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Published on Aug 20, 2024 Updated 2 Hours ago

ट्रांसजेंडर लोगों और यौनकर्मियों पर जलवायु परिवर्तन का बुरा प्रभाव पड़ने का ज़्यादा ख़तरा होता है. ऐसे में ये ज़रूरी है कि उनके ज़ोखिम को पहचान कर उसी हिसाब से नीतियां तैयार की जाएं.

ट्रांसजेंडर और यौनकर्मियों पर जलवायु परिवर्तन के ख़तरों का विश्लेषण

जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी परिणामों के बारे में हम सब जानते हैं, लेकिन खास बात ये है कि इसका प्रभाव सभी सामाजिक समूहों पर एक जैसा नहीं पड़ता. कुछ समूहों पर इसकी मार ज़्यादा पड़ती है. जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की ताज़ा रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि पहले से ही हाशिए पर मौजूद समूहों पर जलवायु परिवर्तन के अधिक नकारात्मक प्रभाव दिख रहे हैं. इसमें लिंग, जातीयता, कम आय और अनौपचारिक बस्तियों जैसे कारकों पर आधारित समूह भी शामिल हैं.

जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी परिणामों के बारे में हम सब जानते हैं, लेकिन खास बात ये है कि इसका प्रभाव सभी सामाजिक समूहों पर एक जैसा नहीं पड़ता. कुछ समूहों पर इसकी मार ज़्यादा पड़ती है.

जैसे-जैसे अत्यधिक गर्मी और आकस्मिक बाढ़ समेत मौसम में चरम बदलाव की घटनाएं बार-बार और तेज़ होती जाती हैं, इसका बोझ उन लोगों पर ज़्यादा पड़ रहा है जो अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने और दो जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ऐसे ही दो कमज़ोर सामाजिक समूह हैं ट्रांसजेंडर समुदाय और यौन कार्य में लगी महिलाएं. इन समुदायों को जलवायु परिवर्तन से संबंधित मौसम की घटनाओं को अपनाने में अलग तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.

 

ट्रांसजेंडर और यौन कार्य में लगी महिलाओं पर क्या प्रभाव?

 

चूंकि यौन कार्य में लगी महिलाओं और ट्रांसजेंडर लोगों के पास आय का स्थिर स्रोत नहीं होता, इसलिए उन्हें ज़्यादा गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. कई ट्रांसजेंडर लोग और महिलाएं आजीविका के प्राथमिक स्रोत के रूप में भीख मांगने या यौन कार्य का सहारा लेते हैं. इनमें से कई लोग ट्रैफिक सिग्नल के पास ये काम करते हैं, जहां बुनियादी सुविधाओं तक इनकी पहुंच नहीं होती. कड़ी धूप या भारी बारिश जैसी मुश्किल परिस्थितियों में इन्हें काम करना पड़ता है.

 

हालांकि, इससे उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है. इसके बावजूद ट्रांसजेंडरों और यौनकर्मियों के पास ज़िंदा रहने के लिए इस तरह काम करना जारी रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. भारत में 68 प्रतिशत महिला यौनकर्मियों ने 'स्वेच्छा से' इस पेशे में प्रवेश किया. इसकी एक वज़ह इनकी कम घरेलू आय भी है. इसके अलावा इनमें से कई के पास रोज़गार के लिए ज़रूरी योग्यता और कौशल की कमी होती है. यही ख़राब आर्थिक स्थितियां इन समुदायों की जलवायु संबंधी झटकों से उबरने की क्षमता को कम कर देती हैं.

 

एक गंभीर चिंता की बात ये भी है कि ट्रांसजेंडर समुदाय की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच नहीं हो पाती. कुछ के साथ गोपनीयता की समस्या होती है तो इस समुदाय के कई लोग स्वास्थ्य समस्याओं (एचआईवी और अन्य यौन संचारित संक्रमण) की उच्च दर का सामना कर रहे हैं.

 

ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) के मुताबिक असम, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बिहार जैसे राज्यों में जलवायु घटनाओं में चरम बदलाव दिख सकता है. संयोग से इनमें से कुछ राज्यों, जैसे कि आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार (उत्तर प्रदेश के बाद) में भी ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की आबादी अपेक्षाकृत अधिक है. आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और महाराष्ट्र में भी यौनकर्मी ज़्यादा हैं. इनमें से कुछ एचआईवी पॉज़िटिव हो सकते हैं और कुछ हार्मोनल उपचार से गुजर रहे होंगे. अत्यधिक तापमान पर इनकी प्रतिक्रिया नकारात्मक हो सकती है. सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर भी जलवायु परिवर्तन का इन समूहों के साथ विशिष्ट अनुभव होता है. इसीलिए जलवायु परिवर्तन के लिंग आधारित विश्लेषण में वो ज़्यादा जगह पाने के पात्र हैं.

 

मौजूदा पहल

 

संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के अनुसार जलवायु परिवर्तन सबसे गरीब और सबसे कमज़ोर लोगों को सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है. इससे मौजूदा मौजूदा असमानताएं और बढ़ जाती हैं. अगर उनके जोखिम और कमज़ोरियों को कम करने के लिए लक्षित नीतियां नहीं बनाई गईं तो फिर गरीबी और असमानता की स्थिति और ज़्यादा बदतर होगी.

 

हालांकि इन समूहों की भलाई के लिए कुछ कोशिशें चल रही हैं. इसमें ट्रांस और लैंगिक रूप से विविध लोगों के स्वास्थ्य में सुधार के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों का विकास, स्वास्थ्य क्षेत्र के हस्तक्षेपों पर साक्ष्य और कार्यान्वयन के लिए मार्गदर्शन प्रदान करना शामिल है. ग्लोबल नेटवर्क ऑफ सेक्स वर्क प्रोजेक्ट्स (एनएसडब्ल्यूपी) ने खास तौर पर एचआईवी और अन्य स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बढ़ाने के लिए यौनकर्मियों के नेतृत्व वाले संगठनों द्वारा लागू किए गए प्रभावी प्रयासों की जानकारी दी है. इसमें सरकार, कानूनी एजेंसियों और स्वास्थ्य की देखभाल समेत सभी क्षेत्रों में सहयोग के महत्व पर ज़ोर दिया गया है.

 

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी), हमसफर ट्रस्ट (एचएसटी) और सेंटर फॉर सेक्सुअलिटी एंड हेल्थ रिसर्च एंड पॉलिसी (सी-एसएचएआरपी) ने ट्रांसजेंडर समुदाय के हालात सुधारने के लिए हाथ मिलाया है. इस सहयोग का उद्देश्य सामाजिक कल्याण योजनाओं और स्वास्थ्य को मजबूत करने के लिए साक्ष्य-आधारित और भागीदारी वाला ढांचा विकसित करना है. भारत और दुनिया भर में सामुदायिक आवश्यकताओं और अच्छी प्रथाओं को शामिल करके ट्रांसजेंडर लोगों के लिए कार्यक्रम बनाना है.

हालांकि हाशिए पर रहने वाले इन समूहों को कानूनी मान्यता देने की कोशिश की जा रही है. इसके बावजूद नौकरी के अवसरों, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं में इनकी हिस्सेदारी बहुत सीमित है.

हालांकि हाशिए पर रहने वाले इन समूहों को कानूनी मान्यता देने की कोशिश की जा रही है. इसके बावजूद नौकरी के अवसरों, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं में इनकी हिस्सेदारी बहुत सीमित है. इसकी वज़ह ये है कि अभी कल्याणकारी योजनाओं और सामुदायिक जुड़ाव में सरकारों की नीतियां उतनी समावेशी नहीं हैं. सपोर्ट फॉर मार्जिनलाइज़्ड इंडिविजुअल्स एंड इंटरप्राइज (SMILE) योजना का उद्देश्य ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और भीख मांगने का काम करने वालों के लिए पुनर्वास के व्यापक उपाय प्रदान करना है. हालांकि, अगर जलवायु लेंस के माध्यम से देखा जाए तो कुछ महत्वपूर्ण कारकों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है, जैसे कि लिंग-पुष्टि स्वच्छता सुविधाओं की आवश्यकता, सुरक्षित आश्रय और इस बात का परामर्श कि प्राकृतिक आपदाओं के बाद की स्थितियों का मुकाबला कैसे किया जाए.

 

ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि समावेशी विकास की कोशिश करते हुए इन समुदायों के फलने-फूलने के लिए एक सक्षम इकोसिस्टम बनाया जाए. समाज से इन समुदायों के बहिष्कार के मूल कारणों की पहचान करना, हिंसा और भेदभाव की समस्या से निपटने की प्रणालियों को मजबूत करना, इस समुदाय और सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को सशक्त बनाना, पहचान और सामाजिक स्थिति की परवाह किए बिना इनकी रोज़मर्रा की भलाई के लिए काम करने से इन्हें मदद मिलेगी.

 

आगे के लिए क्या रास्ता?

 

ट्रांसजेंडर समुदाय और यौन कार्य में लगी महिलाओं को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल ढालने में मदद करने के लिए विभिन्न हितधारकों, जैसे कि सरकार, नागरिक समाज और गैर-सरकारी संगठनों को मिलकर काम करना चाहिए और इसे प्राथमिकता देनी चाहिए.

 

समावेशी नीतियां और सामाजिक सुरक्षा ही सामाजिक सेवाओं, रोजगार के अवसरों, स्वास्थ्य और शिक्षा तक उनकी पहुंच की गारंटी दे सकती है. भारत में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 2019 ने शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे कई क्षेत्रों में ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों को स्पष्ट किया और उनके कल्याण में सुधार के उपायों की रूपरेखा तैयार की. हालांकि ज़मीनी स्तर पर इसका प्रभाव बहुत कम दिख रहा है.

 

यौन कार्य में लगी महिलाओं और ट्रांसजेंडरों की सुरक्षा के लिए जो भी नीतियां और कार्यक्रम हैं, उनमें जलवायु-संवेदनशील विशेषताओं को, खासकर पर्यावरणीय आपदाओं के मद्देनजर, एकीकृत किया जाना चाहिए. नीति निर्माताओं को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन नीतियों में इन समूहों के कल्याण पर भी विचार किया जाए.

भारत में कुछ ट्रांस क्लाइमेट एक्टिविस्ट अपने जीवन और आजीविका पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे में जागरूकता बढ़ाने की कोशिशों की अगुवाई कर रहे हैं.

जागरूकता अभियान चलाकर भी इस समुदाय की सुरक्षा और सशक्तिकरण को बढ़ाया जा सकता है. भारत में कुछ ट्रांस क्लाइमेट एक्टिविस्ट अपने जीवन और आजीविका पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे में जागरूकता बढ़ाने की कोशिशों की अगुवाई कर रहे हैं. इसी तरह ये भी ज़रूरी है कि जलवायु परिवर्तन से संबंधित आपदाओं के प्रभावों की पहचान करने के लिए राष्ट्रीय और स्थानीय आंकड़ों का संग्रह समावेशी हों. इसमें ट्रांसजेंडर्स और यौन कर्मियों को भी शामिल किया गया हो. इस समावेशिता से नीति निर्माताओं और दूसरे हितधारकों को ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए उचित उपायों और अनुकूलन योजनाओं की पहचान करने और उन्हें प्राथमिकता देने में मदद मिलेगी.

 

हाशिए पर रहने वाले दूसरे समूहों की तरह ट्रांसजेंडर लोगों और यौन कार्य में लगी महिलाएं जलवायु परिवर्तन के ख़तरों के प्रति ज़्यादा संवेदनशील होती हैं. इसलिए जलवायु परिवर्तन के उपायों को प्रभावी ढंग से आगे बढ़ाने और इन्हें जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन बनाने के लिए ये आवश्यक है कि पहले इस बात को मान जाए कि इन लोगों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का ज़ोखिम ज़्यादा होता है. ऐसे में समावेशी नीतियों, जलवायु-संवेदनशील पहलों और जलवायु-संबंधी असमानताओं को दूर करने के लिए इन समूहों के साथ सहयोगात्मक प्रयासों की आवश्यकता है.


(वंदना शर्मा द कैटालिस्ट ग्रुप के क्लाइमेट प्रैक्टिस पोर्टफोलिया में सीनियर एसोसिएट हैं)

(ऋषिका बैरोलिया ने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई से सोशल एंटरप्रेन्योरशिप में मास्टर्स डिग्री हासिल की है.)

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