Author : Satish Misra

Published on Mar 29, 2018 Updated 0 Hours ago

सियासी शतरंज के खेल में मोदी–शाह जोड़ी के तरकश में कई तीर हैं जो विपक्षी एकता के प्रय़ासों के चक्रव्यूह को भेदने में सक्षम हैं।

क्या विपक्ष भाजपा विरोधी मोर्चा तैयार करने में कामयाब होगा?

2014 के आम चुनावों में भाजपा की शानदार जीत के पीछे कई वजहें थीं। इनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व और सुनिर्मित चुनावी मशीनरी भी शामिल थी जिसकी शुरूआत बूथ स्तर से होती थी।

आज की तारीख में देश के 21 राज्यों में भाजपा का सीधे रूप में या सहयोगी पार्टियों के सहयोग से शासन है। इसकी राष्ट्रव्यापी मौजूदगी है। ये कामयाबी पिछले चार वर्षों में हासिल हुई है और मोदी के प्रचार अभियान और भाजपा प्रमुख अमित शाह की राजनीतिक रणनीति और चुनावी चक्र को घुमाने के उनके सामर्थ्य की वजह से ये संभव हो पाया है।

ये भी एक सच है कि विपक्ष ने 2014 के बाद होने वाले लोकसभा उपचुनावों में लगातार जीत हासिल की है और इस वजह से लोकसभा में भाजपा का संख्या बल 282 से घटकर 273 रह गया है। क्या ये विजयश्रियां 2019 में मोदी–शाह जोड़ी के लिए पराजय का संकेत है?

ये सवाल चुनौतीपूर्ण है और इसका जवाब आसान नहीं है। देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य पर नजदीक से नजर डालने से कुछ संकेत जरूर मिलते हैं।

हिन्दी भाषी दो प्रमुख राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में इस महीने के उपचुनावों में लोकसभा की तीन सीटों पर बीजेपी उम्मीदवारों की जीत ने मोदी विरोधी विपक्ष की एकता के प्रयासों की जमीन तैयार कर दी है। ये दो ऐसे राज्य हैं जहां से लोकसभा के 120 सांसद चुने जाते हैं।

हांलाकि भाजपा विरोधी मोर्चे का वास्तविक स्वरूप अभी ठोस आकार नहीं ले पाया है लेकिन हाल के उपचुनावों में राजस्थान में कांग्रेस, यूपी में समाजवादी पार्टी (सपा) और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की जीत ने निस्संदेह गैर भाजपा विपक्षी दलों को ये विश्वास दिला दिया है कि मोदी–शाह का किला अब अभेद्य नहीं रहा और इसे ढहाया जा सकता है।


यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य द्वारा खाली की गयी राजनीतिक रुप से महत्वपूर्ण सीटों पर सपा उम्मीदवारों के हाथों भाजपा उम्मीदवारों की पराजय पुराने धुर विरोधी दलों सपा और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के बीच चुनावी समझौते की वजह से संभव हो पाई। यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने चतुर चाल चलते हुए दो लोकसभा सीटों पर सपा को अपनी पार्टी का समर्थन दे दिया।


पुराने धुर विरोधी दलों सपा और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के बीच चुनावी समझौते की वजह से यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य द्वारा खाली की गयी राजनीतिक रुप से महत्वपूर्ण सीटों पर सपा उम्मीदवारों के हाथों भाजपा उम्मीदवारों की पराजय संभव हो पाई। यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने चतुर चाल चलते हुए दो लोकसभा सीटों पर सपा को अपनी पार्टी का समर्थन दे दिया था।

अगर सपा–बसपा का चुनावी समझौता हाल के उपचुनावों की तरह कायम रहता है और दोनों दल कांग्रेस और पूर्व केन्द्रीय मंत्री अजीत सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) को साथ लेकर गठबंधन तैयार करने में कामयाब हो जाते हैं तो भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को कठिन चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। राजग ने इस सबसे बड़े राज्य में 73 सीटें जीती थीं। अगर संयुक्त मोर्चा के समक्ष यूपी में राजग अपनी सीटों की संख्या को बरकरार रखने में कामयाब होता है तो ये चमत्कार ही होगा।

इसीलिए भाजपा की ओर से यूपी के दो नेताओं के बीच पनप रहे चुनावी समझौते को नाकाम करने के लिए हरसंभव प्रयास किये जाने की उम्मीद है और आने वाले महीनों में दोनों राजीनीतिक प्रतिद्वंदियों के बीच तगड़ी रस्साकस्सी देखने को मिल सकती है।

जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं राजग के लिए जेल में बंद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की बढती लोकप्रियता से निपटना मुश्किल होता जा रहा है। राजद के नेतृत्व वाला गठबंधन ऐसी तगड़ी विपक्षी एकता तैयार करने की दिशा में अग्रसर हो रहा है जिससे राजग के लिए 2014 की चुनावी कामयाबी को दोहराना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य हो सकता है।

विपक्षी एकता की प्रक्रिया के दौरान अभी कई समानांतर प्रयास लगातार चल रहे हैं। 12 मार्च को 20 समान विचारों वाले दलों ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी की ओर से आयोजित रात्रिभोज में शिरकत की जहां भाजपा के नेतृत्व वाले राजग सरकार का संसद के अंदर औऱ बाहर विरोध करने के तरीकों और उपायों का कैसे समन्वय किया जाये इसी के इर्द गिर्द चर्चा घूमती रही।

इस बीच क्षेत्रीय नेता भी गैर भाजपा औऱ गैर कांग्रेस मोर्चा तैयार करने के इरादे के साथ प्रयास कर रहे हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ( केसीआर) ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से 19 मार्च को मुलाकात की। बैठक के बाद राव ने मीडिया को बताया कि बीजेपी ओर कांग्रेस से मुकाबला करने के लिए संघीय मोर्चा तैयार करनें की दिशा में ‘बहुत अच्छी शुरूआत’ हुई है। उन्होंने ये भी कहा कि दोनों नेताओं के बीच एक ‘सहमति’ भी बनी है जिसका खुलासा बाद में किया जायेगा।

हांलाकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपनी टिप्पणी को लेकर ज्यादा सतर्क नजर आईं। उन्होंने कहा “श्री राव ने जो कुछ भी कहा है वैसा नहीं है लेकिन मैं उससे पूरी तरह सहमत हूं। लेकिन पहले उन्हें बोलने दीजिए। अगर कुछ होता है तो आपको पता चल जायेगा”

यह बहुत स्पष्ट है कि दोनों नेता अभी भी संभावित मोर्चे के गुण दोष का आकलन कर रहे हैं और ये प्रयास अभी शुरुआती दौर में हैं क्योंकि राजनीतिक वर्ग किसी नये रास्ते पर बढने के पहले जनता की नब्ज टटोलने तक इंतजार करते हैं।

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) प्रमुख शरद पवार ने भी भाजपा का मुकाबला करने के लिए विपक्षी मोर्चे के रोडमैप पर चर्चा के इरादे से 27–28 मार्च को दिल्ली में विपक्षी नेताओं की बैठक बुलाई है। इसके पहले इसी साल जनवरी में पवार ने मुंबई में “सेव दी कंस्टीच्यूशन मार्च” का नेतृत्व किया था जिसमें क्षेत्रीय दलों ने अपने प्रतिनिधि भेजे थे। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने इस बैठक में अपनी मौजूदगी पर सहमति दी है। ममता बनर्जी की कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से भी मिलने की संभावना है।


वास्तव में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग का मुकाबला करने के लिए आम मोर्चा बनाने के प्रयास आवश्यक रूप से दो महत्वपूर्ण कारकों पर निर्भर करते हैं। कांग्रेस की राजनीतिक प्रासंगिकता क्या है और मोर्चे का नेतृत्व किसे करना चाहिए। इस समय इन दो सवालों पर कोई स्पष्टता नहीं है। आने वाले महीनों के राजनीतिक घटनाक्रम इस भ्रांति को दूर कर सकते हैं।


वास्तव में गैर भाजपा विपक्षी नेताओं के अपने अपने इरादे क्या हैं इसे लेकर उनमें अभी स्पष्टता नहीं है। उन्हें जो बातें नाराज या परेशान कर रही हैं वो भाजपा नेताओं खासकर मोदी औऱ शाह का अहंकार है।

क्षेत्रीय पार्टियां और उनके नेता निस्संदेह गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी तीसरे मोर्चे के प्रवर्तक हैं। इस तरह के विचार को तब और बल मिलता है जब जब कांग्रेस कमजोर होती है। अगर 1989 और 1996 की तीसरे मोर्चे की सरकारें कामयाब होतीं और अपना कार्यकाल पूरा करतीं तो देश का मतदाता उन्हें एक और मौका देने में नहीं हिचकता। पिछली नाकामियों की वजह से तीसरे मोर्चे का विचार जनता की उम्मीदों पर परवान नहीं चढ़ता।

वास्तव में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग का मुकाबला करने के लिए आम मोर्चा बनाने के प्रयास आवश्यक रूप से दो महत्वपूर्ण कारकों पर निर्भर करते हैं। कांग्रेस की राजनीतिक प्रासंगिकता क्या है और मोर्चे का नेतृत्व किसे करना चाहिए। इस समय इन दो सवालों पर कोई स्पष्टता नहीं है। आने वाले महीनों के राजनीतिक घटनाक्रम इस भ्रांति को दूर कर सकते हैं।

हिंदी भाषी राज्यों के अलावा कर्नाटक में भाजपा की मौजूदगी असरदार है और अगले दो महीनों के अंदर होने वाले विधानसभा चुनाव महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं जिसके चुनावी नतीजे 2019 के आम चुनावों की दशा दिशा तय करेंगे। भाजपा ने कर्नाटक की 28 में से 17 सीटें जीती थीं। भाजपा की पराजय और इस दक्षिणवर्ती राज्य में कांग्रेस की सत्ता में वापसी राजनीतिक भ्रांति को साफ करेंगे।

कर्नाटक चुनावों के बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव आम चुनाव के महासमर के आखिरी चक्र की रूपरेखा तय करेंगे।

कांग्रेस कर्नाटक में अगर अगला कार्यकाल पाने में नाकाम रहती है और इसके बाद तीन राज्यों में सत्ता हासिल करने भी नाकाम होती है तब भाजपा विरोधी मोर्चे का स्वरूप उन परिस्थितियों से अलग होगा अगर कांग्रेस चारों राज्यों में जीत हासिल करती है।

सियासी शतरंज के खेल में मोदी–शाह जोड़ी के तरकश में कई तीर हैं जो एकता प्रयासों को ध्वस्त करने में सक्षम हैं। प्रधानमंत्री मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ औऱ मिजोरम के साथ पहले आम चुनाव कराने का फैसला कर सकते हें और विपक्षियों के गणित को गड़बड़ा सकते हैं।

वैसी स्थिति में भी विपक्षी एकता की दशा दिशा अलग होगी।

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