयोग हासिल करना काफ़ी अहम हो जाता है. [27]

जापान,दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों और हिंद प्रशांत के अन्य देशों के साथ मिलकर भारत ने मुक्त एवं स्वतंत्र हिंद प्रशांत (FOIP) के नज़रिये को बढ़ावा दिया है. भारत ने क्षेत्र में सभी की सुरक्षा और विकास (SAGAR) जैसे मंचों की शुरुआत करके एकीकृत और समानता पर आधारित समुद्री कनेक्टिविटी के अपने दृष्टिकोण को और मज़बूती दी है. भारत, हिंद प्रशांत क्षेत्र के अपने साझीदारों से द्विपक्षीय और बहुतपक्षीय दोनों माध्यमों से कई क्षेत्रों में संवाद करता है. इसमें ‘समुद्री सुरक्षा,ब्लू इकॉनमी,कनेक्टिविटी,आपदा प्रबंधन और क्षमता का निर्माण’ जैसे पहलू शामिल हैं.[28] भविष्य में जब ऊर्जा और अन्य संसाधनों के लिए ज़बरदस्त होड़ लगने वाली है,तब अपने तेल और गैस के भंडारों और अहम व्यापारिक समुद्री मार्गों के चलते बंगाल की खाड़ी का इलाक़ा समुद्री क्षेत्र में सहयोग और इसके हिस्सेदारों के बीच प्रतिद्वंदिता का बड़ा इलाक़ा बन गया है.अब चूंकि भारत ‘एक्ट ईस्ट’ की नीति पर आगे बढ़ रहा है और चाहता है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र के उसके पड़ोसी देश और बड़ी भूमिका निभाएं,तो भारत के लिए बंगाल की खाड़ी एक अहम सामरिक उप-क्षेत्र के रूप में उभरी है.अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते बंगाल की खाड़ी,आज जब भारत मलक्का जलसंधि के उस पार तक अपना प्रभाव बढ़ाने का सपना देख रहा है,तो उसके लिए हिंद प्रशांत क्षेत्र के अन्य देशों से कनेक्टिविटी और संपर्क बढ़ाने का ज़रिया बन सकती है.

भारत के हिंद प्रशांत महासागरीय विज़न(IPOI) के तहत मूलभूत ढांचे से जुड़े कनेक्टिविटी की परियोजनाओं में जापान, भारत और अन्य देशों की मदद कर रहा है.[29] यहां पर इस बात की चर्चा करनी ज़रूरी है कि किस तरह भारत मलक्का जलसंधि के इस पार बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में स्थित देशों और इसके आस-पास के देशों के साथ समुद्री कनेक्टिविटी बढ़ाने में सहयोग कर सकता है.समुद्री क्षेत्र में भारत को अपनी तमाम कोशिशों का तालमेल अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के साथ बेहतर करना चाहिए,जिससे उन्हें बंगाल की खाड़ी में साझा विकास के प्रयासों से जोड़ा जा सके. सबसे अहम बात तो ये है कि बिमस्टेक देशों को आपस में भी सहयोग बढ़ाने के साथ साथ दूसरे भागीदारों के साथ भी तालमेल बढ़ाना चाहिए,जिससे इस क्षेत्र में कनेक्टिविटी को बेहतर बनाया जा सके और साझा विकास को बढ़ावा देकर,बंगाल की खाड़ी की स्थिरता और समृद्धि को सुनिश्चित किया जा सके.भारत का उत्तर-पूर्वी क्षेत्र,बंगाल की खाड़ी और हिंद प्रशांत क्षेत्र में कनेक्टिविटी बढ़ाने में किस तरह की भूमिका निभा सकता है, ये बात बहुत महत्वपूर्ण है. [30]

निष्कर्ष

भारत और उसके अहम क्षेत्रीय साझीदार, ख़ास-तौर से जापान ने दक्षिणी पूर्वी एशिया में कनेक्टिविटी को लेकर एक व्यापक नज़रिया अपनाया है.जापान की नज़र में उत्तर-पूर्वी इलाक़ा अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है और इसे क्षेत्रीय कनेक्टिविटी को जोड़ने वाले इलाक़े भर के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.उत्तर पूर्व में संपर्क बढ़ाने की कई परियोजनाएं शुरू हो चुकी हैं,जो क्षेत्रीय कनेक्टिविटी बढ़ाने के व्यापक नज़रिए के दायरे में आती हैं.

इस समय उत्तर-पूर्व में मूलभूत ढांचे के विकास की जिन योजनाओं पर काम चल रहा है,उनकी फ़ौरन समीक्षा करने की ज़रूरत है. ये देखना होगा कि इन परियोजनाओं की राह में क्या चुनौतियां हैं और कैसे इनसे पार पाया जा सकता है. 

हालांकि इस राह में कई गंभीर चुनौतियां भी हैं: फंड की कमी, अलग-अलग राज्यों के बीच प्रभावी आपसी सहयोग की कमी,योजना की कमी और अलग-अलग देशों के विशिष्ट भूमिका निभाने का अभाव,क्षेत्रीय साझीदारों के बीच सीमित स्तर पर आंकड़ों का लेन-देन और सीमावर्ती क्षेत्र होने के चलते परियोजनाओं में सैन्य बलों का शामिल होना. सभी साझीदारों को एकजुट होकर इन सभी चुनौतियों से पार पाना होगा.[31]  उत्तर-पूर्व में सड़क,रेल और जलमार्ग के विकास की परियोजनाएं अक्सर देरी का शिकार होती हैं.इन परियोजनाओं को समय पर पूरा करने की सख़्त ज़रूरत है. इस समय उत्तर-पूर्व में मूलभूत ढांचे के विकास की जिन योजनाओं पर काम चल रहा है,उनकी फ़ौरन समीक्षा करने की ज़रूरत है. ये देखना होगा कि इन परियोजनाओं की राह में क्या चुनौतियां हैं और कैसे इनसे पार पाया जा सकता है. लचीले  मूलभूत ढांचे के निर्माण के साथ-साथ,भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में मानव संसाधन और क्षमताओं का विकास भी किया जाना चाहिए.

इस मामले में एक भरोसेमंद साझीदार के रूप में जापान की भूमिका बेहद अहम हो जाती है. बंगाल की खाड़ी में संयोजन या कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए बिमस्टेक और अन्य भागीदार देशों के साथ सहयोग बढ़ाने की संभावनाएं भी तलाशी जानी चाहिए. उत्तर-पूर्व भारत का दक्षिणी पूर्वी एशिया और भारत के पूर्वी क्षेत्र के पड़ोसी देशों से क़रीबी जातीय और धार्मिक संबंध रहा है. सड़क,रेल और जलमार्ग के ज़रिए संपर्क बढ़ाने के साथ-साथ, सीमा के आर-पार लोगों की आवा-जाही बेहतर बनाने और उत्तर पूर्व के निवासियों का अन्य देशों के लोगों के साथ संपर्क बढ़ाने से क्षेत्रीय संवाद के और बड़े मौक़े निकाले जा सकते हैं.[32]


आभार

इस रिपोर्ट के कुछ हिस्से ओआरएफ़ के अंतरराष्ट्रीय वेबिनार, बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में कनेक्टिविटी की संभावनाओं की तलाश: भारत के उत्तर पूर्व की अहमियत, के वक्ताओं द्वारा रखे गए विचारों पर आधारित हैं. ये वेबिनार 5 और 6 मार्च 2021 को आयोजित किया गया था. इसमें इन वक्ताओं ने अपने विचार रखे थे:

उद्घाटन सत्र

-नीलांजन घोष, निदेशक ओआरएफ़ कोलकाता (अध्यक्ष)

-अनुसया बासु रे चौधरी, सीनियर फेलो, ओरआरएफ़ कोलकाता

-नाकामुरा युकाता, कॉन्सुल जनरल, कोलकाता में जापान का वाणिज्य दूतावास

-रिवा गांगुली दास, सचिव (पूर्व), विदेश मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली

-तारिक़ करीन, राजदूत (सेवानिवृत्त), राजनीतिक विश्लेषक और स्वतंत्र सलाहकार

-सुब्रत साहा (लेफ्टिनेंट जनरल, रिटायर्ड) पीवीएसएम, यूवायएसएम, वीएसएम. निदेशक-स्कूल ऑफ़ मिलिट्री अफ़ेयर्स, स्ट्रैटेजी ऐंड लॉजिस्टिक्स, राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय; सदस्य, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड

समापन सत्र

मात्सुमोतो कात्सुओ, भारत में JICA के प्रमुख


Endnotes

[a] Even so, in some of the protected areas, there has been massive influx of immigrants from across the border in Bangladesh, which has led to serious conflicts over identity and ownership of resources.

[b] India’s Act East policy was announced during the India-ASEAN Summit in Myanmar in November 2014.

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