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18 अगस्त 2021 को 19 वर्ष के अफ़ग़ान राष्ट्रीय फुटबॉल खिलाड़ी ज़की अनवरी की अफ़ग़ानिस्तान से भागने की कोशिश करते समय वहां से रवाना हो रहे अमेरिकी वायुसेना के विमान से गिरने से मौत हो गई. ज़की की मौत और काबुल अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जमा हताश भीड़ की ह्रदय विदारक तस्वीरें अभी भी लोगों की यादों में ताज़ा हैं. लोग अफ़ग़ानिस्तान को छोड़ना चाहते थे. इसकी वजह 20 साल के लंबे इंतज़ार के बाद तालिबान की वापसी थी. अतीत में (1996-2001) तालिबान का शासन मानवाधिकार उल्लंघन और अल्पसंख्यकों एवं महिलाओं के ख़िलाफ़ ज़ुल्म का पर्यायवाची था. तालिबान पश्तूनों के वर्चस्व वाला एक संगठन है. ऐसे में ग़ैर-पश्तून अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं. पहले तालिबान ने इस्लाम की रुढ़िवादी व्याख्या की वजह से सख़्त सामाजिक पाबंदियां लगाई थी. तालिबान ने लड़कियों की पढ़ाई का भी विरोध किया था. तालिबान के शासन के दौरान अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं की साक्षरता दर 15 प्रतिशत से भी कम थी. बाद में इसमें बढ़ोतरी हुई और ये 2018 में बढ़कर 30 प्रतिशत पर पहुंचा. इसलिए साधारण अफ़ग़ान नागरिकों की आशंका समझने लायक है और ज़्यादातर लोग एक सुरक्षित, स्थायी और शांतिपूर्ण मंज़िल की तलाश में अपने देश से भागना चाहते हैं. इसकी वजह से आप्रवासियों की लहर आएगी और इससे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का बोझ बढ़ेगा जो 2030 तक टिकाऊ विकास लक्ष्य (एसडीजी) हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध है.
मानवाधिकार उल्लंघन और अल्पसंख्यकों एवं महिलाओं के ख़िलाफ़ ज़ुल्म का पर्यायवाची था. तालिबान पश्तूनों के वर्चस्व वाला एक संगठन है. ऐसे में ग़ैर-पश्तून अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं.
अगर हम वर्तमान की उथल-पुथल को हटा भी दें तब भी विश्व में अफ़ग़ान शरणार्थी तीसरे सबसे ज़्यादा हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच (एचआडब्ल्यू) की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के अलग-अलग हिस्सों में 26 लाख शरणार्थी पहले से रह रहे हैं. अफ़ग़ान नागरिकों की ख़तरनाक स्थिति का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि क़रीब 30 लाख अफ़ग़ानी आंतरिक रूप से विस्थापित हैं. हाल के अनुमानों के मुताबिक़ 73,000 अफ़ग़ान नागरिकों ने वापस जा रही अमेरिकी सेना के साथ देश छोड़ा. मई 2021 से अफ़ग़ानिस्तान में लगभग 2,40,000 लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हुए हैं क्योंकि गठबंधन सेना ने वहां से निकलना शुरू कर दिया था. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) के अनुसार भविष्य में भी अफ़ग़ानिस्तान से प्रवासन जारी रहेगा और क़रीब 5,00,000 अफ़ग़ान अपना देश छोड़ेंगे.
ये डराने वाले आंकड़े हैं और इस बात की पूरी संभावना है कि हालात जल्दी बेहतर नहीं होंगे. सुरक्षा के बिगड़ते हालात लोगों के देश छोड़ने और आंतरिक विस्थापन की एक बड़ी वजह है. हाल के दिनों में इस्लामिक स्टेट-खोरासान (आईएस-के) ने कुंदुज़ और कंधार में जानलेवा आत्मघाती हमलों को अंजाम दिया जिनमें कई निर्दोष शिया मुसलमानों की मौत हो गई और कुछ लोग घायल भी हुए. वैसे तो तालिबान के द्वारा आईएस-के से निपटने की शपथ ली गई है लेकिन ऐसा लगता है कि किसी अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के बिना ये एक मुश्किल काम होगा. दूसरी बात ये है कि अफ़ग़ानिस्तान एक गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. अफ़ग़ानिस्तान एक सहायता पर निर्भर देश है; अफ़ग़ानिस्तान की सकल राष्ट्रीय आमदनी (जीएनआई) में विदेशी सहायता का हिस्सा क़रीब 21 प्रतिशत है. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने तालिबान के द्वारा अचानक सत्ता पर कब्ज़े की तारीफ़ नहीं की. इसके अलावा अंतरिम तालिबान सरकार बड़े दानकर्ताओं का भरोसा जीतने में नाकाम रही है और ज़्यादातर दानकर्ता अभी भी तालिबान के साथ सरोकार रखने में झिझक रहे हैं.
अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने तालिबान के द्वारा अचानक सत्ता पर कब्ज़े की तारीफ़ नहीं की. इसके अलावा अंतरिम तालिबान सरकार बड़े दानकर्ताओं का भरोसा जीतने में नाकाम रही है और ज़्यादातर दानकर्ता अभी भी तालिबान के साथ सरोकार रखने में झिझक रहे हैं.
चौतरफ़ा आर्थिक संकट से जूझता अफ़ग़ानिस्तान
अफ़ग़ानिस्तान से अपनी वापसी के बाद अमेरिका ने क़रीब 9 अरब अमेरिकी डॉलर की अफ़ग़ान विदेशी मुद्रा के भंडार को ज़ब्त कर लिया. यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक (डब्ल्यूबी) भी अंतर्राष्ट्रीय नियमों से बंधे हुए हैं और सदस्यों की स्वीकृति के बिना अफ़ग़ानिस्तान को बचा नहीं सकते. अफ़ग़ानिस्तान में आईएमएफ के कार्यक्रमों को रोक दिया गया है जिनमें विशेष पैसा निकालने के अधिकार (एसडीआर) तक अफ़ग़ानिस्तान की पहुंच शामिल है. इसी तरह विश्व बैंक ने भी अफ़ग़ानिस्तान में अपनी परियोजनाओं को रोक दिया है. हाल में साझा किए गए अपने आर्थिक दृष्टिकोण में आईएमएफ ने अनुमान लगाया है कि अफ़ग़ान अर्थव्यवस्था में 30 प्रतिशत की गिरावट आएगी और ये गंभीर राजकोषीय संकट से गुज़र रही है. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के विश्लेषण के अनुसार 3 करोड़ 80 लाख अफ़ग़ान नागरिक ग़रीबी के जाल में फंसने का जोख़िम उठा रहे हैं और वो खाद्य की कमी से जूझ रहे हैं. इस मामले में आईएमएफ के द्वारा की गई भविष्यवाणी में इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी है कि कमज़ोर आर्थिक स्थिति “अफ़ग़ान शरणार्थियों की संख्या में तेज़ बढ़ोतरी करेगी”.
पाकिस्तान और ईरान- दोनों देश और ज़्यादा शरणार्थियों को लेने में काफ़ी झिझक रहे हैं. ये दोनों देश चाहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने वाले उसके नागरिक सीमा के नज़दीक बने शिविरों में रहें लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में हालात जब सुधर जाए तो उन्हें लौटना होगा.
अब हमें इस बात पर चर्चा करनी चाहिए कि किस तरह अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति का असर टिकाऊ विकास लक्ष्य को हासिल करने पर हो सकता है. दिसंबर 2018 में संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) ने शरणार्थियों पर वैश्विक समझौते (जीसीआर) को मंज़ूरी दी लेकिन ये क़ानूनी तौर पर सदस्य देशों के ऊपर बाध्यकारी नहीं है. फिर भी ये समझौता स्पष्ट रूप से टिकाऊ विकास लक्ष्य के साथ जुड़ा है क्योंकि ये सुनिश्चित करता है कि “जो लोग किसी देश के नागरिक नहीं हैं वो विकास की प्रक्रिया में पीछे नहीं छूट जाएं और विस्थापन का समाधान समावेशी और व्यापक दृष्टिकोण से हो”. संक्षेप में कहें तो शरणार्थियों के मुद्दे का समाधान किए बिना हम 2030 तक टिकाऊ विकास लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम नहीं हो पाएंगे और इसमें अफ़ग़ानिस्तान का मुद्दा प्रासंगिक है. अफ़ग़ान शरणार्थियों के बारे में बात करते समय पहली और सबसे ज़रूरी चीज़ है पड़ोस के देशों पाकिस्तान, ईरान और मध्य एशियाई गणराज्यों द्वारा अदा की गई भूमिका. वर्तमान में सबसे ज़्यादा अफ़ग़ान शरणार्थी पाकिस्तान में रह रहे हैं और उनकी संख्या 14 लाख है. ईरान में पंजीकृत अफ़ग़ान शरणार्थियों की संख्या 7,80,000 है. इस बार पाकिस्तान और ईरान- दोनों देश और ज़्यादा शरणार्थियों को लेने में काफ़ी झिझक रहे हैं. ये दोनों देश चाहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने वाले उसके नागरिक सीमा के नज़दीक बने शिविरों में रहें लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में हालात जब सुधर जाए तो उन्हें लौटना होगा. दूसरे शब्दों में शिविर अस्थायी व्यवस्था है और वहां रह रहे लोगों को असुरक्षित हालत में रहना होगा, वो भी तब जब दुनिया एक जानलेवा कोविड-19 महामारी का मुक़ाबला कर रही है. केवल एक उचित शरणार्थी का दर्जा किसी हद तक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की गारंटी देता है.
अफ़ग़ान संकट और SDGs के बीच संबंध
इसी तरह मध्य एशियाई गणराज्य भी जानबूझकर देरी कर रहे हैं और अफ़ग़ानियों को शरणार्थी के तौर पर लेने की इच्छा नहीं रखते हैं. ख़बरों के मुताबिक़ उज़्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान ने सीमा सुरक्षा को लेकर तालिबान से बातचीत की थी. इसका मुख्य कारण शरणार्थियों की भीड़ को रोकना था. मध्य एशियाई गणराज्यों में एकमात्र देश ताज़िकिस्तान है जिसने शुरुआत में क़रीब 1,00,000 अफ़ग़ान शरणार्थियों को लेने की इच्छा जताई थी. यद्यपि हाल में अफ़ग़ान शरणार्थियों को लेकर ताज़िकिस्तान के रुख़ में साफ़ बदलाव आया है. ताज़िकिस्तान की सरकार अब बुनियादी ढांचे में कमी और पैसे की मजबूरियों को अफ़ग़ान शरणार्थियों को अपने क्षेत्र में नहीं आने देने की वजह बता रही है. यहां तक कि रूस ने भी बिन कुछ बोले हुए तालिबान के सत्ता पर कब्ज़े को समर्थन दिया जबकि अफ़ग़ान शरणार्थियों को सुरक्षा के नज़रिए से देखते हुए उन्हें ख़तरे के रूप में देखा.
विडंबना है कि ये मानवीय संकट अंत में अफ़ग़ान नागरिकों को उनके देश से बाहर धकेल देगा लेकिन उन्हें अन्य देशों में अच्छा स्वागत नहीं मिलेगा. संक्षेप में, अफ़ग़ान संकट अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के द्वारा टिकाऊ विकास लक्ष्य हासिल करने की इच्छा में रुकावट डालेगा.
ये सभी घटनाक्रम अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देशों के द्वारा कठोर जवाब की तरह लग सकता है लेकिन अफ़ग़ान शरणार्थियों को लेना आसान नहीं है. अगर किसी देश को शरणार्थियों पर वैश्विक समझौते का पालन करना है तो उसे अफ़ग़ान शरणार्थियों को लेने के लिए काफ़ी मौद्रिक समर्थन की ज़रूरत पड़ेगी. ताज़िकिस्तान ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से ख़ुद की सहायता करने की अपील की क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था इतनी मज़बूत नहीं है कि शरणार्थियों की मदद कर सके. आईएमएफ के अनुसार अफ़ग़ान शरणार्थियों को पनाह देने की सालाना लागत “ताजिकिस्तान में 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर (ताजिकिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 1.3 प्रतिशत), ईरान में क़रीब 300 मिलियन अमेरिकी डॉलर (ईरान की जीडीपी का 0.03 प्रतिशत) और पाकिस्तान में 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा (पाकिस्तान की जीडीपी का 0.2 प्रतिशत) होगी.” कई अमीर पश्चिमी देश भी अफ़ग़ान शरणार्थियों को पनाह देने के लिए आगे आए जैसे “कनाडा लगभग 2,00,000 असुरक्षित अफ़ग़ानियों और यूनाइटेड किंगडम लंबे वक़्त में क़रीब 20,000 अफ़ग़ानियों को लेने की इच्छा रखता है. ऑस्ट्रेलिया भी शरणार्थियों की संख्या बढ़ाने की इच्छा रखता है”. पश्चिमी देशों का ये रुख़ तारीफ़ के लायक है लेकिन जितने लोगों को वो पनाह देना चाहते हैं, वो बहुत कम है. दिलचस्प बात ये है कि यूरोप के देश इस मामले में आगे नहीं बढ़ रहे हैं और वो अपनी सीमा के पास सीरिया शरणार्थी संकट जैसी स्थिति से परहेज़ करना चाहते हैं. इस तरह मुश्किल में पड़े अफ़ग़ान नागरिकों के लिए यूरोप से औपचारिक वीज़ा या मंज़ूरी निकट भविष्य में संभव नहीं दिख रहा है. विडंबना है कि ये मानवीय संकट अंत में अफ़ग़ान नागरिकों को उनके देश से बाहर धकेल देगा लेकिन उन्हें अन्य देशों में अच्छा स्वागत नहीं मिलेगा. संक्षेप में, अफ़ग़ान संकट अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के द्वारा टिकाऊ विकास लक्ष्य हासिल करने की इच्छा में रुकावट डालेगा.
निष्कर्ष ये है कि अफ़ग़ान शरणार्थियों की सहायता करने के लिए फंड की व्यवस्था करने और स्वीकार करने में मदद की पेशकश करना तात्कालिक प्राथमिकता हो सकती है लेकिन ये स्थायी समाधान नहीं है. अफ़ग़ानिस्तान की राजनीतिक स्थिति निश्चित रूप से स्थिर होनी चाहिए जिससे कि अफ़ग़ानिस्तान में आर्थिक जीवन की शुरुआत करने का रास्ता साफ़ हो सके. इसके लिए इस बात पर काफ़ी दारोमदार है कि किस तरह तालिबान सामान्य अफ़ग़ान नागरिकों को आकर्षित करता है और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने ख़ुद को कैसे पेश करता है. तालिबान अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के बिना अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था को ज़िंदा नहीं रख सकता है और कुछ आर्थिक गति के बिना अफ़ग़ान नागरिक देश से बाहर जाने के मौक़ों की तरफ़ देखते रहेंगे. ये डरावनी परिस्थिति है और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए चुनौती भी. इसलिए फिर से दोहराना ज़रूरी है कि अफ़ग़ानिस्तान में संकट का समाधान किए बिना 2030 तक 17 एक-दूसरे से जुड़े टिकाऊ विकास लक्ष्यों को हासिल करना बेकार की उम्मीद करने जैसा होगा.
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