Author : Sarthak Shukla

Published on Nov 30, 2021 Updated 0 Hours ago

क्या सर्दियों में वायु प्रदूषण की दीर्घकालिक चुनौती को नियामक व्यवस्था के ज़रिए कम किया जा सकता है?

उत्तर भारत में सर्दियों में होने वाला वायु प्रदूषण और पराली का जलना: रेगुलेटरी गवर्नेंस का नज़रिया

दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों के लोग हर साल सर्दियों में ज़हरीले वायु प्रदूषण का सामना करते हैं.  सर्दियों के महीने में ज़हरीला काला धुआं हर साल इस क्षेत्र को घेर लेता है. दिल्ली के पड़ोस में स्थित राज्यों पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में जलाई जाने वाली पराली दिल्ली में सर्दियों के वायु प्रदूषण में क़रीब 30 प्रतिशत का योगदान करती है और इस तरह से सर्दियों के दौरान इस क्षेत्र में वायु प्रदूषण होने और उसकी बढ़ोतरी में पराली बड़े कारणों में से एक है.

पिछले क़रीब पांच वर्षों के मिलते-जुलते पैटर्न की तर्ज पर नासा ने हाल में अपने विज़िबल इन्फ्रारेड इमेजिंग रेडियोमीटर सूट (वीआईआईआरएस) सैटेलाइट तस्वीरों के ज़रिए भारतीय राज्यों पंजाब और हरियाणा के ऊपर खेतों में आग का पता लगाया.

पिछले क़रीब पांच वर्षों के मिलते-जुलते पैटर्न की तर्ज पर नासा ने हाल में अपने विज़िबल इन्फ्रारेड इमेजिंग रेडियोमीटर सूट (वीआईआईआरएस) सैटेलाइट तस्वीरों के ज़रिए भारतीय राज्यों पंजाब और हरियाणा के ऊपर खेतों में आग का पता लगाया. पराली जलाने की लगातार घटनाओं और उसके बाद वायु प्रदूषण के अलावा कई और महत्वपूर्ण घटनाक्रम हैं जो हर साल इसी समय के दौरान ख़ुद को दोहराती हैं. 

पराली जलाने की लगातार घटनाओं और उसके बाद वायु प्रदूषण के अलावा कई और महत्वपूर्ण घटनाक्रम हैं जो हर साल इसी समय के दौरान ख़ुद को दोहराती हैं. इनमें से एक घटनाक्रम है न्यायपालिका और सरकार के अंग कार्यपालिका का सक्रिय होना. पिछले वर्षों की तरह ही हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे का संज्ञान लिया और वायु प्रदूषण और पराली जलाने के ख़तरे को लेकर वो टिप्पणियां कर रहा है और निर्देश दे रहा है. वास्तव में 2016 से सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) पराली जलाने और यहां तक कि दिवाली के दौरान दिल्ली में पटाखे चलाने को लेकर भी फ़ैसले जारी कर रहे हैं. अलग-अलग राज्य सरकारें मज़ाकिया युद्ध करने लगती हैं और सहकारी संघवाद की भावना का पूरी तरह उल्लंघन करते हुए संरक्षणवादी और एक राज्य के द्वारा जिस चुनौती का सामना किया जा रहा है, उसके लिए दूसरे राज्य पर आरोप लगाने के संकीर्ण रवैये का प्रदर्शन करती हैं. फिर इसके बाद अलग-अलग राज्य सरकारें ख़ुद दावा करती हैं कि उन्होंने “हालात बदलने वाले” उपाय किए हैं जिनमें स्मॉग टावर बनाना, ऑड-ईवन नीति लागू करना और स्कूल, निर्माण एवं दूसरी रोज़ाना की गतिविधियों को बंद करना शामिल हैं.

पंजाब और हरियाणा की राज्य सरकारों ने भी पराली जलाने के चलन पर पाबंदी लगाई है, पराली जलाने वालों पर जुर्माना लगाया है और इसके साथ-साथ किसानों को गिरफ़्तार करने और उन्हें जेल भेजने के लिए धारा 144 की सहायता भी ली है. किसानों और किसान संगठनों को कम क़ीमत पर हैप्पी सीडर मशीन मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सब्सिडी कार्यक्रम भी हैं. अलग-अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ इस संकट से निपटने के लिए सुझावों की बौछार कर देते हैं. अख़बारों के पन्ने इस मुद्दे के इर्द-गिर्द लेखों से भर जाते हैं. थिंक टैंक और रिसर्च संगठन ज़िम्मेदार अधिकारियों को तुरंत असरदार क़दम उठाने का संकेत देने वाली रिपोर्ट पर मंथन करते हैं.

स्पष्ट तौर पर नियामक समस्या को बताने की एक मुख्य विशेषता है कि ये गौर करने और नियंत्रण के योग्य हो. इसका अर्थ ये है कि सबसे पहले समस्या का कारण बनने वाले बर्ताव को ठीक करके उम्मीद की जा सकती है कि किस हद तक समस्या का समाधान किया जा सकता है. 

लेकिन इसके बावजूद हर साल सरकारें पराली जलाने पर उतरने वाले किसानों के सामने असहाय और कमज़ोर दिखती हैं. विडंबना है कि किसान पराली जलाने का ये कारण बताते हैं कि वो समय पर रबी की नई फसल बोने के दबाव के आगे ख़ुद को मजबूर महसूस करते हैं और सरकार की योजनाओं और सब्सिडी में वो भरोसे की कमी पाते हैं.

एक नियामक समस्या

इन सभी घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में एक महत्वपूर्ण नियामक समस्या है जिस पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जाता है. नियामक समस्या का मतलब है ऐसी समस्या जिसके नियामक समाधान की ज़रूरत हो; ऐसा समाधान जिसमें लोगों के बर्ताव पर नियम बनाना शामिल है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में पराली जलाने की वजह से सर्दियों में वायु प्रदूषण को लेकर चिंता में डालने वाली मुख्य नियामक समस्या इसमें शामिल हिस्सेदारों का ज़िद्दी बर्ताव है. पराली जलाने की वजह से पर्यावरण और स्वास्थ्य संबंधी नकारात्मक परिणामों के बारे में जानने के बावजूद किसानों ने ये चलन जारी रखा है. सरकार और क़ानून लागू करने वाली एजेंसियां इस चुनौती से निपटने में परंपरागत तौर-तरीक़ों की नाकामी के बावजूद उसी दृष्टिकोण पर अभी भी बनी हुई हैं. इन दो बड़े हिस्सेदारों के अलावा समाज के बर्ताव में दोहराव और समस्या को लेकर समाज की सोच एक और चिंताजनक घटनाक्रम है.

 2018 में प्रधानमंत्री ने किसानों और किसान संगठनों को कम क़ीमत पर हैप्पी सीडर मशीन मुहैया कराने के लिए एक फंड की स्थापना की. लेकिन इसके बावजूद व्यावहारिक चुनौतियां बनी रही और जिन नतीजों की उम्मीद की गई थी, वो हासिल नहीं हो पाया. 

नियामक व्यवस्था का विज्ञान नियामक समस्या से निपटने में सिलसिलेवार प्रक्रिया का पालन करने का तर्क देता है.

पहला क़दम नियामक समस्या को प्रभावशाली ढंग से स्पष्ट करना है. स्पष्ट तौर पर नियामक समस्या को बताने की एक मुख्य विशेषता है कि ये गौर करने और नियंत्रण के योग्य हो. इसका अर्थ ये है कि सबसे पहले समस्या का कारण बनने वाले बर्ताव को ठीक करके उम्मीद की जा सकती है कि किस हद तक समस्या का समाधान किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, अगर जानबूझकर पराली जलाने का किसानों का बर्ताव नियामक समस्या है तो इस बात का विश्वसनीय सबूत होना चाहिए कि इस बर्ताव को रोकने से उम्मीद के मुताबिक़ नतीजे मिलेंगे.

अगला और शायद सबसे महत्वपूर्ण क़दम उन नियामक समस्याओं की व्यापक खोज है, जिनका समाधान होना है. इसका मतलब है चर्चा में शामिल समस्या के सभी संभावित कारणों का मानचित्र तैयार करने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना. पराली जलाने की वजह से सर्दियों में वायु प्रदूषण के मामले में कारण बताने वाले विश्लेषण की कई परतों की ज़रूरत है. सबसे पहले इस बात को मानने की ज़रूरत है कि सर्दियों के वायु प्रदूषण के लिए पराली जलाने के अलावा कई और कारण ज़िम्मेदार हैं. कई मानवजनित कारण हैं जो वातावरण में प्रदूषण के स्तर को और बदतर बनाते हैं जैसे वाहनों का उत्सर्जन, औद्योगिक प्रदूषण, कूड़ा प्रदूषण और अन्य. इन सबके ऊपर प्राकृतिक मौसम से जुड़े कारण हैं जैसे हवा की कम रफ़्तार और कम बारिश जो प्रदूषण पैदा करने वाले इन तत्वों को अटकाते हैं और समस्या की तीव्रता में बढ़ोतरी करते हैं. प्रदूषण संकट को किस सीमा तक कम किया जा सकता है और इस समस्या के अनियंत्रित हिस्से से निपटने के लिए आवश्यक अनुकूलन उपायों के महत्व को निर्धारित करने में स्वीकृति अहम है.

समाधान की नाकामी

ये क़दम मौजूदा समस्या की तलाश करते समय एक समग्र सोच वाले दृष्टिकोण को अपनाने की आवश्यकता पर भी प्रकाश डालते हैं. इसको समझने का तरीक़ा इसके कारणों की गहराई तक जाना है. सिर्फ़ ऊपरी कारणों को जानना नहीं है. उदाहरण के लिए, कृषि क्षेत्र में ऐसी घटनाएं हुई हैं जो पराली जलाने की चुनौती को बढ़ाते हैं. चावल के निर्यात की विशाल संभावना को देखते हुए किसान इसका उत्पादन बढ़ाने के लिए आतुर हैं. इसके अलावा उत्तर भारत में एक वर्ष के दौरान एक से ज़्यादा फसल चक्र को लेकर बढ़ते दबाव के साथ, ख़ास तौर पर हरित क्रांति के बाद, किसानों के पास चावल की फसल काटने और अगले चक्र के लिए बुआई के बीच काफ़ी कम समय बचता है. लाभार्थियों तक पहुंच में सरकार प्रायोजित समाधान की नाकामी एक और कारण है जो पराली जलाने के चलन का लगातार जारी रखना सुनिश्चित करता है. 2018 में प्रधानमंत्री ने किसानों और किसान संगठनों को कम क़ीमत पर हैप्पी सीडर मशीन मुहैया कराने के लिए एक फंड की स्थापना की. लेकिन इसके बावजूद व्यावहारिक चुनौतियां बनी रही और जिन नतीजों की उम्मीद की गई थी, वो हासिल नहीं हो पाया. इस फंड में चार वर्षों के दौरान 30 करोड़ अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा रक़म जमा हो गई है लेकिन पराली साफ़ करने की मशीन अभी भी किसानों की पहुंच से दूर बनी हुई है. इस फंड से हैप्पी सीडर मशीन के लिए सब्सिडी तो मिलती है लेकिन इसमें ट्रैक्टर और ट्रॉली की क़ीमत शामिल नहीं हैं जो कि हैप्पी सीडर मशीनों के मुक़ाबले महंगी मिलती हैं और धान के खेतों से पराली को असरदार ढंग से हटाने के लिए आवश्यक हैं. इसके अलावा किसानों को हैप्पी सीडर मशीनों के लिए पहले एकमुश्त पैसा जमा करना पड़ता है और उसके बाद उन्हें सब्सिडी की रक़म मिलती है. ये स्थिति ज़्यादातर किसानों के लिए मुश्किल है जो लगातार नकदी की कमी और फसल के बदले रक़म मिलने का इंतज़ार करते रहते हैं. इसी तरह कई और मुद्दे हैं जो मौजूदा समाधान को बेअसर बना देते हैं और पराली जलाने और उसके परिणामस्वरूप उत्तर भारत में वायु प्रदूषण के संकट को बढ़ाते हैं.

 इस समाधान की सभी संभावित लागत और लाभ की व्यापक समीक्षा के बाद जिन स्थानीय परिस्थितियों के तहत इन्हें लागू किया जाना है, उनको ध्यान में रखते हुए नियामक हस्तक्षेप का सबसे बेहतरीन मिश्रण तैयार करने की ज़रूरत है. 

नियामक एल्गोरिदम में अगला क़दम समस्या के समाधान की विस्तृत सूची की गिनती है जो पिछले क़दमों में पता लगाई गई वजहों की व्यापक सूची से निपटने में मदद कर सकती है. इनमें  तकनीकी हस्तक्षेप, फंड एवं सब्सिडी का बेहतर इस्तेमाल, संरचनात्मक हस्तक्षेप, नीति आधारित अनुशंसा, लेन-देन के साधन और हस्तक्षेप के आर्थिक साधन शामिल हैं. उदाहरण के लिए, पराली जलाने की चुनौती के लिए संभावित समाधान में दूसरी चीज़ों के अलावा समर्पित सूचना अभियान, कम क़ीमत पर उपकरण और तकनीक मुहैया कराना, रिसर्च में निवेश, विकास और विस्तार सेवाएं, किसानों और सरकार को खुले रूप से अपनी-अपनी चिंताओं पर चर्चा करने के लिए एक मंच मुहैया कराना और वित्तीय प्रोत्साहन एवं दूसरी नीतियों में गड़बड़ी को दुरुस्त करना शामिल हैं.

एक बार व्यापक सूची तैयार होने के बाद अगला क़दम सभी समाधानों की मात्रात्मक और गुणात्मक लागत और लाभ में सख्त आत्मविश्लेषण, छानबीन और गहन पूछताछ के ज़रिए मूल्यांकन करना है. उदाहरण के लिए, लागत या तो उपकरण और मशीन की क़ीमत हो सकती है या किसी नीति आधारित हस्तक्षेप की प्रशासनिक लागत. आख़िर में, इस समाधान की सभी संभावित लागत और लाभ की व्यापक समीक्षा के बाद जिन स्थानीय परिस्थितियों के तहत इन्हें लागू किया जाना है, उनको ध्यान में रखते हुए नियामक हस्तक्षेप का सबसे बेहतरीन मिश्रण तैयार करने की ज़रूरत है. इसका तात्पर्य दूसरी चीज़ों के अलावा स्थानीय सरकार की क्षमताओं, मौसम के हालात, जनसांख्यिकी, सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं का ध्यान रखना है जिनका प्रस्तावित समाधान की कार्यकुशलता पर महत्वपूर्ण असर है.

इस तरह पराली के जलाने से सर्दियों में वायु प्रदूषण की चुनौती से निपटने में भरोसेमंद कामयाबी हासिल करने के लिए जुगाड़ से परहेज़ और कठोर फ़ैसले लेना समय की ज़रूरत है. और स्पष्ट रूप से कठोर फ़ैसलों के लिए पीछे से सख्त आकलन की ज़रूरत है. नियामक व्यवस्था का विज्ञान इसके लिए एक उपयुक्त रूप-रेखा प्रस्तुत करता है. इसके साथ राजनीतिक फ़ैसले लेने की कला पराली जलाने के मुद्दे के व्यापक और प्रभावशाली समाधान के लिए असरदार तरीक़ा है.

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