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अफ़ग़ानिस्तान में हालात बिगड़ते जा रहे हैं. ऐसे में देखना होगा कि भारत के पास क्या ऑप्शंस हैं और वह क्या रणनीति बना रहा है. अमेरिकी सैनिकों की अफ़ग़ानिस्तान से वापसी 11 सितंबर तक होनी थी, लेकिन यह उससे पहले ही हो रही है. बाइडेन ने यह बात साफ कर दी है कि अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य दख़ल का उनका कोई इरादा नहीं है. ऐसे में जो रीज़नल पावर्स (क्षेत्रीय शक्तियां) हैं, यह उनकी जिम्मेदारी है कि वहां किस तरह से शांति बहाल होती है, किस तरह से पॉलिटिकल प्रॉसेस शुरू होती है क्योंकि उनके हित वहां से सीधे जुड़े हुए हैं.
तालिबान का डर
अफ़ग़ान सरकार और तालिबान के बीच पॉलिटिकल सेटलमेंट अभी तक हो जाना चाहिए था, लेकिन उसमें ज़्यादा प्रगति नहीं हुई है. तालिबान इस समय हिंसा को माध्यम बनाकर अपना राजनीतिक मकसद पाने की कोशिश कर रहा है. ऐसे में एक संतुलित पॉलिटिकल सेटलमेंट की संभावना कम होती नज़र आ रही है. अफ़ग़ान सरकार दिन–ब–दिन कमज़ोर होती जा रही है और तालिबान ज़्यादा प्रभावशाली होते जा रहे हैं.
इस असंतुलन से जो भी पॉलिटिकल स्ट्रक्चर निकलकर आएगा, उसमें तालिबान केंद्र बिंदु होगा. फिर किस तरह से तालिबान स्थानीय शक्तियों के साथ डील करता है. ये शक्तियां किस तरह से तालिबान के साथ डील करती हैं. यह सब अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य के लिए बहुत इंपॉर्टेंट होगा और भारत जैसे मध्यम दर्जे के देशों के लिए भी. वैसे तालिबान ने ख़ुद कहा है कि अब वह 1995 का तालिबान नहीं है. तो क्या तालिबान बदल रहा है? उसका कैरेक्टर बदल रहा है? क्या उसकी विचारधारा बदल रही है? इन विषयों पर इस समय काफी बहस चल रही है, क्योंकि बाकी शक्तियां तालिबान के साथ कैसे पेश आएंगी, यह इसी पर निर्भर करता है.
वैसे तालिबान ने ख़ुद कहा है कि अब वह 1995 का तालिबान नहीं है. तो क्या तालिबान बदल रहा है? उसका कैरेक्टर बदल रहा है? क्या उसकी विचारधारा बदल रही है? इन विषयों पर इस समय काफी बहस चल रही है, क्योंकि बाकी शक्तियां तालिबान के साथ कैसे पेश आएंगी, यह इसी पर निर्भर करता है.
यह बात भारत के लिए भी काफी इंपॉर्टेंट है कि तालिबान ने ख़ुद के बदलने की बात कही है. उसने यह भी कहा है कि दूसरे देशों के अंदरूनी मामले उनके लिए मायने नहीं रखते. उन्होंने कहा है कि उनकी कश्मीर में कोई दिलचस्पी नहीं है क्योंकि यह भारत का अंदरूनी मामला है. लेकिन अगर वे हिंसात्मक राजनीति और एक मध्ययुगीन इस्लामी विचारधारा को आगे बढ़ाएंगे, तो भारत के अंदरूनी हालात पर इसका काफी प्रभाव पड़ सकता है और आने वाले दिनों में हमें इसका नुक़सान उठाना पड़ेगा. इससे दूसरे देश भी बचे नहीं रहेंगे. इसलिए वे भी इस बात को लेकर चिंतित हैं. चीन इसलिए फिक्रमंद होगा क्योंकि इसका प्रभाव शिनच्यांग में पड़ेगा. रूस इसलिए कि मध्य एशिया में अगर इस्लामिक रैडिकलिज्म या टेररिज्म फैलता है तो प्रभाव उसके यहां भी होगा. ईरान भी इससे मुश्किल में पड़ेगा क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में सुन्नी–शिया की जो लड़ाई है, उसमें माइनॉरिटी रिफ्यूजी बनकर ईरान की ओर जाएंगे. यह होने भी लगा है. हम देख रहे हैं कि किस तरह से तजाकिस्तान में अफ़ग़ान सेनाएं भाग गई थीं और कैसे वहां की सरकार ने उन्हें वापस भेजा. इस तरह से अफ़ग़ानिस्तान के जो पड़ोसी देश हैं, सबके अपने–अपने हित और दुविधाएं हैं.
तालिबान को लेकर सबसे बड़ा सवाल यह है कि वह किस तरह से इवॉल्व हो रहा है और उसका डायरेक्शन क्या है. इसमें पारंपरिक रूप से भारत की पोजिशन यही रही है कि जो भी पॉलिटिकल सेटलमेंट हो, वह अफ़ग़ान नियंत्रित हो. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान में अलग–अलग पक्षों के बीच बातचीत से कोई ऐसा सेटलमेंट निकलकर आता है तो भारत को उसका समर्थन करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए. काफी समय तक भारत ने तालिबान से अपने संबंधों को आगे नहीं बढ़ाया क्योंकि काबुल में जो अफ़ग़ान सरकार थी, भारत उसी को वैध मानता था और उसी को केंद्र में रखकर अपनी अफ़ग़ान पॉलिसी बनाता था.
अगर वे हिंसात्मक राजनीति और एक मध्ययुगीन इस्लामी विचारधारा को आगे बढ़ाएंगे, तो भारत के अंदरूनी हालात पर इसका काफी प्रभाव पड़ सकता है और आने वाले दिनों में हमें इसका नुक़सान उठाना पड़ेगा. इससे दूसरे देश भी बचे नहीं रहेंगे.
कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक, कतर ने कहा कि भारत ने तालिबान से बातचीत की है, जिसका खंडन तो भारत ने किया है, लेकिन इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि भारत तालिबान के साथ बैक चैनल निगोशिएशन तो कर ही रहा है क्योंकि वहां की राजनीतिक प्रक्रिया में उसकी बड़ी भूमिका होगी. अब भारत को रणनीति बनाकर यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके समर्थन वाले स्टेकहोल्डर्स को भी पावर शेयरिंग अरेंजमेंट में रोल मिले. कहीं ऐसा ना हो कि पावर शेयरिंग अरेंजमेंट एकतरफा हो जाए. इसके लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि भारत, ईरान और रूस जैसे देशों के साथ एक कॉमन फ्रेमवर्क बनाए. इसीलिए विदेश मंत्री एस. जयशंकर रूस जाते वक्त ईरान में भी रुके, वहां उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान पर चर्चा की.
भारत ने रूस और ईरान के साथ नॉर्दन एलायंस को 1990 में सपोर्ट किया था. अफ़ग़ानिस्तान के कॉन्टेक्स्ट में ईरान और रूस के ऐतिहासिक संबंध हैं, जिनको बदलते जमीनी हालात में भारत रिवाइव करने की कोशिश कर रहा है. वहीं ईरान में भी एक नई सरकार आ रही है, नया पावर स्ट्रक्चर खड़ा हो रहा है. ऐसे में यह वहां के लिए किसी भी विदेशी प्रतिनिधि का पहला उच्चस्तरीय दौरा था. भारत ने अफ़ग़ानिस्तान को लेकर यह बात कही है कि कैसे भारत और ईरान साथ काम कर सकते हैं. इसके बाद विदेश मंत्री की मॉस्को वाली मीटिंग में भी अफ़ग़ानिस्तान ही छाया रहा. इस हफ्ते एससीओ (शंघाई को–ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन) की मीटिंग होने वाली है, जिसमें इस पर चर्चा होगी.
अब भारत को रणनीति बनाकर यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके समर्थन वाले स्टेकहोल्डर्स को भी पावर शेयरिंग अरेंजमेंट में रोल मिले. कहीं ऐसा ना हो कि पावर शेयरिंग अरेंजमेंट एकतरफा हो जाए. इसके लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि भारत, ईरान और रूस जैसे देशों के साथ एक कॉमन फ्रेमवर्क बनाए
मिलकर बनेगी बात
भारत कोशिश कर रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान के जो पड़ोसी देश हैं और जो लाइक माइंडेड कंट्रीज़ हैं, जिनके हित एक से हैं, वे एक हों. सारे देश चाहते हैं कि कट्टरता और आतंकवाद अफ़ग़ानिस्तान से बाहर ना निकले और उनके अंदरूनी मामलों में इससे परेशानी ना खड़ी हो. भारत भी यही चाहेगा कि पड़ोसी देश एकजुट होकर इस दिशा में आगे बढ़ें. इससे तालिबान और पाकिस्तान को बैलेंस किया जा सकेगा, क्योंकि अभी दिख रहा है कि तालिबान जीत रहा है और पाकिस्तान उसके साथ है. उसे तभी बैलेंस कर पाएंगे जब भारत, रूस और ईरान जैसे देश इकट्ठा होकर अफ़ग़ानिस्तान का कोई ऐसा पॉलिटिकल सेटलमेंट दे पाएं, जिसमें सारे स्टेकहोल्डर्स पावर शेयर करें, न कि केवल तालिबान का वर्चस्व हो.
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