विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, स्वच्छ ईंधन और तकनीक उन्हें माना जाता है जो डब्ल्यूएचओ के वैश्विक वायु गुणवत्ता दिशानिर्देशों (2021) में बताए गए सूक्ष्म कण पदार्थ (पीएम 2.5) और कार्बन मोनोऑक्साइड (सीओ) के निर्धारित स्तर में होते हैं. ईंधन और तकनीकी संमिश्रण को स्वच्छ वर्ग में तब रखा जाता है जब या तो वह पीएम 2.5 के लिए वायु गुणवत्ता दिशानिर्देश स्तर के वार्षिक औसत (AQG, 5 µg/m 3 [माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर]) या फिर अंतरिम लक्ष्य- स्तर एक (IT1, 35 µg/m 3) हासिल कर लेते हैं; और या फिर सीओ के लिए 24 घंटे का औसत वायु गुणवत्ता दिशानिर्देश स्तर (AQG, 4 mg/m3) अथवा अंतरिम लक्ष्य- स्तर एक (IT-1, 7 mg/m 3) पा लेते हैं. इस परिभाषा के तहत डब्ल्यूएचओ सौर, विद्युत, जैव गैस, प्राकृतिक गैस, तरलीकृत पैट्रोलियम गैस (एलपीजी) और अल्कोहल ईंधनों, जिनमें इथेनॉल शामिल है, को पीएम और सीओ के घरेलू उत्सर्जन के हिसाब से खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन के रूप में वर्गीकृत करता है.
सतत विकास लक्ष्य 7 (एसडीजी 7, खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच के बेहतर होने) पर नज़र रखने वाली रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021 में विश्व की 71 फ़ीसदी आबादी की खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन और तकनीकों तक पहुंच थी. इसका अर्थ यह हुआ कि लगभग 2.3 बिलियन अब भी (2021 में) अपना खाना पकाने के लिए ज़्यादातर प्रदूषण करने वाले ईंधन और तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं. यहां तक कि 2030 तक, जो एसडीजी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए लक्ष्य वर्ष है, विश्व की सिर्फ़ 77 फ़ीसदी आबादी के खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच होने की उम्मीद है, इसके चलते 1.9 बिलियन लोग ठोस ईंधन (जैव ईंधन, लकड़ी, लकड़ी का कोयला, फ़सलों और पशु अपशिष्ट- गोबर) और मिट्टी के तेल के भरोसे रहेंगे.
इसमें अचरज की कोई बात नहीं है कि जिन लोगों के पास खाना पकाने के आधुनिक ईंधन तक पहुंच नहीं है, उनमें से ज़्यादातर अफ़्रीका और एशिया में दुनिया के गरीब और विकासशील देशों में हैं.
इसमें अचरज की कोई बात नहीं है कि जिन लोगों के पास खाना पकाने के आधुनिक ईंधन तक पहुंच नहीं है, उनमें से ज़्यादातर अफ़्रीका और एशिया में दुनिया के गरीब और विकासशील देशों में हैं. यद्यपि एशिया के देशों, विशेष रूप से भारत में, साल 2000 से खाना पकाने के ईंधन तक पहुंच में काफ़ी सुधार हुआ है लेकिन अफ़्रीका में खाना पकाने के ईंधन तक पहुंच के मामले में ठहराव की स्थिति है या इससे वंचित लोगों की संख्या बढ़ ही रही है. एशिया और ख़ास तौर पर भारत में खाना पकाने के आधुनिक ईंधन तक पहुंच में सुधार के पीछे मुख्य वजह सब्सिडी वाले गैसीय ईंधन, ख़़ास तौर पर एलपीजी तक पहुंच का बढ़ना है.
नज़र आने वाला प्रभाव
परिवार की सपंत्ति और सामाजिक-आर्थिक स्थिति (मुख्य रूप से उच्च शिक्षा) खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच और इसे अपनाए जाने के ज्ञात कारक हैं. उदाहरण के लिए, पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका के विकसित देशों में प्रति व्यक्ति जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) 20,000 अमेरिकी डॉलर से अधिक है और उनके 100 प्रतिशत परिवारों के पास खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच है. भारत जैसे कुछ विकसित देशों ने खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच प्रदान करने के लिए एक अलग दृष्टिकोण अपनाया है. इस बात का इंतज़ार करने के बजाय कि लाखों परिवारों की आय और सामाजिक-आर्थिक स्थिति उस स्तर तक बढ़ जाए कि खाना पकाने का स्वच्छ ईंधन उनके लिए सुलभ और किफ़ायती हो जाए, खाना पकाने के एपीजीपी जैसे स्वच्छ ईंधन तक पहुंच बढ़ाने के लिए नीति बनाकर सब्सिडी दी जाती है. इस तथ्य के बावजूद कि 2022 में भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी केवल 2,410 अमेरिकी डॉलर (वर्तमान अमेरिकी डॉलर) है, इस नीति का असर यह हुआ है कि भारत में एलपीजी की पहुंच बढ़कर लगभग 60 फ़ीसदी घरों तक हो गई है. पश्चिम अफ़्रीका के कोटे डी आइवर की प्रति व्यक्ति जीडीपी तो भारत के बराबर है लेकिन वहां खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच वाले ऐसे घरों की कुल आबादी मे हिस्सेदारी सिर्फ़ 32 प्रतिशत है. नीतिगत हस्तक्षेप से साफ़ हो जाता है कि दोनों देशों के बीच खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच में यह अंतर क्यों है.
दक्षिण एशिया की स्थिति
दक्षिण एशिया में प्रति व्यक्ति जीडीपी और खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन और तक पहुंच वाले परिवारों की हिस्सेदारी में अंतर से यह बात साफ़ हो जाती है कि ऊर्जा तक समान पहुंच प्रदान करने में बाज़ार की कमियों को नीतियों से कैसे दूर किया जा सकता है. दक्षिण एशियाई देशों में, 2022 में प्रति व्यक्ति जीडीपी सबसे अधिक मालदीव्स में 11,780 अमेरिकी डॉलर (वर्तमान अमेरिकी डॉलर) थी और खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच 100 फ़ीसदी थी. प्रति व्यक्ति जीडीपी के लिहाज से 3,560 अमेरिकी डॉलर के साथ भूटान दूसरे स्थान पर था और वहां 87 प्रतिशत घरों की खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच थी. हालांकि 3,354 अमेरिकी डॉलर की प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ श्रीलंका आर्थिक रूप से इसके नज़दीक था लेकिन वहां सिर्फ़ 33 प्रतिशत घरों की खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन की पहुंच थी. श्रीलंका की प्रति व्यक्ति जीडीपी अफ़ग़ानिस्तान की प्रति व्यक्ति जीडीपी की तुलना में लगभग 10 गुना अधिक थी लेकिन फिर भी अफ़ग़ानिस्तान में खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच वाले घरों की हिस्सेदारी उससे ज़्यादा, 35 फ़ीसदी तक थी. बांग्लादेश ने 2020 में भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी को पीछे छोड़ दिया था और 2022 में बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जीडीपी 2,688 अमेरिकी डॉलर थी, जो भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी US$ 2410 से ज़्यादा थी. लेकिन, खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच वाले घरों के लिहाज से दक्षिण एशियाई देशों में बांग्लादेश की हिस्सेदारी सबसे कम, 27 फ़ीसदी थी, जबकि भारत में एलपीजी और पाइप्ड नेचुरल गैस तक पहुंच वाले घरों की हिस्सेदारी आबादी के 60 फ़ीसदी के करीब थी. दक्षिण एशियाई देशों में खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच वाले परिवारों की हिस्सेदारी में व्यापक अंतर की व्याख्या न केवल परिवार की संपत्ति बल्कि नीतिगत हस्तक्षेपों के आधार पर भी की जा सकती है.
दक्षिण एशिया में प्रति व्यक्ति जीडीपी और खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन और तक पहुंच वाले परिवारों की हिस्सेदारी में अंतर से यह बात साफ़ हो जाती है कि ऊर्जा तक समान पहुंच प्रदान करने में बाज़ार की कमियों को नीतियों से कैसे दूर किया जा सकता है.
मुद्दे
भारत में खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच को बेहतर बनाने के लिए हस्तक्षेप शुरू में राज्य स्तर पर तब शुरू हुआ जब 1990 के दशक के अंत में एलपीजी की कमी हो गई थी. कई दक्षिण भारतीय राज्य सरकारों ने 'गरीबी रेखा से नीचे' (BPL) वाले परिवारों को सब्सिडी वाले या मुफ़्त एलपीजी कनेक्शन के वितरण के लिए समर्पित कार्यक्रम शुरू किए . इस मॉडल की वजह से राज्य स्तर पर एलपीजी वितरण कार्यक्रम चलाने वाली सरकारें अपने लिए राजनीतिक समर्थन जुटाने में सफल रहीं और 2009 में केंद्र सरकार ने भी इसे राजीव गांधी ग्रामीण एलपीजी वितरण (RGGLV) योजना के रूप में अपना लिया. आरजीजीएलवी ने ग्रामीण क्षेत्रों में LPG डीलरों की संख्या को दोगुने से ज़्यादा कर दिया और इससे ग्रामीण क्षेत्रों में एलपीजी की पहुंच बढ़ाने में योगदान मिला. बाद में 2014 में कुछ संशोधनों के साथ इस कार्यक्रम को प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना के रूप में फिर से लॉन्च किया गया, जिसके तहत सब्सिडी देकर एलपीजी तक पहुंच प्रदान की जा रही थी. हालांकि, मतदाताओं को ध्यान में रखकर चलाए जा रहे एलपीजी पहुंच कार्यक्रमों के राजनीतिक लाभ से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन साथ ही इनसे गरीब परिवारों के कल्याण में भी काफ़ी हद तक सुधार होता है.
एलपीजी पहुंच पर सब्सिडी देने को लेकर विवाद भी हैं. उदारवादी आर्थिक विचारधारा साफ़ तौर पर कहती है कि ऊर्जा सब्सिडी, विशेष रूप से जीवाश्म ईंधन पर दी जाने वाली सब्सिडी (एलपीजी सहित, भले ही यह एक स्वच्छ ईंधन है) का शुद्ध नकारात्मक प्रभाव पड़ता है: वे कृत्रिम रूप से जीवाश्म ईंधन की कीमतों को कम करती हैं, जिससे बाज़ार में ऐसी विकृतियां पैदा होती हैं जिनके पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक परिणाम होते हैं; वे ऊर्जा की खपत और ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन में वृद्धि करती हैं, सरकार के बजटों पर दबाव डालती हैं, उस वित्तपोषण की दिशा को बदल देती हैं जो अन्यथा स्वास्थ्य देखभाल या शिक्षा जैसी सामाजिक प्राथमिकताओं पर खर्च किया जा सकता है और इसके अलावा वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की लाभप्रदता को कम कर देती हैं.
स्वच्छ ईंधन तक पहुंच के लिए सब्सिडी दिए जाने से गरीबों को खाना पकाने के लिए ऊर्जा पर ख़र्च को कम करने में सहायता मिलती है जिससे उनके पास भोजन और दवा जैसी अन्य आवश्यक चीज़ों के लिए धन उपलब्ध रहता है और उन्हें घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण की सभी समस्याओं से बचने में भी मदद मिलती है.
हालाँकि, खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच को कम करने के लिए दिए जाने वाले इस कल्याणकारी तर्क का अध्ययन कम ही हुआ है. स्वच्छ ईंधन तक पहुंच के फ़ायदों को देखें तो ये कुछ प्रकार की सब्सिडी को उचित ठहराते हैं. एक बार के लिए ईंधन की अंतिम-उपयोग क्षमता को ध्यान में रखें तो पता चलता है कि गरीब परिवार खाना पकाने के लिए अक्सर एलपीजी की तुलना में लकड़ी या अन्य जैव ईंधन- आधारित ईंधन के लिए अधिक भुगतान करते हैं. स्वच्छ ईंधन तक पहुंच के लिए सब्सिडी दिए जाने से गरीबों को खाना पकाने के लिए ऊर्जा पर ख़र्च को कम करने में सहायता मिलती है जिससे उनके पास भोजन और दवा जैसी अन्य आवश्यक चीज़ों के लिए धन उपलब्ध रहता है और उन्हें घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण की सभी समस्याओं से बचने में भी मदद मिलती है.
भारत में एलपीजी सब्सिडी का उसके तुलनात्मक प्रभाव, कल्याणकारी लाभ और लागत-प्रभावशीलता के आधार पर मूल्यांकन करने पर नहीं लगता कि ये अनिवार्य रूप से शुद्ध नकारात्मक है. प्रभावकारिता के संदर्भ में बात करें तो प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण मॉडल के माध्यम से समावेशन और बहिष्करण की त्रुटियों को कम करके यह सब्सिडी उन लोगों तक पहुंचती है जिनके लिए यह दी जाती है, गरीबों तक. खाना पकाने के लिए ऊर्जा तक पहुंच प्रदान करने से मिलने वाले कल्याण लाभ (महिला साक्षरता में वृद्धि और उत्पादक गतिविधियों में शामिल होने, स्वास्थ्य में सुधार, विशेष रूप से घर के महिलाओं और बच्चों के श्वसन स्वास्थ्य में सुधार) अक्सर सब्सिडी प्रदान करने में शामिल दीर्घकालिक लागत से कहीं ज़्यादा होते हैं. सब्सिडी का ढांचा इस तरह का बनाया गया है कि यह कम से कम लागत पर सेवा के प्रावधान को प्रोत्साहित करती है क्योंकि एलपीजी में पाइपलाइन या ट्रांस्मिशन लाइन जैसे बड़े बुनियादी ढांचे शामिल नहीं होते हैं. यह एक ऐसा पहलू है जो दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों में गैस पाइपलाइन या बिजली वितरण के बुनियादी ढांचे (और सेवा प्रावधान) की तुलना में एलपीजी सब्सिडी को ज़्यादा लागत प्रभावी या किफ़ायती बनाता है. लागत-प्रभावशीलता का अर्थ यह हुआ कि यह सब्सिडी गरीब और ग्रामीण आबादी को सुविधा प्रदान करने के लिए एलपीजी वितरकों को प्रोत्साहन देते हुए सबसे कम कार्यक्रम लागत पर सामाजिक लक्ष्य हासिल कर पाती है.
वस्तुओं और सेवाओं के वितरण के लिए बाज़ार के अदृश्य हाथ पर निर्भरता से आर्थिक दक्षता तो प्राप्त होती है लेकिन समानता की कीमत पर. बाज़ार तर्क के हिसाब से आर्थिक लाभ के उन तक पहुंचने के लिए दशकों तक इंतजार किए बिना, नज़र आने वाले नीतिगत हस्तक्षेप की वजह से गरीब परिवारों को खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच प्रदान की जाती है. आर्थिक विकास और ऊर्जा खपत के बीच कार्य-कारण सिद्धांत की रेखा दोनों तरफ़ को दौड़ती है. इसका अर्थ यह हुआ कि उच्च ऊर्जा खपत के कारण गरीब परिवारों को मिलने वाले कल्याणकारी लाभ आर्थिक विकास (महिलाओं की शिक्षा और रोज़गार) में योगदान करते हैं. ऊर्जा सब्सिडी और ऊर्जा गरीबी आपस में जुड़ी हुई हैं और ऊर्जा सब्सिडी ऊर्जा गरीबी के प्रभावों को कुछ कम करके सामाजिक कल्याण में सुधार करती है. ऐसे में ज़रूरत सब्सिडी को ख़त्म करने की नहीं है बल्कि ऊर्जा गरीबी से निपटने के लिए ऊर्जा सब्सिडी के नवीनीकरण और एसडीजी7 के लक्ष्यों के अनुरूप सभी के लिए स्वच्छ, टिकाऊ और सस्ती ऊर्जा सुनिश्चित करने की है.
स्रोत: विश्व बैंक
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