Author : Sunjoy Joshi

Published on Oct 01, 2021 Updated 0 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान में वैश्विक ताक़तों और पड़ोसी देशों ने एक दूसरे से निपटने के लिए कट्टरपंथ को हथियार बना खूब  इस्तेमाल किया

अफ़ग़ानिस्तान – अतिवाद के आंचल में अमन की आस!

आज अफ़ग़ानिस्तान को एक ऐसी व्यवस्था की तलाश है, जिसे टिकाऊ प्रशासनिक ढांचा कहा जा सके और जो अफ़ग़ान नागरिकों की ज़िंदगी में कुछ स्थिरता ला सके. जिस तरह वहां महिलाओं के अधिकारों और बच्चियों- लड़कियों की पढ़ाई पर पाबंदी लगाई गई है, उसने तालिबान 1.0 की याद दिला दी है- क्या वाक़ई कुछ नहीं बदला है?

हाल ही में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की बैठक में अफ़ग़ानिस्तान पर चर्चा हुई. क्या ये संगठन समस्या का समाधान दे सकती है?

अफ़ग़ानिस्तान का राजनीतिक माहौल जिस रफ़्तार से बदला, उसने हर किसी को हैरत में दाल दिया. खुद तालिबान इस आँधी की चपेट में आ गए और अंततः जब काबुल पर उनके परचम लहराया तो ऐसा लगा मानो बिल्ली के भाग से छींका फूटा ज़रूर, पर टूट कर बिल्ली के सिर पर ही भारी पड़ गया.

वास्तव में तालिबान जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनका मुक़ाबला देर सबेर हर बाग़ी संगठन को करना पड़ता है : लड़ाकों के किसी गिरोह को रातों-रात प्रशासकीय अमली जामा ओढ़ा कर, एक शासन चलाने वाले संगठन में तब्दील करना आसान काम नहीं है.

अफ़ग़ानिस्तान का राजनीतिक माहौल जिस रफ़्तार से बदला, उसने हर किसी को हैरत में दाल दिया. खुद तालिबान इस आँधी की चपेट में आ गए और अंततः जब काबुल पर उनके परचम लहराया तो ऐसा लगा मानो बिल्ली के भाग से छींका फूटा ज़रूर, पर टूट कर बिल्ली के सिर पर ही भारी पड़ गया.

ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य की चिंता दुनिया भर के देशों को सता रही है. इसी चिंता के बादल हाल ही में संपन्न हुई  शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की बैठक पर भी छाए रहे. सैद्धांतिक रूप से देखें तो अमेरिका के कदम खींचने के फलस्वरूप अफ़ग़ानिस्तान में पैदा हुए अनायास शून्य को आकार दे पाने की स्थिति में यही संगठन सर्वाधिक सक्षम होना चाहिए था. किन्तु इस संगठन में उपस्थित सभी पड़ोसी विभाजित है. उनके हित भिन्न हैं, उदेश्य भिन्न हैं. फिर सोच में मेल हो तो कैसे?

शंघाई संगठन, अफ़ग़ानिस्तान और भारत

शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भारत के प्रधानमंत्री ने अपना पक्ष मज़बूती से रखा. पिछले कई दशकों से अफ़ग़ानिस्तान  ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में उभरी अतिवाद की समस्या की जड़ है कई देशों द्वारा कट्टरपंथ को अपने-अपने उद्देश्यों के लिए सींचना. इसी खेती के चलते अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका ने पाकिस्तान को शय दे कट्टरपंथ के सहारे मुजाहिद को सोवियत रूस के खिलाफ़ कारगर हथियार बना डाला. याद रहे शीत युद्ध का वह दौर जब अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत सेना के कब्ज़े के बाद, मुजाहिद्दीन की फौज को ‘नास्तिक’ वामपंथियों के खिलाफ़ युद्ध के लिए कैसे प्रेरित किया गया. अंततः जिस सर्प को जनम दिया उसने 9/11/ 2001 के दिन अमेरिका को ही डस डाला. कट्टरपंथ को बढ़ावा देने की क़ीमत पाकिस्तान ने भी बार बार चुकाया है किंतु सियासी हरकतें ऐसी की बदलने का नाम नहीं लेती.

सियासी खींचतान की होड़ में किसी जन समूह को अतिवाद की और धकेलना “शैतान से सौदा” समान होता है  – अंतर नहीं पड़ता कि किसका शिकार करने के लिए किसको मोहरा बनाया जाये. अंत में घायल सौदेबाज शिकारी ही होता है.

अफ़ग़ानिस्तान के हालात भारत की सुरक्षा के लिए बड़ा ख़तरा बनकर उभर रहे हैं. ऐसे में भारत को क्या करना चाहिए? तालिबान से संवाद करना चाहिए या नहीं?

सियासी खींचतान की होड़ में किसी जन समूह को अतिवाद की और धकेलना “शैतान से सौदा” समान होता है  – अंतर नहीं पड़ता कि किसका शिकार करने के लिए किसको मोहरा बनाया जाये. अंत में घायल सौदेबाज शिकारी ही होता है.  

संवाद करने या न करने का प्रश्न बाद में आता है. भारत के सामने समस्या बुनियादी है. पहले तो यही स्पष्ट नहीं की नई सरकार का स्वरूप क्या है. किस के हाथ वास्तव सत्ता की डोर है? बात की जाए तो आखिर किस से? संवाद का सवाल तो तब उठेगा जब अफ़ग़ानिस्तान में सरकार की कोई साफ़ तस्वीर उभरकर सामने आए.

दूसरी ओर याद रहे अफ़ग़ानिस्तान से पल्ला छुड़ाने के लिए अमेरिका द्वारा प्रारंभ की गयी शांति वार्ता में भारत को प्रक्रिया से बाहर ही रखा गया. वार्ता में तालिबान की भूमिका ही प्रमुख रही. भारत के अफ़ग़ानिस्तान में भारी भरकम निवेश होने के बावजूद सभी पक्षों द्वारा उसे बातचीत से अलग ही रखा जिससे भारत की परिस्थिति और जटिल हो जाती है.

अब सियासत फिर बदल रही है. ज़्यादातर देशों को अब फिर से लगने लगा है कि भारत को अफ़ग़ानिस्तान की समस्या के समाधान में शामिल करना ज़रूरी है.

इसीलिए- वर्तमान स्थिति में समदृष्टि रखने वाले देशों के सहयोग से भारत को अफ़ग़ानिस्तान की अंदरूनी सियासत पर पैनी नज़र रखनी होगी ताकि तेज़ी से बदलते घटनाक्रम में समय रहते प्रवेश किया जा सका. समदृष्टि रखने वाले देशो में अमेरिका के अलावा, ईरान, रूस, मध्य एशिया और अन्य देश शामिल हैं.  किसी से भी परहेज नहीं होना चाहिए.

अफ़ग़ानिस्तान के अनुभव से यदि कोई सीख मिली है तो वह यह है कि अपने हितों कि रक्षा का दायित्व सब को ख़ुद ही वहन करना है, बिना किसी मध्यस्थ के.

भारत के विकल्प

दोहा शांति प्रक्रिया में गिने-चुने देश ही शामिल किए गए. अन्य देशों को इस प्रक्रिया से अलग रखा गया. सच तो यह है कि अफ़ग़ानिस्तान का संपूर्ण अभियान, ‘आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध’ से प्रारम्भ हो कर पूर्ण विराम लगाने वाली ‘शांति प्रक्रिया’तक – एक पक्षीय कार्यवाही ही रहा. कभी भी इसे बहुपक्षीय स्वरूप देने कि कोशिश नहीं की गयी. अगर अमेरिका जैसे देश वास्तव में  नियमों पर आधारित विश्व व्यवस्था में आस्था रखते हैं, तो बहुपक्षीय प्रक्रिया को दोबारा पटरी पर लाने के अलावा कोई और विकल्प उपलब्ध ही नहीं है. भारत को भी सभी अन्य शक्तियों के सहयोग से अब सम्मिलित प्रयास करना चाहिए कि अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य के सभी निर्णय बहुपक्षीय तौर पर लिए जाएं

क्या अफ़ग़ानिस्तान की अस्थिरता के दौर का शोषण चीन और पाकिस्तान भारत विरोधी गतिविधियों को आँच देने के लिए कर सकते हैं? ऐसे में भारत क्या करे?

सर्वविदित है कि पाकिस्तान ने इस क्षेत्र में अपने हित साधने के लिए अमेरिका का ‘इस्तेमाल’ बखूबी किया है. उसके कारनामों से अफ़ग़ानिस्तान में अस्थिरता का ऐसा दौर चला जो आज भी थमने का नाम नहीं ले रहा. पर इस सब के बावजूद, अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका ने, न तो युद्ध में, और न ही शांत प्रक्रिया में, पाकिस्तान के बिना अपना अभियान चला पाने में अपने को सक्षम पाया.

अमेरिका ही नहीं, रूस और चीन ने भी जब जब तालिबान से सहयोग की अपेक्षा की तो उनको भी पाकिस्तान का ही सहारा लेना पड़ा. अंततः यदि किसी को भी अफ़ग़ानिस्तान में वास्तव में शांति बहाल करनी है तो अफ़ग़ानिस्तान औए उस के लोगों से सीधे उनकी शर्तों पर बातचीत करने की आवश्यकता होगी – न की पाकिस्तान की मध्यस्तथता में.

सर्वविदित है कि पाकिस्तान ने इस क्षेत्र में अपने हित साधने के लिए अमेरिका का ‘इस्तेमाल’ बखूबी किया है. उसके कारनामों से अफ़ग़ानिस्तान में अस्थिरता का ऐसा दौर चला जो आज भी थमने का नाम नहीं ले रहा. 

सवाल ये है कि इस क्षेत्र के हालात क्वॉड को मज़बूत बनाते हैं या कमज़ोर करते हैं? हिंद प्रशांत पर इसका क्या असर होगा?

हालांकि, हमें हिंद प्रशांत से जुड़े बड़े प्रश्न को अगले अंक के लिए छोडना होगा, यहाँ ज़ोर देने वाला मुद्दा एक ही है.

भारत को जितनी ताक़त और संसाधन अफ़ग़ानिस्तान में पैदा अस्थिरता से निपटने में लगाने होंगे, समुद्री क्षेत्र में क्वॉड उतना ही अपने को कमज़ोर पाएगा.

भारत को क्वॉड से लगातार जुड़े रह कर क्षेत्र में अर्थपूर्ण योगदान देने के लिए ज़रूरी है कि अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता बनी रहे. भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में तीन अरब डॉलर युद्ध और हथियारों की सप्लाई में नहीं, बल्कि विकास और मूलभूत ढांचे खड़ा करने में किए हैं. 

भारत को क्वॉड से लगातार जुड़े रह कर क्षेत्र में अर्थपूर्ण योगदान देने के लिए ज़रूरी है कि अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता बनी रहे. भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में तीन अरब डॉलर युद्ध और हथियारों की सप्लाई में नहीं, बल्कि विकास और मूलभूत ढांचे खड़ा करने में किए हैं. यही कारण है की वहाँ की जनता के बीच भारत की साख अच्छी है. ऐसे में ये क्वॉड साझीदारों और अन्य देशों के हित में यही है कि भारत, अफ़ग़ानिस्तान में मददगार की अपनी भूमिका आगे भी निभाता रहे.

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