Author : Kabir Taneja

Published on Sep 15, 2020 Updated 0 Hours ago

यदि यूएई को भी एफ-35 विमान अमेरिका से मिल जाते तो रक्षा उपकरणों की होड़ में वह भी इजरायल के बराबर हो जाता जो क्षेत्र में इजरायल की वायु शक्ति श्रेष्ठता के लिए प्रत्यक्ष चुनौती होती.

यूएई के लिए इज़रायल की तुलना में शांति समझौता क्यों अधिक महत्वपूर्ण है

इजरायल एवं संयुक्त अरब अमीरात के बीच बहुचर्चित संबंध सामान्यीकरण समझौते के कुछ दिन बाद जब इस मेल-मिलाप को संभव बनाने वाली बातें छन कर बाहर आने लगीं तभी वाशिंगटन डी.सी. द्वारा यूएई को अपने सबसे परिष्कृत एफ-35 लड़ाकू विमान बेचने की संभावना को येरूशलम द्वारा रोकने की कोशिश भी सार्वजनिक हुई. इजरायल हालांकि एफ-35 को अपनी सुरक्षा पंक्ति में साल 2016 में ही शामिल करके अग्रिम पंक्ति के इस लड़ाकू विमान का सीरिया पर हमलों में प्रयोग कर चुका है. यदि यूएई को भी एफ-35 विमान अमेरिका से मिल जाते तो रक्षा उपकरणों की होड़ में वह भी इजरायल के बराबर हो जाता जो क्षेत्र में इजरायल की वायु शक्ति श्रेष्ठता के लिए प्रत्यक्ष चुनौती होती. सूचनाओं की मानें तो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की उपस्थिति में 15 सितंबर को सामान्यीकरण समझौते पर होने वाले दस्तखत कार्यक्रम में अब राष्ट्राध्यक्ष शामिल नहीं होंगे. इससे क्षेत्रीय स्थिति में बड़े परिवर्तन के द्योतक समझौते की विशिष्टता संबंधी चर्चा ख़ुद ब ख़ुद घट गई है.

एफ-35 के इर्द-गिर्द मची सुगबुगाहट के अलावा यूएई-इजरायल मेल-मिलाप के प्रति अरब क्षेत्र में ठंडी सी प्रतिक्रिया सरासर अप्रत्याशित है. सऊदी अरब की हवाई सीमा में उड़कर यूएई पहुंचने वाली इजरायल की पहली व्यावसायिक उड़ान को ट्रंप के क्षेत्रीय सलाहकार जरेड कुशनर अपने नेतृत्व में अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के साथ लेकर गए. इस प्रतीकात्मक पहल से दशकों पुरानी विचारधारात्मक एवं राजनीतिक दुश्मनी तो थमी ही साथ में यूएई एवं इजरायल के बीच अनौपचारिक राजनय एवं सहयोग का सिलसिला भी पर्दे के बाहर आकर औपचारिक हो गया. दोनों देशों के बीच सहयोग की स्थापना में ईरान से बढ़ते ख़तरे का दोतरफ़ा अहसास उत्प्रेरक साबित हुआ है.

रियाद द्वारा ट्रंप प्रशासन से फिलिस्तीन मुद्दे के न्यायसंगत हल के लिए राजतंत्र के तैयार एवं ‘उत्सुक’ होने की बात कबूलने से अबू धाबी के लिए सांस लेने गुंजाईश हो गई है. फिर भी अमीराती नेतृत्व के लिए यह कठिन चुनौती है.

अबू धाबी के संदर्भ में इस सामान्यीकरण समझौते की परिधि के आसपास घट रही घटनाओं से यह असंबद्ध प्रतीत होता है. इजरायल को अपनी हवाई सीमा में प्रवेश की अनुमति देने के बावजूद सऊदी अरब इस समझौते के प्रति बहुत सजग है. रियाद द्वारा ट्रंप प्रशासन से फिलिस्तीन मुद्दे के न्यायसंगत हल के लिए राजतंत्र के तैयार एवं ‘उत्सुक’ होने की बात कबूलने से अबू धाबी के लिए सांस लेने गुंजाईश हो गई है. फिर भी अमीराती नेतृत्व के लिए यह कठिन चुनौती है. इस भूराजनैतिक अंतर को पाटने के लिए ज़ाहिर है कि क्षेत्र के सबसे प्रभावी नेता के रूप में युवराज मुहम्मद बिन जाएद अल नाह्यान को समग्र विवेक एवं संयम के साथ ऐसे समझौते के फ़ायदों की अभी तो सऊदी अरब के सुल्तान सलमान तथा दीर्घावधि में उनके उत्तराधिकारी युवराज मुहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) को जानकारी देनी चाहिए. युवराज मुहम्मद के इस समझौते से भली-भांति वाक़िफ़ होने की संभावना अधिक लगती है मगर इस व्यवस्था की सफलता के लिए सऊदी अरब के तात्कालिक समर्थन तथा समूचे क्षेत्र की जल्द से जल्द हामी आवश्यक है.

अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो की येरूशलम यात्रा से पूर्व आए समाचारों में सूडान एवं बहरीन द्वारा अबू धाबी का अनुसरण करते हुए इजरायल से औपचारिक संबंध स्थापित करने का सुराग लगा था. लेकिन ऐसी उम्मीद अधूरी रह गई. बहरीन ने इजरायल की सभी व्यावसायिक विमानों को अपनी वायु सीमा में प्रवेश की अनुमति तो दे दी मगर सामान्यीकरण समझौते को महत्व नहीं दिया. सूडान ने इजरायल से उल्टे कोई भी संबंध नहीं रखने की घोषणा कर दी लेकिन इस्लामी शरिया आधारित 30 साल पुरानी शासन व्यवस्था छोड़ कर सरकार को धर्म से अलग करके पंथ निरपेक्षता अपना ली.

इसका निष्कर्ष यही है कि यूएई चूंकि इजरायल से सामान्यीकरण में आज तक सऊदी अरब को साथ नहीं ला पाया इसलिए अरब क्षेत्र में उसकी राजनीति पेचीदा हो रही है. यह पूर्णत: संभव है कि रियाद का समर्थन मिलते ही बहरीन तथा उस जैसे अन्य देश भी ऐसे समझौते के पक्ष में उसका अनुसरण कर सकते हैं. तब भी हालांकि कुवैत जैसे अन्य अरब देशों तथा गल्फ कोआॅपरेशन काउंसिल (जीसीसी) यानी खाड़ी सहयोग परिषद ने फलस्तीनियों को समर्थन का सार्वजनिक इज़हार किया है. कुवैती नेतृत्व ने तो यहां तक कह दिया कि इजरायल से संबंध सामान्य करने वाला वह अंतिम देश होगा.

गज़ा पट्टी में फिलिस्तीन समर्थक अतिवादी समूह हमास के मुखिया ने प्रेस बयान में बताया कि हालिया हिंसा समाप्त करने के लिए कतर की मध्यस्थता से उसका इजरायल से फौरी समझौता हुआ है. ताज़ा समझौते की बातचीत का नेतृत्व कतारी प्रतिनिधि मोहम्मद अल एमादी ने किया.

फिर भी जब यूएई-इजरायल समझौता दुनिया की नजरों में सुर्खी बना हुआ था तभी क्षेत्र के भीतर घटी दूसरी घटना न सिर्फ अरब—इजरायल संबंधों पर दबाव घटाने में सहायक होगी बल्कि जीसीसी के आंतरिक मतभेद भी कम होंगे. गज़ा पट्टी में फिलिस्तीन समर्थक अतिवादी समूह हमास के मुखिया ने प्रेस बयान में बताया कि हालिया हिंसा समाप्त करने के लिए कतर की मध्यस्थता से उसका इजरायल से फौरी समझौता हुआ है. ताज़ा समझौते की बातचीत का नेतृत्व कतारी प्रतिनिधि मोहम्मद अल एमादी ने किया. इससे क्षेत्र के सबसे विभाजक मुद्दे पर दोहा की धाक ही नहीं बढ़ी है बल्कि ऐसी बातचीत में निर्णायक रहीं मिस्र जैसी पारंपरिक हस्तियां भी दरकिनार हुई हैं. पिछले महीने आए ऐसे समाचारों से इन घटनाओं में दिलचस्प मोड़ आ रहा है कि फिलिस्तीन के मामले में इजरायली मोसाद के मुखिया योसी कोहेन कतर के संपर्क में हैं और दोहा से कोविड-19 महामारी के संदर्भ में गज़ा को आर्थिक मदद जारी रखने को कहा गया है.

कोहेन को फरवरी में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू द्वारा कतर भेजने की चर्चा है. उनके साथ फिलिस्तीन एवं हमास को कतर की आर्थिक मदद के मुद्दे पर बात करने के लिए इजरायली सेना के प्रतिनिधि भी गए थे. इस बातचीत के दौरान इजरायल ने कतर से सितंबर तक हमास को महामारी एवं गज़ा में जीवन परिस्थितियों के निचले स्तर के मद्देनज़र आर्थिक मदद जारी रखने को कहा. यदि कहना चाहें तो 31 अगस्त को घोषित युद्धविराम भी छह माह लंबे इन्हीं राजनयिक प्रयासों का परिणाम है. उस दौरान इजरायल ने हमास पर युद्धविराम की मंजूरी एवं उसके पालन वास्ते दबाव बनाने के लिए कतारी प्रायोजित ईंधन की आपूर्ति पर रोक लगा दी बल्कि दोहा ने ख़ुद ही गज़ा को ईंधन की आपूर्ति की मात्रा घटाकर आधी से भी कम कर दी. इन्हीं घटनाओं के कारण पश्चिमी तट पर क़ब्ज़े की अपनी योजना से इजरायल पीछे हट गया हालांकि यह दाव इजरायल की घरेलू राजनीति से प्रेरित था.

सउदी एवं यूएई गुटों तथा कतर के बीच चार साल से चल रहे जीसीसी के आंतरिक विवादों में अबू धाबी के लिए सामान्यीकरण समझौते की राजनीति फंस कर उलझ सकती है. इजरायल से सामान्यीकरण के मुद्दे पर और कुछ मतभेद पैदा होने अथवा इस बारे में अरब राजधानियों के बीच सहमति बनने में लंबे समय तक विलंब से यूएई एवं इजरायल दोनों के बीच समझौते संबंधी उत्साह ठंडा पड़ सकता है. यह अपने ‘वजूद से अधिक’ भूराजनैतिक उछल-कूद का ही परिणाम है कि यूएई एवं सऊदी अरब दोनों का ही दोहा से संघर्ष हो रहा है. क्योंकि छोटा होने के बावजूद हाइड्रोकार्बन समृद्ध देश अरब दुनिया एवं जीसीसी को अपने अनुसार हांकने की रियाद-अबू धाबी की कोशिश को बहुधा चुनौती देता आ रहा है. यूएई-इजरायल समझौते में भी दोहा की टांग अड़ी होने के तथ्य ने तथा फिलिस्तीन में उसके दखल के माध्यम से सवाल उठता है कि क्या जीसीसी में अबू धाबी एवं रियाद स्थिति संभालने का प्रयास करेंगे अथवा दोहा को और दूर धकेलने में लगे रहेंगे.

सउदी एवं यूएई गुटों तथा कतर के बीच चार साल से चल रहे जीसीसी के आंतरिक विवादों में अबू धाबी के लिए सामान्यीकरण समझौते की राजनीति फंस कर उलझ सकती है.

अभी यह भी अस्पष्ट है कि फिलिस्तीन समझौता कराने की जुगत भिड़ा रहे अमेरिका को रियाद द्वारा कितनी ढील दी जाएगी. सऊदी मंजूरी की पतवार ही अरब-इजरायल सुलहनामे को अर्थपूर्ण बनाने के लिए उसे खे कर किनारे लगा सकती है. बहरहाल अरब क्षेत्र में तमाम विरोधाभासों के बावजूद इकलौता कारक ऐसा भी है जो इन सबको एक सूत्र में पिरोता है. यरूशलम से अबू धाबी तक तथा रियाद से (तार्किक रूप में) दोहा तक. यह सभी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को दोबारा निर्वाचित होते देखना चाहते हैं क्योंकि जो बिडेन के व्हाइट हाउस पहुंचने की संभावना के प्रति इस क्षेत्र में रत्ती भर उत्साह नहीं है. ट्रंप के लिए लगाव ज़ाहिर है कि ईरान के प्रति उनके कड़े रूख के कारण है. इसी वजह से कुछ अरब देशों एवं इजरायल के बीच बरसों से परदे के पीछे जारी राजनयिक प्रयासों का फल सार्वजनिक हो पाया है.

यह अगले कुछ माह में ही स्पष्ट हो पाएगा कि पश्चिम एशिया में यह बड़े क्षेत्रीय परिवर्तन चिरजीवी सिद्ध होंगे अथवा बीच में ही दम तोड़ देंगे. इजरायल के विपरीत अपने यहूदी पड़ोसी से संबंध सामान्य बनाने के लिए यूएई के सामने एक से अधिक चुनौती हैं क्योंकि मरता क्या न करता अबू धाबी को इस प्रयोग की दीर्घावधि सफलता के लिए समूचे क्षेत्र को साथ लेकर चलना होगा. इजरायल की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है क्योंकि इसके नाकाम होने पर उसका बाल भी बांका नहीं

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