Author : Kanchan Gupta

Published on May 01, 2019 Updated 0 Hours ago

अगर चुनाव सच में लोकतंत्र का महापर्व है तो हमें ये पूछना चाहिए कि लोकतंत्र का सार बोलने की आज़ादी पर चुनाव प्रचार के दौरान क्यों अंकुश होना चाहिए।

2019 चुनाव: बिना फ़्री स्पीच के फ़्री वोट?

लचर और असहाय रवैये के लिए सुप्रीम कोर्ट की फटकार सुनने और मज़ाक़ बनने के बाद भारतीय चुनाव आयोग (ECI) ने अपनी ताक़त की आज़माइश और अपनी रसूख़ दिखाने का फ़ैसला किया है। यह साबित करने के लिए कि यह बिल्कुल एक निष्प्रभावी संस्था नहीं है जैसा कि न्यायपालिका की टिप्पणी में इसे दिखाया गया है, भारतीय चुनाव आयोग ने चुनावों के दौरान आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों के ख़िलाफ़ सख़्ती बरतने का फ़ैसला किया है। आचार संहिता तोड़ने वाले चार नेताओं को दो से तीन दिन के लिए चुनाव प्रचार से रोका गया है। इन नेताओं में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती, समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आज़म ख़ान और यूपी के सुल्तानपुर से बीजेपी उम्मीदवार मेनका गांधी हैं। इन चारों नेताओं को जन प्रतिनिधित्व क़ानून की धारा 123 (3) के तहत दोषी पाया गया है, वह क़ानून जिसके तहत भारत में चुनाव होता है और जिसके तहत कोई उम्मीदवार या उसका चुनाव एजेंट धर्म, रंग, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर किसी को वोट करने या न करने के लिए दबाव नहीं बना सकता है।

जो क़ानून है उसके तहत भारतीय चुनाव आयोग द्वारा लगाया गया जुर्माना एक हद तक अपने आप में प्रशंसनीय है। लेकिन मौजूदा चुनाव प्रचार के दौरान कई ऐसे मौक़े आए जब वोट मांगते हुए नेताओं ने चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन किया लेकिन वो जांच और सज़ा से परे रहे और दंडाभाव (सज़ा से बेफ़िक़्र) कुछ नेता पाबंदियों की धज्जियां उड़ाते रहे और इस बात से बेपरवाह बने रहे कि वोट की अपील करते समय क्या बोलना है और क्या नहीं बोलना है। भारतीय चुनाव आयोग ने जिस दिन कार्रवाई की उसके अगले ही दिन कांग्रेस के मशहूर नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने ढिठाई से मुसलमानों से अपनी पार्टी को वोट करने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोबारा सत्ता में आने से रोकने की अपील की। उम्मीद के मुताबिक़ पाकिस्तान रेडियो ने सिद्धू के इस बयान का प्रसारण किया। सपा नेता आज़म ख़ान के बेटे अब्दुल्ला आज़म ख़ान ने आरोप लगाया है कि उनके पिता के मुस्लिम होने की वजह से चुनाव आयोग उन्हें निशाने पर ले रहा है। चुनावों के इस गर्म मौसम और अविश्वसनीय रूप से लंबे चुनाव अभियान में जैसे-जैसे समय आगे बढ़ेगा वैसे-वैसे चुनावी तपिश की आंच तेज़ होगी और ज़ुबानी जंग और कड़वी होगी ।

इस बीच, चुनाव आयोग सही समय पर एक सेंसर बोर्ड की तरह काम करने लगा जिसके पास प्रचार और ग़ैर-प्रचार दोनों ही मीडिया कंटेंट को नियंत्रित करने के लिए मनमाना ताक़तों को क़ाबू करने का अधिकार आ गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीवनी पर बनी फ़िल्म की व्यावसायिक रिलीज़ को सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ फ़िल्म सर्टिफ़िकेशन की हरी झंडी के बाद भी चुनाव आयोग ने दूसरी बायोपिक के साथ पीएम मोदी की बायोपिक रिलीज़ को भी टाल दिया। चुनावों के दौरान सेंसरशिप का यह पहला मामला है। एक संस्था के रूप में चुनाव आयोग ने खुले तौर पर पक्षपातपूर्ण फ़िल्म, ‘उड़ता पंजाब’ के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों पर कभी ऐक्शन तो दूर प्रतिक्रिया तक नहीं दी, तब जबकि इस फ़िल्म की व्यावसायिक रिलीज़ पंजाब विधानसभा चुनाव के साथ करने की योजना थी। चुनाव के बाद न तो फ़िल्म और न ही फ़िल्म में जिस ज़ोर-शोर से ड्रग इस्तेमाल का झंडा बुलंद किया गया था वो कभी सुनाई दिया। हालांकि अकाली दल, बाद में भी इस आरोप को झेलता रहा कि उसके नेता कथित तौर पर युवा पंजाबियों के बीच ड्रग्स के नशे को बढ़ावा देने में सामूहिक रूप से शामिल हैं। कहानी अवरुद्ध बायोपिक्स के साथ ख़त्म नहीं होती, चाहे वो अच्छी हो या बुरी। अब टेलीविज़न सीरियल्स के प्रोड्यूसर्स को कुछ भी राजनीतिक कंटेंट होने पर चुनाव आयोग को जानकारी देनी होगी और साथ ही प्रसारण की मंज़ूरी लेनी होगी। शादी-ब्याह के निमंत्रण कार्ड पर भी अगर कुछ राजनीतिक कंटेंट छपवा रहे हैं तो उन्हें चुनाव आयोग के नोटिस से दो-चार होना पड़ रहा है। सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स को ट्विटर हैंडल सस्पेंड करने और पेज डाउन करने के लिए कहा जा रहा है। किताबों के प्रकाशकों को भी इस तरह की पड़ताल का सामना करना पड़ सकता है। अख़बारों और पत्रिकाओं के साथ भी यही बात लागू हो सकती है। जैसा कि सोवियत स्टाइल सेंसरशिप और विचार नियंत्रण के बारे में कहा गया था, हम ग़ैर बराबरी से अधिक ग़ैर बराबरी की ओर बढ़ रहे हैं।

इन सबके बीच एक राज्य पर लोगों की नज़र नहीं जा रही है — पश्चिम बंगाल, यहां हालात बहुत ही ख़राब हैं और स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव बड़ी चुनौती साबित हो रहा है। पर्याप्त सबूत मौजूद हैं और इन सबूतों को चुनाव अधिकारियों को सौंपा गया हैं ताक़ि चुनाव आयोग इसमें दख़ल दे। कुछ पुलिस अधिकारियों के दिखावटी तबादले को छोड़ कर अब तक कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई है, यहां तक कि चुनाव आचार संहिता के स्पष्ट उल्लंघन के लिए एक मामूली फटकार भी नहीं लगाई गई है। तमिलनाडु में, विचारधारा की आड़ में सख़्त सांप्रदायिक दुर्व्यवहार कुछ नेताओं का मुख्य औज़ार बन गया है। हमारे पास इस बात के भी स्पष्ट उदाहरण हैं कि मतदाताओं से झूठ बोलने और गुमराह करने की अथक पुनरावृत्ति कैसे एक प्रधानमंत्री की आकांक्षा का दैनिक अभियान बन गया है — यहां तक ​​कि सर्वोच्च न्यायालय की बात को भी ग़लत तरीक़े से पेश किया गया है, क्योंकि जो बातें कही गईं, वो वास्तव में सुप्रीम कोर्ट ने कभी कहा ही नहीं।

अगर पैसे का लालच देकर मतदाताओं को प्रभावित करना जनप्रतिनिधत्व क़ानून के तहत दंडनीय अपराध है, तो यह अपराध या तो क़ानून के प्रति कम सम्मान की भावना या फिर इसके उल्लंघन के परिणामों को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। इसके लिए प्रत्याशियों को सिर्फ़ चुनावी घोषणापत्र में यह उल्लेख करना पड़ता है कि यदि वो चुनकर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचते हैं तो कुछ कल्याणकारी योजना या दूसरी योजनाओं की आड़ में मतदाताओं को इतना पैसा दिया जाएगा। यह तरकीब नेताओं को पैसों के वादों के साथ मतदाताओं को लुभाने में सक्षम बनाती है और चुनाव आयोग को मौद्रिक प्रलोभन के ख़िलाफ़ क़ानून के इस्तेमाल से रोकती है। आंध्र प्रदेश में चर्च और पादरियों के घरों के निर्माण के लिए पैसे देने का वादा किया गया था। अल्पसंख्यकों के वोटों को प्रभावित करने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। पश्चिम बंगाल में दो मशहूर बांग्लादेशी कलाकार बीजेपी के ख़िलाफ़ कैंपेन कर रहे हैं, उनमें से एक मुस्लिम बहुल इलाक़े में जहां बांग्लादेशी अवैध प्रवासियों की अच्छी आबादी रहती है, जिनके नाम जादुई तौर पर या तो प्रत्यक्ष रूप से या चुनाव आयोग की देख-रेख में तैयार की गई मतदाता सूची में दिखते हैं। भारत में राजनीतिक विचारों को प्रचारित करने के लिए पक्षपातपूर्ण अपील करने या ‘रविवार के उपदेशों’ का उपयोग करने के लिए चर्च का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। गोवा के एक कैथोलिक पादरी का वीडियो ख़ूब वायरल हुआ जिसमें वो अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए सूबे के दिवंगत मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर की कैंसर बीमारी को ‘ईश्वर की नाराज़गी’ बता रहे थे और इसी तरह की दूसरी कई द्वेषपूर्ण बातें कर लोगों को बता रहे थे कि कैसे और किसे वोट देना है। इसके बाद भी चर्च तटस्थ होने और निंदा से परे होने का दावा करता है। जमात-ए-इस्लामी हिंद ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ पार्टियों के समर्थन में और फासीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ प्रचार पुस्तिका (पैम्फलेट) जारी की है; भारत में चुनाव बिना विडंबना के नहीं होते।

और भी कई चीज़ें हैं जो कथित तौर पर ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव’ के दावों पर सवाल उठाती हैं। वाट्सऐप ग्रुप समेत तमाम सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर एक समानांतर अभियान चलाया जा रहा है, जहां अक्सर उग्र और घृणित संदेश प्रचारित किए जाते हैं और चुनाव आयोग की चयनात्मक आंखों से दूर उन पर किसी की नज़र उन पर नहीं पड़ती या एनक्रिप्टेड रह जाती हैं। जो पत्रकार खुलेआम ये दावा करते हैं कि वो पूर्वाग्रह से मुक्त हैं, वो अपनी आस्तीन पर राजनीतिक पसंद का चोला ओढ़े होते हैं और जान-बूझकर उन सभी चीज़ों को सार्वजनिक करते हैं जो उस क़ानून की भावना के विपरीत हैं, जिसके तहत उन चार नेताओं (योगी आदित्यनाथ, मायावती, आज़म ख़ान और मेनका गांधी) को दंडित किया गया है। प्राइम टाइम टेलीविज़न ज़ोर-शोर से जातिगत गठबंधन और अल्संख्यक वोट की बात कर सकता है, ऑप-ऐड्स सांपद्रायिक पहचान के आधार पर वोटिंग पैटर्न का पूर्वानुमान और विश्लेषण कर सकती हैं, शिक्षाविद् पहचान की राजनीति पर बहस कर सकते हैं, लेकिन एक कैंपेन प्लेटफ़ॉर्म से इन सभी बातों का ज़िक़्र नहीं किया जा सकता है। जब पार्टियां जाति और धर्म के आधार पर अपने उम्मीदवार चुनती हैं तो आदर्श आचार संहिता का मामला बनता है। ‘जीतने की क्षमता’ इस बात पर निर्भर करती है कि लोगों के मताधिकार का कितना हिस्सा आपको हासिल होता है। ये ऐसी वास्तविकताएं हैं जो भूला दी गई हैं, जबकि सभी की नज़रें ‘आदर्श आचार संहिता’ नामक ग्रेट इंडियन रोप ट्रिक पर टिकी हुई हैं।

अंत में, अगर चुनाव सच में लोकतंत्र का महापर्व है तो हमें ये पूछना चाहिए कि लोकतंत्र का सार बोलने की आज़ादी पर चुनाव प्रचार के दौरान क्यों अंकुश होना चाहिए? यह तर्क भी दिया जा सकता है कि अगर उम्मीदवारों को चुनने में जाति, समुदाय और धर्म की निर्णायक भूमिका होती है तो क्या चुनाव प्रचार में जाति, समुदाय और धर्म का उल्लेख ग़लत है और इसकी मनाही क्यों होनी चाहिए? क़ानून में कितनी बड़ी खामी है जो राजनीतिक दलों को सांप्रदायिक नामों और जातिवादी एजेंडा की मंज़ूरी देता है, लेकिन सांप्रदायिक और जाति आधारित भीड़ को रोकता है। ऐसा क्यों है कि जिन बातों पर टेलीविज़न स्टूडियो और भारी-भरकम टिप्पणियों में खुलेआम बात हो सकती है, चुनावी रैलियों में उन बातों को दोहरेपन की आड़ में छिपाने की ज़रूरत क्यों है? क्या बोली गई बातों और मतदान के दिन के असल काम के बीच क़ानून को एक दूरी लागू करनी चाहिए?

इन सभी सवालों के साथ कई और दूसरे सवाल ज़रूर उठाए जाने चाहिएं, सिर्फ़ यह जानने-परखने के लिए भी कि ये प्रतिबंध जो किसी ख़ास युग/समय के लिए (जो काफ़ी वक़्त पहले ख़त्म हो चुका है) डिज़ायन किए गए थे, वो आज भी कैसे वैध हैं — कुछ लोग कहेंगे कि वो समय कभी था ही नहीं। आने वाले सालों में तकनीक के आगमन और बढ़ोतरी ने अगर भौतिक चुनावी सभाओं की जगह नहीं ली तो कम से कम उनसे पैसा बनाने का ज़रिया तो ज़रूर बन जाएगा। अगर कोई भी नेता जो सत्ता के लिए गंभीर दावेदार है, वो आपको बताएगा कि इस साल के चुनाव में ‘स्टार कैंपेनर्स’ का नहीं, बल्कि बंद कमरे में बैठ कर देश भर के वोटरों को रिझाने के लिए प्रभावी कंटेंट के ज़रिए डिजिटल संदेश तैयार कर रहे गुमनाम चेहरों का चुनावों पर बड़ा असर है। यह भारत का सबसे बड़ा डेटा चुनाव है –वाट्सएप पर दूसरे अभियान को चलाने के लिए डेटा का सूक्ष्मता से उपयोग किया जा रहा है, जिसमें से बहुत कम ज्ञात हैं और यहां तक ​​कि भारत के निर्वाचन आयोग को खुश करने या उपहास करने वालों को भी इसकी कम समझ है।

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