9/11 के आतंकवादी हमलों के बाद जब अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध शुरू किया तो उसे जिस तरह का व्यापक अंतरराष्ट्रीय समर्थन मिला, वैसा उससे पहले लड़ाई शुरू करने जा रहे किसी भी देश को नहीं मिला था. साल 2001 में आतंकवादी हमलों के बाद न्यूयॉर्क और वॉशिंगटन की हैरान करने वाली तस्वीरें देखने के बाद अमेरिका को अप्रत्याशित अंतरराष्ट्रीय समर्थन मिला. यह समर्थन कितना व्यापक था, उसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि तब ‘आतंकवाद के खिलाफ़ जंग’ में ईरान भी उसके साथ था. दुनिया की महाशक्ति ने इस लड़ाई के लिए जो भी सहयोग हासिल किया था और जिसमें चीन से लेकर नाटो तक शामिल था, वो आज जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल के करीब पहुंचने को है, वह सहयोग पल-पल ख़त्म होता जा रहा है.
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 8 जुलाई को कहा था कि ज़रूरी नहीं है कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का कब्ज़ा हो जाए. उन्होंने कहा था, ‘अफ़ग़ान सेना में तीन लाख जवान हैं, जिनके पास आधुनिक हथियार हैं. इस लिहाज़ से वे दुनिया की किसी सेना से कमतर नहीं हैं. इसके अलावा वायुसेना भी है, जबकि तालिबान विद्रोहियों की संख्या बमुश्किल से 75 हजार की होगी. इसलिए यह ज़रूरी नहीं है कि ऐसा कुछ हो.’ बाइडेन ने यह भी कहा था कि उन्हें तालिबान पर यकीन नहीं है, लेकिन वह बेहतर प्रशिक्षित, आधुनिक हथियारों से लैस और सक्षम अफ़गान सेना पर ज़रूर भरोसा करते हैं. अमेरिका के राष्ट्रपति के इस बयान को अभी कुछ ही हफ्त़े हुए हैं और इस बीच तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के कई इलाकों पर अप्रत्याशित तेज़ी दिखाते हुए कब्ज़ा कर लिया है, जिसमें राजधानी काबुल भी शामिल है. वहीं, तालिबान विद्रोहियों का सामना करने के बजाय अफ़गान सेना के जवान या तो आत्मसमर्पण कर रहे हैं या अपनी पोजिशन से पीछे हट रहे हैं.
इंटरनेट पर ऐसे वीडियो की भरमार है, जिनमें दिख रहा है कि सिर्फ़ क्लाशिनकोव और खाली की गई चौकियों से मिले बचे-खुचे हथियार लेकर तालिबान विद्रोही पैदल ही शहरों में धड़धड़ाते हुए घुस रहे हैं और वहां के पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सहित पूरी आबादी को मध्य युग में धकेल दे रहे हैं
इंटरनेट पर ऐसे वीडियो की भरमार है, जिनमें दिख रहा है कि सिर्फ़ क्लाशिनकोव और खाली की गई चौकियों से मिले बचे-खुचे हथियार लेकर तालिबान विद्रोही पैदल ही शहरों में धड़धड़ाते हुए घुस रहे हैं और वहां के पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सहित पूरी आबादी को मध्य युग में धकेल दे रहे हैं. दूसरी ओर, उन विद्रोहियों के शहरों में दाख़िल होने पर अफ़गान सेना के जवान उनसे मुकाबला नहीं कर रहे हैं, जबकि उनके पास आधुनिक हथियार हैं. वे तो विद्रोहियों के आते ही अमेरिका में बनीं हमवी और एटीएफ गाड़ियों में सवार वहां से भाग निकलते हैं. एक रिपोर्ट में तो इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया गया कि अफ़गान सेना किस तरह से तालिबान की फैलाई अफ़वाह का शिकार हो गई है. अफ़वाह यह थी कि अफ़ग़ानिस्तान सरकार और एएनएसएफ के नेताओं ने तालिबान के साथ समझौता किया है कि वे देश के कई हिस्सों का नियंत्रण विद्रोहियों को सौंप देंगे. इस रिपोर्ट में अफ़गान सेना के एक जवान को कुंदुज़ में अपने कमांडर से यह कहते हुए उद्धृत किया गया है, ‘भाई, अगर कोई नहीं लड़ रहा तो मैं क्यों लड़ूं?’
अपने राजनयिकों, नागरिकों की चिंता में अमेरिका
बाइडेन सरकार का अब तक का रुख़ यही रहा है, जैसे उसे इन बातों से कोई फर्क़ नहीं पड़ता या वह अनिश्चय की स्थिति में बनी हुई है और उसने अफ़ग़ानिस्तान में इधर सेना भेजी भी तो इसलिए कि वे अमेरिकी राजनयिकों और नागरिकों को वहां से निकाल सकें. अफ़ग़ानिस्तान आज जिस दलदल में फंस चुका है, उसमें तालिबान के साथ मुख्य वार्ताकार जाल्मे ख़लीलजाद जैसे लोगों की बड़ी भूमिका है. इन लोगों ने इस भ्रम को बढ़ावा दिया कि आज का तालिबान पहले वाले विद्रोही संगठन से अलग है. यह सुधरा हुआ तालिबान है. ये लोग तालिबान को आज भी यह कहकर शह दे रहे हैं कि आप चाहे जो करें, बस अमेरिकी दूतावास को सुरक्षित तरीके से काम करने दें.
इसमें कोई शक नहीं है कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की ओर से रणनीतिक गलती हुई. इसके अलावा, इस बात को लेकर भी गंभीर सवाल खड़े होते हैं कि बाइडेन को यह कहकर गुमराह़ क्यों किया गया कि अफ़गान सेना ताक़तवर है. इसी गलत सूचना को बाद में अमेरिकी राष्ट्रपति ने सार्वजनिक तौर पर दोहराया. अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीनी हक़ीकत इसके एकदम उलट है. हाल यह है कि तालिबान ने 17 प्रांतीय शहरों पर सिर्फ़ 120 घंटों में कब्ज़ा कर लिया. इनमें कांधार और हेरात भी शामिल हैं, जो काबुल के बाद दूसरे और तीसरे सबसे बड़े शहर हैं. अमेरिका के राष्ट्रपति ने जुलाई में सार्वजनिक तौर पर जो बात कही थी, यह उसके बिल्कुल उलट तस्वीर दिखाती है. आख़िर वॉशिंगटन डीसी में किस तरह का ‘छल’ हुआ? यह क्यों कहा गया कि अफ़गान सेना ऐसी ताकतवर संस्था है, जो तालिबान से मिलने वाली चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है. सच तो यह है कि तालिबान के सामने इसने गिनती के कुछ ही दिनों में हथियार डाल दिए. सवाल और भी कई हैं. पिछले 20 वर्षों में अमेरिका ने अफ़गान सेना की ट्रेनिंग और उसे हथियारों से लैस करने पर 83 अरब डॉलर ख़र्च किए, जो भारत के सालाना रक्षा बजट से भी अधिक रकम है. इतनी बड़ी रकम ख़र्च करने का क्या नतीजा निकला? आख़िर बाइडेन के कानों में कौन सी बात डाली गई कि उन्होंने अमेरिकी सैनिकों को बुलाने का अप्रत्याशित फैसला लिया और करीब 3.3 करोड़ अफ़गानों को तालिबान के कब्ज़े में आई हमवी तले रौंदे जाने के लिए छोड़ दिया.
अफ़ग़ानिस्तान आज जिस दलदल में फंस चुका है, उसमें तालिबान के साथ मुख्य वार्ताकार जाल्मे ख़लीलजाद जैसे लोगों की बड़ी भूमिका है. इन लोगों ने इस भ्रम को बढ़ावा दिया कि आज का तालिबान पहले वाले विद्रोही संगठन से अलग है. यह सुधरा हुआ तालिबान है
इन गलतियों को छिपाने के लिए कई बहाने बनाए जा रहे हैं और झूठ गढ़े जा रहे हैं. इनमें अफ़गान राष्ट्रीय सुरक्षा बल (एएनएसएफ) के शीर्ष नेतृत्व के अक्षम होने का ज़िक्र हो रहा है तो पिछले हफ्त़े रातो-रात हटाए गए अफ़गान सेना प्रमुख जैसी बातों पर भी ज़ोर दिया जा रहा है. लेकिन अफ़गान राष्ट्रीय सुरक्षा बल की कमियों की ओर तो लंबे समय से इशारा किया जा रहा था, फिर अमेरिका की ओर से उन्हें दूर करने की कोशिश नहीं हुई. यह बात सही है कि अफ़गान राष्ट्रीय सुरक्षा बल जैसे संस्थान को मज़बूत बुनियाद पर खड़ा नहीं किया गया था. इसमें तालिबान समर्थक लोगों की घुसपैठ भी हुई थी. इसी वजह से नाटो सहयोगियों पर अफ़गान सेना की ओर से ‘इनसाइडर हमले’ का एक दौर देखा गया. इसके अलावा अफ़गान राष्ट्रीय सुरक्षा बल में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के मामले भी सामने आए. इनमें से एक ‘फर्जी सैनिकों’ का मामला था. अफ़गान सेना के भ्रष्ट कमांडर अपनी यूनिट में फर्ज़ी तरीके से सैनिकों की संख्या बढ़ाकर दिखाते थे, ताकि उन्हें मिलने वाली पगार से वे अपनी जेबें भर सकें. जब ऐसे मामले सामने आए और उन पर सख्त़ी की गई तो 2019 में अफ़गान राष्ट्रीय सुरक्षा बल में ऐसे 42 हजार फर्ज़ी सैनिकों का पता चला.
अजीब बात यह है कि इन हालातों में भी अमेरिका यह दावा कर रहा था कि वह अफ़ग़ानिस्तान में एक मज़बूत सैन्य नेतृत्व खड़ा करने में सफ़ल रहा है. अमेरिका में यह दावा किया जाता रहा कि एएनएसएफ़ के 3 लाख जवान तालिबान से मुकाबले के लिए काफ़ी हैं, लेकिन इस पर भी सवाल उठे थे.
अजीब बात यह है कि इन हालातों में भी अमेरिका यह दावा कर रहा था कि वह अफ़ग़ानिस्तान में एक मज़बूत सैन्य नेतृत्व खड़ा करने में सफ़ल रहा है. अमेरिका में यह दावा किया जाता रहा कि एएनएसएफ़ के 3 लाख जवान तालिबान से मुकाबले के लिए काफ़ी हैं, लेकिन इस पर भी सवाल उठे थे. जोनाथन श्रोएडेन जैसे स्कॉलरों की ओर से की गई रिसर्च में पहले इस ओर ध्यान दिलाया गया था कि एएनएसएफ़ की संख्या को आधार बनाकर कहा जा रहा है कि करीब तीन दशक तक अफ़ग़ानिस्तान की सीमा के अंदर से ही जंग लड़ रहे तालिबान को हराया जा सकता है. जोनाथन ने कहा था कि यह बात ठीक नहीं है. इस बात से न तो अफ़ग़ानिस्तान सरकार को आश्वस्त होना चाहिए और ना ही अमेरिका को. उन्होंने इसी साल कहा था: ‘अगर अमेरिका अफ़गानिस्तान से अपने बचे हुए सैनिकों को वापस बुला लेता है तो तालिबान को तुरंत ही मामूली सैन्य बढ़त मिल जाएगी, जो वक्त़ के साथ तेजी से बढ़ती जाएगी.’ पिछले एक महीने में जो हुआ है, वह ऐसा ही लगता है. फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि जोनाथन को तालिबान की सैन्य बढ़त, वक्त़ के साथ बढ़ने की उम्मीद थी, जबकि यह बिजली की गति से बढ़ी.
बाइडेन के फ़ैसले पर सवालिया निशान
आज पूर्व राजदूत और सैन्य अधिकारी बाइडेन के अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने के फैसले को लेकर बंटे हुए हैं. पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के शासन काल में अफ़ग़ानिस्तान में 2011 से 2013 के बीच इंटरनेशनल सिक्योरिटी असिस्टेंस फोर्स (आईएसएएफ) के कमांडर रहे जॉन आर एलन जैसे पूर्व सैन्य अधिकारी कह रहे हैं कि, काबुल के तालिबान के हाथों में एक बार फिर जाने के बाद की स्थितियां बहुत गंभीर होने जा रही हैं. अफ़ग़ानिस्तान जिस संकट की ओर बढ़ रहा है, एलन ने उसकी वास्तविक तस्वीर पेश की है, लेकिन बाइडेन के फैसला न पलटने पर जिस अंजाम की वह बात कर रहे हैं, उससे उनकी अकादमिक सोच का पता चलता है.
अमेरिका पर हुए हमलों के सिर्फ़ तीन महीने बाद दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर अटैक हुआ, जिसमें कई लोग मारे गए. इस हमले के पीछे पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद का हाथ था.
अफ़ग़ानिस्तान में 20 वर्षों तक चले युद्ध का हिस्सा रहने के बावजूद एलन जैसे लोग आत्मनिरीक्षण करने और यह बताने में नाकाम रहे कि सांस्थानिक रूप से अफ़गान सेना को तैयार करने में क्या गलती हुई? अगर अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाना बाइडेन का राजनीतिक फ़ैसला है और उसके लिए उनसे सवाल पूछे जाएंगे तो अफ़ग़ानिस्तान में मज़बूत सैन्य ढांचा खड़ा करने में अस़फलता के लिए पेंटागन ज़िम्मेदार है. आख़िर इसके लिए जो योजना बनाई गई थी, उसमें सबसे अधिक उसी की मर्ज़ी चली थी. इस सैन्य ढांचे की सच्चाइयों को ध्यान में रखते हुए ही अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की योजना बनाई जानी चाहिए थी, न कि ख़र्च बचाने के लिए या किसी और वजह से.
पिछले 20 वर्षों में अमेरिका ने अफ़गान सेना की ट्रेनिंग और उसे हथियारों से लैस करने पर 83 अरब डॉलर ख़र्च किए, जो भारत के सालाना रक्षा बजट से भी अधिक रकम है. इतनी बड़ी रकम ख़र्च करने का क्या नतीजा निकला?
इस आलेख में जो तर्क दिए गए हैं, इससे पहले कि भारत के योगदान पर संभावित सवालों के ज़रिये उन्हें सिर के बल खड़ा कर दिया जाए, संदर्भ के लिए इस लेख के पहले पैराग्राफ़ पर लौटना महत्वपूर्ण है. 2001 में 9/11 हमलों के बाद आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई में दुनिया ने अमेरिका का साथ दिया और वह उसके पीछे खड़ी हो गई. इनमें भारत भी अपनी कूटनीतिक और राजनीतिक क्षमताओं के साथ शामिल था. अमेरिका पर हुए हमलों के सिर्फ़ तीन महीने बाद दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर अटैक हुआ, जिसमें कई लोग मारे गए. इस हमले के पीछे पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद का हाथ था. लेकिन तब पाकिस्तान में इन आतंकवादी संगठनों के ठिकानों पर कार्रवाई को लेकर दुनिया भारत के साथ उस तरह से खड़ी नहीं हुई, जैसे कि वह अमेरिका के साथ हुई थी. पाकिस्तान वही देश है, जहां आज भी तालिबान का शूरा बेधड़क रह रहा है. इतना ही नहीं, पाकिस्तान तालिबानों पर अपनी पकड़ का फ़ायदा उठाकर अमेरिका और अफ़ग़ानिस्तान से अपनी बातें मनवाता आया है.
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