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वर्ष 2000 को आमतौर पर अफ्रीका के लिए आर्थिक वापसी करने वाला वर्ष माना जाता है. 2000 से पहले, सामान्य तौर पर औपनिवेशिक अफ्रीकी आर्थिक प्रदर्शन को आर्थिक विकास और शासन की विफ़लता का दौर ही कहा जाता था. लेकिन, अफ्रीकी महाद्वीप के बारे में पश्चिमी देशों की नकारात्मक धारणाएं 2000 के दशक में धीरे-धीरे बदल गईं. अफ्रीकी देशों को लेकर पहले "द होपलेस कॉन्टिनेंट" जैसे शब्दों से जुड़ा नैरेटिव बना था, जो बाद में "अफ्रीका राइजिंग" के रूप में बदल गया. अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशनों यानी मीडिया अब तेजी से बढ़ते अफ्रीकी देशों को "लायन इकॉनॉमिक्स" के रूप में संदर्भित करने लगा था. 2000–2010 के बीच, सब-सहारा अफ्रीका प्रतिवर्ष 5 प्रतिशत से अधिक की दर से विकास कर रहा था. इसी अवधि में दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से छह अर्थव्यवस्थाएं अफ्रीकी - अंगोला, नाइजीरिया, इथियोपिया, चाड, मोजाम्बिक और रवांडा थीं.
किंतु यह एक ऐसी अवधि भी थी, जिसके दौरान महाद्वीप ने अल्पपोषण में पर्याप्त नहीं तो कुछ हद तक तो स्थिति में सुधार कर ही लिया था. जैसा कि आंकड़ों में दिखाया गया है, 2020 में कुपोषण का प्रसार 24.1 प्रतिशत से घटकर 2013 में 15.6 प्रतिशत हो गया था. लेकिन, 2013 के बाद से अफ्रीका में भुखमरी की स्थिति ख़राब हो गई. 2021 में, वैश्विक स्तर पर 828 मिलियन लोगों, या हर नौ व्यक्तियों में से एक, ने भूख का अनुभव किया. यह आंकड़ा 2019 की तुलना में 150 मिलियन व्यक्ति अधिक होता है. अफ्रीका में 278 मिलियन लोगों को स्थायी भूख का सामना करना पड़ता है. 2030 तक यह आंकड़ा बढ़कर 310.7 मिलियन होने की उम्मीद है. अफ्रीका में स्टंटेड यानी कुपोषण का शिकार होने के कारण होने वाले नाटे बच्चों की संख्या भी 2000 में 54.4 मिलियन से बढ़कर 2020 में 61.4 मिलियन हो गई है.
फिगर 1: अफ्रीका में अल्पपोषण की व्यापकता (2000-21)
2019 के बाद से, जैसा कि फिगर 1 से स्पष्ट है, अफ्रीका में भुख़मरी की स्थिति में भारी गिरावट देखी गई है. यह स्थिति मुख्यत: COVID-19 महामारी और यूक्रेन-रूस युद्ध के कारण पैदा हुई थी. महामारी के दौरान नौकरी छूटने की वज़ह से लोगों की भोजन तक पहुंच की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई थी. इसी प्रकार खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में आए व्यवधानों के कारण भोजन की कमी और अनाज समेत अन्य खाद्य वस्तुओं की कीमतों में हुई वृद्धि ने इस स्थिति को और भी बिगाड़ने का काम किया. यात्रा प्रतिबंध और सीमा सील कर दिए जाने के कारण अफ्रीका में खाद्य सहायता कार्यक्रम भी बाधित हुए थे. यूक्रेन-रूस संघर्ष भी अफ्रीका के लिए एक और झटका था, क्योंकि लगभग 20 अफ्रीकी देश अपने 90 प्रतिशत गेहूं का आयात यूक्रेन और रूस से करते हैं. इस संघर्ष के कारण 2022 में गेहूं की कीमतों में 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई. संघर्ष के एक साल बाद अब भी खाद्य कीमतें ऊंची बनी हुई हैं.
लेकिन भूख़मरी को संबोधित करने में महाद्वीप का रिकॉर्ड महामारी-पूर्व युग अथवा जब अफ्रीका की विकास दर उच्च थी, तब भी संतोषजनक नहीं था. भुख़मरी को रोकने के सहस्राब्दी विकास लक्ष्य को हासिल करने में अफ्रीका विफ़ल रहा था. इसी प्रकार महाद्वीप ने 2016 के बाद से अफ्रीका के सभी क्षेत्रों में कुपोषण में वृद्धि देखी थी. दूसरे शब्दों में, एक ओर जहां महामारी और यूक्रेन संघर्ष जैसे अल्पकालिक झटकों ने अफ्रीका की खाद्य असुरक्षा को भारी झटका दिया है, वहीं दूसरी ओर संघर्ष-प्रेरित अकाल, जलवायु परिवर्तन और कम कृषि उत्पादकता जैसी पुरानी समस्याओं की एक श्रृंखला है, जो समान रूप से ज्वलंत हैं. अफ्रीका के मामले में इन्हें लेकर महत्वपूर्ण और व्यापक नीतिगत कार्रवाइयां किए जाने की आवश्यकता है.
2016 के बाद से भुख़मरी में वृद्धि मुख्यत: दक्षिण सूडान, सोमालिया और पूर्वोत्तर नाइजीरिया में अकाल और अकाल जैसी स्थितियों के कारण देखी गई थी. संघर्ष ही इन अकालों के पीछे का मुख्य कारण था. इकोनॉमिक लिटरेचर में पहले से ही संघर्ष और अकाल के बीच की कड़ी काफ़ी अच्छी तरह से स्थापित है. वर्तमान में, तीव्र खाद्य असुरक्षा से पीड़ित 137 मिलियन अफ्रीकियों में से 80 प्रतिशत संघर्षग्रस्त देशों में रहते हैं. अफ्रीकी आबादी की कम एडेप्टिव पोटेंशियल यानी कम अनुकूली क्षमता के कारण जलवायु परिवर्तन के कारण महाद्वीप के सबसे बुरी तरह प्रभावित होने की भी संभावना है. इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) का अनुमान है कि विश्व औसत की तुलना में अफ्रीका में तापमान तेजी से बढ़ेगा, और भूमध्य रेखा के 15 डिग्री के दायरे में आने वाले देशों में लगातार गर्म रातें और गर्मी की लहरें देखी जाएगी. इसके साथ ही अफ्रीकी महाद्वीप के दुनिया का सबसे अधिक जल-तनावग्रस्त क्षेत्र बनने की संभावना है, जो इसके खाद्य उत्पादन को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करेगा.
जलवायु परिवर्तन के कारण भी अफ्रीका में कीड़ों का प्रवास बढ़ा है. केन्या, सोमालिया और इथियोपिया में टिड्डियों के हमले से 1.25 मिलियन हेक्टेयर भूमि प्रभावित हुई है. दुनिया में सबसे कम कृषि उत्पादकता अफ्रीका की है. प्रति कर्मचारी मूल्य वृद्धि, सब-सहारा अफ्रीका में (US$1,525.9) वैश्विक औसत (US$ 4,035.3) के आधे से भी कम है और यूनाइटेड किंगडम (US$ 55,829.4), जर्मनी (US$43,714.5), संयुक्त राज्य अमेरिका (US$100,061.6), और ऑस्ट्रेलिया (US$86,838.2) जैसे विकसित देशों की तुलना में 50 गुना कम है. सब-सहारा अफ्रीका में अनाज की उपज (1.6 t/ha) भी वैश्विक औसत (4.07 t/ha) और अन्य क्षेत्रों-- उत्तरी अमेरिका (7.23 t/ha), पूर्वी एशिया (6.2 t/ha), उत्तरी यूरोप (5.6 t/ha), और मध्य अमेरिका (3.5 t/ha) की उपज से काफ़ी कम है. अफ्रीका के ख़राब कृषि प्रदर्शन का पता महाद्वीप के औपनिवेशिक इतिहास से लगाया जा सकता है. इसके औपनिवेशिक आकाओं ने खाद्यान्नों के बजाय कोको और कॉफी जैसी निर्यात वस्तुओं के उत्पादन को प्राथमिकता दी थी. आजादी के बाद भी, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और प्रतिकूल अंतर्राष्ट्रीय कृषि व्यापार शर्तों के कारण अफ्रीकी सरकारें घरेलू कृषि क्षेत्र का समर्थन करने में असफ़ल साबित हुईं. हालांकि 2003 में व्यापक अफ्रीका कृषि विकास कार्यक्रम (CAADP) और एजेंडा 2063 को अपनाने के बाद खाद्य सुरक्षा एक प्राथमिकता बन गई, लेकिन अधिकांश अफ्रीकी देशों में कृषि क्षेत्र में होने वाला वास्तविक निवेश अब भी बेहद कम ही है.
वर्तमान में बढ़ते कर्ज़ के बोझ और राजस्व में कमी को देखते हुए, अधिकांश अफ्रीकी देश कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ाने में असमर्थ हैं. इसलिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को वहां अपनी कार्रवाई को गति देनी चाहिए. भारत और अफ्रीका के बीच लंबे समय से संबंध रहे हैं और भारत-अफ्रीका शिखर सम्मेलन में खाद्य सुरक्षा ही केंद्रीय विषय रहा है. वैश्विक प्रशासन के मुद्दों पर G20 के प्रभाव को देखते हुए, यह एक ऐसा सटीक मंच है, जहां से भारत अफ्रीका की खाद्य असुरक्षा को दूर करने के लिए वैश्विक स्तर पर इससे निपटने की कोशिशों को शुरू करवा सकता है. इसलिए, भारत को अफ्रीका के लिए एक विशेष G20 पैकेज की घोषणा करनी चाहिए, जिसमें भारत ही अपनी ओर से पर्याप्त योगदान दें. विशेष पैकेज को विश्व खाद्य कार्यक्रम जैसी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को समर्थन देने पर ध्यान देना चाहिए जो व्यक्तिगत अफ्रीकी देशों को मानवीय सहायता के साथ ही वित्तीय और तकनीकी सहायता भी प्रदान करते हैं. इससे उन्हें लगातार जलवायु परिवर्तन और कम उत्पादकता के प्रति अतिसंवेदनशीलता जैसी समस्याओं का समाधान करने में मदद मिल सकती है.
अफ्रीकी खाद्य सुरक्षा के लिए विशेष पैकेज की घोषणा करने से अनेक सकारात्मक बातें होगी. सबसे पहले, यह अफ्रीका के साथ भारत के संबंधों को और मज़बूत करेगा और यह G20 अध्यक्षता के दौरान भारत की 'वैश्विक दक्षिण की आवाज' होने के घोषित उद्देश्य के अनुरूप भी है. दूसरे, यह G20 प्रक्रिया में अफ्रीकी ज़रूरतों और आकांक्षाओं को मुख्यधारा में लाने में सहायक साबित होगा. तीसरा, यह SDG 2 (सभी रूपों में भुख़मरी का अंत) की उपलब्धि में महत्वपूर्ण योगदान देगा, क्योंकि अफ्रीका की खाद्य सुरक्षा चिंताओं को दूर किए बिना SDG 2 को प्राप्त करना संभव नहीं है.
मलंचा चक्रवर्ती, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो और डिप्टी डायरेक्टर (रिसर्च) हैं.
शोभा सूरी, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में हेल्थ इनिशिएटिव की सीनियर फेलो हैं.
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Dr Malancha Chakrabarty is Senior Fellow and Deputy Director (Research) at the Observer Research Foundation where she coordinates the research centre Centre for New Economic ...
Read More +Dr. Shoba Suri is a Senior Fellow with ORFs Health Initiative. Shoba is a nutritionist with experience in community and clinical research. She has worked on nutrition, ...
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