यह लेख कंप्रिहेंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया एंड दि वर्ल्ड श्रृंखला का हिस्सा है.
हाल ही में आयोजित हुई G20 समिट के पश्चात, जो G20 नई दिल्ली लीडर्स डिक्लेरेशन जारी किया गया था, उसको लेकर भारत में और भारत के बाहर मौज़ूद जलवायु परिवर्तन से संबंधित तमाम संस्थान बेहद निराश हैं. उनमें यह निराशा इसलिए है, क्योंकि इस महत्वपूर्ण घोषणा में वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने के लिए कुछ ठोस क़दम उठाने के बजाए अस्पष्ट और ढुलमुल बातें कही गई हैं. उदाहरण के तौर पर इस डिक्लेरेशन में कहा गया है कि राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुरूप बिजली के उत्पादन में कोयले के इस्तेमाल में चरबद्ध तरीक़े से कमी लाई जाएगी. ज़ाहिर है कि इसके हर शब्द में झोल है, यानी इसमें कुछ भी स्पष्ट नहीं है. विडंबना तो यह है कि चार दशक पहले जब जलवायु परिवर्तन के स्थान पर कच्चे तेल की आपूर्ति और उसकी क़ीमतें सबसे बड़ी चिंता का मुद्दा थीं, तब ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कोयले (और न्यूक्लियर एनर्जी) का उपयोग तीसरी दुनिया के देशों के लिए आदर्श विकल्प के रूप में पेश किया गया था. दरअसल, इसका मकसद तीसरी दुनिया के देशों में क्रूड ऑयल की खपत को कम से कम करना था, ताकि औद्योगिक रूप से संपन्न देशों के लिए बहुतायत में किफायती कच्चे तेल की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके. दशकों पहले जो यह क़दम उठाए गए थे, वे न सिर्फ़ अप्रत्याशित थे, बल्कि स्वार्थ से भी प्रेरित थे. इन्हीं क़दमों के दुष्परिणाम आज तीसरी दुनिया के देशों में अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन के रूप में सामने आ रहे हैं. वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए की गई ताज़ा रिसर्च में यह सामने आया है कि IPCC (जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल) के गणितीय रूप से प्रतिरूपित परिदृश्यों ने, जो कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य प्राप्त करने को प्रोत्साहित करते हैं, कहीं न कहीं भविष्य में विकसित देशों (जिसे अब ग्लोबल नॉर्थ कहा जाता है) के ऊर्जा एवं उत्सर्जन से जुड़े फायदों को बरक़रार रखने के लिए ऊर्जा के उपभोग और विकास के क्षेत्र में व्याप्त मौज़ूदा असमानताओं को फ्रीज़ कर दिया है.
विरोधाभासी संबंध
1980 के दशक के शुरुआती दौर में भविष्य की ऊर्जा ज़रूरतों से जुड़ी कई रिपोर्ट्स सामने आई थीं. इनमें उस दौर में हुए महत्वपूर्ण वैश्विक सम्मेलनों, जैसे कि वर्कशॉप ऑन अल्टरनेटिव एनर्जी स्ट्रैटेजी और इस्तांबुल वर्ल्ड एनर्जी कॉन्फ्रेंस में हुई चर्चा-परिचर्चाओं के हवाले से बनाई गई रिपोर्ट्स शामिल थीं. साथ ही इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एप्लाइड सिस्टम एनालिसिस (IIASA) की व्यापक एवं विस्तृत ‘एनर्जी इन ए फाइनाइट वर्ल्ड‘ (Energy in a Finite World) नाम की रिपोर्ट भी शामिल थी, जिसे 250 से अधिक वैज्ञानिकों ने तैयार किया था. इन रिपोर्ट्स में यह निष्कर्ष निकाला गया था कि 21वीं सदी में सबसे बड़ा घटनाक्रम तीसरी दुनिया के देशों की ऊर्जा ज़रूरतों में बेतहाशा बढ़ोतरी होगी.
कहा जाए तो भविष्य में ऊर्जा की खपत में वृद्धि पहले से ही निर्धारित थी और इसके लिए जो एकमात्र संभावित विकल्प बचा है, वो कोयला-परमाणु रणनीति है, जिसे हर हाल में सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया जाना चाहिए.
ज़ाहिर है कि 1980 के दशक में पश्चिमी यूरोपीय या उत्तरी अमेरिकी देशों में जितनी ऊर्जा की खपत होती थी, वर्ष 2000 तक तीसरी दुनिया के देशों में भी उसी के बराबर ऊर्जा की खपत होने की संभावना थी. देखा जाए तो तीसरी दुनिया की ऊर्जा आवश्यकताओं में बढ़ोतरी का जो दुष्चक्र है, उसी की वजह से पेट्रोलियम मार्केट की डिमांड में वृद्धि होती है और जिसके चलते तेल की क़ीमतों में उछाल आता है. नतीज़तन वैश्विक अर्थव्यवस्था डांवाडोल होने लगती है और इससे तेल आयात करने वाले तीसरी दुनिया के विकास में रुकावट पैदा हो जाती है. वैश्विक स्तर पर ऊर्जा की अत्यधिक खपत से पैदा होने वाले इन भयावह हालात ने वर्ष 2000 तक ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि तीसरी दुनिया के देश परमाणु कार्यक्रमों को संचालित करने एवं कोयले के अधिक से अधिक दोहन के विकल्पों की ओर मुड़ने लगे. आगे के वर्षों में जब तीसरी दुनिया के देशों ने यह सब कुछ कर लिया, तब तीसरी दुनिया के देशों, जिनमें OPEC (पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन) भी शामिल थे, के ऊर्जा के नेट इम्पोर्टर और OECD (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) देशों के नेट एनर्जी एक्सपोर्टर होने की उम्मीद थी. ऊर्जा का यह उल्टा प्रवाह बुनियादी तौर पर कोयले के दोहन पर आधारित था. जितने कोयला भंडारों के बारे में जानकारी उपलब्ध थी, उनमें से 78 प्रतिशत कोल रिज़र्व पश्चिमी देशों में थे और केवल 3 प्रतिशत कोयला भंडार ही तीसरी दुनिया के देशों में (चीन शामिल नहीं) मौज़ूद थे.
कुल मिलाकर कहा जाए तो भविष्य में ऊर्जा की खपत में वृद्धि पहले से ही निर्धारित थी और इसके लिए जो एकमात्र संभावित विकल्प बचा है, वो कोयला-परमाणु रणनीति है, जिसे हर हाल में सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया जाना चाहिए. इसके प्रस्तावों में औद्योगिक रूप से संपन्न देशों में अमल में लाए गए विकल्पों के मैकेनिकल स्थानांतरण का आह्वान किया गया, यानी कि पारंपरिक ऊर्जा की मांग में कमी लाना और कॉमर्शियल ऊर्जा के उपयोग की शुरुआत के साथ ही बिजली के लिए बड़े-बड़े ग्रिडों की स्थापना को प्रथामिकता देना. इस दृष्टिकोण में कई ऐसे ज़रूरी पहलुओं की अनदेखी की गई थी, जो कि तीसरी दुनिया के भविष्य के अनुमानों के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण थे, जैसे कि (1) एनर्जी सर्विस की ख़ास ज़रूरतों और थर्ड वर्ल्ड के ऊर्जा एवं विकास से जुड़े विशेष मार्गों के बीच संबंधों की अनदेखी. (2) दूसरा पहलू जिसको नज़रंदाज किया गया, वो यह था कि एनर्जी को एक सजातीय उत्पाद (homogeneous product) के रूप में लिया गया, जिसकी मांग तकनीक़ी लचीलेपन गुणांक की वजह से आर्थिक वृद्धि से जुड़ी हुई थी. (3) जिस तीसरे पहलू की अनदेखी की गई, वो यह था कि ईंधन के रूप में तेल की अस्थिरता और दूसरे ईंधनों की तुलना में इसकी प्रतिस्पर्धात्मकता. उल्लेखनीय है कि पश्चिमी देश तीसरी दुनिया के देशों के पारंपरिक सेक्टरों को तकनीक़ी वास्तविकता के तौर पर देखते हैं, जो वाणिज्यिक ऊर्जा स्रोतों के आने के बाद धीरे-धीरे विलुप्त हो जाएगी. पश्चिमी देशों ने ऊर्जा की मांग का अनुमान सिंथेटिक यूनिट्स (Tonnes of oil equivalent [toe], megawatts [MW]) में लगाया. इसने न केवल वास्तविक ऊर्जा ज़रूरतों को छिपाने का काम किया, बल्कि एनर्जी प्रोफाइल यानी प्रतिक्रिया बढ़ने पर सिस्टम की ऊर्जा किस प्रकार बदलती है, को व्यवस्थित करने की संभावनाओं को भी सीमित कर दिया.
असमानताओं को दूर करना
इन ग़लत धारणाओं के मद्देनज़र, इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं है कि ग्लोबल साउथ (पहले तीसरी दुनिया के रूप में जाना जाता था) का जो भी एनर्जी लैंडस्केप है, वो ग्लोबल नॉर्थ (इसे पहले विकसित/औद्योगिक रूप से संपन्न देशों के तौर पर जाना जाता था) द्वारा अपेक्षित था. OPEC राष्ट्र हमेशा की तरह महत्वपूर्ण ऊर्जा एवं भू-राजनीतिक प्रभाव के साथ नेट एनर्जी निर्यातक बने हुए हैं. जबकि दूसरी ओर, गैर-ओपेक ग्लोबल साउथ के देश अपनी परिवहन ज़रूरतों के लिए लगातार आयातित तेल पर निर्भर हो रहे हैं. इतना ही नहीं, ग्लोबल साउथ का, ख़ास तौर पर अफ्रीका और दक्षिण एशिया के देशों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा, अपनी ज़्यादातर ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए गैर-व्यावसायिक ईंधन यानी कि प्राकृतिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर रहता है. ऐसा कहा जाता है कि 2000 के दशक में ग्लोबल साउथ के देशों, ख़ासकर भारत और चीन की ओर से तेल की बढ़ती मांग ने वैश्विक स्तर पर तेल की क़ीमतों को बढ़ाने में कहीं न कहीं योगदान दिया था. लेकिन तेल की इस बढ़ती मांग से न तो ग्लोबल साउथ की प्रगति में रुकावट आई और न ही दुनिया में तेल की कमी हुई. गैर-वाणिज्यिक ऊर्जा स्रोतों को कोयले या परमाणु-संचालित बिजली द्वारा प्रतिस्थापित नहीं किया गया, बल्कि केरोसिन और LPG (liquified petroleum gas) जैसे पेट्रोलियम-आधारित उत्पादों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया, ज़ाहिर है कि ये रोशनी और हीटिंग की त्वरित एवं कम समय की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ज़्यादा मुनासिब हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि आज भी ग्लोबल साउथ में 3 बिलियन से अधिक लोगों के पास सामान्य जीवन जीने के लिए और रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा उपलब्ध नहीं है. दुनिया की 38 प्रतिशत आबादी की प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ऊर्जा उपलब्धता 10 गीगाजूल्स (GJ) से भी कम है, ज़ाहिर है कि यह ऊर्जा से जुड़ी बुनियादी मानवीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बेहद कम है.
सच्चाई यह है कि आज भी ग्लोबल साउथ में 3 बिलियन से अधिक लोगों के पास सामान्य जीवन जीने के लिए और रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा उपलब्ध नहीं है. दुनिया की 38 प्रतिशत आबादी की प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ऊर्जा उपलब्धता 10 गीगाजूल्स (GJ) से भी कम है
IPCC अर्थात जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल के ताज़ा कम्प्यूटेशनल मॉडल्स (computational models) के मुताबिक़ इस सदी के आख़िरी तक भी ग्लोबल नॉर्थ की प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपलब्धता ग्लोबल साउथ की तुलना में 2.3 गुना ज़्यादा रहेगी. IPCC मॉडल्स का अनुमान है कि वर्ष 2100 में ग्लोबल नॉर्थ द्वारा प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 119 गीगाजूल्स ऊर्जा की खपत की जाएगी, जबकि ग्लोबल साउथ द्वारा प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष औसतन 52 गीगाजूल्स ऊर्जा का उपभोग किया जाएगा. IPCC के अनुमानों के मुताबिक़ शेष सदी के लिए अफ्रीकी देशों की प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष ऊर्जा खपत 30 GJ से भी कम रहेगी.
IPCC के मॉडल्स भविष्य में प्रति व्यक्ति GDP (सकल घरेलू उत्पाद) में ज़बरदस्त विषमता को भी रोकते हैं. वर्ष 2050 में पूरे विश्व में प्रति व्यक्ति GDP अधिकतम 9,000 से 28,000 अमेरिकी डॉलर तक रहने का अनुमान है, जबकि दक्षिण एशिया और सब-सहारन अफ्रीका के मामले में यह इससे भी नीचे लगभग क्रमश: 9,000 एवं 8,000 अमेरिकी डॉलर तक रहने का अनुमान है. ग्लोबल नॉर्थ के अत्यधिक ऊर्जा उपयोग का पेरिस एग्रीमेंट के लक्ष्यों के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए भविष्य के जो भी परिदृश्य हैं, उनमें से अधिकतर बायो-एनर्जी पर आधारित नकारात्मक उत्सर्जन प्रौद्योगिकियों पर अधिक निर्भर हैं. देखा जाए तो यह ग्लोबल नॉर्थ के ऊर्जा पर विशेषाधिकार या ऊर्जा तक उसकी पहुंच को बरक़रार रखने और उसे आगे बढ़ाने का प्रयास है और इसके लिए ग्लोबल साउथ में भारत के क्षेत्रफल से तीन गुना अधिक उपयुक्त भूमि का इस्तेमाल करने की ज़रूरत होगी.
कहने का तात्पर्य यह है कि वैश्विक ऊर्जा के उपयोग को एक ऐसे स्तर पर लेकर आना चाहिए, जो कि न केवल हर व्यक्ति के जीवन में बुनियादी ज़रूरतों एवं सुविधाओं को प्रदान करने वाला हो, बल्कि कार्बन उत्सर्जन को भी नियंत्रित करने वाला हो.
बाक़ी सदी में ऊर्जा को लेकर व्यापक विषमताओं को दूर किए बिना जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का सामना नहीं किया जा सकता है. इसके लिए सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि ऊर्जा के समान वितरण और उपयोग के लिए तेज़ी के साथ परिवर्तन किया जाना चाहिए. यानी कि ग्लोबल नॉर्थ द्वारा एनर्जी के कम उपयोग को सुनिश्चित किया जाए, ताकि कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाई जा सके, साथ ही ग्लोबल साउथ में विकास के लिए पर्याप्त ऊर्जा की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए. अगर ऊर्जा से संबंधित तमाम असमानताएं दूर करने को गंभीरता से लिया जाता है, जिसे लिया भी जाना चाहिए, तो इसके लिए ग्लोबल नॉर्थ के देशों को अतिरिक्त उत्पादन एवं उपभोग को कम करना होगा, ताकि कम कार्बन उत्सर्जन वाली दुनिया का निर्माण संभव हो सके. कहने का तात्पर्य यह है कि वैश्विक ऊर्जा के उपयोग को एक ऐसे स्तर पर लेकर आना चाहिए, जो कि न केवल हर व्यक्ति के जीवन में बुनियादी ज़रूरतों एवं सुविधाओं को प्रदान करने वाला हो, बल्कि कार्बन उत्सर्जन को भी नियंत्रित करने वाला हो.
स्रोत: जलवायु असमानता रिपोर्ट 2023
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.