Author : Sushant Sareen

Published on Jan 03, 2019 Updated 0 Hours ago

जम्मू-कश्मीर एक राजनीतिक दुष्चक्र में फंसा हुआ है, क्या राष्ट्रपति शासन उसे इस दुष्चक्र से बाहर निकालने में सफल हो पाएगा?

क्या राष्ट्रपति शासन कश्मीर को राजनीतिक दुष्चक्र से बाहर निकालेगा?

जम्मू कश्मीर में पीडीपी और भाजपा गठबंधन सरकार के अपने अंतर्विरोधों के बोझ से गिर जाने के बाद छह महीने तक राज्यपाल शासन लागू रहा और अब वहां राष्ट्रपति शासन लागू है यानि शासन चलाने की जिम्मेदारी राष्ट्रपति पर आ गयी है।

हांलाकि, राष्ट्रपति शासन के दौरान प्रशासनिक व्यवस्था और राजनीतिक नियंत्रण में जमीनी स्तर पर कोई बदलाव नही होता क्योंकि राज्यपाल केन्द्र सरकार के समर्थन से पहले की तरह ही शासन की जिम्मेदारी निभाते रहते हैं।

इसलिए यह व्यवस्था अगले चरण के पहले तक की एक संक्रमणकालीन व्यवस्था है जब तक कि राज्य में विधानसभा चुनाव नहीं हो जाते और नयी निर्वाचित सरकार अपना काम काज नहीं संभाल लेती।

राज्यपाल शासन में कई कामयाबियां मिलीं

पिछले छह महीनों में कई महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक नये राज्यपाल ने कामकाज संभाला और व्यवस्था में रद्दोबदल शुरु किया। सुरक्षा के मोर्चे पर राज्यपाल ने सुरक्षा बलों को आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों में अपेक्षाकृत ज्यादा आजादी दी।

विकेट के दोनों छोरों से खेलने की चाहत रखने वाले राजनीतिज्ञों की बेड़ियों से मुक्त होने के बाद सुरक्षा बलों को राज्य के कई खूंखार आतंकवादियों को खत्म करने में कामयाबी मिली। प्रशासनिक स्तर पर भी हालात बदलने शुरु हुए और निर्वाचित सरकार के दौरान प्रशासन में जो सुस्ती और निष्क्रियता छाई हुई थी उसमें बदलाव आना शुरू हुआ।

राज्य में कामकाज होना शुरु हो गया और लंबे समय से लंबित फाइलें निपटाई जाने लगीं। फैसले लिये जाने लगे और लोगों की समस्याओं के निराकरण के लिए बेहतर ढंग से प्रयास शुरु हुए।

विडंबना ये है कि ये सब कुछ निर्वाचित राजनीतिज्ञों के माध्यम से होना था लेकिन ऐसा हो नहीं पाया था।

सबसे महत्वपू्र्ण बदलाव हांलाकि, राजनीतिक मोर्चे पर आया। हिंसा की घटनाओं ने राज्य में राजनीतिक प्रक्रियाओं को बाधित कर दिया था। राजनीतिक नेता और कार्यकर्ता निराश होने लगे थे। यद्यपि विधानसभा अस्तित्व में थी और इसे निलंबित रखा गया था लेकिन राजनीतिक वर्ग हर जगह से नदारद था।

राज्यपाल का सबसे महत्वपूर्ण कार्य — राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत

राज्यपाल ने राज्य में स्थानीय निकाय के चुनावों का ऐलान करके राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत की। निर्वाचित राजनीतिक सरकार ने इसे काफी दिनों से लटका कर रखा था और वो सरकार अधिकारों को जमीनी स्तर से पहुंचाने को लेकर उत्साहित नहीं थी।

शुरु में इन चुनावों की उपयोगिता को लेकर संदेह का माहौल था और वो भी खास कर तब जब कश्मीर की दो प्रमुख पार्टियों नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने चुनावों का बहिष्कार कर दिया था। लेकिन राज्यपाल ने इन पार्टियों की मंशा समझ ली और उनकी राजनीतिक धमकियों के समक्ष झुकने से इंकार कर दिया।

यद्यपि घाटी के कुछ हिस्सों में मतदान का प्रतिशत काफी कम रहा लेकिन इसकी वजह से राजनीतिज्ञों का एक नया वर्ग उभर कर सामने आया। अचानक दोनों दलों को ये महसूस हुआ कि राजनीतिक जमीन उनके पैरों के नीचे से खिसक रही है और उनके चुनाव बहिष्कार की वजह से जो जगह खाली हुई है उसे भरने के लिए सज्जाद लोन जैसे नये दावेदार खुद को साबित करने के लिए सामने आ रहे हैं।

सबसे बड़ी बात ये हुई कि उनके चुनाव बहिष्कार ने बीजेपी को ना सिर्फ वार्डों को जीतने का मौका दिया बल्कि कुछ स्थानीय निकायों पर भी कब्जे का अवसर प्रदान किया जिसके बारे में सोचा नहीं जा सकता था अगर नेशनल कांफ्रेंस या पीडीपी चुनाव में खड़े होते। राजनीतिक तौर पर दरकिनार किये जाने और अप्रासंगिक होने के भय ने इन दोनों दलों को पंचायत चुनाव में भाग लेने के लिए मजबूर कर दिया जिसके कारण मतदान का प्रतिशत काफी हद तक बढ़ गया।

नये चुनाव, नयी उम्मीदें

लेकिन इससे जो राजनीतिक प्रक्रिया शुरु हुई इससे नये राजनीतिक गठबंधनों की भूमिका बनी। पीडीपी दो पाटों के बीच फंसी नजर आने लगी। पार्टी में असंतोष बढ़ने लगा और कई नेताओं ने पार्टी छोड़ दी।

पीडीपी पर विभाजन का खतरा मंडरा रहा है और इसके प्रभुत्व वाले दक्षिण कश्मीर में सबसे ज्यादा हिंसा की घटनाएं हुईं हैं। इसका अर्थ ये कि पीडीपी काफी हद तक अपना राजनीतिक आधार गंवा चुकी है। एनसी भी इसकी आंच महसूस कर रही है। यही कारण रहा होगा जिसने दोनों बड़ी पार्टियों को साथ आने और कांग्रेस का समर्थन लेकर नयी सरकार के गठन के लिए प्रेरित किया होगा ताकि सज्जाद लोन के मनसूबे को तोड़ा जा सके जो पीडीपी विधायकों के एक गुट को साथ लेकर बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाने का दावा करने की तैयारी में थे।

दोनों ओर के दावों के बीच जो राजनीतिक नौटंकी शुरु हुई उसका क्लाइमेक्स नवंबर के आखिरी हफ्ते नजर आया जब विधानसभा भंग कर दी गयी।

विधानसभा भंग होने के बाद राज्य अब राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत है और अब नये चुनावों की तैयारी है जो संभवतया 2019 के मध्य में संसदीय चुनावों के साथ संपन्न होंगे।

जो परिस्थितियां हैं उसके आधार पर कहा जा सकता है कि राज्य में अब विधानसभा या संसदीय चुनावों का बहिष्कार नहीं होगा सिर्फ कुछ संदेहास्पद तत्वों को नजरअंदाज कर दिया जाये तो, जैसे अलगाववादियों, आतंकवादियों और उनसे प्रभावित कुछ गुटों को जिनकी वहां कोई हिस्सेदारी नहीं है।

हो सकता है कि मतदान का प्रतिशत ज्यादा नहीं हो जैसा कि पिछले चुनावों में रहा है लेकिन स्थिति अपेक्षाकृत ज्यादा बेहतर होगी। इसमें अच्छी खबर यही है।

बुरी खबर ये है कि ऐसा होना मुमकिन नहीं दिखता कि चुनावों के बाद ज्यादा राजनीतिक स्थायित्व आयेगा । इसकी संभावना ज्यादा है कि चुनावों के बाद ऐसा जनादेश आये जो राज्य की अनिश्चितता और अस्थिरता को और बढ़ा दे। बुरी बात ये भी है कि राजनीतिक वर्ग ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है जिससे ये लगे कि इसके पास कोई योजना और दृष्टिकोण है जो राज्य को गर्त से बाहर निकाल सके और राज्य के लोगों की समस्याओं का समाधान कर सके।

निराशा की बड़ी वजह ये है कि राज्य में राजनीति का बहुस्तरीय विभाजन हो चुका है। जम्मू कश्मीर आज के समय में न सिर्फ सांप्रदायिक स्तर पर बल्कि क्षेत्रीय और उपक्षेत्रीय स्तर पर भी विभाजित हो चुका है। इनमें से कुछ विभाजन पुराने हैं जैसे हिंदू बनाम मुस्लिम बनाम बौद्ध और जम्मू बनाम कशमीर बनाम लद्दाख।

लेकिन अब नये तरीके के विभाजन भी सामने आ रहे हैं जैसे उत्तरी बनाम मध्यवर्ती बनाम दक्षिणी कश्मीर, जम्मू क्षेत्र में हिंदू वर्चस्व बनाम मुस्लिम वर्चस्व वाले जिले, लद्दाख में करगिल बनाम लेह।

राजनीति के बहुस्तरीय विभाजन को देखते हुए इस तरह के सरकार के बनने की संभावना कम दिखती है जो विभिन्न हितों को समाहित करे और उनका प्रतिनिधित्व करे।

वास्तविकता ये है कि इस तरह के आखिरी प्रयास के तौर पर कश्मीर में दखल रखने वाली पीडीपी और जम्मू में दखल रखने वाली बीजेपी के बीच का गठबंधन ज्यादा कामयाब नहीं रहा। और अगर पीडीपी, एनसी और कांग्रेस के बीच गठबंधन से घाटी के दबदबे वाली सरकार बनाने में कामयाबी मिली होती तो भी ये जम्मू और लद्दाख को अलग थलग कर देता और इससे उन इलाकों में राजनीतिक असंतोष को हवा मिलती।

कश्मीर त्रासदी

अगले विधानसभा चुनावों में स्थिति और बिगड़ने के आसार हैं। अगर स्थानीय निकाय और पंचायत चुनावों के संकेत को समझा जाये तो घाटी में जनादेश चार भागों में विभक्त होगा यानि सज्जाद के नेतृत्व वाले पीपुल्स कांफ्रेंस, एनसी, पीडीपी और कांग्रेस के बीच। जम्मू में जनादेश बीजेपी और कांग्रेस के बीच बंटेगा जिसमें से बड़ा हिस्से बीजेपी और कांग्रेस के खाते में जायेगा और छोटे दलों को छिटपुट सीटें मिलेंगी।

अगर राजनीतिज्ञ किसी तरह से विभाजनकारी राजनीति पर पार पा भी लेते हैं और सरकार का गठन कर भी लेते हैं तो उन्हें सरकार चलानी पड़ेगी।

लेकिन ये काम उनकी छल कपट की प्रवृत्ति, आतंकवादियों के साथ मेलजोल, भीड़ के साथ साठ गांठ, हिंसा के प्रति दोहरे रवैये की वजह से आसान नहीं होगा जिसकी वजह से घाटी में कहर बरपा हुआ है। उनके दोहरे रुख और आतंकवाद पर उनकी दोहरी नीति की वजह से भी इसमें मुश्किलें आयेंगी जिसकी वजह से कश्मीर में हालात बिगड़ गये हैं।

कश्मीर इस समय व्यग्रता से उस शख्स की प्रतीक्षा कर रहा है जो राज्य को इस दुष्चक्र से बाहर निकाल सके। चुनावों के बाद भी कश्मीर की स्थिति कमोबेश यही रहने की संभावना है।

कश्मीर भारत की वजह से विफल नहीं हुआ है जितना कि ये कश्मीरी नेताओं की वजह से हुआ है। यही कश्मीर की त्रासदी है और ये स्थिति एक और चुनाव के बाद भी खत्म नहीं होगी।


ये आलेख मूल रूप से द क्विंट में प्रकाशित हुआ था।

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