Published on Jun 25, 2020 Updated 0 Hours ago

हमें एक ऐसे भविष्य के लिए तैयार रहना चाहिए जहां अराजकता और उथल-पुथल का राज होगा और हर देश को अपने हितों की रक्षा ख़ुद करनी होगी.

क्या अमेरिका का परमाणु परीक्षण करना भारत के लिए फायदेमंद साबित होगा?

पिछले दिनों अमेरिकी अख़बार द वॉशिंगटन पोस्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में ज़ोर देकर ये बताया कि अमेरिकी सरकार परमाणु हथियारों का परीक्षण दोबारा शुरू करने के बारे में विचार कर रही है. ये भारत के लिए अच्छी ख़बर हो सकती है. अगर, अमेरिका परमाणु परीक्षण करने के अपने अनौपचारिक प्रतिबंध को हटा लेता है, जो उसने अपने सितंबर 1992 में किए आख़िरी एटमी टेस्ट के बाद लगाया था, तो भारत को भी परमाणु परीक्षण करने का अवसर प्राप्त होगा. इसके ज़रिए भारत अपने थर्मोन्यूक्लियर एटम बम के डिज़ाइन के सही होने की पुष्टि कर सकेगा. भारत के लिए ऐसा करना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि 1998 में किए गए परमाणु परीक्षण के दौरान भारत अपने थर्मोन्यूक्लियर या हाइड्रोजन बम की शक्ति का सटीक आकलन नहीं कर सका था. ये भारत के परमाणु शक्ति संतुलन में एक महत्वपूर्ण कमी है, जिसे दूर किया जाना ज़रूरी है.

अमेरिकी विशेषज्ञों को इस बात का संदेह है कि रूस और चीन, परमाणु परीक्षण न करने के अपने वादे का उल्लंघन कर रहे हैं. परमाणु परीक्षण पर ये प्रतिबंध क़रीब दो दशकों से लगे हुए हैं. अमेरिका का मानना है कि व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि या CTBT के कुछ विषयों, जैसे कि हाइड्रोन्यूक्लियर और सब क्रिटिकल परीक्षण की व्याख्या को लेकर मतभेद का चीन और रूस फ़ायदा उठा रहे हैं.

अमेरिका के पास एक विशाल नेशनल इग्निशन फैसिलिटी (NIF) है, जिसकी मदद से अमेरिका अपने परमाणु परीक्षणों की सटीकता और सुरक्षा को बड़े पैमाने पर परमाणु परीक्षण किए बिना ही जांच परख सकता है

हालांकि, ये विवाद तो कई वर्षों से चले आ रहे हैं. लेकिन, अमेरिका ने अब जाकर कई क्षेत्रों में कार्रवाई की है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले वर्ष, रूस के साथ इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फ़ोर्सेज संधि (INF Treaty) को समाप्त कर दिया था. साथ ही साथ अमेरिका ने कम शक्ति वाले परमाणु परीक्षण करने का निर्णय किया है. अमेरिका का मानना है कि रूस और चीन, दोनों ही बहुत कम शक्ति वाले परमाणु परीक्षण छुप कर करते आ रहे हैं. अमेरिका ख़ुद भी सब क्रिटिकल एटमी टेस्ट करता है, जिससे शून्य विकिरण निकलता है. हालांकि ये परमाणु परीक्षण CTBT के दायरे में आते हैं. जिसके अंतर्गत कोई भी देश अपने हथियारों के किसी हिस्से का परीक्षण कर सकते हैं. अमेरिका के पास एक विशाल नेशनल इग्निशन फैसिलिटी (NIF) है, जिसकी मदद से अमेरिका अपने परमाणु परीक्षणों की सटीकता और सुरक्षा को बड़े पैमाने पर परमाणु परीक्षण किए बिना ही जांच परख सकता है.

हालांकि, भारत आधिकारिक रूप से अपने पास थर्मोन्यूक्लियर या हाइड्रोजन बम होने का दावा करता है. लेकिन, सच तो ये है कि भारत ने 11 मई 1998 को अपने हाइड्रोजन बम का जो परीक्षण किया था, वो पूरी तरह से सफल नहीं रहा था. क्योंकि न केवल दुनिया के किसी अन्य देश ने इस परीक्षण से उत्पन्न विकिरण या कंपन को दर्ज किया, बल्कि ख़ुद भारत के दिल्ली के पास करनाल स्थित एविएशन रिसर्च सेंटर (ARC) ने भी इस परीक्षण के कंपन को दर्ज नहीं किया. करनाल का ये एविएशन रिसर्च सेंटर 1960 के दशक में स्थापित किया गया था, ताकि ये चीन के परमाणु परीक्षणों का पता लगा सके.

हाइड्रोजन बम, भारत के परमाणु सिद्धांत का महत्वपूर्ण अंग हैं. जिसके अनुसार अपने ऊपर परमाणु हमला होने पर भारत ये हमला करने वाले राष्ट्र पर इससे कई गुना अधिक शक्ति से पलटवार करेगा. अगस्त 1999 में तैयार की गई ड्राफ्ट न्यूक्लियर डॉक्ट्रिन के माध्यम से भारत ने ये घोषणा की थी कि, ‘अगर भारत पर कोई भी परमाणु हमला होता है, तो भारत की सेनाएं, अपने परमाणु हथियारों के माध्यम से इस हमले का कई गुना अधिक शक्ति से जवाब देंगी, जो भारत पर एटमी हमला करने वाले देश को असहनीय क्षति पहुंचाएगा.’

भारत की आधिकारिक परमाणु नीति, 4 जनवरी 2003 को कैबिनेट की सुरक्षा मामलों की समिति की परिचर्चा के बाद मीडिया को बयान के तौर पर जारी की गई थी. इसमें कहा गया था कि, ‘भारत परमाणु हथियारों के पहले इस्तेमाल न करने की नीति का पालन करेगा. साथ ही साथ भारत अपने परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कहीं पर भी अपनी भूमि या अपनी सेनाओं के ऊपर पहले परमाणु हमला होने पर ही करेगा.’ इसके अतिरिक्त, इस बयान में ये भी कहा गया था, भारत का एटमी अटैक ‘पहले परमाणु हमला करने वाले पर भयंकर पलटवार होगा और उसे असहनीय क्षति पहुंचाएगा.’

समस्या ये है कि भारत के थर्मोन्यूक्लियर परमाणु परीक्षण करने के साथ से ही इसके हाइड्रोजन बम की क्षमता को लेकर सवाल उठते रहे हैं. पोखरण-2 परमाणु परीक्षणों के बाद से ही इस बारे में व्यापक वाद विवाद और परिचर्चाएं हुई थीं

‘भयंकर पलटवार’ की भारत की इस प्रतिबद्धता की अप्रत्यक्ष रूप से एक भाषण के माध्यम पुष्टि हो गई, जो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के संयोजक श्याम सरन ने अप्रैल 2013 में दिया था. पाकिस्तान के छोटे और फुर्तीले परमाणु हथियार विकसित करने के बारे में अपने बयान में श्याम सरन ने दोहराया था कि भारत, किसी अन्य देश के विरुद्ध परमाणु हथियारों का पहले इस्तेमाल नहीं करेगा. लेकिन, भारत के ऊपर अगर परमाणु हथियार से हमला होता है, फिर चाहे वो छोटे हथियार से हो या बड़े परमाणु बम से, तो ‘भारत का पलटवार ज़बरदस्त होगा जो दुश्मन देश को असहनीय क्षति पहुंचाएगा.’ भयंकर शब्द का किसी परमाणु शक्ति से जुड़े सिद्धांतों में एक ख़ास संदर्भ होता है. और आम तौर पर इसका अर्थ, शहरों को तबाह करने वाले हमले करना होता है. न कि किसी सैन्य ठिकाने को निशाना बनाना.

समस्या ये है कि भारत के थर्मोन्यूक्लियर परमाणु परीक्षण करने के साथ से ही इसके हाइड्रोजन बम की क्षमता को लेकर सवाल उठते रहे हैं. पोखरण-2 परमाणु परीक्षणों के बाद से ही इस बारे में व्यापक वाद विवाद और परिचर्चाएं हुई थीं. तब परमाणु ऊर्जा आयोग के वैज्ञानिकों ने दावा किया था कि उन्होंने जान बूझकर अपने हाइड्रोजन बम के परीक्षण की शक्ति को कम करके रखा था, ताकि इस टेस्ट से आस पास के गांवों को नुक़सान न पहुंचे. हालांकि, कई महीनों के अध्ययन के बाद अमेरिका के वरिष्ठ गुप्त परमाणु परीक्षण विशेषज्ञ इस नतीजे पर पहुंचे थे कि भारत का हाइड्रोजन बम का परीक्षण असफल रहा था.

रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) में भारत के परमाणु कार्यक्रम के अगुवा के. संथानम ने अगस्त 2009 में ये राज़ खोला था कि 1998 का भारत का थर्मोन्यूक्लियर टेस्ट असफल रहा था. उस वक़्त के संथानम दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ़ डिफेंस स्टडीज़ ऐंड एनालाइसेस (IDSA) के प्रमुख थे, जो रक्षा मंत्रालय का ही थिंक टैंक है. के संथानम ने ये बात ऑफ़ द रिकॉर्ड बैठक में कही थी. लेकिन, जब ये ख़बर मीडिया में आई तो संथानम ने कूटनीतिक रुख़  अख़्तियार कर लिया और कहा कि पहली बार में किसी भी देश का हाइड्रोजन बम का परीक्षण सही नहीं रहा था. लेकिन, बाद में अशोक पार्थसारथी के साथ लिखे गए इस लेख में संथानम ने खुलकर अपने इस रुख़ को स्पष्ट किया था और कहा था कि, भारत का थर्मोन्यूक्लियर टेस्ट ‘असल में नाकाम रहा था.’

बाद में पता ये चला कि डीआरडीओ (DRDO) ने पोखरण में परमाणु परीक्षण के ठिकाने का विश्लेषण करने के बाद एक रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, जिसमें कहा गया था कि 1998 में किया गया हाइड्रोजन बम का परीक्षण नाकाम रहा था. एक और रिपोर्ट करनाल स्थित उस एविएशन रिसर्च सेंटर में दर्ज की गई कंपन की गतिविधियों के आधार पर तैयार की गई थी, जिसकी स्थापना चीन के एटमी टेस्ट का पता लगाने के लिए की गई थी. के संथानम के विचार का पी के आयंगर जैसे विशेषज्ञों द्वारा भी समर्थन किया गया था. आयंगर ने भारत के परमाणु परीक्षणों का जो विश्लेषण किया था, उसमें निष्कर्ष ये निकला था कि भारत ने जिस हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया था, उसने केवल दस प्रतिशत कार्यक्षमता के साथ काम किया था.

तो, जैसा कि संथानम और पार्थसारथी ने निष्कर्ष निकाला था, भारत ने केवल 25 किलो टन क्षमता वाले परमाणु हथियारों का परीक्षण किया था. जबकि भारत की परमाणु नीति के हिसाब से कम से कम 150 से 300 किलोटन वाले परमाणु हथियारों के परीक्षण की ज़रूरत थी.

ख़ुद अमेरिका ही एक के बाद एक शस्त्र नियंत्रण के कई समझौतों को तोड़ रहा है. साथ ही साथ वो अन्य बहुपक्षीय समझौतों से भी पीछे हट रहा है. अब अमेरिका का इरादा किसी बहुपक्षीय व्यवस्था के बजाय एक बहुलता भरी विश्व व्यवस्था का निर्माण करना है

अगर हम अमेरिका के रुख़ में आ रहे बदलावों की ओर लौटें, तो हम इस समय भारत की ‘न्यूनतम विश्वसनीय परमाणु शक्ति’ को लेकर बेहद महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े हैं. भारत को अपने लिए एक ऐसी रणनीति तैयार कर लेनी चाहिए, जिसकी मदद से वो अमेरिका द्वारा परमाणु परीक्षणों पर लगे प्रतिबंध तोड़ने का भरपूर लाभ उठा सके. चूंकि अमेरिका हमेशा इस तरह से काम करता है कि वो अपने लिए अलग और भारत जैसे दूसरे देशों के लिए अलग नियम बनाता है. लेकिन, जिस तरह से विश्व की परिस्थिति में परिवर्तन आ रहा है, तो हम ये उम्मीद कर सकते हैं कि शायद इस बार ऐसा न हो.

ख़ुद अमेरिका ही एक के बाद एक शस्त्र नियंत्रण के कई समझौतों को तोड़ रहा है. साथ ही साथ वो अन्य बहुपक्षीय समझौतों से भी पीछे हट रहा है. अब अमेरिका का इरादा किसी बहुपक्षीय व्यवस्था के बजाय एक बहुलता भरी विश्व व्यवस्था का निर्माण करना है. इसीलिए, अमेरिका ने रूस के साथ शस्त्र नियंत्रण के कई समझौतों को तोड़ दिया है. साथ ही साथ वो कई अंतरराष्ट्रीय समझौतों से भी पीछे हट गया है. जैसे कि पेरिस जलवायु परिवर्तन संधि, ईरान के साथ परमाणु समझौता, यूनेस्को, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद और अब विश्व स्वास्थ्य संगठन से भी अमेरिका ने ख़ुद को अलग कर लिया है. आज अमेरिका ने इज़राइल के फिलीस्तीन पर पूर्ण रूप से क़ब्ज़े को क़रीब-क़रीब पूरा समर्थन दे दिया है. अगर डोनाल्ड ट्रंप दोबारा अमेरिका के राष्ट्रपति बनते हैं, तो पहले से ही मृत्यु शैया पर पड़े CTBT का अंत होना तय माना जा रहा है. और अगर भारत ज़्यादा क़िस्मत वाला हुआ, तो शायद परमाणु अप्रसार संधि (NPT) का भी ख़ात्मा हो जाए. हमें एक ऐसे भविष्य के लिए तैयार रहना चाहिए जहां अराजकता और उथल-पुथल का राज होगा और हर देश को अपने हितों की रक्षा ख़ुद करनी होगी.

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