Published on Jul 21, 2021 Updated 0 Hours ago
भारत की समकालीन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ‘प्राचीन’ भारतीय सामरिक नीतियों की उपयोगिता

एब्सट्रैक्ट: इस संक्षिप्त वृतांत में प्राचीन भारत के सामरिक विचारक कौटिल्य के दृष्टिकोण से पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के संबंधों की पड़ताल की गई है. लेख में यथार्थवादी रुख़ अपनाए जाने की वक़ालत की गई है:  ख़तरों की बुनियाद और प्रबलता का आकलन किया गया है, जोख़िमों के बीच रणनीतिक अवसरों की संभावनाएं तलाशी गई हैं और कुल मिलाकर दो मोर्चों पर युद्ध की संभावनाओं को टालने से जुड़ी नीतियों पर बल दिया गया है. निबंध की शुरुआत में ये स्वीकार किया गया है कि पाकिस्तान और चीन, भारत को बिल्कुल अलग-अलग नज़रिए से देखते हैं. पाकिस्तान के लिए भारत एक वैचारिक मसला है जबकि चीन के लिए भू-राजनीति में सत्ता संतुलन का. लिहाज़ा भारत के लिए इन दोनों देशों के प्रति अलग-अलग रुख़ अपनाना ज़रूरी हो जाता है. चीन भारत का “रणनीतिक प्रतिस्पर्धी” है, ऐसे में उसके प्रति लचीला रवैया रखना भारत के लिए फ़ायदे का सौदा होगा. पाकिस्तान भारत का “रणनीतिक विरोधी” है. लिहाज़ा भारतीय विदेश नीति के लिए अधिक यथार्थवादी लक्ष्य यही होगा कि पाकिस्तान के साथ बड़े स्तर पर मेल-मिलाप की नीतियों के रास्ते पर चलने की बजाए चीन से संबंधों को और आगे बढ़ाया जाए.


एट्रिब्यूशन: कजरी कमल और गोकुल साहनी, “द रेलेवेंस ऑफ़ एनसिएंट इंडियन स्ट्रैटेजी इन कंटेम्प्रोरी जियोपॉलिटिक्स,” ओआरएफ़ इश्यू ब्रीफ़ नं. 470, जुलाई 2021, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन.


प्रस्तावना

पिछले 12 महीनों में भारत को अपनी सीमाओं पर उतार-चढ़ाव वाले अनेक अनुभवों से गुज़रना पड़ा है. 2020 की गर्मियों में भारत और चीन की सरहद- वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गरमा-गरमी और तनातनी का माहौल रहा. दोनों देशों की फ़ौज के बीच पूर्वी  लद्दाख [a] के गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़पों के चलते  20 भारतीय जवान शहीद हो गए जबकि करीब 40  चीनी फ़ौजियों  को अपनी जान  से हाथ धोना पड़ा. दुनिया की  सबसे लंबी विवादित सरहद पर 1975 के बाद से ये अब तक का सबसे गंभीर सैनिक टकराव था. पाकिस्तान के साथ भारत की सीमा-नियंत्रण रेखा पर भी पिछले साल संघर्ष विराम के उल्लंघन की सबसे ज़्यादा घटनाएं दर्ज की गईं. हालांकि धीरे-धीरे भारतीय नज़रिए से दो मोर्चों पर युद्ध की संभावनाएं मंद पड़ गईं. फ़रवरी 2021 में भारत और चीन ने “ठोक बजाकर, चरणबद्ध तरीके और आपसी तालमेल” [1] से तनाव कम करने के उपायों वाले समझौते का ऐलान किया. उसी महीने भारत और पाकिस्तान ने साल 2003 के संघर्ष विराम समझौते का पालन करने पर रज़ामंदी जताने वाला एक बयान जारी किया. [2] बहरहाल इन सबके बावजूद भारत को सतर्क रहना होगा ताकि मौजूदा अमन चैन के माहौल में किसी तरह का ख़लल पड़ने पर वो  समय रहते अपनी जवाबी प्रतिक्रिया दे सके.

आस-पड़ोस पर नज़र दौड़ाएं तो पाकिस्तान “जन्मजात शत्रु” वाली श्रेणी से मेल खाता दिखता है. वो सामने है, उसमें अच्छे या आदर्श गुणों का अभाव है और वो लगातार नुकसान पहुंचा रहा है. चीन “प्रासंगिक शत्रु” है.

ये बात तय है कि चीन और पाकिस्तान की ओर से ढांचागत तौर पर भारत को बिल्कुल अलग-अलग चुनौतियां मिल रही हैं. सामरिक तौर पर दोनों देशों द्वारा भारत के सामने पेश किए गए अवसर भी अलग-अलग  हैं.  इस संक्षिप्त निबंध के ज़रिए शासन कला पर आधारित भारत के प्राचीन लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र की सबसे अहम शिक्षाओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है. भारत के मौजूदा भू-राजनीतिक जुड़ाव और क्रिया-कलापों ख़ासतौर से पाकिस्तान और चीन [b] के  मामले में भारत के दीर्घकालिक दृष्टिकोण को बेहतर तरीके से समझने की कोशिश की गई है. अंतरराज्यीय राज-सत्ताओं के बारे में कौटिल्य के विचारों, उनके द्वारा बताए गए पड़ोसियों के प्रकारों और “शत्रु” के बारे में उनकी बारीक समझ से क्या भारतीय विदेश नीति के निर्माताओं को उपयोगी विचार और ज्ञान प्राप्त होते हैं?

राजमंडला 

अंतरराज्यीय राजसत्ताओं के क्षेत्र  में अर्थशास्त्र के सिद्धांत बेहद “उदार” हैं. साथ ही इसमें सत्ता, नैतिकता और व्यवस्था से जुड़े अंतर्जात शब्दावलियों को बड़े प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया गया है. लिहाज़ा अंतरराष्ट्रीय संबंधों से जुड़े सिद्धांतों में बौद्धिक रूप  से इसका महत्व सामने आता है. [3] संस्कृति से जुड़ा राजमंडला  (राज्यों का घेरा) यथार्थवादी राजनीति (रियल पॉलिटिक) के विचारों पर आधारित है. इसमें पड़ोसी राजसत्ताओं के बारे में एक विशिष्ट परिकल्पना सामने रखी गई है. इसके ज़रिए बाहरी राज्यों से संबंधों के मामलों में बेहतरीन ढंग से और बारीकी से पेश नज़रिया सामने आता है.

​वैसे तो मशीनी तौर पर और रेखा गणित के हिसाब से मंडला  के समान केंद्रों वाले घेरे के वर्णन से ऐसे संकेत मिलते हैं कि पड़ोसी राजसत्ता दुश्मन सरीख़ी होती है, जबकि पड़ोसी का पड़ोसी दोस्त होता है. हालांकि, ये विश्लेषण बेहद कच्चा और अपरिपक्व है. अर्थशास्त्र  में दोस्त और दुश्मन की पहचान से जुड़े जटिल कारकों का विस्तार से विवरण दिया गया है. ऐसे में उपरोक्त विवरण अर्थशास्त्र  के सिद्धांतों से कतई न्याय नहीं करता. कौटिल्य ने अंतर-राज्यीय प्रभुता को एक अस्थिर प्रवृत्ति वाला क्षेत्र बताया था. कुछ हद तक ये भूगोल के स्थायित्व और उसमें निहित निश्चयवाद को हल्का कर देते हैं. किसी राजसत्ता का भौगोलिक ठिकाना एक महत्वपूर्ण कारक ज़रूर है पर यही मुख्य परिवर्तनशील निर्धारक तत्व नहीं है. ये उस राज्यसत्ता की सापेक्षिक शक्ति और स्वभाव (भाविन) के हिसाब से कार्य करता है. लिहाज़ा एक पड़ोसी राज्यसत्ता संभावित तौर पर भले ही शत्रुतापूर्ण हो लेकिन उसके इरादों का स्वरूप और सापेक्षिक राज्य शक्ति, दोनों मिलकर ये तय करते हैं कि वो किस श्रेणी में आता है: मित्रभाविन (दोस्ताना पड़ोसी), अरिभाविन  (शत्रुतापूर्ण पड़ोसी) और भ्रत्यभाविन (जागीरदारी वाली राज्यसत्ता).

इनमें वो पड़ोसी सबसे अहम होते हैं जिनका स्वभाव “शत्रु” समान होता है. वो विभिन्न प्रकार के होते हैं: (1) सामने खड़ा दुश्मन, जो अशांत स्वभाव का हो और लगातार चोट पहुंचा रहा हो, (2) पर्दे के पीछे खड़ा दुश्मन, जिसकी सामने खड़े दुश्मन के साथ साठगांठ हो, (3) जो किसी आपदा में फँसने पर असुरक्षित और कमज़ोर हो, और (4) जो नेतृत्व पर उसके संकटकाल में वार करे. [4] राजमंडला  के घटकों पर अलग से चर्चा करते हुए कौटिल्य “जन्मजात या सहज शत्रु” और “प्रासंगिक शत्रु” के बीच भेद करते दिखते हैं. पहली श्रेणी का शत्रु वो है जिसकी पैदाइश समान हो जबकि दूसरी श्रेणी का शत्रु वो है जो दुश्मनों सरीख़ा रवैया रखे (कम से कम फ़ौरी तौर पर). [5] इस नज़रिए से आस-पड़ोस पर नज़र दौड़ाएं तो पाकिस्तान “जन्मजात शत्रु” वाली श्रेणी से मेल खाता दिखता है. वो सामने है, उसमें अच्छे या आदर्श गुणों का अभाव है और वो लगातार नुकसान पहुंचा रहा है. चीन “प्रासंगिक शत्रु” है. हाल के वर्षों में चीन मध्यमा (मध्यवर्ती या मध्यम दर्जे की शक्ति वाला राजा) [6] के तौर पर भी उभर कर सामने आया है. एक ऐसा राजा जो भौगोलिक रूप से विजेता और अपने शत्रु के निकट हो, बिख़राव वाली स्थितियों में उनको कुचलने की क्षमता रखता हो, और राज्य-सत्ताओं के घेरे में सत्ता संतुलन को छिन्न भिन्न करने का पर्याप्त प्रभाव रखता हो. कौन सा पड़ोसी किस श्रेणी का शत्रु है- ये नज़रिया शक्तियों के पारस्परिक संबंधों और राज्यों के हितों के हिसाब से बदलता रहता है.

  

ये तय लगता है कि चीन देर-सबेर विश्व में तकनीक के क्षेत्र का अगुवा बन ही जाएगा. ऐसे में भारतीय कंपनियों के लिए वहां अवसर और बढ़ जाएंगे. चीन के साथ आर्थिक संबंधों को तोड़ने और वहां की निजी कंपनियों के साथ व्यापारिक साझेदारी करने से मना करने की नीति भविष्य के नज़रिए से नुकसानदेह होगी. 

चीन और पाकिस्तान के इरादे, मकसद और काबिलियत अलग-अलग हैं. ऐसे में कौटिल्य की नज़रों से देखें तो पाकिस्तान और चीन के बीच के इस क़ुदरती फ़र्क़ को समझना ज़रूरी है. आज कौटिल्य होते तो वो बीजिंग और इस्लामाबाद के प्रति अलग-अलग रणनीतियों की वक़ालत करते. वो न केवल इन दोनों देशों द्वारा पेश किए जा रहे ख़तरों के अंतर की पहचान करते बल्कि भारतीय विदेश नीति के लक्ष्य (योगक्षेम) की प्राप्ति की दिशा में प्रस्तुत अवसरों को भी रेखांकित करते.

योगक्षेम: भारतीय विदेश नीति का लक्ष्य 

कौटिल्य के मुताबिक़ विदेश नीति का मापदंड ये है कि, क्या उससे किसी राज्यसत्ता को गर्त में जाने, यथास्थिति और विकास के रास्ते पर आगे बढ़ने से जुड़े चक्र में ऊपर उठने में मदद मिलती है. विदेश नीति का लक्ष्य भौगोलिक सीमाओं की सुरक्षा के साथ-साथ आर्थिक समृद्धि प्रदान करना भी है. ये दोनों एक दूसरे को बल प्रदान करते हैं. लिहाज़ा भारतीय विदेश नीति के उद्देश्यों की प्राप्ति में पाकिस्तान और चीन की संभावित भूमिका के हिसाब से ही उनके प्रति भारत का रवैया परिभाषित होना चाहिए.

इससे भारत के राष्ट्रीय हितों में स्पष्टता लाने में आसानी होगी. इसके साथ ही वैश्विक स्वभाव वाली और आपस में जुड़ी विश्व व्यवस्था में भारतीय विदेश नीति के घोषित लक्ष्य योगक्षेम (सुरक्षा और कल्याण) को परिभाषित करने में भी मदद मिलेगी. शांगरी- ला डायलॉग में अपने मुख्य संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की भावी आर्थिक संभावनाओं को न सिर्फ़ देश की अर्थव्यस्था के आकार बल्कि वैश्विक मसलों में भारत के जुड़ाव की गहराई से भी जोड़ा. [7] किसी ख़ास इलाक़े में स्थित राज्य-सत्ताओं का भविष्य आपस में जुड़ा होता  है. ऐसे में इनके लिए आपसी टकराव  की जगह सहयोग का संबंध बनाना ज़्यादा समझदारी भरा होता  है. आधुनिक समय में मंडला की राजसत्ताएं “आपस में जुड़ाव वाले  हो गए हैं. ऐसे  में वो किसी एक राजनीतिक इकाई में राजकीय कर्तव्यों को दूसरी राजसत्ता के लोगों की खुशियों के साथ जोड़ देते हैं.” [8] भारत नियम-आधारित विश्व व्यवस्था को बढ़ावा देने का पक्षधर है.  ऐसी कल्पनाशीलता सुरक्षा और समृद्धि के दोहरे मकसद को लक्ष्य बनाती है .[9]

भारत की सामरिक और रणनीतिक गणनाओं को इसी संदर्भ में देखे  जाने की ज़रूरत है. चीन एक स्थापित क्षेत्रीय महाशक्ति है, विश्व की आर्थिक व्यवस्था में उसका दर्जा काफ़ी ऊंचा है. भारतीय रणनीतियों में उसकी अहमियत अस्थिरता भरे पाकिस्तान के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है. वैश्विक मंच पर भारत अपने लिए महाशक्ति वाली भूमिका तलाश रहा है. ऐसे में कम से कम थोड़े समय  के लिए ही सही, मगर चीन का रोल भारत के लिए बेहद अहम है.  हालांकि, भारत की आर्थिक समृद्धि के लिए एक स्थिर और शांत पड़ोस बेहद ज़रूरी है. ऐसे में पाकिस्तान के साथ रिश्तों पर भी ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है. भारत के नज़रिए से देखें तो एक निष्क्रिय पाकिस्तान ही पर्याप्त है जबकि चीन के साथ सकारात्मक और उत्पादकता से भरा संबंध वक़्त की मांग और बेहद ज़रूरी है. चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. ऐसे में वो एक ऐसा किरदार है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.  जबकि इस पायदान में पाकिस्तान का स्थान 44वां है.

पाकिस्तान के मुक़ाबले चीन के साथ संबंधों ने भारत को कुछ ऐसे फ़ायदे दिलाये हैं जो साफ़-साफ़ नज़र आते हैं. मिसाल के तौर पर चीन वित्त वर्ष 2021 में वस्तुओं के व्यापार के मामले में भारत का सबसे बड़ा साझीदार बनने के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है. [10] भारत के लिए अहम दवाइयों और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में चीनी निवेश लगातार बढ़ रहा है. [11] भारत के कई स्टार्ट-अप्स चीन की निजी पूंजी को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं. ये तय लगता है कि चीन देर-सबेर विश्व में तकनीक के क्षेत्र का अगुवा बन ही जाएगा. ऐसे में भारतीय कंपनियों  के लिए वहां अवसर और बढ़ जाएंगे. [12]  चीन के साथ आर्थिक संबंधों को तोड़ने और वहां की निजी कंपनियों के साथ व्यापारिक साझेदारी करने से मना करने की नीति भविष्य के नज़रिए से नुकसानदेह होगी. इसके विपरीत भारत को चीन के साथ अपने आर्थिक संबंधों को ठंडे दिमाग़ से सोच-विचार कर ऐसे आगे बढ़ाना चाहिए जिससे उपलब्ध अवसरों का ज़्यादा से ज़्यादा लाभ उठाया जा सके. इतना ही नहीं भारत को चीन के कारोबारी हलकों में अपना पक्ष रखने वाला गुट भी तैयार करना चाहिए जो भारत-चीन आर्थिक संबंधों को मज़बूती दे सके. [13] इस मामले में भारत के सामने ख़ुद चीन का ही उदाहरण मौजूद है. विदेश व्यापार में चीन के दो सबसे बड़े साझीदार देश अमेरिका और जापान हैं.[14]  ये दोनों ही ऐसे राष्ट्र हैं जिनसे चीन की ज़बरदस्त प्रतिस्पर्धा चलती है.

वहीं दूसरी ओर भारतीय दृष्टिकोण से देखें तो पाकिस्तान चाहे लाख सुधर जाए भारत की तरक्की में उसका योगदान नगण्य ही रहने वाला है. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दक्षिण एशिया में सबसे कम प्रतिस्पर्धी है. आकार के हिसाब से वो यूरोपीय संघ की 12वीं  सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था फ़िनलैंड की अर्थव्यवस्था के बराबर है. [15] (sovereign) सॉवरेन रिस्क रेटिंग के मामले में उसकी हालत मंगोलिया या पापुआ न्यू गिनी जितनी पतली है. इससे स्पष्ट है कि दुनिया की एजेंसियां वहां के वातावरण को राजनीतिक और आर्थिक तौर पर काफ़ी जोखिम भरा मानती हैं. [16]  यहां तक कि दक्षिण एशिया की मदद के तौर पर मध्य एशिया के  द्वार “खोलने” की पाकिस्तानी क्षमता को भी बढ़ा-चढ़ाकर बताया  जाता रहा है. मध्य एशिया के साथ पाकिस्तान का संबंध अफ़ग़ानिस्तान  के  ज़रिये है. अफ़ग़ानिस्तान ऐसा देश है जहां आने वाले काफ़ी वक़्त तक अस्थिरता भरा दौर जारी रहने वाला है. स्पष्ट है कि भविष्य में भारत और पाकिस्तान के बीच तामझाम से भरे दोस्ताना मेल-मिलापों या सुलह-समझौतों से भारत को रणनीतिक मोर्चे पर कोई बहुत बड़ा फ़ायदा नहीं होने वाला. पाकिस्तान को कोई भारी-भरकम छूट देने पर रज़ामंद होने से पहले भारत को इस बात पर अच्छी तरह से सोच-विचार कर लेना चाहिए. असल में ऐसी किसी कवायद के सामरिक फ़ायदे बेहद मामूली रहने वाले  हैं. अमन की आशा  जैसी पहल के कामयाब होने का भी कोई बहुत बड़ा लाभ नहीं होगा. [c] भारत द्वारा अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को सुरक्षित  करने के प्रयासों में अपने दो सबसे बड़े पड़ोसियों की संभावित भूमिका के बारे में सोचना बेहद अहम हो जाता है.  ये कौटिल्य के विचारों के साथ तालमेल बिठाने जैसा होगा जिसमें पाकिस्तान को “जन्मजात या सहज”  और चीन को “प्रासंगिक” शत्रु मानकर आगे बढ़ना होगा. पाकिस्तान को एक “रणनीतिक विरोधी” औऱ चीन को “सामरिक प्रतिस्पर्धी” के तौर पर देखना होगा.

भारत के नए राजनीतिक नेतृत्व द्वारा प्रदर्शित “मुखर द्विपक्षीय कूटनीति और पहले से ज़्यादा खुलेपन के साथ गठजोड़ वाली कूटनीति” रही है. 2017 के डोकलाम संकट के वक़्त भारत का दृढ़ और अडिग रुख़ और अमेरिका की तरफ़ साफ़तौर पर झुकाव वाली कूटनीति ने चीन को परेशानी में डाल दिया. 

भारत के ‘शत्रु’ 

पाकिस्तान: रणनीतिक विरोधी 

बुनियादी अर्थों में एक “जन्मजात शत्रु” के तौर पर पाकिस्तान को हमेशा ही भारत का विरोध करना चाहिए. ब्रिटिश हुकूमत द्वारा 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप से विदाई लेते वक़्त पाकिस्तान की स्थापना भारतीय मुसलमानों के मादरे वतन के रूप में हुई थी. ऐसे में पाकिस्तान के लिए अपने अस्तित्व की ज़रूरतों को सबके सामने ज़ाहिर करने की दरकार हमेशा बनी रहेगी. पाकिस्तान की ताक़तवर फ़ौज भी मानती है कि भारत से उसे विचारधाराओं के साथ-साथ अस्तित्व का भी ख़तरा है. वहां की फ़ौज ने बड़ी कामयाबी से अपने आप को “राजसत्ता के ऊपर की सत्ता” साबित कर दी है. उसे पाकिस्तान की विदेश और रक्षा नीतियों पर अपने मनमुताबिक वीटो लगाने की ताक़त मिली हुई है. [17]

भारत का विरोध करने की पाकिस्तान की दिली हसरत नई नहीं है. आज़ादी के बाद के शुरुआती वर्षों में भी पाकिस्तान की विदेश नीति उसे भारत से होने वाले संभावित ख़तरों को ध्यान में रखकर बनाई जाती थी. शीत युद्ध के शुरूआती कालखंड में पाकिस्तान ने अनेक सांगठनिक मोर्चों पर अमेरिका के साथ हाथ मिलाया. इसके पीछे पाकिस्तान का मकसद फ़ौजी मामलों में भारत को पारंपरिक तौर पर हासिल फ़ायदे वाले हालातों का असर कुंद करना था. वैसे तो खुले तौर पर पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ तालमेल को साम्यवाद से लड़ने की उसकी कवायद बताया था, लेकिन ख़ुद वहां के हुक्मरानों ने इस मकसद की ओर कभी भी कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया.

भारत दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देशों में शुमार है. [18] इसके बावजूद पाकिस्तान ने आर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक स्टेट में भारत को प्रवेश दिए जाने का विरोध किया है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी और अस्थायी सीट की भारत की मांग को पाकिस्तान हमेश ख़ारिज करता रहा है. [19] इतना ही नहीं अभी हाल में भारत  द्वारा बासमती चावल पर ज्यॉग्रफिकल इंडिकेशन हासिल करने के प्रयासों में भी पाकिस्तान ने अड़ंगा लगाया था. [20]  ऐसा लगता है कि पाकिस्तान का भारत विरोधी  रवैया  ढांचागत है. वो  कभी नहीं बदलेगा. दोनों देशों के बीच विवाद के मुख्य मसले जम्मू और कश्मीर का निपटारा होने के बाद भी ऐसा नहीं लगता कि पाकिस्तान के रुख़ में कोई बदलाव  आएगा. हालांकि, जम्मू-कश्मीर के विवाद का  समाधान ख़ुद ही दूर की कौड़ी है.

कई मायनों में पाकिस्तान एक आदर्श कौटिल्यवादी राज्यसत्ता से कोसों दूर है. कौटिल्य के हिसाब से एक आदर्श राज्यसत्ता वो है जो राजनीतिक नेतृत्व का सम्मान करती है, वैज्ञानिक पड़तालों (अन्विक्षिकी) पर आधारित निर्णय प्रक्रिया पर ज़ोर  देती है. उसमें तार्किकता को नैतिकता के साथ सम्मिलित किया जाता है. इसके साथ  ही सत्ता  की परिकल्पना  भौतिक और अभौतिक दोनों लिहाज़ से की जाती है. इसका आधार सप्तगण सिद्धांत है. 

ये समझना बेहद आसान है कि  एक “जन्मजात शत्रु” के  तौर  पर  पाकिस्तान की पहचान ने इसे भारत के “सामरिक  विरोधी” का चेहरा दे दिया है. पाकिस्तानी नीतियों से ये बात ज़ाहिर भी होती है. पाकिस्तान ने ऐसे मामलों में भी भारत का विरोध किया है, जिनसे असल में ख़ुद उसे ही फ़ायदा पहुंचने की संभावना रही है. 

इसमें शासक (स्वामी), मंत्रियों (अमात्य), राज्यक्षेत्र, और आबादी (जनपद) को सशस्त्र शक्ति (दंड) से ऊंचा स्थान दिया जाता है. [21]  ये कहा जा सकता है कि भारत के मुक़ाबले अपनी कमज़ोरियों को पाकिस्तान कुछ हद तक ग़ैर-पारंपरिक हथकंडे अपनाकर, परमाणु हथियार जुटाकर और भारत के ख़िलाफ़ चीन से साठगांठ कर दूर कर लेता है. इन तमाम रणनीतियों को कौटिल्य ने एक “कमज़ोर शासक” की निशानी बताया है. [22]

अर्थशास्त्र में शासन कला का व्यापक और अद्भुत विवरण दिया गया है. इस नज़रिए से भी पाकिस्तान को एक नासमझ और ढीठ या विवेकशून्य राज्य ही बताया जाएगा. पाकिस्तान आज भी दंड (सैन्य शक्ति) को जनपद (जनसंख्या और राज्यक्षेत्र) के  मुक़ाबले वरीयता देने की नीति जारी रखे हुए है. वहां ‘राज्यसत्ता  से ऊपर की सत्ता’ को नीति निर्माण में ज़रूरत से कहीं ज़्यादा प्रभाव हासिल है. [d] कश्मीर को अस्थिर करने के लिए पाकिस्तान लगातार कट्टरवादी आतंकी गुटों का इस्तेमाल करता रहा है. इसका पाकिस्तान की धरती पर ही विनाशकारी असर हुआ है. हाल के वर्षों में पाकिस्तानी सरज़मीन पर  कई आतंकी हमले हुए हैं. वहां मौजूद उग्रवाद और कट्टरवाद की जड़ें अब और गहरी बनी हुई हैं. [23]  पाकिस्तान पर आतंकी गतिविधियों को आर्थिक मदद मुहैया कराने के आरोप लगते रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर  पाकिस्तान को इन इल्ज़ामो का सामना करना पड़ रहा है. वो फ़ाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफ़एटीएफ़) की ‘काली सूची’ में है. इस वजह से पाकिस्तान को विदेशी निवेश हासिल करने के रास्ते में बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है. [24] पाकिस्तान में नागरिक प्रशासन की जगह रावलपिंडी (फ़ौजी मुख्यालय) ने ऐतिहासिक रूप से स्वामी  (शासक) की भूमिका निभाई है. ऐसा लगता है जैसे रावलपिंडी के सामरिक हितों के लिए पाकिस्तान में बड़ी आसानी से जनपद  की कुर्बानी दे दी गई है.

ये समझना बेहद आसान है कि  एक “जन्मजात शत्रु” के  तौर  पर  पाकिस्तान की पहचान ने इसे भारत के “सामरिक  विरोधी” का चेहरा दे दिया है. पाकिस्तानी नीतियों से ये बात ज़ाहिर भी होती है. पाकिस्तान ने ऐसे मामलों में भी भारत का विरोध किया है, जिनसे असल में ख़ुद उसे ही फ़ायदा पहुंचने की संभावना रही है. इनमें अंतरराष्ट्रीय व्यापार से लेकर  क्षेत्रीय संपर्क या कनेक्टिविटी से जुड़े मामले शामिल हैं. एशिया की तीसरी सबसे  बड़ी आर्थिक  शक्ति (भारत) के साथ आर्थिक संबंध मज़बूत करने की दिशा में पाकिस्तान की बेरुख़ी से साफ़ ज़ाहिर है कि उसकी रणनीति विचारधारा और संभावित सामरिक लक्ष्यों से  प्रेरित है. इस विचारधारा के मुताबिक पाकिस्तान को पिछड़ा रहना मंज़ूर है मगर एक “चमकते”  भारत में किसी तरह की हिस्सेदारी करना गवारा नहीं. भारत के विदेश मंत्री एस.जयशंकर के मुताबिक “भारत के साथ सामान्य व्यापार को मंज़ूरी या कनेक्टिविटी से पाकिस्तान का इनकार करना, उसके असल इरादों के बारे में हमें काफ़ी कुछ बताता है.” [25] विदेश मंत्री ने महाभारत के त्रिगर्त योद्धाओं से जुड़े प्रकरण का हवाला देते हुए बताया कि “आकार  में छोटे दुश्मनों  से पहुंचने वाले ख़तरे बहुत बड़े हैं. ऐसे दुश्मनों  का एकमात्र लक्ष्य अपने शत्रु को नुकसान पहुंचाना होता है चाहे इस प्रक्रिया में वो ख़ुद ही तबाह क्यों न  हो जाएं.” [26] पाकिस्तान की पहचान एक  “रणनीतिक विरोधी” के तौर पर करने का मतलब यही है कि उसके साथ संबंधों के सुधार की दिशा में ढांचागत सीमाएं या हदें बरकरार हैं.

 

चीन: सामरिक प्रतिस्पर्धी 

दूसरी ओर चीन भारत का एक “सामरिक प्रतिस्पर्धी” है. ज़रूरी नहीं है कि वो एक “सामरिक विरोधी” भी हो. भारत के प्रति उसका रवैया भारत का विरोध करने की अंतर्निहित ज़िद या प्रेरणा का नतीजा नहीं है. इसके उलट भारत के प्रति चीन का रुख़ एक प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोण से तय होता है. इसके केंद्र में क्षेत्रीय सत्ता संतुलन की राजनीति है. चीनी जनता के दिलो-दिमाग़ में भारत के प्रति असंतोष या नफ़रत की भावना न के बराबर है. भारत एक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला देश है, इसके बावजूद भारत की राजनीतिक पहचान से चीन को ख़तरा बेहद कम है. चीन संसार में सिर्फ़ अमेरिका के साथ अपनी वैचारिक प्रतिस्पर्धा मानता है.

बहरहाल, चीन के लिए भारत की ओर से पेश की जाने वाली रणनीतिक चुनौती हाल के समय में उभर कर सामने आई है. शीत युद्ध की समाप्ति के समय भारत और चीन (जो उस वक़्त लगभग एक जैसी ताक़त वाले देश थे) ने पारस्परिक हितों और लाभ के लिए शांति समझौता (संधि) किया था. [27] चाहे वो 1993 में सीमा पर शांति और अमनचैन कायम करने के लिए किया गया समझौता हो या 1996, 2003 और 2012 में किए गए कई अन्य करार. इन समझौतों ने दोनों देशों के बीच स्थिरता कायम करने में मदद की. ये माहौल दोनों देशों में जारी आर्थिक सुधारों के प्रयासों की कामयाबी के लिए बेहद ज़रूरी था.[28] हालांकि 21वीं सदी का पहला दशक ख़त्म होते-होते चीन आर्थिक तरक्की के लिहाज़ से भारत से कहीं आगे निकल गया. इस तरह उसका स्थान राजमंडला  में ऊपर उठकर मध्यमा  (मध्यम दर्जे का शासक) की श्रेणी में आ गया.[29] भारत के पूर्व विदेश सचिव विजय गोखले ने कमोबेश इसी कालखंड को दोनों देशों के बीच पैदा हुई ग़लत धारणाओं का पहला चरण बताया था.[30] करीब दो दशकों के शांतिपूर्ण माहौल में आर्थिक और सामरिक तौर पर अपना सांगठनिक ढांचा मज़बूत करने के बाद चीन वैश्विक पटल पर अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए तैयार और लालायित था. भारत और चीन के बीच शक्ति का असंतुलन आ गया. इसके साथ ही चीन के इरादों (भाविन) में धीरे-धीरे बदलाव आता गया. इससे दोनों देशों के द्विपक्षीय रिश्तों की तस्वीर और स्वभाव बदल गया. इसके बाद के कालखंड में भारत ने चीन की सामरिक सोच में जगह बनाई. हो सकता है कि इसकी वजह भारत के नए राजनीतिक नेतृत्व द्वारा प्रदर्शित “मुखर द्विपक्षीय कूटनीति और पहले से ज़्यादा खुलेपन के साथ गठजोड़ वाली कूटनीति” रही है.[31] 2017 के डोकलाम संकट के वक़्त भारत का दृढ़ और अडिग रुख़ और अमेरिका की तरफ़ साफ़तौर पर झुकाव वाली कूटनीति ने चीन को परेशानी में डाल दिया.

वैसे तो चीन ने भी अपनी तरफ़ से भारत की मुख़ालफ़त करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी है. उसकी ये प्रवृत्ति वक़्त के साथ और बढ़ती चली गई है. उसने न्यूक्लियर्स सप्लायर्स ग्रुप [32] में भारत का प्रवेश रोक रखा है. साथ ही उसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अनुच्छेद 370 पर परिचर्चा शुरू कराने की कोशिश भी की.[33] इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता हासिल करने के भारत के प्रयासों के रास्ते में चीन को “सबसे बड़े रोड़े” के तौर पर जाना जाता है.[34] लद्दाख़ में जारी तनातनी को शायद दोनों देशों के बीच बढ़े अविश्वास के इसी माहौल के प्रकटीकरण के तौर पर देखा जा सकता है. इसे चीन की नीतियों में बदलाव- संधि से संध्ययन (शांति समझौते के बाद सैन्य रास्ते पर आगे बढ़ना) के तौर पर परिभाषित किया जा सकता है. इसके तहत ख़ुद को हासिल सामरिक बढ़त का इस्तेमाल परेशान करने वाले पक्ष पर विजय हासिल करने के लिए किया जाता है. लद्दाख़ प्रकरण के आगे बढ़ते-बढ़ते जिस तरीके से भारत ने अपने बुनियादी ढांचे में सुधार कर वहां सैनिक गश्ती के काम को और तेज़ कर दिया, उससे चीन चिढ़ गया.[35]

2020 की गर्मियों में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर हिंसक झड़पों के चलते हो सकता है कि कई पर्यवेक्षकों को ये लगने लगा हो कि भारत सचमुच अपने दो पड़ोसियों के साथ दो मोर्चों पर युद्ध की संभावनाओं के बीच झूल रहा है. हालांकि, इस तरह का नतीजा निकालना उचित नहीं होगा. पाकिस्तान की तरह चीन रणनीतिक तौर पर भारत का विरोधी नहीं है, बल्कि वो तो भारत का “सामरिक प्रतिस्पर्धी” है. चीन का रुख़ भारत के प्रति उपेक्षा से भरा रहा है. वो भारत को एक ताक़त मानने से इनकार करता रहा है. ख़ासतौर से विवादित एलएसी पर भारत की कार्रवाइयों से वो खार खाता रहा है. इन सबके बावजूद पाकिस्तान की अपेक्षा चीन की ओर से भारत के सामने पेश की गई चुनौतियों का मिज़ाज कहीं अलग है. भले ही एलएसी दुनिया की सबसे लंबी ज़मीनी सीमा से जुड़ा विवाद हो लेकिन इसके बावजूद ये मामला चीन की प्रमुख चिंताओं में शुमार नहीं है. मनोज जोशी भी इसी बात को रेखांकित करते हैं. उनके मुताबिक ऐतिहासिक तौर पर चीनी सामरिक नीति की “प्राथमिक दिशा” “1950 और 1960 के दशकों में उत्तर-पूर्व (अमेरिका) की ओर से लेकर 1970 और 1980 के दशकों में उत्तर (रूस) की ओर और आज दक्षिण-पूर्व (ताइवान और अमेरिकी नौसैनिक बलों) की ओर है.”[36]

यथार्थवादी दृष्टिकोण ये है कि भारत और चीन के बीच की प्रतिस्पर्धा को टाला नहीं जा सकता. बहरहाल भारत के नज़रिए से देखें तो जो बात टाली जा सकती है वो है चीन के साथ द्विपक्षीय रिश्तों में तल्ख़ी को उस हद तक जाने से रोकना कि चीन की तरक्की से भारत को आगे कोई लाभ ही हासिल न हो सके. लंबे समय से चले आ रहे विवादों के निपटारे तक चीन के साथ कामचलाऊ या अस्थायी व्यवस्था बनाना संभव है, ताकि मौजूदा अवसरों के लाभ उठाए जा सकें. अल्पकालिक दृष्टिकोण से भारत की उन्नति के लिए मददगार नीतियों का ये एक महत्वपूर्ण घटक होगा. ऐसी नीति अपनाना समझदारी भरा कदम होगा. चीन में तेज़ी से बढ़ते निजी क्षेत्र की मदद से भारत के व्यापार और निवेश से जुड़े आर्थिक क्षेत्रों में अवसरों के अनेक द्वार खुल सकते हैं. इसके साथ-साथ क्षेत्रीय और वैश्विक प्रशासकीय व्यवस्था मसलन, एशियन इंफ़्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक से लेकर जलवायु परिवर्तन से जुड़े क्षेत्रों तक सहयोग के इन संबंधों का विस्तार किया जा सकता है. चीन के साथ सहयोगात्मक रिश्तों को ख़त्म करना भारत के लिए अपेक्षाकृत ज़्यादा नुकसानदेह साबित होगा. भारत को इस बात को लेकर सतर्क रहना होगा कि चीन के प्रति उसकी नीति पाकिस्तान की भारत नीति जैसी न हो जिसमें पाकिस्तान पारस्परिक हितों वाले मसलों पर भी साथ काम करने से इनकार करता रहता है.

बात अगर चीन की हो तो उसके मामले में कौटिल्य बहुआयामी नीति अपनाने का सुझाव देते हैं. ज़ाहिर तौर पर ये नीति चतुराई, बुद्धिमानी और समझदारी से भरी होती. इसमें न तो मूर्खतापूर्ण बहादुरियों के लिए कोई स्थान होता और न ही दब्बूपन या घुटने टेकने वाली प्रवृतियों को कोई जगह मिल पाती. चीन के प्रति भारत की नीति इन दोनों अतिरेकवादी स्थितियों के बीच की होती. 

एक और बात…आर्थिक और भू-राजनीतिक वजहों से इस बात की प्रबल संभावनाएं हैं कि भारत द्वारा सहयोगकारी नीतियां अपनाए जाने के बदले चीन की ओर से भी सकारात्मक प्रतिक्रिया दिखाई जाए. अमेरिका की वैश्विक हैसियत को कामयाबी से चुनौती देने के लिए “भारत के साथ रिश्ते सुधारने की दिशा में चीन द्वारा पहला कदम उठाना बेहद ज़रूरी है.” [37] सीमा पर जारी विवाद के बावजूद चीन एक बार फिर भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार बन गया है. ज़ाहिर है इससे आर्थिक मसलों पर पारस्परिक निर्भरता और दोनों के लिए सकारात्मक नतीजों की संभावनाएं एक बार फिर उजागर हुई हैं.[38] ऐसे में भारत को इस बात को लेकर सतर्क रहना चाहिए कि चीन के साथ रिश्तों में तल्ख़ी किसी भी सूरत में काबू से बाहर न होने पाए.

लचीली प्रतिक्रिया  

भारतीय विदेश नीति के दो सबसे बड़े सरोकारों द्वारा पेश ख़तरों और अवसरों के मिज़ाज अलग-अलग हैं. इसके बावजूद सबसे अहम कारक है तात्कालिक रूप से लचीलेपन के साथ नफ़ा-नुकसानों का विश्लेषण कर प्रतिक्रिया जताना. कौटिल्य के लिए सत्ता त्रिआयामी है. इनमें मंत्रशक्ति (समझाने-बुझाने और कूटनीति की ताक़त) सबसे महत्वपूर्ण है. इसके बाद है प्रभावशक्ति (ख़ज़ाने और सेना की शक्ति) और उत्साहशक्ति (साहस या पराक्रम की शक्ति). वैसे तो सैन्य और आर्थिक शक्ति महत्वपूर्ण है लेकिन संदर्भ के हिसाब से विदेश नीति के सटीक तत्वों का इस्तेमाल सफ़लता के लिहाज़ से बेहद अहम है.[39] ये विचार जोसेफ़ न्ये द्वारा प्रस्तुत ‘कठोर’, ‘नरम’, और ‘चतुर’ सत्ता की परिकल्पना की याद दिलाते हैं. उन्होंने नरम और कठोर शक्तियों के व्यापक दायरे के संपूर्ण इस्तेमाल से चतुर रणनीतियां तैयार किए जाने पर ज़ोर दिया है. उन्होंने इसके लिए “प्रासंगिक चतुराई” यानी “सहज ज्ञान से समस्याओं की पहचान और पड़ताल करने की क्षमता, जिससे नीति निर्माताओं को अपनी रणनीतियों के वांछित लक्ष्यों के साथ तालमेल बिठाते हुए चतुर रणनीतियां तैयार करने में मदद मिलती है” पर बल दिया है.[40]

पाकिस्तान और चीन दोनों से ही भारत को फ़ौजी ख़तरे की आशंका है. लिहाज़ा दोनों से समुचित तरीके से निपटने की ज़रूरत है. कौटिल्य के प्रसिद्ध दोहरे सिद्धांत का दृष्टिकोण एक शासक के लिए बेहद अहम है. इसके तहत अपने एक पड़ोसी के साथ युद्धरत शासक के लिए अपने दूसरे पड़ोसी के साथ अमनचैन का रिश्ता कायम करने की सलाह दी गई है. इससे एक ही वक़्त पर दो मोर्चों पर युद्ध जैसे हालातों को टाला जा सकता है. भारत के मौजूदा हालातों में ये सिद्धांत शायद पूरी तरह से लागू न होता है. चीन और पाकिस्तान दोनों के पारस्परिक हित इसी में है कि वो रणनीतिक और सैनिक तौर पर भारत को उलझाए रखने के लिए आपसी तालमेल से काम करें. भारत के लिए समझदारी भरा रुख़ यही होगा कि वो इन दोनों पड़ोसियों के प्रति अपनी नीति को एक नए सिरे से तय करे और उसे एक नया आयाम दे. अपने अपेक्षाकृत कमज़ोर पड़ोसी पाकिस्तान के मामले में भारत को एक अल्पकालिक और पैने फ़ौजी टक़राव की तैयारी करके रखनी चाहिए ताकि भविष्य में पाकिस्तान की गुस्ताख़ियों पर आक्रामकता के साथ लगाम लगाई जा सके. बहरहाल, बात अगर चीन की हो तो उसके मामले में कौटिल्य बहुआयामी नीति अपनाने का सुझाव देते हैं. ज़ाहिर तौर पर ये नीति चतुराई, बुद्धिमानी और समझदारी से भरी होती. इसमें न तो मूर्खतापूर्ण बहादुरियों के लिए कोई स्थान होता और न ही दब्बूपन या घुटने टेकने वाली प्रवृतियों को कोई जगह मिल पाती. चीन के प्रति भारत की नीति इन दोनों अतिरेकवादी स्थितियों के बीच की होती. निश्चित तौर पर कौटिल्य के व्यापक या समग्र दृष्टिकोण में मेलमिलाप और रणनीतिक सहभागिता के ज़रिए संसाधनों और क्षमता की बढ़ोतरी के साथ-साथ फ़ौजी ताक़त को बढ़ाने जैसे उपाय शामिल होते.

चीन के साथ सोचे-समझे तरीके से जुड़ाव रखने का मतलब ये  नहीं है कि भारत विवादित सीमाओं समेत किसी भी क्षेत्र में चीन की जी हुज़ूरी करे या उसका पिछलग्गू बन जाए. सबने देखा है कि चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने विवादित सीमा पर अपनी घुसपैठिया हरकतें बढ़ा दी हैं. [41] बहरहाल चीन की ख़ासियत ये है कि वो दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, ऐसे में भारत को उन क्षेत्रों में चीन के साथ निश्चित तौर पर सहयोग करना चाहिए जिनमें भारत को फ़ायदे का अनुमान हो. हालांकि, इस तरह के सहयोग का कतई ये मतलब नहीं है कि भारत एलएसी को लेकर अपने रुख़ में नरमी ले आए. भारत का रुख़ यही है कि एलएसी के ज़्यादातर विवादित हिस्सों में चीन अप्रैल 2020 से पहले वाली स्थिति बहाल करे और चीन ख़ुद वहां से पीछे हट जाए. हालांकि, इसका ये मतलब नहीं है कि सीमा पर टकराव जैसे हालातों के सुधरने के बाद भारत ज़रूरी कूटनीतिक पूंजी को चीन के साथ रिश्तों को एक बेहतर स्तर पर बहाल करने में इस्तेमाल करने के लिए तैयार रहे जिससे दोनों पक्षों को संतुष्टि हो. भले ही कौटिल्य चीन को एक “शत्रु” का दर्जा देते, लेकिन इसके साथ-साथ वो भारत के हितों को पूरा करने के लिए उसके साथ रणनीतिक तौर पर सहयोग के फ़ायदों की भी पहचान करते.

चीन के साथ भारत का कोई वैचारिक टकराव नहीं है और न ही दोनों देशों के बीच किसी दृढ़ या कट्टरवादी सोच का फ़र्क़ है. पाकिस्तान से रिश्ता आर्थिक तौर पर भारत के लिए कोई ख़ास फ़ायदे का सौदा नहीं है. वहीं अपनी आर्थिक, तकनीकी और वैज्ञानिक ताक़त के बूते चीन भारत को काफ़ी लाभ  पहुंचा सकता है. 

​कौटिल्य की बुद्धिमत्ता भरी नीतियों में पाकिस्तान के प्रति सतर्कतापूर्ण रुख़ अपनाए जाने पर ज़ोर दिया जाता. पाकिस्तान के  साथ रिश्ते सुधारने के लिए “दक्षिण और मध्य एशिया के लिए संभावनाओं के द्वार खोलने” और “आगे बढ़ने” का तर्क दिया जाता है. मिसाल के तौर पर पाकिस्तान के साथ पर्दे के पीछे चलने वाली बातचीत की जो ख़बरें आती हैं उनकी कामयाबी से जो सबसे बड़ा फ़ायदा हो सकता  है वो है द्विपक्षीय रिश्तों के कुछ क्षेत्रों में सामान्य हालात की बहाली. ये हैं एक-दूसरे के यहां राजदूतों की तैनाती और खेल के मैदानों पर रिश्तों की बहाली. पाकिस्तान के साथ सामान्य संबंधों की बहाली से भारत को कोई ख़ास आर्थिक लाभ नहीं होने वाला. हक़ीक़त ये है कि आज बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान से कहीं बड़ी हो गई है. ऐसे में पाकिस्तान के मुक़ाबले बांग्लादेश के साथ रिश्तों से भारत को कहीं ज़्यादा आर्थिक लाभ पहुंच रहा है. वित्त वर्ष 2020 में पाकिस्तान के साथ भारत का व्यापार चीन के साथ भारतीय कारोबार का महज़ एक प्रतिशत था. यहां तक कि इक्वेटोरियल गिनी भी पाकिस्तान के मुक़ाबले भारत का बड़ा व्यापारिक साझीदार रहा था.[42]

​भारत और पाकिस्तान के बीच सच्चे अर्थों वाले मेलमिलाप की संभावनाएं नगण्य हैं. इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि भविष्य में जम्मू-कश्मीर और  लद्दाख़ जैसे  केंद्रशासित प्रदेशों से जुड़े मामलों में भारत कभी भी पाकिस्तान को कोई प्रासंगिक या भरोसेमंद किरदार के तौर पर स्वीकार करेगा. जनरल क़मर जावेद बाजवा ने कई बार दोहराया है कि कश्मीर का मुद्दा दोनों पड़ोसी देशों के बीच के विवाद के “केंद्र में है”. इससे साफ़ तौर पर ज़ाहिर होता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच बड़े स्तर पर मेलमिलाप की संभावनाएं न के बराबर हैं. लिहाज़ा दक्षिण एशिया में लंबे समय से ‘एका’ स्थापित करने के जो ख्व़ाब देखे जा रहे हैं, निकट भविष्य में उसके सिरे चढ़ने की कोई संभावना नहीं है. कौटिल्य के नज़रिए से देखें तो पाकिस्तान एक “जन्मजात शत्रु” के तौर  पर  दिखता है. इसके  हिसाब से पाकिस्तान भारत का “रणनीतिक विरोधी” है और उसके इस हक़ीक़त से आगे  निकलने की उम्मीद  बेहद कम है. पाकिस्तान की मौजूदा हुकूमत में ढांचागत बदलाव लाए  बिना तो ये बिल्कुल भी मुमकिन नहीं है.

निष्कर्ष 

मार्च 2021 में आई मीडिया रिपोर्टों से, भारत और पाकिस्तान के बीच के रिश्तों पर जमी बर्फ़ के पिघलने की संभावनाओं पर ज़ोर दिया गया था. हालांकि, भारत से कपास और चीनी के आयात से जुड़े आम मसलों पर भी पाकिस्तान ने बेहद ढुलमुल  और  कभी हां कभी ना वाला रुख़ अख्त़ियार किया. इससे ये बात खुले तौर पर साफ़ हो गई कि पाकिस्तानी हुक्मरान आज भी भारत को “रणनीतिक तौर पर  विरोधी” मानने वाले चश्मे से देखते हैं. पाकिस्तान ने घोषणा कर रखी है कि जब-तक अनुच्छेद 370 की वापसी नहीं हो जाती तब-तक वो भारत के साथ सामान्य रिश्ते बहाल करने का इच्छुक नहीं है. साफ़ है कि पाकिस्तान अपने पड़ोसी देश भारत के साथ रिश्तों से हासिल हो पाने वाली अपार संभावनाओं पर ध्यान नहीं दे रहा और अपने मौजूदा हालात से ही ख़ुश है.[43] बेशक़ पाकिस्तान के साथ तनाव कम करने के प्रयास जारी रहने चाहिए. ख़ासतौर से नियंत्रण रेखा के आर-पार हालात सुधारने की पहल चलती रहनी चाहिए. इसके बावजूद इस पूरी कवायद का निचोड़ यही है कि “जन्मजात शत्रु” और “रणनीतिक विरोधी” के तौर पर पाकिस्तान के दर्जे में कोई ख़ास बदलाव नहीं आने वाला. ऐसे में पाकिस्तान से सुलह की नायाब या पहुंच से बाहर के लक्ष्य की प्राप्ति के पीछे भारत को बहुत ज़्यादा राजनीतिक पूंजी ख़र्च करने की ज़रूरत नहीं है.

वहीं दूसरी ओर भारत के लिए चीन का दर्जा एक “रणनीतिक प्रतिस्पर्धी” का है. इससे संकेत मिलते हैं कि भू-राजनीतिक परिस्थितियों के चलते भले ही चीन के साथ प्रतिस्पर्धा के हालात बन गए हों फिर भी यथार्थवादी तौर पर उसके  साथ सहयोग करने की  संभावनाएं मौजूद हैं. ग़ौरतलब है कि चीन के साथ भारत का कोई वैचारिक टकराव नहीं है और न ही दोनों देशों के बीच किसी दृढ़ या कट्टरवादी सोच का फ़र्क़ है. पाकिस्तान से रिश्ता आर्थिक तौर पर भारत के लिए कोई ख़ास फ़ायदे का सौदा नहीं है. वहीं अपनी आर्थिक, तकनीकी और वैज्ञानिक ताक़त के बूते चीन भारत को काफ़ी लाभ  पहुंचा सकता है. एक कामयाब शासन कला के लिए राजनीतिक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है. इसके साथ ही ख़तरों और अवसरों के बारे में स्पष्ट रुख़ रखना भी ज़रूरी होता  है.

इसमें कोई शक़ नहीं है पाकिस्तान के मुक़ाबले चीन बहुत बड़ी ताक़त है. इस नाते भारत के लिए पाकिस्तान की अपेक्षा चीन की ओर से पेश होने वाला सामरिक ख़तरा कहीं ज़्यादा है. इन कारकों की वजह से आज के माहौल में कौटिल्य का सुझाव होता कि भारत को चीन के साथ न तो टकराव की शुरुआत करनी चाहिए और न ही संघर्ष वाले हालात बनने देने चाहिए. अलबत्ता भारत को ये बात समझनी चाहिए कि ख़ुद को मज़बूत करने के लिए चीन के साथ काम करने के चुनिंदा अवसर मौजूद हैं. पाकिस्तान के साथ मसलों का भविष्य में कभी स्थायी समाधान हो भी जाता है, तो  भी उससे भारत को उन प्रयासों के पीछे की लागत के हिसाब से फ़ायदे हासिल नहीं होंगे. भले ही घरेलू राजनीति में भारत की पाकिस्तान नीति ज़्यादा ध्यान खींचती हो, लेकिन हक़ीक़त ये है कि भारत की चीन-नीति कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है. चीन-नीति भारत  की उन्नति और योगक्षेम  के लक्ष्य को हासिल करने में मददगार साबित होगी.


लेखकों के बारे में

डॉ. कजरी कमल कौटिल्य का अर्थशास्त्र पढ़ाती हैं और तक्षशिला इंस्टीट्यूशन, बेंगलुरु में रिसर्च फेकल्टी हैं. उन्हें ट्विटर पर @Kajari1 पर फ़ॉलो कर सकते हैं. गोकुल साहनी सिंगापुर में स्थित हैं और भू-राजनीति, भूअर्थशास्त्र और भारतीय विदेश नीति पर लिखते हैं. उन्हें ट्विटर पर @Gokul_Sahni पर फ़ॉलो कर सकते हैं. लेखकों के विचार निजी हैं.


Endnotes

Endnotes

[a] The count of 40 is from the Indian government, and not China. Chinese state-owned media did not give a count of the casualties on either side. See: Reuters, https://www.reuters.com/article/india-china-idINKBN23S075

[b] Kautilya’s Arthashastra is an ancient Indian theoretical treatise that presents a comprehensive discussion on statecraft. While there is little consensus on the periodisation and authorship of the text,  a large number of scholars believe that the compositional history of the text dates back to the Mauryan period (321 BCE-185 BCE), with later redactions and interpolations stretching up to the early centuries CE. Kautilya is also identified as Chanakya, the minister of Changragupta Maurya (321-296 BCE).

[c] Aman ki Asha is a joint initiative of the two of the leading media groups of India and Pakistan, emerging as one of the most successful peace initiatives between India and Pakistan since its launch in 2010.

[d] The ‘state above a state’ dialogue was made most recently by former PM Nawaz Sharif in October 2020 to indicate the power and influence held by the Pakistani military.

[1] Meenakshi Ray, “LAC Disengagement in a phased manner, coordinated and verified way: Rajnath Singh”, hindustantimes.com, February 11, 2021.

[2] Dinaker Peri and Suhasini Haider, “India, Pakistan agree to observe 2003 ceasefire”, The Hindu, February 25, 2021.

[3] Deepshikha Shahi uses ‘eclecticism’ or the combination of ideas from diverse range of sources as an innovative methodology to display the contemporary relevance of Arthashastra. See, Deepshikha Shahi, “Arthashastra beyond Realpolitik: The ‘Eclectic’ Face of Kautilya”, Economic and Political Weekly, Vol. XLIX No. 41, October 11, 2014, 68-74. Medha Bisht’s book, Kautilya’s Arthashastra: Philosophy of Strategy (London and New York: Routledge, 2020), xi, credibly establishes Kautilya as an exemplar strategist reconciling Hindu values with strategy.

[4] R.P. Kangle, The Kautilya Arthashastra Part II (Delhi: Motilal Banarsidass, 2014), 382

[5] The terms ‘innate enemy’ and ‘contingent enemy’ have been used in a translation by Patrick Olivelle in King, Governance and Law in Ancient India: Kautilya’s Arthashastra (New York: Oxford University Press, 2013), 274.

[6] According to R.P. Kangle, “one with territory immediately proximate to those of the enemy and the conqueror, capable of helping them when they are united or disunited and of suppressing them when they are disunited, is the middle king.” Kangle, Kautilya Arthashastra, 318

[7] Prime Minister’s Keynote Address at Shangri La Dialogue, June 1, 2018, Ministry of External Affairs Media Centre.

[8] For a Kautilyan perspective on BRICS (Brazil, Russia, India, China and South Africa) as a transnational governance institution in the modern day mandala, see Marko Juutinen, “Emerging Dynamics of Conflict and Cooperation in a PostHegemonic Age: A Kautilyan Perspective on BRICS”, ORF Occasional Paper No. 208, August 2019, Observer Research Foundation

[9] Former NSA, Shavshankar Menon opines on similar lines that “India is competing primarily to be secure at home in the subcontinent and IOR, and for an Asian order that enables India’s transformation.” See Shivshankar Menon, “India-China Ties: The Future holds ‘Antagonistic Cooperation’, Not War”, The Wire, December 7, 2020.

[10] Department of Commerce, Total Trade, https://tradestat.commerce.gov.in/eidb/iecnttopnq.asp

[11] Naina Bhardwaj, “India Rethinking its FDI Policy Stance with China: What We Know”, India Briefing – from Dezan Shira & Associates,  March 5, 2021.

[12] Naubahar Sharif, “China as the World’s Technology Leader in the 21st Century: Dream or Reality?”, HKUST IEMS Thought Leadership Briefs No 11. 

 [13] Ananth Krishnan, ‘Following the money: China Inc’s growing stake in India-China relations’, Brookings, March 30, 2020.

[14] Daniel Workman, China’s Top Trading Partners, World’s Top Exports. 

[15] Klaus Schwab (ed), The Global Competitiveness Report, 2019, World Economic Forum.

[16] https://tradingeconomics.com/country-list/rating

[17] Imtiaz Ahmad, “Pak army a state above the state, says Nawaz Sharif as Oppn united against military leaders”, Hindustan Times, September 20, 2020.

[18] Gurbachan Singh, “How Pakistan Scuttled India’s Invitation to the First OIC Plenanry”, The Wire,February 23, 2019.

[19] India doesn’t quality for UNSC membership, Pakistan says in General Assemby debate”, Dawn,November 17, 2020.

[20] Muireann Bolger, “Pakistan opposes India’s bid for Basmati geographical indication“, World Intellectual Property Review, October 13, 2020.

[21] For a brief overview of the role of Anvikshiki in Kautilyan statecraft, see Kajari Kamal, “Generality of Kautilyan Tenets Informed by Unique Indianness”, IDSA Comment, April 28, 2021, Kautilya’s saptanga theory is a unique conceptualization of state power. Literally, seven limbs/organs, saptanga refers to seven constituent elements (prakritis) of the state in a hierarchical order starting with ruler (swami), ministers (amatya), people and territory (janapada), fort (durga), treasury (kosa), armed might (danda) and ally (mitra).

[22] On China-Pakistan relationship as mutually beneficial even in Covid-19 pandemic, see Sushant Sareen, “Why China and Pakistan Need Each Other in the Covid 19 Crisis”, Commentary, Observer Research Foundation,  April 28, 2020.

[23] Madiha Afzal, “Terrorism in Pakistan has declined, but the underlying roots of extremism remains”, Brookings, January 15, 2021.

[24] Global money laundering watchdog keeps Pakistan on terrorism financing ‘grey list’” , Reuters, February 25, 2021.

[25] S Jaishankar, The India Way: Strategies For an Uncertain World (New Delhi: Harper Collins, 2020), 60

[26] Jaishankar. The India Way, 59-60

[27] Samdhi’, or making peace in the Arthashastra, is defined as entering into an agreement with specific conditions, i.e. concluding a treaty, see L.N. Rangarajan, Kautilya: The Arthashastra (New York: Penguin Books, 1987), 548; it is also called a ‘panabandha’ or a negotiated agreement. Mark McClish looks at samdhi as a non-aggression pact meant to forestall enemy hostility, see Mark McClish, “Non-Aggression Pacts and Strategic Partnerships in Kautilyan Foreign Policy”, in Indigenous Historical Knowledge: Kautilya and His Vocabulary Volume III, Pradeep Kumar Gautam, Saurabh Mishra and Arvind Gupta (eds.), IDSA (Delhi: Pentagon Press, 2016), 16-36

[28] According to Kautilya, “When the benefit accruing to kings under a treaty, irrespective of their status as the weaker, equal, or stronger party, is fair to each one, peace by agreement shall be the preferred course of action.” See Rangarajan, Kautilya: The Arthashastra, 547.

[29] According to RP Kangle, “one with territory immediately proximate to those of the enemy and the conqueror, capable of helping them when they are united or disunited and of suppressing them when they are disunited, is the middle king.” Kangle, Kautilya Arthashastra, 318

[30] Misperceptions between the two countries have evolved over three distinct phases; the first immediately after the 2008 financial crisis which witnessed China’s foreign policy reorientation; the second with the change in leadership of the two countries and attendant foreign policy redirection; and the third with their (divergent) attitudes towards the Indo-Pacific. See Vijay Gokhale, “The Future of India-China Relations: The Road from Galwan”, Carnegie Endowment for International Peace, 2021.

[31] See Kanti Bajpai, “Narendra Modi’s Pakistan and China Policy: Assertive Bilateral Diplomacy, Active Coalition Diplomacy”, International Affairs 93: 1 (2017): 69–91

[32] China rules out India’s entry into NSG without ‘consensus’ on allowing non-NPT countries”, The Economic Times,  June 21, 2019.

[33] Elizabeth Roche, “India slams China’s attempt to raise Kashmir issue at UN Security Council”, Mint, August 6, 2020.

[34] Shishir Gupta, “China is biggest stumbling block in India’s UNSC permanent membership”, Hindustan Times,  November 19, 2020.

[35] Harsh Pant, “For Beijing and New Delhi, 2020 Was the Point of No Return”, Foreign Policy, December 28, 2020.

[36] Manoj Joshi, “Eastern Ladakh, the Longer Perspective,” ORF Occasional Paper No. 319, June 2021, Observer Research Foundation.

[37] Vijay Gokhale, “The Road from Galwan”, 2

[38] For a brief overview of India-China trade relations in 2020, see Karthikeyan Sundaram and Archana Chaudhary, “China back as India’s top trade partner even as relations sour”, The Economic Times, February 23, 2021.

[39] “The king who understands the interdependence of the six methods of foreign policy, plays as he pleases, with other rulers bound to him by the chains of intellect”, Rangarajan, Kautilya: The Arthashastra, 541

[40] See Joseph S. Nye, Jr., “Get Smart: Combining Hard and Soft Power”, Foreign Affairs, Vol. 88, No. 4 (July/August 2009): 160-163

[41] Two former ambassadors to China – Vijay Gokhale (also former foreign secretary-2018-2020) and Shivshankar Menon (also former National Security Advisor- 2010-2014) view India-China relations post-Ladakh in a competition-cooperation framework.  For Gokhale, “This might be the final chance to take the path to coexistence of cooperation and competition,” and Menon suggests, “self-strengthening while avoiding a hot or cold war or a two-front war by being ready for it; cooperating where possible and competing when necessary.” See Vijay Gokhale, The Road from Galwan, 23, Shivshankar Menon, Shivshankar Menon, “India-China Ties: The Future holds ‘Antagonistic Cooperation’, Not War”, The Wire, December 7, 2020.

[42] https://tradestat.commerce.gov.in/eidb/iecnttopnq.asp

[43] Karan Pradhan, “No trade unless India reverses Article 370 abrogation, says Pakistan and shoots self in foot”, Firstpost, April 2, 2021.

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