ये लेख ओआरएफ़ पर छपे सीरीज़, भारत के पड़ोस में अस्थिरता: एक बहु-परिप्रेक्ष्य अवलोकन का हिस्सा है.
पिछले 20 वर्षों के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) ने अफ़ग़ानिस्तान में एक मज़बूत नागरिक समाज के साथ एक लोकतांत्रिक शासन स्थापित करने की कोशिश की जो मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता, विशेष रूप से महिलाओं और लड़कियों के लिए सम्मान के रूप में रेखांकित है. अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी, उसके पहले के चरित्र में ख़ास बदलाव के बिना, इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि तालिबान शासन में बदलाव लगभग असंभव है.
तालिबान अमेरिका जैसी महान शक्ति को वश में कर सकता था, इसलिए नहीं कि वह ऐसा बेहतर सैन्य शक्ति जुटा कर संभव कर पाता, बल्कि ऐसा मुमकिन था अफ़ग़ान सरकार की कमज़ोरी के साथ-साथ अफ़ग़ान नेशनल आर्मी की कमज़ोरी की वज़ह से, जिसे बनाने के लिए अमेरिका ने काफी कोशिश की थी.
कौन है तालिबान?
तालिबान की उत्पत्ति का इतिहास 1990 के दशक की शुरुआत से जुड़ा है, जब सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध की समाप्ति के बाद नई अफ़ग़ान सरकार देश में नागरिक व्यवस्था बनाने और कबीलाई सरदारों को वश में करने में नाकाम रही. अराजकता की स्थिति में आम अफ़ग़ान नागरिक ‘मुज़ाहिदीन’ की धार्मिक बयानबाज़ी के प्रति आकृष्ट होने लगे. साल 1994 तक, कंधार के एक गांव में मदरसे से जुड़े ‘मुज़ाहिदीन’ लड़ाकों को लोगों का समर्थन हासिल होने लगा और क्षेत्र में शांति और व्यवस्था स्थापित करने के लिए ये कबीलाई सरदारों को युद्ध में हराने में सक्षम थे. और ऐसे मुज़ाहिदीन समूहों को ही तालिबान के रूप में जाना जाने लगा, जिसने दो वर्षों के भीतर काबुल पर कब्ज़ा कर लिया और अफ़ग़ानिस्तान के एक बड़े हिस्से पर नियंत्रण स्थापित कर लिया.
तालिबान की उत्पत्ति का इतिहास 1990 के दशक की शुरुआत से जुड़ा है, जब सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध की समाप्ति के बाद नई अफ़ग़ान सरकार देश में नागरिक व्यवस्था बनाने और कबीलाई सरदारों को वश में करने में नाकाम रही. अराजकता की स्थिति में आम अफ़ग़ान नागरिक ‘मुज़ाहिदीन’ की धार्मिक बयानबाज़ी के प्रति आकृष्ट होने लगे.
तालिबान की धार्मिक विचारधारा एक तरफ ‘देवबंदी परंपरावाद और वहाबी नैतिकतावाद‘ की जुगलबंदी थी तो दूसरी ओर यह रूढ़िवादी पश्तून सामाजिक नियम कायदों का पक्षधर रहा. ऐसे विचारधार की जुगलबंदी का नतीज़ा यह हुआ कि तालिबान सार्वजनिक जीवन से महिलाओं की भागीदारी को ख़त्म करते हुए एक क्रूर और दमनकारी शासन के रूप में उभरा, जिसने गैर-इस्लामिक ऐतिहासिक अवशेषों को बिना किसी हिचक के मिटाना शुरू किया और आपराधिक दंड की मध्ययुगीन परंपरा को लागू किया जिसके परिणामस्वरूप अफ़ग़ानिस्तान के भीतर गहरा मानवीय संकट पैदा हो गया. तालिबान ने जिस पश्तून आधिपत्य को देश के अंदर मज़बूत किया उसे गैर-पश्तूनों द्वारा चुनौती दी जाने लगी. हालांकि तालिबान इस्लामिक आतंकवादियों के साथ हाथ मिलाकर आगे बढ़ने लगा, इस कड़ी में उसने अल-क़ायदा जैसे आतंकी संगठन की मेज़बानी की, ख़तरनाक और दूसरे देश की जेल में बंद आतंकवादियों की रिहाई और आतंक की कार्रवाई को अंज़ाम देने के लिए हवाई जहाज तक का अपहरण किया. अमेरिका ने तालिबान पर तब हमला किया (2001) जब 9/11 आतंकी हमलों में स्पष्ट भूमिका होने के बावज़ूद तालिबान अल-क़ायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को सौंपने से इनकार कर दिया. यही वो वज़ह थी जिसने तालिबान के ख़िलाफ़ ख़तरनाक जंग की शुरुआत की.
तालिबान ने वापसी क्यों की?
भले ही अमेरिका और नेटो ने तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान से खदेड़ दिया और देश में एक नई सरकार की स्थापना कर दी लेकिन तालिबान अपने अस्तित्व को बचाए रखने में क़ामयाब रहा. वह ख़ुद को दोबारा संगठित करने में सफल रहा और ख़ास कर अफ़ग़ानिस्तान के दक्षिण और पूर्वी इलाक़ों में लोगों का समर्थन हासिल करता रहा. साल 2013 में इसके संस्थापक नेता, मुल्ला मोहम्मद उमर की मौत के बाद भी तालिबान का लगातार विस्तार होता रहा, नए नेताओं की भर्ती जारी रही और तो और नेटो सैन्य अभियानों की वज़ह से संगठन को भारी नुक़सान पहुंचा लेकिन इसके बावज़ूद संगठन का वज़ूद नहीं मिटा. 2021 के दूसरे दशक के मध्य तक अमेरिका ने महसूस किया कि यह एक ऐसा युद्ध था जो जीता नहीं जा सकता.
अमेरिका ने तालिबान पर तब हमला किया (2001) जब 9/11 आतंकी हमलों में स्पष्ट भूमिका होने के बावज़ूद तालिबान अल-क़ायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को सौंपने से इनकार कर दिया. यही वो वज़ह थी जिसने तालिबान के ख़िलाफ़ ख़तरनाक जंग की शुरुआत की.
2018 में अमेरिका ने सऊदी अरब, पाकिस्तान और संयुक्त अरब अमीरात की मदद से तालिबान के साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू की लेकिन केंद्रीय अफ़ग़ान सरकार और तालिबान को एक साथ लाने की उसकी कोशिश क़ामयाब नहीं हो पाई. आख़िरकार फरवरी 2020 में वे एक समझौते पर पहुंचे, जिसके तहत कहा गया कि अगर तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का आतंकवादी संगठनों को इस्तेमाल नहीं करने का भरोसा देता है तो अमेरिका पूरी तरह से अपनी फौज को हटा लेगा. और जैसे ही अमेरिका ने अगस्त 2021 तक अपनी फौज की वापसी की घोषणा की, फिर से उठ खड़े होने वाले तालिबान ने तेज़ी से कई प्रांतों पर अपना नियंत्रण बढ़ाना शुरू कर दिया और अंत में काबुल पर कब्ज़ा कर लिया.
तालिबान 2.0 की सरकार में मानवाधिकारों को लेकर निरंतर चिंता?
2021 में तालिबान जब सत्ता में वापस आया तो कई लोगों को उम्मीद थी कि उसमें बदलाव होंगे और वह समर्थकों और अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता हासिल करने के लिए ज़्यादा मानवीय रूख़ अपना कर ख़ुद को नई परिस्थितियों के साथ समायोजित करने की कोशिश करेगा. साथ ही, कई लोगों ने यह भी उम्मीद की थी कि वह उन बदलावों को समझने और स्वीकार करने का प्रयास करेगा जो अफ़ग़ान समाज में पहले ही हो चुके थे. दोहा में लिखित रूप में यह बताया गया था कि तालिबान अगस्त 2021 में काबुल पर कब्ज़ा करने के बाद शांति को बढ़ावा देगा. इसके मुताबिक़, “तालिबान सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण चाहता है” और “अफ़ग़ान इस्लामी-समावेशी सरकार” का समर्थन करता है, जहां “महिलाओं को शिक्षा और नौकरियां करने का हक़ होगा, हालांकि उन्हें बस “हिज़ाब का पालन करना” होगा.
वास्तव में तालिबान ने इस बार जैसा काबुल पर कब्ज़ा किया वह उतना क्रूर नहीं था जितना यह 1996 में था. फिर भी धीरे-धीरे समय बीतने के साथ तालिबान अपने पुराने ढर्रे पर लौट चुका है, जहां महिलाओं को सार्वजनिक कार्यालयों में काम करने से रोक दिया गया है और सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी पर पाबंदी लगा दी गई है, लड़कियों को उच्च शिक्षा हासिल करने से रोक दिया गया है. यहां तक कि तालिबान ने फिर से क्रूर दंड प्रणाली के तहत लोगों को दंड देना शुरू कर दिया है. सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद तालिबान सरकार में तमाम कट्टरपंथी भरे गए, इसमें कई कुख्यात आतंकवादी भी शामिल थे; यहां तक कि तालिबान ने कुख्यात हक्क़ानी नेटवर्क के साथ भी घनिष्ठ संबंध बनाए रखा. उदाहरण के लिए, सरकार के नेता, मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद, संयुक्त राष्ट्र की काली सूची में हैं. हक्क़ानी नेटवर्क के नेता और गृह मंत्री सिराज़ुद्दीन हक्क़ानी संघीय जांच ब्यूरो (एफबीआई) की ‘वांछित’ सूची में शामिल हैं. मंत्रियों से शरिया का पालन करने को कहा गया है. जबकि तालिबान ने “अपने पड़ोसियों के साथ आपसी सम्मान और बातचीत के आधार पर मज़बूत और स्वस्थ संबंधों” को बहाल करने की बात कही, यहां तक कि इसने यह भी घोषणा की कि तालिबान सरकार का अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संधियों के प्रति सम्मान इस शर्त के साथ मान्य होगा कि “वे इस्लामी क़ानून और देश के राष्ट्रीय मूल्यों के साथ संघर्षरत नहीं हैं ”.
वास्तव में तालिबान ने इस बार जैसा काबुल पर कब्ज़ा किया वह उतना क्रूर नहीं था जितना यह 1996 में था. फिर भी धीरे-धीरे समय बीतने के साथ तालिबान अपने पुराने ढर्रे पर लौट चुका है, जहां महिलाओं को सार्वजनिक कार्यालयों में काम करने से रोक दिया गया है और सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी पर पाबंदी लगा दी गई है, लड़कियों को उच्च शिक्षा हासिल करने से रोक दिया गया है.
इसके अलावा, चूंकि तालिबान ने एक लंबी जंग देश के विभिन्न हिस्सों में कई समूहों के ज़रिए लड़ी थी, लिहाज़ा उन पर केंद्रीकृत नियंत्रण रखना तालिबान के लिए मुश्किल हो गया था और इनमें से कई समूहों ने इस तरह से काम करना शुरू कर दिया जिससे सरकार की बदनामी हुई. अमेरिकी विदेश विभाग ने मानवाधिकार मुद्दों पर अपनी वार्षिक रिपोर्ट में सुरक्षा बलों द्वारा गैर-न्यायिक हत्याओं, ज़बरन अपहरण, यातना, सुरक्षा बलों द्वारा क्रूर व्यवहार, मीडिया पर गंभीर प्रतिबंध और स्वतंत्र अभिव्यक्ति, पत्रकारों के ख़िलाफ़ हिंसा, सेंसरशिप की जानकारी दी है.
इसके अलावा कई आतंकवादी समूह देश के भीतर काम कर रहे हैं, जिसमें इस्लामिक स्टेट ऑफ खुरासान (आईएस-के) भी शामिल है, जो मस्ज़िदों, बाज़ारों और अन्य जगहों पर लोगों को मारने के लिए विस्फोटकों (आईईडी-एस) का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहा है, जिसके ख़िलाफ़ तालिबान सरकार असहाय नज़र आती है. ज़्यादातर ऐसे आतंकी करतूत अफ़ग़ानिस्तान के भीतर शिया मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के ख़िलाफ़ अंज़ाम दिए जा रहे हैं.
एक ‘मानवीय दुःस्वप्न’?
अफ़ग़ानिस्तान में तेज़ी से पैदा हो रहे मानवाधिकार संकट तालिबान सरकार के लिए बड़ी चुनौती हैं. आतंकवादी समूहों को सहन करने के अलावा इसने अल्पसंख्यकों और महिलाओं, पत्रकारों और मीडिया के साथ अपने दुर्व्यवहार के ज़रिए मानवाधिकार को लेकर बड़ा संकट पैदा किया है. पिछली अफ़ग़ान सरकार और विदेशी ताक़तों के लिए काम करने वाले लोगों को निशाना बनाया जा रहा है और उन्हें मौत के घाट तक उतार दिया जा रहा है. हालांकि, अभी तक किसी भी देश ने औपचारिक रूप से नई तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है, यहां तक कि ईरान, पाकिस्तान, रूस और चीन जैसे देशों ने इसके साथ व्यापार करने की इच्छा व्यक्त तो की है लेकिन इनकी शर्त यह है कि तालिबान पहले अफ़ग़ानिस्तान में एक ‘समावेशी‘ सरकार स्थापित करे.
मानवाधिकार संकट का दूसरा स्रोत वैसे बाहरी भी है. अमेरिका और नेटो देशों ने उनके लिए काम कर रहे सैकड़ों-हज़ारों अफ़ग़ानों को वहां से बाहर निकाला है लेकिन अभी भी कई अफ़ग़ान नागरिक वहीं फंसे हुए हैं और उन्हें निकालने के लिए कोई ठोस योजना नहीं है, जिससे एक बड़ा शरणार्थी संकट वहां पैदा हो रहा है. दूसरा, सत्ता परिवर्तन के साथ अमेरिका ने अमेरिकी डॉलर की संपत्ति तक अफ़ग़ान सेंट्रल बैंक की पहुंच को रोक दिया और कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए हैं. जबकि संयुक्त राष्ट्र ने अफ़ग़ानिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन के नवीनीकरण को मंज़ूरी दे दी है, फिर मिशन का भविष्य अनिश्चित है क्योंकि यह मानवाधिकारों के उल्लंघन की निगरानी करने के लिए है. विदेशी सहायता नहीं मिलने और तालिबान सरकार की बैंकों में पड़ी डॉलर में संपत्ति तक पहुंच नहीं होने की वज़ह से देश की आबादी को आर्थिक, खाद्य और चिकित्सा संकट का सामना करना पड़ रहा है. और तो और यूक्रेन युद्ध ने अचानक अंतरराष्ट्रीय ध्यान को अफ़ग़ान संकट से हटा दिया है.
सबसे बड़े मददगार और अफ़ग़ानिस्तान के दक्षिण एशिया से ‘भरोसेमंद रणनीतिक और विकास के लिए साझेदार’ के तौर पर भारत से मिलने वाली सहायता की संभावना भी संदिग्ध दिखती है. जबकि साल 2001 और 2021 के बीच भारत अफ़गानिस्तान के विकास में महत्वपूर्ण रूप से जुड़ा हुआ था. इसने मानवीय सहायता, ढांचागत विकास और देश में क्षमता निर्माण के लिए 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर की प्रतिबद्धता जताई थी. इसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय और अफ़ग़ानिस्तान ने भी विधिवत मान्यता दी थी लेकिन काबुल पर तालिबान की सत्ता में वापसी करते ही भारत ने अफ़ग़ानिस्तान से पूरी तरह से हटने का फैसला कर लिया, अपने राजनयिक दफ़्तरों को भी भारत ने बंद कर दिया और कर्मचारियों को वापस बुला लिया. हालांकि, तालिबान की सत्ता में वापसी को लेकर निश्चित रूप से पहले से तैयारी की जा सकती थी लेकिन भारत इस बदलाव के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं था. जैसा कि अमेरिका के विल्सन सेंटर में एशिया कार्यक्रम के उप निदेशक माइकल कुगेलमैन ने टिप्पणी की थी कि, “अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में भारत काबुल का सबसे क़रीबी क्षेत्रीय साझेदार की भूमिका से इस क्षेत्र के सबसे वंचित खिलाड़ियों में से एक हो गया है. “
तालिबान की सत्ता में वापसी को लेकर निश्चित रूप से पहले से तैयारी की जा सकती थी लेकिन भारत इस बदलाव के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं था. जैसा कि अमेरिका के विल्सन सेंटर में एशिया कार्यक्रम के उप निदेशक माइकल कुगेलमैन ने टिप्पणी की थी कि, “अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में भारत काबुल का सबसे क़रीबी क्षेत्रीय साझेदार की भूमिका से इस क्षेत्र के सबसे वंचित खिलाड़ियों में से एक हो गया है. “
हालांकि खाद्य संकट, आवश्यक दवाओं की अनुपलब्धता और कोरोना टीकों की कमी के तौर पर मानवीय संकट के सामने आने के बाद एक बार फिर भारत ने अफ़गानिस्तान में क़दम बढ़ाने का फैसला किया है. भारत ने अन्य आवश्यक सामग्रियों समेत गेहूं को ट्रक से भेजने के लिए ज़मीन के रास्ते का इस्तेमाल करने के लिए पाकिस्तान से सहयोग मांगा है. चूंकि सुरक्षा परिषद ने इस तरह की सहायता को प्रतिबंधों से छूट दी थी और तालिबान के दबाव में, पाकिस्तान आख़िरकार भारत के लिए सड़क मार्ग खोलने के लिए सहमत हो गया जिससे भारत 4,000 मीट्रिक टन गेहूं, कोरोना की वैक्सीन कोवैक्सिन की आधा मिलियन ख़ुराक़, 13 टन आवश्यक जीवन रक्षक दवाएं, अफ़ग़ान नागरिकों के लिए सर्दियों के कपड़े भेजने में सफल रहा. मदद की यह खेप संयुक्त राष्ट्र की विशेष एजेंसियों, विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व खाद्य कार्यक्रम को सौंप दी गई थी.
दरअसल, अफ़ग़ानिस्तान से भारत के हाथ खींचने की कोई गुंज़ाइश नहीं है. अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी के बाद पहली बार भारत ने “अफ़ग़ानिस्तान में अपनी मानवीय सहायता के वितरण कार्यों की निगरानी करने के लिए” और तालिबान के वरिष्ठ सदस्यों से मिलने के लिए एक वरिष्ठ राजनयिक के नेतृत्व में एक टीम भेजी है. हालांकि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने पत्रकारों से इसमें बहुत ज़्यादा मायने ना ढूंढने की अपील की है लेकिन इस यात्रा ने वास्तव में अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया है. भारत, दूसरे देशों की तरह ही इस बात का पक्षधर है कि तालिबान सरकार को अधिक ‘समावेशी’ होना चाहिए. हालांकि इसे और अधिक सशक्त रूप में पेश करने के लिए भारत को एक मिसाल के तौर पर ख़ुद को सामने लाना होगा और अपने मानवाधिकार रिकॉर्ड में सुधार करने की ज़रूरत होगी.
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