Author : Rajiv Jayaram

Published on Sep 16, 2020 Updated 0 Hours ago

अमेरिका और तालिबान के बीच हुए शांति समझौते पर मंडरा रहा सबसे बड़ा ख़तरा इसे लेकर डोनाल्ड ट्रंप की अति उत्सुकता है. ट्रंप इस बात पर आमादा हैं कि वो इस समझौते को जल्द से जल्द कामयाब घोषित करके अफ़ग़ानिस्तान से पहली फ़ुरसत में अपने सैनिक वापस बुला लें.

क्या डोनाल्ड ट्रंप का अफ़ग़ान समझौता बरक़रार रह पाएगा?

20 अगस्त को डेमोक्रेटिक पार्टी की नेशनल कन्वेंशन में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने भाषण में उस परंपरा को तोड़ दिया, जिसके अंतर्गत पूर्व राष्ट्रपति अपने उत्तराधिकारियों को लेकर सम्मानजनक ख़ामोशी बनाए रखते हैं. ओबामा ने इस भाषण में मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर ज़ोरदार हमला बोलते हुए कहा कि ट्रंप ने अमेरिका के राष्ट्रपति पद को, ‘एक रियालिटी शो जैसा बनाकर रख दिया है, जिसमें वो हर वक़्त देश और दुनिया का ध्यान आकर्षित करने पर आमादा हैं.’

3 नवंबर को अमेरिका में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव ये तय करेंगे कि डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने रहेंगे, या उनकी जगह डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडेन लेंगे. दूसरे शब्दों में कहें तो तीन नवंबर के मतदान से तय होगा कि ट्रंप का राष्ट्रपति वाला रियालिटी शो जारी रहेगा या उसका अंत होगा. इस चुनावी चैलेंज से निपटने के लिए राष्ट्रपति ट्रंप अपने पहले कार्यकाल के दौरान जिन बड़ी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटना चाह रहे हैं, उनमें से एक विदेश नीति के मोर्चे की है. और ये है 29 फरवरी को हुआ शांति समझौता, जो अमेरिकी सरकार ने आतंकवादी संगठन तालिबान से किया है. इस समझौते के तहत अफ़ग़ानिस्तान में राष्ट्रीय एकीकरण के लिए नई दिशा तलाशने की कोशिश की जा रही है. जिसमें आगे चलकर अफ़ग़ानिस्तान में तैनात अमेरिका और उसके साथी नाटो देशों की सेनाओं को अगले 14 महीनों में पूरी तह से अफ़ग़ानिस्तान वापस बुलाना है. इससे, आतंकवाद के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान में क़रीब दो दशकों से चल रहे युद्ध का पटाक्षेप हो जाएगा. अमेरिका ने इस संधि के तहत पहले ही अफ़ग़ानिस्तान में अपने कई सैनिक अड्डे बंद कर दिए हैं. और इस साल के अंत तक अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद उसके बारह हज़ार सैनिकों में से पांच हज़ार से कम ही वहां तैनात रहेंगे.

ट्रंप ने आगे कहा कि, ‘चूंकि प्रेसीडेंट ओबामा ने अच्छा काम नहीं किया. और ओबामा व जो बाइडेन की करनी का ही नतीजा है कि मैं देश का राष्ट्रपति बन सका. उन्होंने अपना काम इतने ख़राब तरीक़े से किया कि आज मैं आपके सामने राष्ट्रपति के रूप में खड़ा हूं.’

और जैसी की उम्मीद थी, ओबामा के इस हमले का राष्ट्रपति ट्रंप ने भी तीखा जवाब दिया. ट्रंप ने कहा कि, ये उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति बराक ओबामा के बेअसर और भयंकर राष्ट्रपति कार्यकाल का ही नतीजा था कि वो राष्ट्रपति चुने गए थे. ट्रंप ने आगे कहा कि, ‘चूंकि प्रेसीडेंट ओबामा ने अच्छा काम नहीं किया. और ओबामा व जो बाइडेन की करनी का ही नतीजा है कि मैं देश का राष्ट्रपति बन सका. उन्होंने अपना काम इतने ख़राब तरीक़े से किया कि आज मैं आपके सामने राष्ट्रपति के रूप में खड़ा हूं.’

ट्रंप ने ओबामा और जो बाइडेन की जो आलोचना की, वो भी कुछ हद तक उचित है. क्योंकि राष्ट्रपति के तौर पर बराक ओबामा की कई नीतियां बुरी तरह असफल रही थीं. याद कीजिए कि अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे संघर्ष को लेकर उनकी विदेश और सैन्य नीति कैसे पूरे कार्यकाल के दौरान लड़खड़ाती रही थी. अफ़ग़ानिस्तान एक ऐसा युद्ध क्षेत्र था, जिसका सीधा असर अमेरिकी सैनिक ताक़त पर पड़ रहा था. बराक ओबामा इस वादे के साथ राष्ट्रपति चुनाव जीते थे कि वो अफ़ग़ानिस्तान में उस युद्ध को समाप्त करेंगे, जिसे उनके पूर्ववर्ती ने ज़रूरत वाली जंग क़रार दिया था. राष्ट्रपति बनने के बाद बराक ओबामा ने शुरुआत में अफ़ग़ानिस्तान में राष्ट्र निर्माण की नीति पर चलने की कोशिश की. इसके साथ साथ अमेरिकी सेना तालिबान को जंग के मोर्चे पर शिकस्त देने की कोशिश करती रही थी. ये ठीक वैसी ही नीति थी, जिस पर ओबामा से पहले राष्ट्रपति रहे जॉर्ज डब्ल्यू. बुश चलते आए थे. लेकिन, ओबामा की ये नीति कारगर नहीं साबित हुई. इसके बाद ओबामा प्रशासन ने अपनी अफ़ग़ानिस्तान नीति को बदलते हुए सैन्य क्षेत्र में तालिबान को हराने, मज़बूत मोर्चा बनाने, उस पर क़ायम रहने और अंत में वो इलाक़ा अफ़ग़ानिस्तान की सेना को सौंपने की नीति पर अमल किया. पर, ओबामा की ये नीति भी नाकाम साबित हुई. जिस समय ओबामा ने 2009 में बहुचर्चित ‘ट्रंप सर्ज’ यानी अफ़ग़ानिस्तान में सैनिकों की संख्या बढ़ाने की नीति का एलान किया था, उस समय उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिक वापस बुलाने के लिए वर्ष 2011 की डेडलाइन भी घोषित की थी. लेकिन, सैनिक बढ़ाकर भी बराक ओबामा अफ़ग़ानिस्तान में अपने नीतिगत लक्ष्य हासिल नहीं कर सके. तालिबान के हाथों बार-बार पिटने और प्रशासन के सिविलियन अधिकारियों से संघर्ष के चलते ओबामा ने अपने कार्यकाल में कई टॉप सैन्य कमांडरों को उनके पद से बर्ख़ास्त कर दिया था.

2014 में अपने स्टेट ऑफ़ द यूनियन संबोधन में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने घोषणा की कि, ‘अफ़ग़ानिस्तान में चल रहा युद्ध अब अंत के नज़दीक पहुंच गया है.’ पर, सच्चाई ये थी कि अफ़ग़ानिस्तान में संघर्ष का कोई अंत नहीं हुआ.

इसके बाद ओबामा ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिक वापस बुलाने के लिए एक नई डेडलाइन तैय की. मौजूदा राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी जो बाइडेन उस समय ओबामा के उप राष्ट्रपति थे. बाइडेन ने दिसंबर 2010 में मीडिया में बड़े ज़ोर शोर से एलान किया था कि उनकी सरकार 2012 की गर्मियों से अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिक वापस बुलाने का अभियान शुरू करने जा रही है. तब जो बाइडेन ने बड़े सख्त लहज़े में कहा था, ‘हम अफ़ग़ानिस्तान से हटने जा रहे हैं. अब वो देश चाहे जन्नत बने या फिर स्वर्ग, मगर हम 2014 तक अपने सभी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान से वापस बुला लेंगे.’ पर, एक महीने बाद ही पाकिस्तान के दौरे पर गए बाइडेन को अपने शब्द वापस लेने पड़े. वैसे भी जो बाइडेन गफ़लत में ग़लतबयानी के लिए बदनाम हैं. पाकिस्तान दौरे में बाइडेन को अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना वापस बुलाने की अपनी घोषणा को वापस लेना पड़ा. तब जो बाइडेन ने कहा था कि अगर अफ़ग़ानिस्तान की जनता चाहेगी, तो उनके सैनिक 2014 में अपने देश वापस नहीं जाएंगे.

2014 में अपने स्टेट ऑफ़ द यूनियन संबोधन में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने घोषणा की कि, ‘अफ़ग़ानिस्तान में चल रहा युद्ध अब अंत के नज़दीक पहुंच गया है.’ पर, सच्चाई ये थी कि अफ़ग़ानिस्तान में संघर्ष का कोई अंत नहीं हुआ. जनवरी 2017 में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने दूसरे कार्यकाल के अंत में घुटने टेकते हुए विदेश नीति के इस संकट को नए राष्ट्रपति, डोनाल्ड ट्रंप के हवाले कर दिया. अमेरिका की अफ़ग़ानिस्तान नीति का लक्ष्य तालिबान की चिंदियां उड़ाना था. मगर, ये लक्ष्य हासिल करने के बजाय अमेरिका की अफ़ग़ान नीति पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो चुकी थी. तालिबान को कुचल पाना तो दूर, अब अमेरिका के सामने चुनौती इस बात की थी कि तालिबान के विजय रथ को कैसे रोका जाएगा. जब ओबामा का कार्यकाल ख़त्म हुआ, तो अफ़ग़ानिस्तान का युद्ध अमेरिका की सबसे लंबी जंग के स्याह खिताब से नवाजा जा चुका था. ख़ुद अमेरिका के जनरल ये मान रहे थे कि अमेरिकी सेना अफ़ग़ानिस्तान के दलदल में फंस चुकी है.

क़रीब 16 बरस तक अफ़ग़ानिस्तान में जंग लड़ने के बाद अमेरिकी जनरल जब ये कह रहे थे कि युद्ध फंस गया है. या उसमें गतिरोध आ गया है, तो ये बात ख़ुद उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रही थी. क्योंकि सच्चाई तो ये थी कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की सरपरस्ती में बनी सरकार के हाथों से काफ़ी इलाक़े निकलकर तालिबान के क़ब्ज़े में जा चुके थे. अफ़ग़ानिस्तान की सरकार भ्रष्ट थी, बुरी तरह निराश थी और अक्सर अफ़ग़ानिस्तान की सेना के सैनिक भगोड़े बन कर दुश्मन यानी तालिबान से जा मिलते थे. इन सभी वजहों से तालिबान, अफ़ग़ानिस्तान में लगातार ताक़तवर होते जा रहे थे. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की रणनीति का केंद्र में वो योजना थी, जिसके तहत अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान की अपनी पेशेवर सेना खड़ी करना चाह रहा था. जिसे अफ़ग़ानिस्तान राष्ट्रीय सुरक्षा बल (ANSF) नाम दिया गया था. इस अफ़ग़ानी सेना की मदद से अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान पर इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन तालिबान का क़ब्ज़ा रोकना चाहता था. और साथ ही साथ उसकी रणनीति ये थी कि जब अमेरिका और नैटो की सेनाएं अफ़ग़ानिस्तान से हटें, तो ख़ुद वहां के सैनिक अपने देश की रक्षा तालिबान से कर सकें. लेकिन, ड्रग्स के कारोबार और पाकिस्तान की मदद से तालिबानी लड़ाके लगातार भयंकर हमले करते रहे. और जंग के मैदान में अपनी जीत से अफ़ग़ानिस्तान में अपने शासन वाले इलाक़े का दायरा लगातार बढ़ाते रहे. इसके कारण अफ़ग़ानिस्तान की सेना के हौसले बुरी तरह टूट चुके हैं. वो अमेरिकी सैनिकों के पिछलग्गू बन कर ही जंग के मैदान में जाते हैं. अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए अमेरिका के विशेष इंस्पेक्टर जनरल (SIGAR) की ओर से जनवरी 2017 में जारी की गई एक रिपोर्ट साफ़ तौर से ये कहती है कि अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने अफ़ग़ानिस्तान की अपनी सेना खड़ी करने, उसे ट्रेनिंग देने और हथियारबंद करने में लगभग 70 अरब डॉलर ख़र्च किए हैं. फिर भी, अफ़ग़ानिस्तान की अपनी सेना, विद्रोहियों के मुक़ाबले में कहीं नहीं टिक पा रही है. युद्ध में अफ़ग़ान सैनिक लगातार हार का सामना करते हैं और बड़ी संख्या में उनकी मौत भी होती है. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि इसकी बड़ी वजह अफ़ग़ानिस्तान में बड़े पैमाने पर फैला भ्रष्टाचार और सैनिकों का भगोड़ा साबित होना है.

अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने अफ़ग़ानिस्तान की अपनी सेना खड़ी करने, उसे ट्रेनिंग देने और हथियारबंद करने में लगभग 70 अरब डॉलर ख़र्च किए हैं. फिर भी, अफ़ग़ानिस्तान की अपनी सेना, विद्रोहियों के मुक़ाबले में कहीं नहीं टिक पा रही है.

राष्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रंप को अफ़ग़ानिस्तान के रूप में बराक ओबामा से एक ऐसी विरासत मिली थी, जिसके दलदल में अमेरिका धंसता ही जा रहा था. ट्रंप उस नाटक में यक़ीन नहीं करते हैं, जिसके तहत बंदूक के बल पर अफ़ग़ानिस्तान में स्वतंत्रता और अमेरिका जैसे लोकतंत्र की स्थापना की जाए. वैसे भी अमेरिका की ये रणनीति बिल्कुल ही काम नहीं आ रही थी. डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति के तौर पर ये वादा किया था कि वो मूर्खता में किसी भी देश पर हमला करने का वैसा बेवक़ूफ़ी भरा क़दम नहीं उठाएंगे, जो उनसे पहले के राष्ट्रपति करते आ रहे थे. क्योंकि, ट्रंप का मानना है कि इस कारण से अमेरिका को बेवजह ही अपने नागरिकों का ख़ून बहाना पड़ा और अपना पैसा ख़र्च करना पड़ा. ट्रंप ने माना था कि अफ़ग़ानिस्तान की जंग एक ऐसा युद्ध थी, जिसमें अमेरिका के लिए जीत का कोई विकल्प ही नहीं था. अगस्त 2017 में डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी सरकार की अफ़ग़ानिस्तान नीति की घोषणा की. ट्रंप को पता था कि अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना हटाने का एक ही तरीक़ा था कि तालिबान से समझौता कर लिया जाए. इसी तरह से एक ऐसे युद्ध का समापन किया जा सकता है, जो तब शुरू हुआ था जब ट्रंप ने अपना रियालिटी टीवी का करियर भी नहीं शुरू किया था. ट्रंप को अंदाज़ा था कि अफ़ग़ानिस्तान में सिर्फ़ इसलिए अमेरिकी सैनिक तैनात नहीं रखे जा सकते कि अमेरिकी सैनिकों की मदद से एक बेअसर हुक़ूमत को कंधा दिया जाता रहे. ट्रंप ने अपनी रणनीति में सबसे अधिक प्राथमिकता अमेरिका की सुरक्षा के हितों को दी. उन्होंने इस बात को प्राथमिकता दी कि अफ़ग़ानिस्तान को जिहादी संगठनों का अड्डा न बनने दिया जाए. जिससे कि वो अमेरिका के ख़िलाफ़ हमले करने की साज़िश रच कर उसे अंजाम दे सकें. और साथ ही साथ ट्रंप ने ये भी कहा कि अगर ऐसा होता है, तो अमेरिका अपने सैनिकों को लेकर अफ़ग़ानिस्तान पर इतनी ताक़त से हमला करेगा, जैसा इससे पहले किसी ने देखा न होगा.

अब सवाल ये है कि तालिबान के साथ डोनाल्ड ट्रंप का ये समझौता टिक सकेगा या नहीं? सबसे बड़ा ख़तरा तो इस बात का है कि इसे लेकर डोनाल्ड ट्रंप कुछ ज़्यादा ही उत्सुक नज़र आ रहे हैं. ट्रंप इस बात पर आमादा हैं कि वो इस समझौते को जल्द से जल्द कामयाब घोषित करके अफ़ग़ानिस्तान से पहली फ़ुरसत में अपने सैनिक वापस बुला लें. लेकिन, सैनिक वापस बुलाने की इस जल्दबाज़ी के तमाम जोखिमों का ज़िक्र ख़ुद ट्रंप ने अगस्त 2017 के अपने भाषण में किया था. और ऐसा लग रहा है कि इस दिशा में अमेरिका पहले ही कई ग़लतियां कर चुका है. अमेरिका और तालिबान के बीच इस समझौते के लिए दोनों पक्षों के बीच सीधी बातचीत की एक शर्त ये थी कि अफ़ग़ानिस्तान की सरकार अपनी जेलों में क़ैद तालिबानी लड़ाकों को रिहा करे. अमेरिका के दबाव में अफ़ग़ानिस्तान की मौजूदा सरकार ने क़रीब पांच हज़ार लोगों को जेल से रिहा कर दिया. इनमें सैकड़ों वो लोग हैं, जिन्होंने बेगुनाहों की हत्या की है. इस क़दम की चौतरफ़ा आलोचना हो रही है. इन हालात में तालिबान जब बातचीत की टेबल पर आया, तो वो विजेता के तौर पर अमेरिका के सामने बैठा. तालिबानी लड़ाके लगातार ये कहते रहे हैं कि वो अफ़ग़ानिस्तान को इस्लामिक अमीरात बनाएंगे. वो किसी के साथ अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता शेयर करने के लिए भी तैयार नहीं हैं. न ही तालिबान ने ये वादा किया है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में एक संवैधानिक और बहुलतावादी राजनीतिक व्यवस्था के विकास को लेकर प्रतिबद्ध हैं. न ही उन्होंने मानवाधिकारों और निजी स्वतंत्रताओं को लेकर कोई वादा किया है कि वो भविष्य में इन बुनियादी सिद्धांतों का सम्मान करेंगे.

इसके अलावा, बड़ा सवाल ये भी है कि आख़िर पाकिस्तान तब तक ऐसा क्यों चाहेगा कि अफ़ग़ानिस्तान में शांति समझौता आगे बढ़े, जब तक कोई समझौता उसकी शर्तों के मुताबिक़ न हो? अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक हिंसा और ख़ून ख़राबे के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने के शक के बीच, अभी हाल ही में पाकिस्तान में तो जिहादी संगठनों जमात-उल-अहरार और हिज़्ब-उल-अहरार ने हाथ मिलाया है और अब वो तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के झंडे तले काम करने को तैयार हो गए हैं. ये ख़बर बेहद महत्वपूर्ण है. भले ही ये संगठन अब तक पाकिस्तान के नागरिकों और सुरक्षा बलों को निशाना बनाते रहे हों, पाकिस्तान अब भी ‘हिंसा, आतंकवाद और अराजकता फैलाने वालों का सबसे सुरक्षित ठिकाना है.’ अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने ये बात अगस्त 2017 के अपने भाषण में कही थी. आज भी पाकिस्तान में तालिबान का बेहद ताक़तवर गुट हक़्क़ानी नेटवर्क सक्रिय है.

इस साल फरवरी में हुआ अफ़ग़ानिस्तान शांति समझौता, देश में अमन क़ायम करने का सबसे अच्छा मौक़ा कहा जा रहा है. इसकी मदद से अफ़ग़ानिस्तान में दशकों से चल रहे युद्ध को ख़त्म करने का मौक़ा मिल रहा है. लेकिन, अब केवल वक़्त ही ये बताएगा कि ये समझौता शांति की उम्मीदों पर खरा उतरता है या नहीं. या फिर ये समझौता भी एक शो-पीस बन कर रह जाएगा.

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