Author : Seema Sirohi

Published on Jun 18, 2021 Updated 0 Hours ago

तालिबान ने अब तक अपने हिस्से की सौदेबाजी के प्रयास को रोका नहीं है – अंतर- अफ़ग़ानी वार्ता मे विघ्न और दूर दूर तक युद्धविराम की कोई गुंजाइश बनती नहीं दिख रही

अमेरिकी राष्ट्रपति की अब तक की सबसे बड़ी परेशानी साबित हुआ है अफ़गानिस्तान

जब अमेरिकी सैन्य टुकड़ी के अफ़गानिस्तान से मई दिवस तक पूर्ण रूप से वापसी का समय ऩजदीक आ रहा था, तब वह राष्ट्रपति जो बाइडेन के लिए उनके अब तक के कार्यकाल का सबसे कठिन विदेश नीति से संबंधित निर्णय लेने का वक्त़ था. उस निर्णय के लेने के वक्त़ उनके पास कोई भी आसान या अच्छे विकल्प की गुंजाइश नहीं थी. 

अमेरिकी रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन ने उन्हें आश्वस्त किया था, कि वो ऐसा कोई भी असामान्य निर्णय नहीं लेंगे जिससे की यूएस और नाटो सैन्य टुकड़ी किसी खतरे मे पड़े, भले ही वर्तमान नीति समीक्षा के चाहे जो परिणाम आए. उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि इस क्षेत्र में शांति बहाल करने के लिए अंतर अफ़गान वार्ता में तेज़ी के साथ-साथ, यहां हो रही हिंसा में भी कमी लाना होगा. लॉयड ऑस्टिन के अनुसार, ‘ये अमेरिकी कमांडरों की ज़िम्मेदारी और हक़ है कि वे अपनी और अपने अफ़गानी साथियों का किसी भी तरह के हमले से बचाव करें.’

अमेरिका ने इस बात का भी इशारा किया था कि – 1 मई की समय-सीमा कोई पत्थर की लकीर नहीं है. जिसका सीधा मतलब ये था कि बाकी बचे 2500 अमेरिकी सैन्य टुकड़ी और 5000 नाटो देशों की सैन्य टुकड़ी की घर वापसी में देरी भी हो सकती है.  इस समय-सीमा में बढ़ोतरी से संबंधित वार्ता फिर से होगी, जिसका मतलब है कि पाकिस्तान दोबारा इस मामले के केंद्र में होगा.  

बाजवा का उद्देश्य सिर्फ़ किसी भी तरह से अफ़गानिस्तान की नई प्रशासनिक व्यवस्था में तालिबान को वैद्यता दिलवाना है, ताकि नए अफ़ग़ानी सरकार को दरकिनार करके पाकिस्तान वहां अपना प्रभुत्व कायम रख सके. 

पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर बाजवा ने पहले ही मध्यस्थता की कीमत सामने रख दी थी, उन्होंने पहले ही US CENTCOM  के कमांडर जनरल केनिथ मक्केंज़ी जूनियर से कह दिया था कि अमेरिकी राज्य सचिव एंटनी ब्लीन्केन को तालिबानी नेताओं से डेडलाइन बढ़ाने का निवेदन करना चाहिए. बाजवा का उद्देश्य सिर्फ़ किसी भी तरह से अफ़गानिस्तान की नई प्रशासनिक व्यवस्था में तालिबान को वैद्यता दिलवाना है, ताकि नए अफ़ग़ानी सरकार को दरकिनार करके पाकिस्तान वहां अपना प्रभुत्व कायम रख सके. 

भारत की चिंता

जहां तक भारत की बात है, वो अमेरिका के अफ़गानिस्तान से स्वेच्छापूर्वक निकासी को स्वीकारने के बावजूद शुरू से इस मनमाने समयसीमा की डेडलाइन को लेकर चिंतित रहा है.  भारत ने लगातार तालिबान को अफ़ग़ानी सुरक्षा सेना और सभ्य समाज के शीर्ष नेताओं पर हमल करते हुए देखा है और उस वजह से चिंतित और चौकस भी रहा है. ट्रंप प्रशासन के अंतिम दिनों यानी दिसंबर और जनवरी में, हजारों की संख्या मे अमेरिकी सेना अफ़गानिस्तान छोड़ कर निकल गए, और जिसे पहले अमेरिकी सेना की अफ़गानिस्तान से सशर्त वापसी समझी गई थी, वो बाद में महज़ एक औपचारिकता बन कर रह गया.  

लेकिन तालिबान ने तब-तक अपनी तरफ के सौदे की मांग को ज़ाहिर नहीं किया था – अंतर-अफ़ग़ानी वार्ता रुका हुआ था और युद्ध विराम की कोई संभावना बनती नहीं दिख रही थी. अमेरिका की सबसे ज़रूरी मांग वो थी जिसमें उसने तालिबान को प्रतिबंधित आतंकी संगठन अल-कायदा के साथ अपने हर तरह के रिश्ते के ख़त्म करने की थी, लेकिन ये कई कारणों से पूरी नहीं हो पायी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि दोनों पक्षों के बीच लिखित समझौते और आपसी मौख़िक बातचीत में जिस तरह की “समझ और आश्वासन” की बात हुई थी वो सार्वजनिक नहीं थी. अमेरिकी विशेष सचिव, ज़ालमे खलीलज़ाद ही एकलौते व्यक्ति है जिन्हें इस समझौते की जानकारी है. क्योंकि उन्होंने पश्तो भाषा में तालिबानी नेताओं के साथ बग़ैर किसी मध्यस्थता के एक के बाद एक कई दौर की वार्ता की थी.  

अमेरिकी विशेष सचिव, ज़ालमे खलीलज़ाद ही एकलौते व्यक्ति है जिन्हें इस समझौते की जानकारी है. क्योंकि उन्होंने पश्तो भाषा में तालिबानी नेताओं के साथ बग़ैर किसी मध्यस्थता के एक के बाद एक कई दौर की वार्ता की थी.  

इस मसौदे के अंतर्गत, अमेरिका अपने समूचे सैनिकों के 1 मई तक हर हाल में देश छोड़ने के साथ, 10 अन्य मुद्दों पर तुरंत प्रभाव से कार्यवाही करने को प्रतिबद्ध था. सैन्य ऑपरेशन विशेषक और अफ़ग़ानी मामलों के विशेषज्ञ जोनाथन श्रोडेन के अनुसार, एक तरफ जहां अमेरिका द्वारा किये गए ज्य़ादातर वादे या तो पूरे या आंशिक तौर पर सत्यापित किए जा सकते थे, लेकिन तालिबान की ओर से किए गए वादों को लेकर कोई स्पष्टता नहीं थी. उसके अलावा तालिबान के वादे काफी हद तक उनके मन पर निर्भर था.  

जो जोनाथन श्रोडेन के अनुसार, तालिबान की तरफ से कही गई सबसे महत्वपूर्ण बात ये थी कि, वो किसी भी प्रकार के या कोई भी आतंकी संगठन को अफ़गानिस्तान की मिट्टी का इस्तेमाल अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की सुरक्षा पर चोट पहुंचाने के लिए नहीं करने देगा, वो काफी हद तक व्यक्तिपरक है और साथ ही उसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता था. तालिबान ने जिन सात सूत्रों पर अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर की थी उनमें से केवल एक को ही निष्पक्ष और सार्वजनिक तौर पर स्थापित किया जा सकता था. 

अमूमन, अमेरिकी अधिकारी खुद के हित् का ख्याल रखते हुए ही ज्यादातर अनुबंध तैयार करते हैं, लेकिन अफ़ग़ान शांति समझौता, स्पष्ट तौर पर अलग था. कुछ अमेरिकी विशेषज्ञों ने अनुबंध मे छह महीनों के अतिरिक्त समय दिए जाने की पैरवी की थी, जो की शुरुआती दौर मे थोड़ा कम प्रतीत हो रहा था. इस विचार के पीछे का उद्देश्य, संयुक्त राष्ट्र महासंघ द्वारा रोके गए/प्रतिबंधित आर्थिक अनुदान और तालिबानी कैदिओं को रिहा करवा कर, थोड़ा राहत प्रदान करना है ताकि इसके आधार पर अमेरिका के साथ की गई इस शांति समझौते की फिर से विवेचना की जा सके. तालिबान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने लिए स्वीकृति चाहता है ताकि उसके ऊपर लगे आर्थिक बैन हटाये जा सके. 

उसी दौरान  तालिबानी शीर्ष नेता मुल्लाह़ अब्दुल ग़नी बरादर ने इस बाबत अपना खुला विरोध व्यक्त किया. अमेरिकी जनता के नाम लिखे खुले पत्र मे, उन्होंने अमेरिका से अनुबंध के शर्तों पर टिके रहने का आह्वान किया था, अपनी बातों को और पुख्त़ा करने के उद्देश्य से, उन्होंने तालिबान द्वारा प्रचारित शर्तों का ख़ास ज़िक्र किया था, जिसके अनुसार- अधिकांश अफ़ग़ानी जनता, “इस्लामिक अमीरात,” का समर्थन करती है, और मानती है कि औरतों को इस्लामिक शरिया (अब इसके माने चाहे जो भी हो) के अनुसार उनके हक़ दिए जाएंगे और तालिबान अफ़ीम की खेती पर रोक लगाएगी.

शांति वार्ता की शर्तों पर मोलभाव

इसमें कोई शक नहीं था, कि अफ़गानिस्तान से अमेरिकी सेना की देश वापसी की शर्तों पर मोलभाव होगा, क्यूंकि वाशिंगटन द्वारा की गई एकतरफा घोषणा इस सौदे को निरस्त कर सकता था और उसके परिणाम स्वरूप पश्चिमी सैन्य बल को तालिबानी आक्रमणों का सामना करने को मजबूर होना पड़ सकता है था. ऐसी उम्मीद थी कि बाइडेन प्रशासन अपनी नीति की विवेचना जल्द कर लेगा जिसके बाद खलीलज़ाद दोहा, इस्लामाबाद और संभवतः नई दिल्ली की यात्रा करेंगे. 

वे विशेषज्ञ, जो अमेरिका की इस सबसे लंबी युद्ध के इतिहास का अंत देखना चाहते थे, उनका कहना था कि बाइडेन प्रशासन को सिर्फ़ उस निष्कर्ष पर अपना ध्यान लगाना चाहिए जिससे उसका फायदा जुड़ा है. असल मुद्दा तो तालिबान का अल-कायदा से अपने हर तरह के रिश्तों का खात्मा है. ये सवाल भी उठा कि क्या अमेरिकी वार्ताकार सार्वजनिक तौर पर   तालिबान को  बाध्य कर पायेंगे कि वे अपने इन गलत संबंधों को हमेशा के लिए ख़त्म कर, और अफ़ग़ानिस्तान की मिट्टी पर हो रहे उथल पुथल की ज़िम्मेदारी लें? उनके मुताबिक अमेरिकी सेना की अफ़ग़ानी मिट्टी पर उपस्थिती, औरतों के अधिकारों के सरंक्षण की गारंटी बिल्कुल नहीं है. 

ये सवाल भी उठा कि क्या अमेरिकी वार्ताकार सार्वजनिक तौर पर  तालिबान को  बाध्य कर पायेंगे कि वे अपने इन गलत संबंधों को हमेशा के लिए ख़त्म कर, और अफ़ग़ानिस्तान की मिट्टी पर हो रहे उथल पुथल की ज़िम्मेदारी लें?

बाकी लोग एक प्रकार की भाग्यवादी सोच का प्रदर्शन कर रहे थे – उनको लगता था कि अमेरिका चाहे जो फैसला करे, राष्ट्रपति अशरफ ग़नी की सरकार, भले ही काफ़ी “भ्रष्ट और कमज़ोर शासन” साबित हो.  तालिबान भी अपने हमलों में कोई कमी नहीं लायेगा क्योंकि उसे लगता था कि डेडलाइन में चाहे जो भी बदलाव हो, उनकी जीत निश्चित है. ये सब-कुछ कुछ और नहीं सिर्फ ग़नी प्रशासन को हाशिये पर लाने की कोशिश है.  

जैसा की इस क्षेत्र के विशेषज्ञ ने कहा था, अगर पड़ोस में कुछ भ्रष्ट और कमज़ोर सरकारें  शासन कर रहीं हैं – तो कुछ ठीक-ठाक सरकारें भी सफ़ल हो सकती हैं. वैसे ही ग़नी प्रशासन भी ज़िंदा रह सकती है. 9/11 से पहले भी अफ़ग़ानियों ने बिना किसी मदद के तालिबान से युद्ध लड़ी थी और वे आगे भी लड़ सकते हैं,  इस बार तो वो पहले से काफी बेहतर स्थिति में है.  

इस दौरान, ज़मीनी हक़ीकत काफ़ी भयानक थी. तालिबान ने अमेरिकी और नाटो सैनिकों पर हमला करने से खुद को रोक लिया था, पर  वे लगातार अफ़ग़ानी फ़ौज, महिला न्यायाधीशों और पत्रकारों, एनजीओ और अन्य सरकारी कर्मचारियों को अपने आत्मघाती हमलों का निशाना बना रहे थे, ताकि बड़े ही सुनियोजित तरीके से पिछले दो दशकों में खड़े किये गए मज़बूत नागरिक व्यवस्था के आधार स्तंभों को नष्ट कर दें.  

धर पाकिस्तान और उसके मित्र देश, वॉशिंगटन में, शांति समझौते के मसौदे पर दोबारा विचार के विकल्प को ख़ारिज करने में लगे थे. वे चाहते थे कि बाइडेन प्रशासन आगे की तरफ़ देखें न की पीछे और अपनी पूरी ऊर्जा अंतर-अफ़ग़ानी वार्ता को आगे बढ़ाने में लगाए. अगर ऐसा हुआ तो इससे रावलपिंडी को बढ़त मिल जाएगी, क्योंकि लंबे अरसे से तालिबान पाकिस्तान से ही अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों, स्वास्थ्य देखभाल, प्रशिक्षण और  हथियार आदि की मदद प्राप्त करता रहा था. 

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