Published on Aug 10, 2018 Updated 0 Hours ago

बिहार की मद्यनिषेध नीति की नींव गलत थी और शुरूआती गलतियों को ढंकने के चक्कर में इस नीति के समर्थक दूसरे तरीकों का सहारा लेते रहे जिनमें कानून में लगातार संशोधन, बेहतर छवि पेश करने के लिए आंकड़ों में हेर फेर और अखबारों में मनमाफिक खबरें छपवाना शामिल था। इसलिए, सरकार को इसके बदले क्या करना चाहिए था? और अब अर्थशास्त्री और नीति निर्माता क्या कर सकते हैं?

क्यों विफल रहा बिहार का मद्य निषेध कानून

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा दो साल पहले लागू मद्यनिषेध कानून शुरू से ही विवादों में रहा है। इस कानून पर आम जनता से लेकर आलोचकों ने समान रूप से प्रहार किया, इसमें अनेक संशोधन किये गये और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि ये कानून परिणाम देने में विफल रहा। हांलाकि इस कानून के समर्थकों ने इसके गुणों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए इसका बचाव करने के प्रयास किये लेकिन जिस तरीके से ये कानून लागू किया गया उससे लगता है कि इसमें बुद्धि का इस्तेमाल कम किया गया। परिणाम ये हुआ कि बिहार एक और ऐसे पड़ाव पर पहुंच गया जहां एक और संशोधन अपरिहार्य हो गया।

एक अप्रैल 2016 को लागू बिहार मद्य निषेध कानून से अपेक्षा थी कि इससे शराब से जुड़े अपराध कम होंगे और विभिन्न समुदायों की ओर से हो रहे विरोध को जवाब मिल सकेगा। राज्य भर में शराब की बिक्री और इसके उपभोग पर पाबंदी लगा दी गयी और जो भी व्यक्ति शराब के साथ पकड़ा गया उस पर मुकदमा दर्ज किया गया। कागज पर तो ये कानून आदर्श नजर आ रहा था लेकिन व्यवहारिक तौर पर इस कानून से न ही वित्तीय रूप से कुछ हासिल हो सका और ना ही सामाजिक रूप से।

येल विश्वविद्यालय में स्वास्थ्य अर्थशास्त्र और स्वास्थ्य नीति के प्रोफेसर संजीव कुमार ने लिखा था “राज्य ( बिहार ) को कर राजस्व के रूप में 4,000 करोड़ रूपये का नुकसान होगा।” दूसरी ओर कनेक्टिकट विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर नीशीथ प्रकाश ने जनवरी 2016 में बिहार अल्कोहल बैन गुड इंटेशन्स इम्प्रैक्टिल पॉलिसी से संबंधित प्रपत्र में लिखा था “इसके अलावा, पाबंदियों से हमेशा कालाबाजारी और प्रतिबंध लागू करने में होने वाला खर्च बढ़ता है। शराब सेवन की बढ़ती प्रवृत्ति और इससे संबंधित सामाजिक अभिशाप का जवाब करों में बढ़ोतरी और शराब तक पहुंच को सीमित करने वाले उपायों में है।”

हैरत की बात ये कि शराब पर प्रतिबंध से अपराधों पर लगाम लगने की बजाय आपराधिक घटनाओं में अनुमान के विपरीत बढ़ोतरी दर्ज की गयी। बिहार पुलिस के अपराध आंकड़ों के मुताबिक संज्ञेय अपराधों में छह महीनों में 13 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गयी यानि अप्रैल 2016 में आपराधिक घटनाओं की संख्या 14279 थी जो अक्तूबर 2016 में बढ़कर 16,153 हो गयीं।

बिहार सरकार ने अनपेक्षित परिणामों को ध्यान में रखते हुए हाल में कानून में संशोधन किया है और सख्त नियमों को नरम बना दिया है। अब पहली बार कानून का उल्लंघन करने वाले के लिए ये अपराध जमानती बना दिया गया है और इसकी सजा घटाकर तीन महीने कर दी गयी है। दूसरी बार अपराध करने वालों के लिए सजा दो से पांच वर्षों तक की निर्धारित की गयी है।

बिहार की नीति की नींव गलत थी और शुरूआती गलतियों को ढंकने के चक्कर में इस नीति के समर्थक दूसरे तरीकों का सहारा लेते रहे जिनमें कानून में लगातार संशोधन, बेहतर छवि पेश करने के लिए आंकड़ों में हेर फेर और अखबारों में मनमाफिक खबरें छपवाना शामिल है। इसलिए, सरकार को इसके बदले क्या करना चाहिए था? और अब अर्थशास्त्री और नीति निर्माता क्या कर सकते हैं?

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री लैंड्सबर्ग की पुस्तक द आर्मचेयर इकॉनामिस्ट में इसका जवाब मिल सकता है। सीटबेल्ट का उदाहरण लें। वे लिखते हैं कि जब इसे प्रयोग में लाया गया तो इसका उद्येश्य सड़क दुर्घटनाओं में कमी लाना था लेकिन वास्तव में इसकी वजह से दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ गयी। लैंड्सबर्ग ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि कई बार प्रयासों के विपरीत नतीजे निकलते हैं और इसकी व्याख्या मूलभूत आर्थिक सिद्धांतों के जरिये की जा सकती है। सीटबेल्ट के प्रयोग ने ड्राइवरों को सुरक्षा का छद्म बोध कराया और इस वजह से वे ज्यादा असावधानी से गाड़ियां चलाने लगे। इसका परिणाम ये हुआ कि ड्राइवर की मौतों में तो थोड़ी कमी आई लेकिन पैदलयात्रियों की मौत में भारी इजाफा हो गयी और इस तरह से कुल मौतों की संख्या बढ़ गयी।

ऐसा ही एक और उदाहरण है न्यूयार्क शहर में सोडा टैक्स लागू करने का। न्यूयार्क सरकार ने मोटापे की समस्या पर काबू पाने के इरादे से सोडा की खरीद में कमी लाने के लिए सोडा टैक्स लागू कर दिया। वे ये समझ नहीं पाये कि चीनी की जरूरतों की पूर्ति के लिए इसका इस्तेमाल करने वाले लोग सोडा की कीमत बढ़ने पर इसके विकल्पों का उपयोग शुरू कर देंगे। और ज्यादा हैरत की बात नहीं जो जैसन एम फ्लेचर एट आल के शोधपत्र के निष्कर्ष में ये खुलासा हुआ कि सोडा की बिक्री तो कम हो गयी लेकिन चीनी और अन्य चीनी संबंधी उत्पादों की खरीद बढ़ गयी और मोटापे की समस्या जस की तस रही।

बिहार की शराब बंदी का भी यही हश्र हुआ दिखता है। क्योंकि सरकार ने कानून बनाते समय पर्याप्त शोध नहीं कराया और विकल्पों की उपलब्धता और कालाबाजारी जैसे कारणों पर विचार नहीं किया, इसलिए अब ये कानून में संशोधन करके अनपेक्षित परिणामों को खत्म करने की कोशिश कर रही है। असलियत में, अगर बिहार सरकार ने नीति के बारे में व्यापक रूप से विचार किया होता तो स्कॉटलैंड के उदाहरण को जरूर देखा होता और इस दोषपूर्ण कानून को ऐसे ही नहीं लागू कर दिया होता।

स्कॉटलैंड में वर्ष 1853 के फोर्ब्स मैकैन्जी कानून के जरिये शराब की खपत में कमी लाने के इरादे से पब के सप्ताह छह दिन 11 बजे रात के बाद और रविवार को पूरे दिन बंद रखने का आदेश जारी किया गया। इस वजह से सैकड़ों लाइसेंसी शराबघर बंद हो गये और इसके स्थान पर अवैध शराब परोसने वाले ठिकाने खुल गये जहां सस्ता और मिलावटी शराब बिकता था जो प्राय: खतरनाक भी होता था। इस वजह से सरकार को इस कानून को वापस लेना पड़ा।

ये केस स्टडी बिहार को एक झरोखा प्रदान करता है जिसके जरिये ये सुनिश्चित किया जा सकता है कि जो नीतियां तैयार की जायें वो पूरी तरह से सुविचारित और सुनियोजित हों। अगर बिहार मद्य निषेध प्रतिबंध जैसी महत्वाकांक्षी नीतियां लागू की जानी हैं तो जरूरत इस बात की है कि सरकार विचार विमर्श का दायरा विस्तृत करे, लोगों को इससे जोड़े, उन प्रोत्साहन संरचनाओं का अध्ययन करे जो जन अभिरूचियों को निर्धारित करते हैं और संवाद और विचार विमर्श की प्रकिया के जरिये नीति तैयार करे जो ठोस भी हो।

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