Published on Sep 13, 2021 Updated 0 Hours ago

अपनी दूसरी हुकूमत में तालिबान अब ये सुनिश्चित करने में जुटे हैं कि उन्हें पैसे के लिए किसी बाहरी स्रोत का मोहताज न रहना पड़े

अफ़ग़ानिस्तान: तालिबान की जीत का अर्थशास्त्र

दुनिया भर के विद्वानों और सामरिक मामलों के विशेषज्ञों के बीच, अफ़ग़ानिस्तान के सैन्य बलों का बड़ी तेज़ी से हार जाना और तालिबान के रणनीतिक अभियान की कामयाबी ज़बरदस्त चर्चा का विषय बना हुआ है. हालांकि ज़्यादातर तर्क इस बात पर आधारित हैं कि तालिबान ने मनोवैज्ञानिक जंग लड़ी और अफ़ग़ान सरकार देश की हिफ़ाज़त करने में नाकाम रही. लेकिन, ये तर्क देने वालों की नज़र से, तालिबान की जीत से जुड़ा एक अहम पहलू छूट गया है और ये है संघर्ष का अर्थशास्त्र. सच तो ये है कि ये कहना, बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना बिल्कुल नहीं होगा कि तालिबान ने बहुत बुनियादी आर्थिक नुस्खों को आज़माकर ये जीत हासिल की है. इनमें, ‘प्रोत्साहन’, ‘सार्वजनिक हित’ और ‘मुफ़्त में सुविधाएं’ देने जैसे क़दम शामिल थे, जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान की जंग के विजेता और पराजित पक्ष तय कर दिए.

अफ़ग़ानिस्तान में मुफ़्तख़ोरी का राज

आम राय के उलट, अफ़ग़ान सुरक्षा बलों के बीच दरार की जड़ें उस दौर में खोजी जा सकती हैं, जब अमेरिका ने ‘आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध’ का एलान किया था और अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्र निर्माण की शुरुआत की थी. इस नए मिशन के तहत नैटो ने अफ़ग़ान संस्थाओं को पश्चिमी रंग-ढंग में ढालने की कोशिश की. प्रशिक्षण, हथियार, वाहन और आतंकवाद निरोध के अभियान को पश्चिमी तौर-तरीके के हिसाब से ढाला गया. हालांकि, उन्हें कोई ख़ास कामयाबी नहीं मिली. इसकी वजह ये थी कि ज़्यादातर अफ़ग़ान नागरिक ऐसी संस्थाओं और तौर-तरीक़ों से नावाक़िफ़ थे. इसका नतीजा ये हुआ कि अमेरिका को अपनी ज़्यादा से ज़्यादा सेना ज़मीन पर उतारनी पड़ी और बड़े पैमाने पर स्थानीय लोगों को भर्ती करके उन्हें प्रशिक्षित करने की नीति आज़मानी पड़ी. हालांकि इन सभी उपायों का स्वरूप अतार्किक और अकुशलता भरा रहा (सारणी 1 देखें). इसके लिए अफ़ग़ान सेना नेतृत्व, पैसे, साज़-ओ-सामान, वेतन, सैन्य अभियानों और हवाई हमले की मदद पर और भी निर्भर होती गई. इसी वजह से पिछले बीस साल में तालिबान से लड़ने और अफ़ग़ान सुरक्षा बलों को तैयार करने में, अकेले अमेरिका ने ही लगभग एक ख़रब डॉलर ख़र्च कर डाले.

एक के बाद एक आईं अफ़ग़ान सरकारें भी आर्थिक विकास को टिकाऊ बना पाने में नाकाम रहीं. इसका नतीजा ये हुआ कि अफ़ग़ानिस्तान की सरकार का 80 प्रतिशत ख़र्च अंतरराष्ट्रीय मदद से चलता था. यही हालात हम अफ़ग़ान सुरक्षा बलों के मामले में भी देखते हैं. 

इसके साथ साथ, एक के बाद एक आईं अफ़ग़ान सरकारें भी आर्थिक विकास को टिकाऊ बना पाने में नाकाम रहीं. इसका नतीजा ये हुआ कि अफ़ग़ानिस्तान की सरकार का 80 प्रतिशत ख़र्च अंतरराष्ट्रीय मदद से चलता था. यही हालात हम अफ़ग़ान सुरक्षा बलों के मामले में भी देखते हैं. अफ़ग़ान सरकार, संसाधनों और पैसों के लिए पूरी तरह पश्चिमी देशों पर निर्भर थी और देश के रक्षा बजट में उसका योगदान बस नाम मात्र का था (सारणी 1 देखें). उदाहरण के लिए, साल 2021 में भी सरकार, अफ़ग़ान सुरक्षा बलों के कुल बजट 4.3 अरब डॉलर में केवल 60 करोड़ डॉलर का योगदान दे सकी थी. ये इस बात का इशारा है कि अफ़ग़ान सरकार पश्चिम के बजट और सुरक्षा गारंटी पर मुफ़्तख़ोरी कर रही थी.

सारणी 1: अफ़ग़ानिस्तान की सैन्य शक्ति और इस पर ख़र्च

साल अमेरिकी नेतृत्व में मौजूद विदेशी सैनिक  कुल अफगान सुरक्षा बल अफगान सरकार का सैन्य व्यय (मिलियन डॉलर में) अमेरिका के नेतृत्व में मिलने वाली कुल सैन्य मदद (अरब डॉलर में)
2001 2,500 NA NA NA
2002 14,500 NA NA 0.1
2003 18,100 6,000 NA 0.5
2004 24,400 57,000 181 0.8
2005 26,700 66,000 163 1.2
2006 38,300 85,700 165 1.8
2007 49,200 125,000 254 3.7
2008 61,500 147,900 221 6.5
2009 1,01,800 195,000 249 6.0
2010 1,35,000 266,000 266 4.8
2011 1,31,300 323,400 262 8.2
2012 1,05,900 327,000 196 7.0
2013 87,100 338,100 181 7.9
2014 44,500 332,100 221 4.9
2015 13,600 318,500 177 6.9
2016 12,900 322,600 175 2.7
2017 20,400 336,000 172 3.5
2018 21,600 323,000 188 4.1
2019 16,600 272,500 226 NA

स्रोत: ब्रूकिंग्स अफ़ग़ानिस्तान सूचकांक SIPRI,USAID और OECD

सार्वजनिक हित का नज़रिया और उसमें तोड़मरोड़

लेकिन, इस मुफ़्तख़ोरी के बावजूद, पश्चिमी देश अफ़ग़ान सरकार के मुक़ाबले किसी भरोसेमंद प्रतिद्वंदी को नहीं खड़ा कर सके. इस मुफ़्तख़ोरी को अमेरिका ने तब और बढ़ावा दिया, जब उसने अफ़ग़ान सरकार के साथ मिलकर तमाम जातीय समूहों, लड़ाका सरदारों और सत्ता के दलालों के बीच शांति समझौते कराने का सिलसिला जारी रखा. इसका नतीजा ये हुआ कि अमेरिका और नैटो के सैन्य बलों से कई स्थानीय नेताओं, जंगी सरदारों, नागरिकों और सैन्य बलों को तालिबान से सुरक्षा कवच मिल गया. इसका मतलब ये हुआ कि ये सुरक्षा कवच भी मुफ़्तख़ोरी में शामिल हो गया और इससे अफ़ग़ान सरकार और जनता को अपनी सुरक्षा के लिए पश्चिम का इस्तेमाल करने से वंचित नहीं किया जा सका. इसके अलावा, चूंकि अफ़ग़ान सरकार ज़्यादातर पश्चिम से मिल रहे पैसे पर चल रही थी, तो संसाधनों का दायरा बहुत बड़ा था. इससे किसी एक की सुरक्षा पर हो रहे ख़र्च का, किसी और की सुरक्षा पर क़तई असर नहीं पड़ रहा था. न ही अफ़ग़ान सरकार के प्रतिद्वंदियों को अपने लिए सुरक्षा हासिल करने में दिक़्क़त आ रही थी. इससे हुआ ये कि अफ़ग़ानिस्तान की सुरक्षा और रक्षा का मसला सार्वजनिक हित बन गया.

लेकिन, अमेरिका के बोरिया बिस्तर समेटने के साथ ही तालिबान ने हिंसा और अधिकार पर सरकार के एकाधिकार पर सवाल उठाने शुरू कर दिए. ये बात मई 2021 से तालिबान के हमलों में आई तेज़ी से बिल्कुल साफ़ हो गई. इसी वजह से, जो अफ़ग़ान सुरक्षा बल पश्चिमी ताक़तों के भरोसे थे, उन्हें अफ़ग़ानिस्तान और उसके नागरिकों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर लेनी पड़ी. इसका नतीजा ये हुआ कि सैन्य बलों ने कुछ ख़ास इलाक़ों की हिफ़ाज़त के बजाय देश भर में सुरक्षा का मोर्चा संभालने का लक्ष्य निर्धारित किया. लेकिन, संसाधनों की कमज़ोरी के चलते अफ़ग़ान सैन्य बलों की ताक़त कमज़ोर हो गई. चूंकि वो पूरे देश में फैल गए थे, इसलिए अहम मोर्चों पर वो तालिबान के मुक़ाबले कमज़ोर साबित हुए.

अमेरिका और नैटो के सैन्य बलों से कई स्थानीय नेताओं, जंगी सरदारों, नागरिकों और सैन्य बलों को तालिबान से सुरक्षा कवच मिल गया. इसका मतलब ये हुआ कि ये सुरक्षा कवच भी मुफ़्तख़ोरी में शामिल हो गया और इससे अफ़ग़ान सरकार और जनता को अपनी सुरक्षा के लिए पश्चिम का इस्तेमाल करने से वंचित नहीं किया जा सका. 

पूरे देश में फैल जाने का नतीजा ये हुआ कि किसी एक शहर या सूबे की सुरक्षा का मतलब अन्य अफ़ग़ान नागरिकों की सुरक्षा से पल्ला झाड़ना हो गया और अब अन्य अफ़ग़ान नागरिकों की सुरक्षा ख़तरे में पड़ गई. इससे सुरक्षा का घेरा कुछ लोगों को तो उपलब्ध था और कुछ उसके दायरे से बाहर थे. इससे होड़ भी बढ़ी और अब सुरक्षा सार्वजनिक हित नहीं रह गई. इसका असर ये हुआ कि जिन नेताओं, सैनिकों, स्थानीय लोगों या नागरिकों को ये लगा कि उनके लिए सुरक्षा की व्यवस्था कम है, वो ख़ुद को और अपने परिवारों को असुरक्षित महसूस करने लगे और चिंतित हो गए. इसी दौरान, तालिबान ने भी उनसे संपर्क किया और कहा कि वो आत्मसमर्पण कर दें और सुरक्षा और सुविधाओं की गारंटी के लिए या तो सहयोग करें या फिर कम से कम सरकार का साथ छोड़ दें. सैन्य बलों की तंगी और पैसे से जुड़ी शिकायतों और राजनीतिक नेतृत्व पर उनका शक और अविश्वास होने से तालिबान की राह और आसान हो गई. इसमें मज़बूत जातीय और क़बीलाई वफ़ादारी ने भी अहम रोल निभाया.

अभियान को असरदार बनाने के लिए दिए गए प्रोत्साहन

इस तरह, जहां सरकारी सुरक्षा, सार्वजनिक हित की स्थिति कमज़ोर होने और मुफ़्त की मदद से महरूम होने से बिखर गई. वहीं दूसरी तरफ़, तालिबान ने सैन्य अभियान चलाने के लिए अपने लड़ाकों को ख़ूब लालच दिए थे. चूंकि तालिबान का मक़सद सिर्फ़ इस्लामिक अमीरात स्थापित करना ही नहीं, बल्कि उसे टिकाऊ बनाना भी था. इसके लिए तालिबान ने बाहरी देशों पर बहुत अधिक निर्भर होने से ख़ुद को बचाया और अपने लिए वित्तीय और सैन्य ख़ुदमुख़्तारी पर ज़ोर दिया. इसका नतीजा ये हुआ कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के आख़िरी वर्षों में तालिबान ने अपने राजस्व में सुधार करते हुए अपने क़ब्ज़े वाले इलाक़ों से मुनाफ़ा कमाने के नुस्खे आज़माने शुरू कर दिए थे.

इसका एक नतीजा तो ये हुआ था कि तालिबान ने खनिज संसाधनों से भरपूर इलाक़ों पर ज़ोर देना शुरू कर दिया था. खदानों से उत्पादन, उनके व्यापार और उन पर कर से तालिबान ने खनिज क्षेत्र से अपनी आमदनी 2016 में 3.5 करोड़ डॉलर से बढ़ाकर 2020 में 46.5 करोड़ डॉलर कर ली थी. इसके अलावा अफ़ीम की खेती, उत्पादन और ड्रग्स की प्रयोगशालाओं से लेकर तस्करी तक टैक्स लगाकर तालिबान 40 करोड़ डॉलर कमा रहे थे. सच तो ये है कि तालिबान ने ईंधन, बिजली, निर्माण के संसाधनों, व्यापार और सीमा चौकियों पर टैक्स वसूली के जटिल नुस्खे लागू किए हुए थे. मज़े की बात ये है कि तालिबान पश्चिमी देशों के पैसे से बनी सड़कों, स्कूलों और अस्पतालों पर भी टैक्स और प्रोटेक्शन मनी वसूल रहे थे. यही नहीं, नैटो के काम में लगे ट्रकों पर टैक्स या वसूली से भी तालिबान हर साल दस करोड़ डॉलर या इससे ज़्यादा की कमाई कर रहे थे. आमदनी बढ़ाने के ये पेचीदा तौर  तरीक़े इतने अहम साबित हुए कि 2011 में जहां तालिबान की सालाना आमदनी 40 करोड़ डॉलर थी, वहीं 2020 में ये बढ़कर 1.5 अरब डॉलर हो गई.

 तालिबान का मक़सद सिर्फ़ इस्लामिक अमीरात स्थापित करना ही नहीं, बल्कि उसे टिकाऊ बनाना भी था. इसके लिए तालिबान ने बाहरी देशों पर बहुत अधिक निर्भर होने से ख़ुद को बचाया और अपने लिए वित्तीय और सैन्य ख़ुदमुख़्तारी पर ज़ोर दिया. 

लेकिन, इन रणनीतियों पर निर्भर रहने का एक मतलब ये भी था कि जैसे जैसे पश्चिमी देश, अफ़ग़ानिस्तान को छोड़ेंगे, वैसे वैसे तालिबान की आमदनी में कमी आती जाएगी. इसके अलावा अफ़ग़ानिस्तान में ताक़तवर जंगी सरदारों और नाख़ुश विरोधियों की मौजूदगी का एक असर ये भी होना था कि अगर अफ़ग़ानिस्तान में कोई कमज़ोर सरकार बनती है, तो देर-सबेर उसे अराजकता का सामना करना पड़ेगा. मतलब ये हुआ कि अफ़ग़ान सरकार की ताक़त, संसाधन और राजस्व को लेकर तमाम भागीदारों के बीच ज़बरदस्त होड़ लगनी थी. यही वजह थी कि तालिबान ने अपने अभियान को आक्रामक बनाया और जल्द से जल्द, ज़्यादा से ज़्यादा राज्यों पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की.

इसके अलावा, अशरफ़ ग़नी की कमज़ोर सरकार भी तालिबान की आमदनी बढ़ाने का ज़रिया बन गई, जिससे तालिबान हुकूमत टिकाऊ बन सके. अपनी कमज़ोरियों और अंतरराष्ट्रीय मदद पर निर्भर रहने के बावजूद, अफ़ग़ान सरकार की आमदनी तालिबान की आमदनी के ज़रियों से कहीं अधिक थी. उदाहरण के तौर पर, जहां तालिबान को ड्रग के व्यापार से लगभग 10 करोड़ डॉलर की कमाई होती थी, वहीं अफ़ग़ान सरकार को इसी कारोबार से क़रीब तीन अरब डॉलर की आमदनी हो रही थी. इसी तरह ख़रबों डॉलर के खनिज भंडार होने के कारण सरकार खनन से क़रीब एक अरब डॉलर कमा रही थी, तो तालिबान को खनन से 50 करोड़ डॉलर से भी कम की आमदनी हो रही थी. इसी वजह से तालिबान को आमदनी बढ़ाने के काफ़ी अवसर मिल गए और वो अपने जंगी अभियान और संगठन के लिए आमदनी बढ़ाने में सफल रहे.

युद्ध के दौरान तालिबान के लड़ाकों का हौसला बढ़ाने वाली एक और अहम बात थी कि उन्हें लूट-मार करने की आज़ादी थी. तालिबान का हर मिशन कामयाब होने के बाद उसके लड़ाके हथियार, ख़ज़ाने और सैन्य तकनीकों की लूट-पाट किया करते थे. इससे एक तरफ़ तो अन्य देशों पर तालिबान की निर्भरता कम होती थी. वहीं दूसरी तरफ़, हथियार लूटने से उसके लड़ाकों का हौसला बुलंद रहता था, क्योंकि पश्तून लड़ाके अपनी क़बीलाई व्यवस्था यानी पश्तून वाली के चलते हथियार रखने को शान की बात समझते हैं. इन्हीं लालचों के चलते तालिबान के लड़ाके जंग लड़ने और विमान, हेलीकॉप्टर, ड्रोन, मशीनगन, राइफल, बख़्तरबंद गाड़ियां, सैन्य साज़-ओ-सामान और हम्वी जैसी मशहूर अमेरिकी सैनिक सामानों की लूट-पाट के लिए हमेशा तैयार रहते थे. तालिबान के सैन्य अभियान को कामयाब और असरदार बनाने वाला एक और कारण भी था. इसके लड़ाकों को घरों, सरकारी इमारतों और आम नागरिकों से लूट-पाट और मार-काट करने की पूरी आज़ादी थी. इससे तालिबान के लड़ाके पूरे हौसले के साथ जंग के मैदान में उतरते थे. इसकी बड़ी वजह ये भी थी कि तालिबान के ज़्यादातर लड़ाके ग़रीब और कमज़ोर तबक़ों से आते है.

आर्थिक लाभ, मुफ़्तख़ोरी और सार्वजनिक हित के इन्हीं नज़रियों ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत सुनिश्चित की. हालांकि मनोवैज्ञानिक युद्ध और एक बड़ी भूमिका निभा पाने में अफ़ग़ान सरकार की नाकामी ने भी अहन रोल अदा किया

आर्थिक लाभ, मुफ़्तख़ोरी और सार्वजनिक हित के इन्हीं नज़रियों ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत सुनिश्चित की. हालांकि मनोवैज्ञानिक युद्ध और एक बड़ी भूमिका निभा पाने में अफ़ग़ान सरकार की नाकामी ने भी अहन रोल अदा किया. लेकिन, तालिबान की जीत के पीछे छुपे इस तार्किक अर्थशास्त्र की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है. किसी भी सूरत में, फिर चाहे सरकारी सेनाओं का मनोबल बढ़ाना हो या तालिबान के लड़ाकों की हौसला- अफ़ज़ाई हो, एक अहम बात होती है लोगों, संस्थाओं और संगठनों द्वारा लिए जाने वाले तार्किक फ़ैसले. वो क़दम जो उनके लिए फ़ायदेमंद भी हो सकते हैं और नुक़सानदेह भी. और जहां तक अफ़ग़ानिस्तान की बात है, तो दोनों के बीच का ये फ़र्क़ बिल्कुल साफ़ दिखता है.

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