अगस्त 2021 में अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का दोबारा क़ब्ज़ा हो गया था. इसके बाद, अफ़ग़ानिस्तान को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय मदद मिलने में भी खलल पड़ा था. इन कारणों से युद्ध से तबाह अफ़ग़ानिस्तान आर्थिक, मानवीय और मानव अधिकारों के और गहरे संकट के दलदल में धंसता गया है. इसके गंभीर नतीजे देखने को मिले हैं, ख़ास तौर से अफ़ग़ान महिलाओं और लड़कियों के लिए. सच तो ये है कि तालिबान ने जो शुरू में अधिक नरमपंथी शासन स्थापित करने का वादा किया था, और कहा था कि वो महिलाओं को पढ़ाई और नौकरी करने देंगे, उस वादे से भी इस्लामिक कट्टरपंथी मुकर गए हैं और उन्होंने वो लोकतांत्रिक अधिकार वापस ले लिए जिनका वहां की महिलाएं पहले खुलकर इस्तेमाल कर रही थीं.
आज अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं के पढ़ाई करने और घर से बाहर काम करने, बिना किसी मर्द निगहबान के लंबा सफ़र करने, अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ लिबास पहनने और मनोरंजन के पार्क जाने जैसे काम करने से प्रतिबंधित कर दिया गया है..
इसका परिणाम ये हुआ है कि आज अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं के पढ़ाई करने और घर से बाहर काम करने, बिना किसी मर्द निगहबान के लंबा सफ़र करने, अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ लिबास पहनने और मनोरंजन के पार्क जाने जैसे काम करने से प्रतिबंधित कर दिया गया है. और वैसे तो महिलाओं और लड़कियों से ऐसा घटिया बर्ताव असहनीय और ग़ैरवाजिब है. फिर भी वक़्त के साथ साथ महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों पर तालिबान के हमले बढ़ते ही जा रहे हैं.
ये बात अफ़ग़ानिस्तान में मानव अधिकारों की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधि रिचर्ड बेनेट के बयान से स्पष्ट हो जाती है. बेनेट ने 6 मार्च 2023 को प्रकाशित अपनी हालिया रिपोर्ट में उजागर किया है कि 2022 में आई उनकी पिछली रिपोर्ट के बाद से अफ़ग़ानिस्तान में मानवीय हालात लगातार ख़राब ही होते जा रहे हैं. अफ़गान महिलाओं की बुरी स्थिति पर ज़ोर देते हुए बेनेट ने अपनी रिपोर्ट में आगे संकेत दिया था कि, ‘नवंबर 2022 के मध्य में तालिबान सरकार के अधिकारियों ने महिलाओं के पार्क, जिम और सार्वजनिक हम्मामों में जाने पर रोक लगा दी थी और 21 दिसंबर को उन्होंने महिलाओं के अकादेमिक क्षेत्र में जाने पर पाबंदी लगा दी. इसके तीन दिनों बाद महिलाओं के नौकरी तलाशने पर प्रतिबंध लगा दिया गया.’ रिचर्ड बेनेट ने ये कहते हुए अपनी रिपोर्ट को समाप्त किया कि, ‘तालिबान द्वारा संस्थागत तरीक़े से महिलाओं से भेदभाव के कारण अंतरराष्ट्रीय अपराध की चिंताएं पैदा हुई हैं’ और उन्होंने कहा कि, ‘महिलाओं और लड़कियों पर पाबंदियों के सामूहिक प्रभाव (…) लैंगिक नस्लवाद की श्रेणी में आते हैं.’
नस्ल के आधार पर भेदभाव
नस्लभेद या रंगभेद शब्द अफ्रीकांस भाषा में अलग करने के लिए इस्तेमाल होने वाले शब्द से बना है और इसका सबसे पहले इस्तेमाल दक्षिण अफ्रीका की अल्पसंख्यक गोरी सरकार द्वारा अश्वेतों के साथ किए जाने वाले भेदभाव के संदर्भ में किया गया था, जो दौर 1948 से 1990 तक चला था. इसलिए रोम क़ानून के मुताबिक़, नस्लभेद मुख्य रूप से नस्लवादी ज़ुल्मों के इर्द गिर्द पैदा होता है- और इसे मोटे तौर पर संधि में ज़िक्र किए गए अमानवीय बर्तावों से जोड़ा जाता है, ‘जो किसी संस्थागत हुकूमत द्वारा संस्थागत रूप से किसी एक दबदबे वाले समुदाय द्वारा किसी अन्य नस्ल या समूह या समूहों के ख़िलाफ़ किए जाते हैं, और जिनका मक़सद उस हुकूमत को सत्ता में बनाए रखना होता है.’
इस बीच इस क़ानून में लैंगिक भेदभाव को शामिल नहीं किया गया है और इसकी परिभाषा में भी उसका कोई ज़िक्र नहीं हुआ है. लेकिन, रोम क़ानून लैंगिक ज़ुल्म के अपराधों को मानवता के ख़िलाफ़ अपराध ज़रूर मानता है जब, ज़ुल्म का मतलब, ‘जान-बूझकर भयंकर तरीक़े से अंतरराष्ट्रीय नियम क़ायदों के मुताबिक़ किसी समूह की पहचान या सामूहिक रूप से और ‘लैंगिक’ अर्थात दो लिंगों यानी सामाजिक दायरे में पुरुष और औरत के लिए तय मानव अधिकारों से वंचित रखा जाता है.’ हालांकि, अभी तक लैंगिक रंगभेद को अंतरराष्ट्रीय अपराध का दर्जा नहीं दिया गया है और सच तो ये है कि फिलहाल तो इसमें केवल ज़ुल्म के वर्णन की ताक़त है. सरल शब्दों में कहें तो अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के मुताबिक़, नस्लवाद का अपराध केवल जातीय वर्गीकरण में होता है और ये लिंग पर आधारित वर्गीकरण पर लागू नहीं होता.
सितंबर 2022 में संयुक्त राष्ट्र में एक प्रेस कांफ्रेंस में बोलते हुए नाहीद ने दुनिया से अपील की थी कि वो मानव अधिकारों के उल्लंघन के लिए तालिबान को ‘लैंगिक नस्लभेदी’ हुकूमत का दर्जा दे.
लेकिन, पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस विषय को कुछ तवज्जो दी जा रही है. मिशिगन लॉ स्कूल में क़ानून की ल्यूइस एम. साइम्स प्रोफेसर करीमा बेनोन ने लैंगिक रंगभेद को परिभाषित करते हुए कहा कि, ‘ये क़ानून पर आधारित प्रशासन की ऐसी व्यवस्था है जो महिलाओं और पुरुषों को संस्थागत रूप से अलग करती है और शायद महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों और क्षेत्रों से भी संस्थागत रूप से अलग करती है.’ वो आगे कहती हैं कि, ‘लैंगिक नस्लभेद अंतरराष्ट्रीय क़ानून के बुनियाद के ही खिलाफ है. ये हर मामले में नस्लवादी भेदभाव जैसा ही है जैसे नस्ल के आधार पर किसी ख़ास समुदाय को अलग थलग रखा जाता था.’
इन तर्कों का अर्थ निकालते हुए शायद ये कहना उचित होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं और लड़कियों पर लगातार बढ़ते ज़ुल्म और उनके अधिकारों के लगभग पूरी तरह ख़ात्मे को देखते हुए उनकी स्थिति के वर्णन के लिए लैंगिक नस्लभेद बिल्कुल प्रासंगिक और सटीक जुमला है, जो तालिबान की हुकूमत पर लागू होता है.
यहां ये बात भी ध्यान देने लायक़ है कि जो कुछ अफ़ग़ानिस्तान में हो रहा है उसे बताने के लिए लैंगिक नस्लभेद का शब्द का प्रयोग कोई पहली बार नहीं किया गया है. 2022 में पूर्व अफ़ग़ान सरकार में 2019 में चुनी गई सबसे युवा राजनेता और महिला अधिकार कार्यकर्ता नाहीद फ़रीद ने तालिबान के राज को ऐसी नस्लभेदी हुकूमत क़रार दिया था, जो अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मदद, सहयोग और फंड पाने के लिए महिलाओं को ‘मोलभाव के मोहरे’ की तरह इस्तेमाल कर रही थी.
नाहिद फ़रीद की अपील
नाहीद फ़रीद ने इस तथ्य पर भी ज़ोर दिया था कि अफ़ग़ान महिलाएं एक भयंकर अनूठी दुविधा का अनुभव कर रही हैं और उनमें से बहुत सी ऐसी हैं जो निराशा और हताशा में अपनी जान देने का विकल्प भी चुन रही हैं. सितंबर 2022 में संयुक्त राष्ट्र में एक प्रेस कांफ्रेंस में बोलते हुए नाहीद ने दुनिया से अपील की थी कि वो मानव अधिकारों के उल्लंघन के लिए तालिबान को ‘लैंगिक नस्लभेदी’ हुकूमत का दर्जा दे. नाहीद ने कहा था कि दक्षिण अफ्रीका को नस्लभेदी सरकार के दर्जे में डालने से वहां परिवर्तन आया था और इसीलिए अगर तालिबान को भी उसी दर्जे में रखा जाए, तो इससे अफ़ग़ानिस्तान में परिवर्तन आ सकता है.
आज अफ़ग़ान महिलाओं, कार्यकर्ताओं और क़ानूनी विशेषज्ञ एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय अभियान को समर्थन दे रहे हैं जिसका नाम लैंगिक नस्लभेद ख़त्म करो है. इसका मक़सद न केवल अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं और लड़कियों के रोज़मर्रा के तजुर्बे के प्रति जागरूकता फैलाना है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय क़ानूनों के तहत लैंगिक नस्लभेद को अपराध के तौर पर मान्यता दिलाना भी है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर शुरू किया गया ये अभियान इस सोच को उजागर करता है कि महिलाओं के प्रति भेदभाव रोकने के लिए बने मौजूदा क़ानून आमप तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं का दर्जा घटाने के लिए उन पर थोपी गई नीतियों के संस्थागत स्वरूप को समझ पाने में असमर्थ है.
और चूंकि सत्ता मे बैठे लोगों के साथ कोई भी राजनीतिक संवाद, अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं और लड़कियों किसी तरह का स्पष्ट बदलाव लाने में असफल रहा है. ऐसे में हर तरह के माध्यम का इस्तेमाल करना- जिसमें नस्लभेद की परिभाषा का दायरा बढ़ाना भी शामिल है- ज़रूरी है ताकि अफ़ग़ान महिलाओं के अधिकारों और उनके संरक्षण की लड़ाई लड़ी जा सके. परिभाषा के इस विस्तार से शायद सरकार को क़दम उठाने के लिए बाध्य किया जा सके, और उन्हें उनकी मानवीय ज़िम्मेदारियां स्वीकार करने को मजबूर किया जा सके और अगर वो ज़रूरी क़दम नहीं उठाते हैं तो उन्हें इसके लिए जवाबदेह बनाया जा सके. आख़िरकार 2023 में रहते हुए हम महिलाओं के इतने बड़े पैमाने पर शोषण को बर्दाश्त नहीं कर सकते और करना भी नहीं चाहिए.
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