Published on May 26, 2017 Updated 0 Hours ago

मोदी की समस्या यह नहीं है कि उन्हें अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बेहतर करना है। मोदी की समस्या यह है कि उन्होंने जनाकांक्षाओं को इस कदर उभार दिया है कि उसे पांच वर्ष के अल्पकाल में पूरा करना शायद संभव भी न हो।

मोदी सरकार के तीन साल का 360 डिग्री एनालिसिस

किसी राष्ट्र के इतिहास में तीन वर्ष का समय मूल्यांकन करने के दृष्टिकोण से अत्य‍ल्प होता है, किन्तु पांच वर्ष के सीमित कार्यकाल के लिए चुनी गयी सरकार के लिए तो उल्टी गिनती की शुरूआत कही जा सकती है। मोदी की समस्या यह नहीं है कि उन्हें अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बेहतर करना है। मोदी की समस्या यह है कि उन्होंने जनाकांक्षाओं को इस कदर उभार दिया है कि उसे पांच वर्ष के अल्पकाल में पूरा करना शायद संभव भी न हो।

मोदी सरकार के तीन वर्ष के कार्यकाल की समीक्षा की रिपोर्ट अभी आनी शेष है। अभी आधिकारिक रूप से सरकारी आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हैं। जब मोदी 2014 में देश के प्रधानमंत्री बने थे, तब भारत वित्तीय विश्लेषण की अन्तर्राष्ट्रीय संस्था ‘मार्गन स्टेनली’ रचित शब्दे संक्षेप ‘फ्रैजाईल फाइव’ अर्थव्यवस्थाओं में शामिल था। यह मोदी सरकार की उपलब्धि ही कही जायेगी कि आज भारत विदेशी संस्था‍गत निवेशकों का पंसदीदा देश है। इस वर्ष अब तक विदेशी संस्थांगत निवेशकों ने 43500 करोड़ का भारी भरकम निवेश किया है एवं 3 वर्षो में 1.51 लाख करोड़ का निवेश भारतीय इक्विटी बाजार में किया है। आर्थिक सुधारों के क्षेत्र में जीएसटी लागू कराकर मोदी सरकार ने तो मानो मील का पत्थर ही स्थापित कर दिया है। 2017-18 के वित्तीय वर्ष में भारत की 7.4 प्रतिशत की संभावित सकल घरेलू उत्पाद की दर विश्व की बड़ी अर्थव्यीवस्थाओं में संभवत: सर्वाधिक है।

इसी प्रकार से सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भारत ने अपने लक्ष्यों को ऊंचा करके 2022 में 1 लाख मेगावाट के उत्पादन का रखा है। स्किल डेवेलपमेंट, स्टार्टअप इंडिया, बेहतर फसल बीमा योजना, नीति निर्धारण में जन-भागीदारी बढ़ाने हेतु www.mygov.in जैसी कुछ योजनाएं हैं जिनके माध्यम से मोदी सरकार ने अपने चुनावी वादों को पूरा करने का प्रयास किया है। कुछ ऐसी चुनावी घोषणाएं भी हैं जिसमें मोदी सरकार ने अपेक्षित कार्यवाही नहीं की है। उदाहरण स्वरूप सरकार लोकसभा एवं विधानसभा में महिला आरक्षण को पूरा करती नहीं दिख रही है। इसी प्रकार माओ उग्रवाद से निपटने में आंशिक सफलता तो है परन्‍तु एक राष्ट्राव्यापी कार्य योजना मूलरूप लेती नहीं दिख रही है। उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्तियों की संख्या दोगुनी कौन कहे, रिक्तियां भरने के ही लाले पड़े हुए हैं।

अगर घरेलू मोर्चे पर मोदी की सफलता को पैमाना बनाया जाए तो मोदी एवं एनडीए सरकार जनता की अपेक्षाओं पर खरे उतरते दिखते हैं। सौ दिन में विदेशों से काला धन लाने का वायदा तो शायद दूर की कौड़ी थी किन्तु देश में छुपे काले धन को बाहर लाने के लिए चलाए गये अमोघ अस्त्र ‘नोटबंदी’ को जनता ने हाथों हाथ लिया है। सीमापार से आतंकवाद की गतिविधियां अथवा कश्मीर में पृथकतावादी हिंसा भले ही कम न हुई हो, परन्तु पाक अधिकृत कश्मीर में घुसकर की गयी भारतीय सेना की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ ने मोदी की दबंग छवि को मजबूती ही प्रदान की है।

नोटबंदी आर्थिक दृष्टिकोण से सुविचारित निर्णय था अथवा नहीं, यह भले ही विवाद का विषय हो, किन्तु मोदी को इससे आम जनता को जोड़ने में राजनैतिक सफलता मिली, यह निर्विवाद सत्य है। भाजपा की छवि एक आभिजात्य, दक्षिण पंथी हिन्दू पार्टी की रही है। मोदी ने भाजपा के बहु वांछित चाल चरित्र एवं चेहरा बदलने की मुहिम को बहुत आगे तक बढ़ाया है। अपने तीन वर्ष के प्रधानमंत्री के कार्यकाल के बाद मोदी आरएसएस की ‘गुजरात प्रयोगशाला’ के ‘लैब टेक्नीशियन’ की छवि से कहीं आगे बढ़ चुके हैं। वे नेहरू की भांति एक दूरदृष्टा हैं जिसके जेहन में ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ का सपना है। उनके अंदर इंदिरा गांधी की तरह कड़े निर्णय लेने की क्षमता है। शायद इन सभी से बढ़ कर मोदी के आदर्श महात्मा गांधी हैं। गांधी को लेकर संघ की तमाम आलोचनाओं के बावजूद भी मोदी ने गांधी के कुछ मूल मंत्रों को अपनी सरकार की प्राथमिकताओं में रखा है। स्वच्छता अभियान, ग्रामीण एवं किसान तथा दलित उत्थान से मोदी आत्मिक रूप से जुड़े हुए हैं। गांधी के साथ-साथ अम्बेडकर की नीतियों के प्रति आदर भाव भी मोदी ने हृदयंगम कर रखा है। शायद तीन वर्ष के चुनौतीपूर्ण कार्यकाल के बाद मोदी इतना तो समझ ही गये हैं कि भले ही वे सभी चुनावी वादे न पूरे कर सकें, किन्तु यदि वे गरीबों के साथ खड़े दिखाई देते हैं तो इसके दूरगामी राजनैतिक लाभ निश्चित हैं।

2014 में सत्तारूढ़ होने के बाद विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिश्रित परिणाम हासिल हुए हैं। दिल्ली एवं बिहार जैसे हिन्दी भाषी राज्यों में 2015 में मिली करारी हार ने मोदी के तिलस्मो को बुरी तरह से झकझोर दिया था। किन्तु 2016 में सीमान्तल राज्य आसाम में कमल खिलने से भाजपा एवं खासकर मोदी के चेहरे पर नि:संदेह मुस्का‍न आयी थी।

8 नवम्बर 2016 की नोटबंदी मोदी सरकार के लिए चमत्कारिक परिणाम लेकर आयी है। पंजाब विधान सभा को छोड़कर लगभग जितने भी निकाय चुनाव अथवा विधान सभा चुनाव 2016 -17 में हुए हैं, भाजपा को आशातीत सफलता मिली है। स्वाभाविक है कि इस जीत का सेहरा भी मोदी के सिर पर बंधा है। इन चुनावी विजयों ने मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस तथा उसके गठबंधन यूपीए (यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस) के केन्द्रीय नेतृत्वों की अक्षमता को उजागर कर कांग्रेस पार्टी को ही भारतीय राजनीति में हाशिए पर डाल दिया है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की नेतृत्व अक्षमता, क्षेत्रीय दलों के क्षेत्र की आपसी लड़ाई तथा विभिन्न दलों में विचारधारा के स्तर पर गहरे मतभेद, मोदी के विरूद्ध विपक्षियों के स्थाई एवं प्रभावी गठबंधन की संभावना को यदि असंभव नहीं तो कठिन अवश्य बनाते हैं।

2019 के लोकसभा से पूर्व 9 राज्यों में विधान सभा के चुनाव होने हैं जिसमें चार राज्य मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान एवं गुजरात में भाजपा की सरकारें है तथा हिमाचल प्रदेश तथा कर्नाटक में कांग्रेस सत्ता में है। भाजपा की मुख्य चिंता भाजपा शासित राज्यों की एंटी–इंकमबेंसी, दक्षिण के राज्यों तथा पूर्व में बंगाल एवं उड़ीसा हैं जहां भाजपा की पैठ अभी मामूली है। मोदी एवं उनके खास सिपहसालार तथा भाजपा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की असली चुनौती इन्हीं राज्यों में है।

मोदी इन चुनौतियों से वाकिफ हैं। इसीलिए तकनीकी विकास, डिजिटाइजेशन, आर्थिक सुधारों के साथ-साथ लालबत्ती हटाने जैसे लोक लुभावन निर्णयों से उच्च एवं मध्यम वर्ग के साथ-साथ आम आदमी को भी जोड़े रखने की कवायद में जुटे हैं। उज्ज‍वला योजना, दीनदयाल ग्रामीण विद्युतीकरण योजना, जन-धन योजना, स्वच्छ भारत अभियान तथा डीबीटी (डायरेक्ट, बेनिफिट ट्रांसफर) का लक्ष्या गरीब एवं ग्रामीण हैं। मोदी की निगाह अनुसूचित जाति-जनजाति तथा पिछड़ों के बड़े वोट बैंक पर भी है जिन्हें वे कांग्रेस एवं क्षेत्रीय दलों से तोड़कर भाजपा के पक्ष में लाने की जुगत में हैं।

मोदी सरकार की एक बड़ी खूबी है कि इस पर तीन वर्षों में किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार अथवा स्कैम के आरोप नहीं लगे हैं। इसी प्रकार मोदी के परिश्रम, लगनशीलता एवं उनकी सरकार की देश को आगे ले जाने की नेक नियती पर भी कोई विवाद नहीं है। परन्तु मोदी की भाजपा सरकार चाह कर भी संघ की छाया से नहीं उबर सकती है। संघ का प्रखर राष्ट्रवाद, योग्यता का समर्थन (प्रकारान्तर से आरक्षण विरोध) मुस्लिम तुष्टिकरण का मुखर विरोध एवं राजनैतिक जीवन में शुचिता भाजपा को मध्य मार्ग से धकेल कर एक धुर दक्षिणपंथी, अनुदार एवं हिन्दूावादी पार्टी की कतार में खड़ा कर देती है। इन्हीं अन्तर्विरोधों से उबर कर मोदी को अपने ‘सबका साथ-सबका विकास’ के नारे को अमली जामा पहनाना है।

नेहरू के निधन के ठीक 50 वर्ष बाद मोदी भारत के 15वें प्रधानमंत्री बने हैं। नेहरू का कद बड़ा था। भारत की आजादी की लड़ाई में उन्होंने अनेकों कष्ट झेले थे। नेहरू का दृष्टिकोण वैश्विक था। वे प्रगतिशील, उदार एवं धुर धर्मनिरपेक्ष के समर्थक थे। मोदी जिस रफ्तार से अपनी छवि उकेर रहें हैं, उनका नेहरू के कद तक पहुंच पाना प्राय: निश्चित है। मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने गांधी, अम्बेरडकर एवं मदन मोहन मालवीय समेत कांग्रेसी प्रतीकों को देश की साझी विरासत बताते हुए भाजपा में अंगीकृत कर लिया है। किन्तु ‘गांधीवाद’ कोई लिबास नहीं जिसे ओढ़ा जा सके। मोदी ने स्वंय गरीबी अनुभव की है। सौभाग्य से वे भारत के सशक्त प्रधानमंत्री हैं। गरीबों के लिए कुछ कर सकने की उनमें अदम्य लालसा है। गांधी, भावे, जेपी तथा दीन दयाल उपाध्याय, सभी ने ‘अंत्‍योदय’ को ही सुशासन का लक्ष्य बताया है। किन्तु ‘सबका साथ-सबका विकास’ के नारे का अभी यथार्थ में परिवर्तित होना बाकी है। बहुप्रचारित ‘अच्छे दिन’ अभी भी असंख्यम भारतीयों विशेषकर अल्प‍संख्यकों, दलितों, मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नवयुवकों के लिए एक ‘मृगमरीचिका’ भर है। मोदी का मार्ग निष्कंटक नहीं कहा जा सकता है।


यह लेख मूल रूप से आईचौक में प्रकाशित हुआ था।

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