Author : Seema Sirohi

Published on May 15, 2018 Updated 0 Hours ago

चीन के आक्रामक रुख को नर्म करने या चीन को रोकने के लिए ट्रम्प के रवय्ये की अनिश्चितता एक सकारात्मक पहलु है। अब तक बीजिंग अमेरिका की तरफ से तयशुदा या निश्चित क़दमों का जवाब देने के लिए पलटवार को तैयार रहता था अब चीन के लिए ऐसा करना मुश्किल होगा क्यूंकि अमेरिका की तरफ से अनिश्चितता बनी हुई है।

क्या ट्रम्प चाइना की ग्रेट वाल को भेद पायेंगे

अमेरिका और चीन के बीच टकराव के मुद्दे बढ़ते जा रहे हैं और ऐसे में अब अमेरिका ने व्यापार के मामले में एक रेखा खींच कर सख्त रुख अपनाया है। उम्मीद है कि इस से कारोबार करने का ढंग बदलेगा और वो लोग जो यथास्थ्ती बनाए रखने में विश्वास करते हैं उन्हें कुछ झकझोरेगा।

गेंद फिर से व्हाइट हाउस के पाले में है। ट्रम्प के टाप आर्थिक सलाहकार बीजिंग से सिवाए और बातचीत के वादे के अलावा कुछ भी ले कर नहीं लौटे। क्या राष्ट्रपति ट्रम्प अपने कहे हुए पर टिके रहेंगे और चीन के सामान पर १५० बिलियन डॉलर का कर लगायेंगे? क्या राष्ट्रपति ट्रम्प अपने सख्त रवैये को बरक़रार रखेंगे?

ट्रम्प की टीम कि लम्बी लिस्ट थी, जिसकी मांगे काफी मुश्किल थीं जिसमें चीन के साथ व्यापार घाटे को २०२० तक २०० बिलियन डॉलर कम करने की मांग थी, इसके अलावा क्षेत्र में चीन को दी जाने वाली सब्सिडी को ख़त्म करना, इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स को मान्यता देना और मानना, अमेरिका के कई ठिकानों को निशाना बना कर साइबर अटैक को बंद करना, निवेश को आसान बनाना, कर के अलावा व्यापार में आने वाली दूसरी बाधाओं को ख़त्म करना, और अमेरिकी किसानों के खिलाफ कदम नहीं उठाने की मांग थी।

कुल मिला कर ट्रम्प ने चीन के व्यापार करने के तरीके में एक बुनियादी बदलाव की मांग की है। ट्रम्प ने आज के दौर के सबसे बड़े टकराव को सामने लाया है। टकराव एक उदारवादी अर्थव्यवस्था और एक सत्तावादी व्यवस्था के बीच जो कानूनों और कायदे की परवाह नहीं करता।

लेकिन पश्चिमी देशों में ट्रम्प की जो छवि है, ट्रम्प के बारे में जो धारणाएं हैं उस से इमानदारी से इस बात का पर विचार नहीं हो रहा की चीन के साथ व्यापारिक रिश्तों में क्या कुछ दाँव पर है। इस बात को स्वीकार करना ज़रूरी है कि आज तक कोई अमेरिकी या यूरोपीय नेता ने बीजिंग से उसके व्यापार, सैन्य या सामरिक नीतियों पर सवाल नहीं किया है। पिछले दो दशकों से किसी ने बीजिंग को इन मुद्दों पर गंभीरता से चुनौतो नहीं दी है।

सब दिखावे के लिए ऐसी स्थिति की बात करते रहे जिस में दोनों देशों के हित कि बात हो। चीन और दुसरे देशों का फायदा हो, बातचीत के दौर चलते रहे। यानी अंग्रेजी में इस्तेमाल होने वाला मुहावरा “विन विन” की स्थिति बनी रहे। अब तक देशों ने बड़े व्यापार निगमों को नीतियां बनाने की आजादी दी और समय का कोई हिसाब नहीं रखा गया, वक़्त बीतता गया और चीन दुसरे देशों को दबाता गया, अपनी शर्तों पर दुसरे देशों के साथ व्यापार करता रहा।

नॉर्वे सालमन मछली का सबसे बड़ा उत्पादक है और चीन मछली और सीफ़ूड का सबसे बड़ा उपभोगता। जब नॉर्वे ने २०१० में चीन के मानवाधिकार कार्यकर्ता लिऊ जिआबाओ को शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया तो चीन ने नॉर्वे के उत्पाद के लिए अपना दरवाज़ा बंद कर दिया। फिर नॉर्वे ने थोड़ी बंदगी की, दलाई लामा से मिलने से इनकार किया और ये सब करने के बाद मछली का निर्यात फिर से बहने लगा।

हौंग कौंग की स्वायत्ता को कमज़ोर करने में भी चीन ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। चीन ने ये वादा किया था कि एक देश दो व्यवस्था यानी “one country, two systems” का नियम चीन और हौंग कौंग के बीच लागु होगा लेकिन इसकी पूरी अनदेखी हुई है और किसी भी पश्चिमी देश ने इस पर पलक तक नहीं झपकाई, कोई आवाज़ नहीं उठाई। चीन ने किसी भी तरह के विद्रोह या विरोध को कुचल दिया है, कोई ऐसी किताब तक नहीं बेचने दी जिसमें चीन की लीडरशिप कि कोई आलोचना हो। ऐसे किताब बेचने वालों के खिलाफ भी कार्यवाई हुई है।

इसके बावजूद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग नई विश्व व्यवस्था के मसीहा के तौर पर पेश किया जाते हैं। क्यूंकि वो वैश्वीकरण और उदारीकरण पर बोओं और दावोस जैसे फोरम पर औपचारिकता कर आते हैं। IMF के मुताबिक चीन की अर्थव्यवस्था और बाज़ार नए उभरते अर्थव्यवस्था से भी ज्यादा बंद हैं। अब तक चीन में वीसा और मास्टर कार्ड को इजाज़त नहीं दी गयी है। हालाँकि इस मामले में बीजिंग २०१२ में केस हार चुका है।

IMF के मुखिया डेविड लिप्टन ने इस साल के शुरुआत में कहा कि चीन को अपने निवेश और कारोबार पर लगाये प्रतिबन्ध को देखना चाहिए। ये देखना चहिये की उसकी औद्योगिक नीति किस तरह से तोड़ मरोड़ कर ऐसी बनाई गयी है जिस से सिर्फ सरकारी उद्यमों को फायदा होता है। ये तब जब लिप्टन ओबामा काल के ही अधिकारी हैं, वो ट्रम्प के समर्थक नहीं।

लेकिन चीन नियमित रूप से WTO और अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट ऑफ़ जस्टिस की चेतावनियों को नज़रंदाज़ करता रहा है। और उनके फैसलों को नहीं मानने के अपने फैसले का बचाव भी करता है। इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि कोई भी अंतर्राष्ट्रीय संगठन चीन की नीतियों पर कोई दबाव डाल सका है।

इस विशालकाय चीन से टक्कर लेने की हिम्मत ट्रम्प कर रहे हैं। वो इस चली आ रही व्यवस्था में बाधा डाल रहे हैं। हो सकता है कि चीन को टक्कर देने का फैसला लेकर ट्रम्प ने कोई ग़लती की हो, लेकिन चीन की नीतियों पर संदेह में ट्रम्प एक निरंतरता बनाए हुए हैं।

ट्रम्प ने ये साफ़ किया है कि चीन से कई उद्योगों और उत्पादों पर तकनीकी टकराव है। कई जानकार सिर्फ इसी मुद्दे पर ध्यान दे रहे हैं। लेकिन ये समझना ज़रूरी है की ये एक जाल है और ये बीजिंग के फायदे में है क्यूंकि इस से वो अमेरिका को बातचीत और डायलाग में उलझा कर रख सकता है। इस से कोई भी समस्या हल नहीं होती।

इस बीच अमेरिका में राष्ट्रपति का कार्यकाल ख़त्म हो जाता है, नए राष्ट्रपति के साथ पूरा नया प्रशासन वाशिंगटन में काम संभालता है, नई नीतियां बनती हैं, लेकिन इस बीच चीन में कम्युनिस्ट पार्टी केंद्र की सत्ता में बनी रहती है और सत्ता अपने ढर्रे पर चलती रहती है।

एक बात जो साफ़ है या होनी चाहिए वो है चीन के तौर तरीके जो पूरी व्यवस्था पर असर डालते हैं। इस में सुधार की ज़रुरत है। ट्रम्प प्रशासन को इस बात का श्रेय देना होगा कि नए राष्ट्रीय सुरक्षा दस्तावेज़ में चीन को प्रमुख प्रतिद्वंदी माना गया है।

२०१८ की अमेरिकी नेशनल डिफेन्स स्ट्रेटेजी ने चाइना को अपना मुख्या प्रतिद्वंदी माना, इसे ऐसे समझा जा सकता है कि अमेरिका को ये लगता है कि रूस कि चुनौती तो बनी हुई है लेकिन वो इतनी चिंताजनक नहीं है जितनी चीन कि चुनौती।

राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के मुताबिक चीन की तरफ से सैनिक। आर्थिक और राजनीतिक चुनौती सबसे प्रमुख है। ट्रम्प प्रशासन कि सुरक्षा रणनीति में चीन का २३ बार ज़िक्र है और चीन को एक संशोधनवादी शक्ति कहा गया है। ये ओबामा प्रशासन से बिलकुल अलग है। ओबामा काल में चीन को एक उभरता हुआ स्थिर देश माना गया था जो शांतिपूर्वक अपने विकास के लिए काम कर रहा है। एक ऐसा फलता फूलता देश जो कि अन्तर्रष्ट्रीय व्यवस्था में एक दावेदार है।

पिछले प्रशासन के ८ साल की नीति ऐसी रही जिसमें चीन के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं की गयी। इस ८ साल के बाद अब अमेरिका में चीन को लेकर एक साफ़ रुख नज़र आ रहा है। सुरक्षा संगठनों में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों विचारधारा के लोगों की सोच एकजुट हुई है। कॉर्पोरेट जगत भी अपना आंकलन दे रहा है।

अब ये सवाल खड़ा होता है कि इसकी कीमत क्या होगी यानी अमेरिका की नीति में बदलाव किस कीमत पर होगा। हो सकता है कि इसकी कीमत सोयाबीन के किसानो को या टेक्नोलॉजी से जुड़े व्यवसायिओं को चुकानी पड़े। क्या अमरीकी जनता इस्तेमाल की जा रही चीज़ों के लिए ज्यादा कीमत देने को तैयार है या फिर वो उपभोग को ही कम करेगी।

ये इस पर भी निर्भर करेगा की उस मुद्दे को किस तरह से उठाया जा रहा है। ये दो अलग अलग व्यवस्थाओं के बीच एक बड़ा टकराव है लेकिन ट्रम्प प्रशासन को इसके लिए एक सुसंगत नजरिया अपनाना पड़ेगा। हालाँकि ये आखिकार है तो दो शक्तियों और दो अलग व्यवस्थाओं का टकराव ही। ट्रम्प को इसमें मजदूर संगठनो से लेकर कॉर्पोरेट लीडरों तक का साथ चाहिए।

वाशिंगटन का प्रशासन चीन पर इस नयी सोंच के लिए तैयार नहीं है। और वो हर क़दम पर इस में रुकावट डालने की कोशिश करेगा। विदेश मंत्रालय में अपने नए सेक्रेटरी माइक पोम्पेओ के नेतृत्व में नयी जान आ गयी है। विदेश मंत्रालय के चीन डिपार्टमेंट में ऐसी नियुक्ति की ज़रुरत है जो इस नयी सोंच से सहमत हों और बीजिंग के आक्रामक रुख को कम करके नहीं आंकें।

चीन के आक्रामक रुख को नर्म करने या चीन को रोकने के लिए ट्रम्प के रवय्ये की अनिश्चितता एक सकारात्मक पहलु है। अब तक बीजिंग अमेरिका की तरफ से तयशुदा या निश्चित क़दमों का जवाब देने के लिए पलटवार को तैयार रहता था अब चीन के लिए ऐसा करना मुश्किल होगा क्यूंकि अमेरिका की तरफ से अनिश्चितता बनी हुई है। लेकिन इसमें यूरोप को भी साथ आना पड़ेगा क्यूंकि चीन की नज़र पूरे महाद्वीप पर है।

इसका नतीजा क्या होगा अभी ये कहना जल्दी है लेकिन ये तो तय है कि ट्रम्प अमेरिका को खेल में वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं।

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