Author : Kabir Taneja

Published on Nov 25, 2020 Updated 0 Hours ago

पश्चिम एशिया में F-35 की गाथा कुछ हद तक दिखाती है कि इस इलाक़े के देशों के साथ अमेरिका का बर्ताव कैसा होने वाला है.

अब्राहम का F-35 जहाज़: एक लड़ाकू विमान के इर्द-गिर्द घूमती पश्चिम एशिया की नई शांति और राजनीति

16 सितंबर 2020 को वॉशिंगटन डीसी में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मौजूदगी में इज़रायल, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और बहरीन के बीच हुई अब्राहम संधि को लेकर कई कहानियां और सामरिक जोड़-तोड़ चल रही है. वर्षों की गुप्त और पिछले दरवाज़े की कूटनीति के बाद ये संधि अबू धाबी और यरुशलम के बीच राजनयिक संबंधों को आधिकारिक रूप से सार्वजनिक मुख्यधारा में लेकर आई है.

वैसे तो अब्राहम संधि खाड़ी में एक बड़ी राजनीतिक और कूटनीतिक दरार को सरल बनाती है लेकिन ये समझौता न सिर्फ़ क्षेत्रीय राजनीति बल्कि विरोधियों के ख़िलाफ़ महत्वपूर्ण सैन्य बढ़त बरकरार रखने में इज़रायल के नाज़ुक बुनियादी ढांचे के लिए भी चुनौती बनकर आया है, क्योंकि समझौते में शामिल होने के बावजूद UAE अभी भी इज़रायल का विरोधी है.

अब्राहम संधि खाड़ी में एक बड़ी राजनीतिक और कूटनीतिक दरार को सरल बनाती है लेकिन ये समझौता न सिर्फ़ क्षेत्रीय राजनीति बल्कि विरोधियों के ख़िलाफ़ महत्वपूर्ण सैन्य बढ़त बरकरार रखने में इज़रायल के नाज़ुक बुनियादी ढांचे के लिए भी चुनौती बनकर आया है

16 सितंबर के तत्काल बाद जैसे ही ट्रंप ने घोषणा की, कि दूसरे देश भी इज़रायल के साथ संबंधों को सामान्य बनाने के लिए तैयार थे, अमेरिका का प्रमुख स्टेल्थ फाइटर वेपन सिस्टम, लॉकहीड मार्टिन का F-35 ‘लाइटनिंग II’, जो कि दिसंबर 2016 में इज़रायल को सौंपा गया था और सीरिया में लक्ष्यों पर निशाना साधकर जो पहले ही युद्ध को देख चुका है, इज़रायल-UAE राजनीति का केंद्र बन गया.

इज़रायल और अमेरिका के बीच सहमति के मुताबिक़ अमेरिका को ये सुनिश्चित करना है कि पश्चिम एशिया में उसके दुश्मनों और सहयोगियों के मुक़ाबले इज़रायल ख़ास सैन्य बढ़त (QME) बरकरार रखे. ये बढ़त इज़रायल के वजूद के लिए ज़रूरी है. उसे किसी और देश के मुक़ाबले काफ़ी बड़े बढ़त के साथ ज़्यादा आधुनिक मारक क्षमता रखनी होगी. लेकिन संधि पर हस्ताक्षर होने के फ़ौरन बाद UAE ने सार्वजनिक तौर पर अपनी वायुसेना के लिए F-35 हासिल करने के लिए ज़ोर लगाने के एजेंडे को ज़ाहिर कर दिया. इसकी वजह से हवा में इज़रायल के प्रभुत्व को सीधी चुनौती मिल गई और ये UAE की तरफ़ से लेन-देन की कूटनीति और व्यापार का पहला उदाहरण बन गया जिसके लिए ट्रंप का कार्यकाल कुख्य़ात बन गया था.

क्षेत्रीय शांति प्रक्रिया और ‘तीसरे’ खिलाड़ी की एंट्री

जहां UEA के लिए F-35 की ज़रूरत ने क्षेत्रीय शांति प्रक्रिया को ख़तरा उत्पन्न कर दिया वहीं इस गाथा में एक ‘तीसरा खिलाड़ी’ भी खेल कर रहा था. ये था इज़रायल के साथ सामान्य संबंध बनाने के लिए सूडान का तैयार होना. लेकिन यहां भी लेन-देन की कूटनीति काम कर रही थी क्योंकि दुनिया के ग़रीब देशों में से एक सूडान 1998 में कीनिया और तंज़ानिया में अमेरिकी दूतावासों पर बम हमले में अल क़ायदा को मदद देने की कथित भूमिका के लिए 335 मिलियन अमेरिकी डॉलर का मुआवज़ा देने के लिए तैयार हो गया .

सूडान में कुछ हद तक सुधार आया है, उसने अपने देश में चरमपंथ के ख़िलाफ़ कार्रवाई की है. लेकिन वो अभी भी कुछ इस्लामिक तत्वों को मदद मुहैया कराता है. वास्तव में अदालती दस्तावेज़ों के मुताबिक़ ISIS समर्थक कुछ भारतीय सूडान के रास्ते ही सीरिया और इराक़ पहुंचे थे

उस वक़्त से सूडान में कुछ हद तक सुधार आया है, उसने अपने देश में चरमपंथ के ख़िलाफ़ कार्रवाई की है. लेकिन वो अभी भी कुछ इस्लामिक तत्वों को मदद मुहैया कराता है. वास्तव में अदालती दस्तावेज़ों के मुताबिक़ ISIS समर्थक कुछ भारतीय सूडान के रास्ते ही सीरिया और इराक़ पहुंचे थे, क्योंकि इस्लामिक चरमपंथी जिन रास्तों का इस्तेमाल करते हैं वो अभी भी वहां चालू हैं.

इन सभी घटनाक्रमों के बीच इज़रायल ने बयान दिया है कि वो UAE को अमेरिका की तरफ़ से F-35 बेचने के फ़ैसले का विरोध नहीं करेगा. इस घोषणा ने कई को हैरान कर दिया क्योंकि इज़रायल को दिए गए सैन्य बढ़त के वादे को लेकर इज़रायल और अमेरिका के बीच कई दौर की बातचीत का ज़िक्र होने लगा. जहां कुछ ने अटकलें लगाई कि सूडान का सामान्यीकरण समझौता लेन-देन है, लेकिन ये बेहद असंभव है कि इज़रायल के साथ सूडान का सामान्य संबंध करना इतना बड़ा समझौता है कि UAE अमेरिका से वही महत्वपूर्ण तकनीक हासिल कर ले जैसा इज़रायल ने हासिल किया है.

इससे भी बढ़कर सूडान समझौता उतना सरल नहीं है जितना वो दिखता है. सूडान ने आतंक के प्रायोजक देश की अमेरिकी सूची से ख़ुद हो हटाने के लिए पैसे का लेन-देन किया है लेकिन उसने अभी तक इज़रायल में अपने दूतावास को खोलने का वादा नहीं किया है. सूडान ने कहा है कि संबंधों को सामान्य करना देश के विधानपरिषद की मंज़ूरी पर निर्भर करता है जो पिछले दो साल से बनी नहीं है. आतंक के प्रायोजक देश की सूची से हटने के लिए पैसे का लेन-देन सूडान के प्रधानमंत्री अब्दुल्ला हमदोक के लिए काफ़ी कम जोख़िम भरा था. उन्होंने समझौते के लिए ट्विटर पर राष्ट्रपति ट्रंप की तारीफ़ों की बौछार कर दी. ये ऐसा तरीक़ा है जिसे दुनिया के ज़्यादातर नेताओं ने ट्रंप से व्यवहार के वक़्त नियम मान लिया है.

जल्दबाज़ी में किया गया समझौता

हमदोक ने पैसे के लेन-देन का समझौता जल्दबाज़ी में किया क्योंकि उन्होंने ये सोचा कि अगर ट्रंप चुनाव हार जाएंगे तो ऐसा समझौता नहीं हो पाएगा. अगर जो बाइडेन इस समझौते को रद्द भी करते हैं तो UAE, इज़रायल और बहरीन सूडान के मामले की पैरवी करेंगे ताकि वो अमेरिकी आतंक की सूची से बाहर रहे. सूडान, इज़रायल, UAE और बहरीन- सभी देशों ने चाहा कि ट्रंप को एक और कार्यकाल मिल जाए.

अगर जो बाइडेन इस समझौते को रद्द भी करते हैं तो UAE, इज़रायल और बहरीन सूडान के मामले की पैरवी करेंगे ताकि वो अमेरिकी आतंक की सूची से बाहर रहे. सूडान, इज़रायल, UAE और बहरीन- सभी देशों ने चाहा कि ट्रंप को एक और कार्यकाल मिल जाए.

इस तरह उन्होंने ट्रंप के उस बयान पर भी मुहर लगाई जिसके मुताबिक़ 9 देश इज़रायल के साथ संबंधों को सामान्य करना चाहते हैं. इन क़दमों का अमेरिका के चुनाव पर कोई असर पड़ा हो या न पड़ा हो लेकिन इससे विदेशी मामलों में ट्रंप की बातों को वज़न मिला जिसका इस्तेमाल पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान ट्रंप ने अपनी रैलियों में नियमित तौर पर किया.

लेकिन F-35 गाथा इज़रायल द्वारा ये स्वीकार करने से ख़त्म नहीं होती कि UAE इसे ख़रीद सकता है. ये सब होने के बाद पिछले कुछ हफ़्तों के भीतर पश्चिम एशिया में अमेरिका के सबसे बड़े सैन्य अड्डे वाले देश क़तर ने भी ख़बरों के मुताबिक़ F-35 ख़रीदने के लिए औपचारिक अनुरोध किया है. ये इस मुद्दे को और जटिल बनाता है. UAE और सऊदी अरब के साथ क़तर के मौजूदा संकट ने इस छोटे लेकिन अमीर खाड़ी देश को तुर्की और ईरान के क़रीब ला खड़ा किया है. ट्रंप प्रशासन के लिए ईरान सबसे बड़ा ख़तरा है और इज़रायल, UAE और सऊदी अरब के लिए भी ईरान ख़तरा है. वहीं सीरिया और पश्चिम एशिया के विस्तृत क्षेत्र में हाल के दिनों में तुर्की के आक्रामक रुख़ ने तुर्की को भी उसी श्रेणी में ला खड़ा किया है. ईरान और तुर्की के बीच खाड़ी के देशों को इस बात का भी डर है कि व्हाइट हाउस में बाइडेन के आने से ईरान के साथ परमाणु समझौते की वापसी हो जाएगी जिससे ट्रंप 2018 में अलग हो गए थे.

हालांकि ख़बरों के मुताबिक़ क़तर ने F-35 की मांग की है लेकिन इज़रायल के सभी पक्ष लड़ाकू विमान और तकनीक बेचने को लेकर अमेरिका के संयम को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. इज़रायल के ऊर्जा मंत्री और कैबिनेट सदस्य युवाल स्टेनिज़ को हाल में ये कहते हुए उद्धृत किया गया कि, “मुझे कोई शक नहीं है कि अगर वो (क़तर) चाहते हैं और इसके लिए भुगतान करने को तैयार हैं तो अभी या बाद में उन्हें वो मिल जाएगा.” इज़रायल के वरिष्ठ नेताओं के बीच इस सोच का होना हैरान करने वाला है और अमेरिका के साथ संबंधों में इज़रायल पहले जिस अद्वितीयता का स्तर महसूस करता था, उससे काफ़ी हटकर है.

हथियारबंद ड्रोन के लिए चीन का रुख़

कम-से-कम इन चिंताओं में से कुछ उस तथ्य से आते हैं जिसके तहत अतीत में UAE जैसे देशों ने अमेरिका के मना करने के बाद हथियारबंद ड्रोन ख़रीदने के लिए चीन की तरफ़ देखा. अमेरिकी विश्लेषकों ने इस बात को उजागर किया है कि UAE को F-35 बेचना इस अत्याधुनिक तकनीक को चीन के क़रीब तक भी पहुंचा सकता है, क्योंकि चीन ऐसे देश के रूप में जाना जाता है जो व्यापार और उद्योग की गुप्त जानकारियां चुराकर पश्चिम तकनीकों की नक़ल करता है.

अमेरिकी विश्लेषकों ने इस बात को उजागर किया है कि UAE को F-35 बेचना इस अत्याधुनिक तकनीक को चीन के क़रीब तक भी पहुंचा सकता है, क्योंकि चीन ऐसे देश के रूप में जाना जाता है जो व्यापार और उद्योग की गुप्त जानकारियां चुराकर पश्चिम तकनीकों की नक़ल करता है. 

चीन का विंग लूंग ड्रोन, जिसे ख़बरों के मुताबिक़ UAE ने 2016 में हासिल किया, आख़िरकार अमेरिका के MQ-9 ‘रीपर’ ड्रोन की नक़ल है जिसे अमेरिका ने पूर्व में UAE को बेचने से मना कर दिया था. स्टेनिज़ ने जोड़ा कि, अमेरिकी प्रशासन आख़िरकार “अपने हितों को देखता है” और वो हित आजकल शांति व्यवस्था होने में है. लेकिन चिंता तब भी बनी हुई है कि अगर UAE अंतत: चीन या रूस के उपकरण ख़रीद लेता है तो वो F-35 नहीं मिलने पर रूस या चीन से स्टेल्थ लड़ाकू विमान क्यों नहीं ख़रीदेगा ? इस दलील को आगे क़तर पर भी लागू किया जा सकता है.

पश्चिम एशिया में F-35 की गाथा कुछ हद तक दिखाती है कि इस इलाक़े के देशों के साथ अमेरिका का बर्ताव कैसा होने वाला है. हितों को फिर से परिभाषित किया जाएगा और अमेरिका इस क्षेत्र में अपने सुरक्षा आवरण की तरफ़ किस तरह देखता है, उस पर बारीक नज़र बनी रहेगी, चाहे वो राष्ट्रपति के तौर पर ट्रंप का दूसरा कार्यकाल हो या बाइडेन का पहला कार्यकाल हो. ये विचार कि अमेरिका अपने सहयोगियों की मदद करता है लेकिन सहयोगियों को अपनी क्षेत्रीय सुरक्षा का ख़ुद ख्याल रखना होगा, अगले कुछ वर्षों में और मज़बूत होगा. इसकी वजह से पश्चिम एशिया की सत्ता के केंद्रों के बीच कूटनीति, रणनीति और सामरिक नीति के अभ्यास में बड़ा बदलाव आएगा.

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