Published on Jul 20, 2020 Updated 0 Hours ago

भारत की कई कंपनियां, अपने शेयर धारकों की इजाज़त से कंपनी के शेयर की डीलिस्टिंग की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं. और जो लोग डीलिस्टिंग की प्रक्रिया का विरोध कर रहे हैं, वो इस बात को लेकर चिंतित हैं कि प्रमोटर केवल मौक़े का फ़ायदा उठाने की फ़िराक़ में हैं.

क्या महामारी के कारण शेयर बाज़ार से भारतीय कंपनियों की डिलिस्टिंग की रफ़्तार तेज़ होगी?

भारत के दो प्रमुख शेयर बाज़ारों, BSE और NSE में छह हज़ार से अधिक कंपनियां लिस्टेड हैं. इनमें से कई कंपनियां दोनों ही स्टॉक एक्सचेंज में दर्ज हैं.

पिछले कई वर्षों के दौरान भारत के कारोबारी समुदाय के बीच उत्साह का माहौल था. बहुत से व्यापारिक घराने अपनी कंपनियों को घरेलू स्टॉक एक्सचेंज में लिस्ट करा रहे थे. लेकिन, पिछले कुछ महीनों से आर्थिक मंदी और कोविड-19 महामारी के मौजूदा संकट के चलते, कंपनियों के शेयर की क़ीमत में ऐतिहासिक गिरावट देखी जा रही है. अगर हम इनमें ऐतिहासिक बढ़त को घटा दें तो भी) स्टॉक मार्केट में कई शेयरों के दाम लगातार गिर रहे हैं. शेयर बाज़ार में कभी जो उत्साह का माहौल रहता था, अब वो ज्वार थम गया है. शेयर बाज़ार के बहुत से निवेशक ये अंदाज़ा लगा रहे हैं कि शेयरों के दामों में जितनी गिरावट आई है, उनमें दोबारा उछाल आने में अभी कई महीने लग जाएंगे. शेयर बाज़ार में निराशा के माहौल के चलते बहुत सी कंपनियों के मालिक, अब अपनी कंपनियों को शेयर बाज़ार से डिलिस्ट(delist) करके फिर से निजी कंपनियां बनाने के बारे में गंभीरता से विचार कर रहे हैं. इनमें भारतीयों के मालिकाना हक़ वाली कंपनियां तो शामिल हैं ही, भारतीय शेयर बाज़ार में दर्ज कई विदेशी मालिकाना हक़ वाली कंपनियां भी इस पर विचार कर रही हैं.

शेयर बाज़ार से डिलिस्टिंग (delisiting) का मतलब ये होता है कि किसी दर्ज कंपनी के शेयरों को स्थायी तौर पर शेयर बाज़ार से हटा लिया जाए. डिलिस्टिंग के बाद स्टॉक एक्सचेंज में कंपनी के शेयरों की ख़रीद-बिक्री नहीं हो सकती. इस पूरी प्रक्रिया की निगरानी सेबी (SEBI) करती है. और इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए कई नियम हैं, जिनका पालन करना ज़रूरी होता है.

किसी भी कंपनी के शेयर, स्टॉक एक्सचेंज से डिलिस्ट करने से उस कंपनी के मालिकों को ये आज़ादी मिल जाती है कि वो सार्वजनिक शेयरधारकों के निरीक्षण के बग़ैर अपने कारोबार की नए सिरे से संरचना कर सकें. कंपनी के भीतर इन बदलावों की समीक्षा मार्केट रेग्यूलेटर भी नहीं कर पाते. काम करने के लिहाज़ से देखें, तो इससे किसी कंपनी को अपने आकार को नए सिरे से ढालने, उत्पादन को फिर से तय करने और मुनाफ़े का टारगेट बदलने की आज़ादी मिल जाती है. डिलिस्टिंग के बाद कंपनी को हर तीन महीने बाद निवेशकों को जवाब नहीं देना होता. न ही नियामक संस्थाओं के प्रति उनकी कोई जवाबदेही रह जाती है. इससे उनका पूरा ध्यान केवल अपनी कंपनी का व्यापार और मुनाफ़ा बढ़ाने पर होता है. डिलिस्टिंग की प्रक्रिया शुरू होने का एक अर्थ ये भी होता है कि कंपनी के मालिक के पास अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए और कंपनी के शेयरों को ख़ुद ख़रीद लेने लिए पूंजी जुटाने की क्षमता है.

किसी भी कंपनी के शेयर, स्टॉक एक्सचेंज से डिलिस्ट करने से उस कंपनी के मालिकों को ये आज़ादी मिल जाती है कि वो सार्वजनिक शेयरधारकों के निरीक्षण के बग़ैर अपने कारोबार की नए सिरे से संरचना कर सकें

हाल के दिनों तक डिलिस्टिंग की प्रक्रिया बेहद मुश्किल होती थी. क्योंकि निवेशक, अक्सर कंपनी के मालिकों से शेयर के बदले में मौजूदा बाज़ार भाव से भी अधिक रक़म मांगा करते थे. इसकी एक मिसाल BOC ग्रुप है. जिसने अपनी घरेलू शाखा लिंडे इंडिया को जून 2019 में शेयर बाज़ार से डिलिस्ट करने की कोशिश की थी. जिसमें वो नाकाम रही थी. अपनी लागत वसूलने के लिए कंपनी के शेयर धारकों ने शेयरों के उस समय के बाज़ार भाव से तीन गुना क़ीमत, मालिकों से मांगी थी. जो शेयर बाज़ार की फ्लोर प्राइस से साढ़े चार गुना अधिक ती. हालांकि, अब हालात अचानक से बदल गए हैं. क्योंकि कोविड-19 के प्रकोप के चलते शेयरों के भाव में गिरावट आ रही है. ऐसे में निवेशक अपने शेयरों को उचित मूल्य पर कंपनी को वापस बेचने के लिए राज़ी हो जाएंगे. इसकी बड़ी वजह कारोबार और शेयर की क़ीमतों के भविष्य को लेकर अनिश्चितता है.

डिलिस्टिंग की श्रेणियां

अनिवार्य डिलिस्टिंग का मतलब है, शेयर बाज़ार से किसी लिस्टेड कंपनी के शेयरों को स्थायी तौर पर हटाना. आम तौर पर शेयर बाज़ार, कंपनियों को दंड देने के लिए ऐसा क़दम उठाते हैं. ऐसा तब होता है, जब कोई कंपनी लिस्टिंग के समझौते की शर्तों का पालन नहीं करती. पिछले पांच वर्षों में भारत के शेयर बाज़ारों से कम से कम एक हज़ार कंपनियों को ज़बरदस्ती डीलिस्ट कर दिया गया. इस दर्जे के तहत डीलिस्ट की गई कंपनियां ये दावा करती हैं कि इसके मालिक या मालिकों के समूह और इसके पूर्णकालिक निदेश, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शेयर बाज़ार तक पहुंच नहीं बना सकते. और वो कम से कम दस साल तक शेयरों को स्टॉक एक्सचेंज में लिस्ट नहीं कर सकते.

वहीं, स्वैच्छिक डीलिस्टिंग में कोई भी लिस्टेड कंपनी ख़ुद से ये तय करती है कि वो अपनी कंपनी के शेयरों को स्थायी तौर पर शेयर बाज़ार से हटा लेगी. और ऐसा करने के लिए वो तय नियमों का पालन करेगी.

अनिवार्य डिलिस्टिंग का मतलब है, शेयर बाज़ार से किसी लिस्टेड कंपनी के शेयरों को स्थायी तौर पर हटाना. आम तौर पर शेयर बाज़ार, कंपनियों को दंड देने के लिए ऐसा क़दम उठाते हैं

सिक्योरिटीज़ ऐंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ़ इंडिया (SEBI) के नियम 4 (शेयरों की डीलिस्टिंग) के अनुसार, स्टॉक एक्सचेंज से शेयरों को इन शर्तों को पूरा किए बिना डीलिस्ट नहीं किया जा सकता-

  • जब तक किसी कंपनी ने अपने शेयरों को स्टॉक एक्सचेंज में लिस्ट करने के तीन साल न पूरे कर लिए हों.
  • कंपनी अपने शेयरों को दोबारा ख़रीदने के मक़सद से ऐसा करे.
  • अगर कोई कंपनी अपने शेयरों को प्राथमिकता के आधार पर आवंटित करना चाहे, तो
  • अगर कंपनी के मालिक या मालिकों द्वारा किसी कंपनी को छह महीने पहले बेच दिया गया हो
  • अगर किसी कंपनी के मालिक या मालिकों का समूह अपने शेयर बेचकर कंपनी से निकलना चाहता हो.

अल्पसंख्यक शेयरधारक और क़ीमतों में अचानक परिवर्तन:

किसी भी शेयर के ऑफ़र प्राइस का एक फ्लोर प्राइस होता है. इसका निर्धारण सेबी के टेकओवर कोड रेग्यूलेशन 2011 के नियम 8 के अनुसार होता है. किसी भी कंपनी के शेयर की कोई अधिकतम सीमा नहीं होती.

फ्लोर प्राइस तय करने के लिए उस तारीख़ को आधार बनाया जाता है, जिस दिन शेयर बाज़ार को कंपनी के बोर्ड उस मीटिंग की जानकारी दी जाती है, जिस बैठक में कंपनी को डीलिस्ट करने के प्रस्ताव पर विचार हुआ.

कंपनी को डीलिस्ट करने के नियमों में अल्पसंख्यक शेयरधारकों के हितों के संरक्षण का भी प्रावधान है. डीलिस्टिंग के प्रस्ताव का न केवल कंपनी के बोर्ड से अनुमोदन होना चाहिए, बल्कि विशेष प्रस्ताव द्वारा इस पर शेयर धारकों की सहमति भी ली जानी आवश्यक है. इसके लिए कम से कम 75 प्रतिशत शेयर धारकों की सहमित होना ज़रूरी है. और ये शेयर धारक उस क़ीमत को भी निर्धारित कर सकते हैं, जिस पर वो अपने शेयर कंपनी के प्रमोटर्स को बेचने पर सहमत हों. इसे रिवर्स बुक बिल्डिंग की प्रक्रिया कहा जाता है.

रिवर्स बुक बिल्डिंग असल में वो प्रक्रिया है, ताकि किसी शेयर के उचित दाम का पता लगाया जा सके. ये एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अंतर्गत शेयर धारकों से शेयर की अलग अलग क़ीमतों के प्रस्ताव लिए जाते हैं. शेयरों के दाम के शेयर धारकों के ये सुझाव फ्लोर प्राइस के बराबर या इससे ज़्यादा हो सकते हैं.

प्रक्रियाओं का अनुपालन:

सेबी के डीलिस्टिंग के नियम बहुत व्यापक हैं. इन्हें ऐसा इसलिए बनाया गया है, ताकि जो कंपनी ख़ुद को शेयर बाज़ार से अलग करना चाहे, तो उसे एक लंबी प्रक्रिया पूरी करनी पड़े, वो भी एक तय समय सीमा के भीतर और पूरी पारदर्शिता के साथ. डीलिस्टिंग का इरादा रखने वाली कंपनी को शेयरों की ख़रीद फ़रोख़्त का हिसाब रखने के लिए मर्चेंट बैंकर और बुक रनिंग मैनेजरों की नियुक्ति करनी पड़ती है. ये वही हो सकते हैं, जो सेबी के साथ पंजीकृत हों.

जो कंपनी शेयर बाज़ार से डीलिस्ट होना चाहती है, उसे इसका सार्वजनिक रूप से एलान करने से पहले एक एस्क्रो एकाउंट (escrow account) खोलना पड़ता है. इस खाते में उस कंपनी को शेयर ख़रीद के लिए तय पूरी रक़म जमा करनी होती है. या फिर वो कंपनी इस रक़म के लिए एक बैंक गारंटी भी दे सकती है. ये रक़म शेयरों के तय हुए फ्लोर प्राइस के आधार पर तय की जाती है. यानी शेयर की तय हुई क़ीमतों का ख़रीदे जाने वाले शेयरों से गुणा किया जाता है. तब एस्क्रो एकाउंट में जमा रक़म निर्धारत होती है. डीलिस्टिंग की पूरी प्रक्रिया के दौरान हर चरण पर कंपनी को सार्वजनिक घोषणाएं करनी होती हैं. ताकि शेयर धारकों को पूरी जानकारी मिलती रहे.

क्या कोई कंपनी डीलिस्ट होने के बाद दोबारा लिस्ट हो सकती है?

किसी भी कंपनी के डीलिस्ट होने के बाद उसे कम से कम दो साल इंतज़ार करना पड़ता है. स्टॉक एक्सचेंज में दोबारा रजिस्टर कराने के लिए उस समय के तय अन्य नियमों का भी पालन करना होता है.

डीलिस्टिंग का कंपनी के बोर्ड प्रशासन पर प्रभाव:

जो कंपनी शेयर बाज़ार से डीलिस्टिंग करना चाहती है, उसके स्वतंत्र निदशकों की ये नैतिक ज़िम्मेदारी होती है कि वो इस पूरी प्रक्रिया के दौरान शेयर धारकों का मार्गदर्शन करें. और अल्पसंख्यक शेयर धारकों के हितों का संरक्षण करें.

कुछ विकसित देशों में ये नियम है कि अल्पसंख्यक शेयर धारकों को दिए गए शेयर के दाम के प्रस्ताव पर कंपनी के स्वतंत्र निदेशक टिप्पणी करें. लेकिन, भारत में डीलिस्टिंग के नियमों में स्वतंत्र निदेशकों पर इतना ज़ोर नहीं दिया जाता है. भारत में स्वतंत्र निदेशकों से सिर्फ़ डीलिस्टिंग प्रक्रिया पर मंज़ूरी ली जाती है. उन्हें कंपनी के शेयर डीलिस्ट करने की वजह भी नहीं बतायी जाती. ये नियम ये कहते हैं कि प्रमोटर कंपनी के पैसों का उपयोग डीलिस्टिंग के लेन-देन में न करने पाएं, इसका ख़ास ख़याल रखा जाना चाहिए.

ये सारा मामला मांग और आपूर्ति का है. अगर शेयर धारकों और कंपनी के प्रमोटर्स को उनके मन मुताबिक़ रक़म मिल रही है, तो डीलिस्टिंग की प्रक्रिया पूरी तरह से सफल रहेगी

कुल मिलाकर कहें तो, डीलिस्टिंग की प्रक्रिया मुक्त बाज़ार के सिद्धांत का इम्तिहान है. नियमों के तहत शेयर धारकों को इस बात का हक़ है कि वो अगर कंपनी के शेयर उसके मालिकों को बेचने को राज़ी हैं, तो अपने मन मुताबिक़ उसके दाम मांगें. यानी लब्बो-लुबाब ये है कि ये सारा मामला मांग और आपूर्ति का है. अगर शेयर धारकों और कंपनी के प्रमोटर्स को उनके मन मुताबिक़ रक़म मिल रही है, तो डीलिस्टिंग की प्रक्रिया पूरी तरह से सफल रहेगी.

किसी भी कंपनी की हिस्सेदारी को शेयर के तौर पर बेचने का मतलब ये होता है कि कंपनी के काम काज, उसके मुनाफ़े और घाटा होने पर उसे शेयर धारकों के साथ साझा किया जा सके. इसमें कंपनी सफल ही होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं होती. भारत की कई कंपनियां, अपने शेयर धारकों की इजाज़त से कंपनी के शेयर की डीलिस्टिंग की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं. और जो लोग डीलिस्टिंग की प्रक्रिया का विरोध कर रहे हैं, वो इस बात को लेकर चिंतित हैं कि प्रमोटर केवल मौक़े का फ़ायदा उठाने की फ़िराक़ में हैं. अब हर बात के पक्ष और विपक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं. उसकी तारीफ़ या आलोचना की जा सकती है. यही तो मुक्त बाज़ार की व्यवस्था है.

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