Published on Sep 22, 2020 Updated 0 Hours ago

अपनी आपदा प्रबंधन क्षमता में कमज़ोरी और सामुदायिक भागीदारी के तौर-तरीक़ों में कमी की वजह से कई शहर जूझ रहे हैं

हमें अपने शहरों के लिए नये सामाजिक नियमों की ज़रूरत क्यों है?

महामारी ने विकासशील देशों के शहरों में संरचनात्मक असमानता का बुरी तरह से पर्दाफ़ाश किया है. रहने की जगह, साफ़ पानी, सफ़ाई और सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा को लेकर शहरों में गहरे सामाजिक बंटवारे को हम लंबे समय से छिपा रहे थे लेकिन अब वो हमें परेशान कर रहा है क्योंकि झुग्गियों में रहने वाली एक अरब आबादी या दुनिया की शहरी जनसंख्या का 24 प्रतिशत हिस्सा स्वच्छता की बुनियादी ज़रूरतों जैसे हाथ धोने और शारीरिक दूरी को पूरा करने में कठिनाई महसूस कर रहा है. हमें एक नये सामाजिक नियम की ज़रूरत है जो शहरों में बढ़ती दूरी की तरफ़ ध्यान दे और सही हालत की तरफ़ ले जाने के लिए ज़्यादा समावेशी रास्ता तैयार करे.

विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक़ कोविड-19 महामारी के कारण 70 से 100 मिलियन लोगों को 1.90 अमेरिकी डॉलर प्रतिदिन की अत्यंत ग़रीबी की अंतर्राष्ट्रीय रेखा के नीचे धकेल सकती है. भारत और नाइजीरिया जैसे देश जहां ग़रीबों की बड़ी आबादी है, वहां इसका ख़तरा सबसे ज़्यादा है. ग़रीबों को आर्थिक झटके से बचाने के लिए कई देशों ने कैश ट्रांसफर, खाद्य सब्सिडी और दूसरे कल्याणकारी पैकेज का एलान किया है. लेकिन महामारी की वजह से आई ग़रीबी के वैश्विक पहलुओं का मुक़ाबला करने के लिए अलग-अलग देशों की ऐसी कोशिशें नाकाफ़ी हैं. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने ज़्यादा बहुपक्षीय सहयोग पर ज़ोर दिया और ‘असमानता की महामारी’ का मुक़ाबला करने के लिए ‘नये ज़माने के नये सामाजिक नियमों’ की अपील की. राष्ट्रीय और वैश्विक आर्थिक बहाली की रणनीति के लिए महामारी के शहरी पहलुओं को ध्यान में रखने की ज़रूरत है. वास्तव में शहर महामारी से मुक़ाबले और लोगों के जीवन और उनकी आजीविका पर असर से मुक़ाबले में अगले मोर्चे पर हैं. प्रोत्साहन पैकेज और कल्याणकारी क़दमों के साथ शहरों को लेकर केंद्रित नीति बनाने की भी ज़रूरत है.

शहर संकट से कैसे मुक़ाबला करता है ये काफ़ी हद तक उसकी आपदा प्रबंधन क्षमता, शहरीकरण के स्वरूप और मौजूदा सेवा प्रदान करने की प्रणाली से तय होती है.

एक अनुमान के मुताबिक़ कोविड-19 के 90 प्रतिशत मामले शहरी इलाक़ों में हैं. लेकिन शहर रोज़गार, अरमानों और आर्थिक बदलाव से भी जुड़े हुए हैं. वैश्विक GDP में शहरों का योगदान 80 प्रतिशत है. जैसा कि कोविड-19 के ताज़ा अनुभव बताते हैं, आर्थिक असर अपने आस-पास के इलाक़ों के अलावा दूर तक फ़ैलते हैं और दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों पर भी असर डालते हैं. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुमानों के मुताबिक़ लॉकडाउन की वजह से 2020 की दूसरी तिमाही में वैश्विक काम-काज के घंटों में 14 प्रतिशत की कमी आई है जो 400 मिलियन पूर्णकालिक नौकरी के नुक़सान के समान है. अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर ख़ासतौर पर विनाशकारी असर हुआ है. ग़रीब देशों में 90 प्रतिशत रोज़गार अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में है.

शहरों का जोखिम उनके लॉजिस्टिकल काम-काज से जुड़ा है. शहर पैसे, सामान, लोगों और कभी-कभी महामारी आने के केंद्र हैं. महानगर न सिर्फ़ उत्पादन और खपत की जगह हैं बल्कि वैश्विक और क्षेत्रीय परिवहन नेटवर्क और सप्लाई चेन के बीच लेन-देन के केंद्र भी हैं. इसकी वजह से शहरों में जोखिम बढ़ जाता है. लेकिन कोविड-19 संक्रमण का फैलाव अलग-अलग शहरों में एक समान नहीं है बल्कि ये पहले से मौजूद ग़लतियों की देन हैं. एक जैसे जनसंख्या घनत्व और आर्थिक विकास के समान स्तर वाले शहरों में कोरोना वायरस पर काबू पाने में उनकी अलग-अलग क्षमता दिखी है. कोई शहर संकट से कैसे मुक़ाबला करता है ये काफ़ी हद तक उसकी आपदा प्रबंधन क्षमता, शहरीकरण के स्वरूप और मौजूदा सेवा प्रदान करने की प्रणाली से तय होती है.

शहरी शासन की क्वालिटी और असर मायने रखते हैं: अच्छा शासन वायरस के संक्रमण चेन को तोड़ सकता है और मज़बूती का निर्माण कर सकता है. इसके विपरीत शासन में कमी संकट को बिगाड़ सकती है और शहरी ख़तरे को बढ़ा सकती है. सामाजिक-आर्थिक असमानता, बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच में कमी और गंदगी में रहने के हालात सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट को बढ़ाते हैं. झुग्गियां और अनधिकृत बस्तियां जहां अधिकृत इलाकों के मुक़ाबले 10 गुना ज़्यादा भीड़ होती है, जहां दसियों लोग एक कमरे में रहते हैं, जहां सैकड़ों लोग एक शौचालय का इस्तेमाल करते हैं और जहां पानी रुक-रुक कर आता है, वहां रहने वाले लोगों पर पहले की महामारियों जैसे H1N1, स्वाइन फ्लू और डेंगू का काफ़ी ज़्यादा असर हुआ था.

अभी तक स्थानीय सरकारों और सामुदायिक कार्यकर्ताओं की ज़मीनी स्तर की कड़ी कोशिशों की बदौलत कुछ प्रमुख झुग्गी बस्तियों जैसे मुंबई के धारावी या रियो डी जेनेरो के रोसिन्हा फैविलास में कोविड-19 के बड़े पैमाने पर संक्रमण को रोकने में कामयाबी मिली है. लेकिन ऐसी ख़बरें हैं कि कराची के ओरांगी टाउन, मनीला के पवाटा या नैरोबी के किबेरा जैसे इलाक़ों में ख़ामोशी से मामले बढ़ रहे हैं. अनधिकृत बस्तियों के बारे में विश्वसनीय आंकड़े अक्सर नहीं आ पाते हैं. संक्रमितों को ढूंढ़ना भी मुश्किल है ख़ासतौर पर दूसरे दर्जे के शहरों की छोटी झुग्गियों में. ऐसे में अभी ढिलाई की कोई जगह नहीं है.

ये ज़रूरी है कि महामारी से निपटने को लेकर एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाए क्योंकि शहरी ग़रीब एक समान समुदाय नहीं हैं. ख़तरे तक उनकी पहुंच लिंग, उम्र आदि जैसे कारणों की वजह से अलग-अलग हैं. संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के कोविड-19 के ख़तरे का सामना कर रही जनसंख्य़ा का डैशबोर्ड लोगों को बुजुर्ग, अकेले रह रहे लोग, जनसंख्य़ा घनत्व, घर के आकार, एक कमरे में रहने वाले लोगों की संख्य़ा, साफ़ पानी और दूसरी नागरिक सुविधाओं तक पहुंच के हिसाब से बांटता है. ये सभी शहरी प्रबंधन के काम-काज हैं. कोरोना वायरस महामारी वास्तव में संकट का जवाब देने, पुराने हालात की बहाली और पुनर्निर्माण में सबसे आगे बढ़कर काम करने में स्थानीय निकायों की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालती है.

ये ज़रूरी है कि महामारी से निपटने को लेकर एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाए क्योंकि शहरी ग़रीब एक समान समुदाय नहीं हैं. ख़तरे तक उनकी पहुंच लिंग, उम्र आदि जैसे कारणों की वजह से अलग-अलग हैं.

लेकिन स्थानीय निकाय अक्सर संसाधनों की मजबूरी का सामना करते हैं और ज़मीनी स्तर पर लोगों तक सीधे पहुंचने में उनके लिए कई तरह की कठिनाइयां आती हैं. ऐसी हालत में सिविल सोसायटी और समुदाय आधारित संगठन बहुत काम आते हैं. उदाहरण के तौर पर, जब लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूर फंस गए थे तो केरल में शहरी निकायों ने तुरंत सामुदायिक रसोई की स्थापना की और कुदुंबश्री कार्यक्रम के तहत महिलाओं द्वारा संचालित स्वयं सहायता समूहों को जोड़कर राहत सामग्री का वितरण किया.

सामुदायिक संगठन सरकारों और लोगों को जोड़ने की महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं. उनकी मज़बूती इलाक़े की ज़मीनी स्तर की अच्छी समझ और लोगों के बीच उनके भरोसे में है. जब ढाका के स्थानीय निकाय ने लॉकडाउन के दौरान ग़रीबों को खाना बांटना चाहा तो पता चला कि ज़रूरतमंद घरों के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है और इसके लिए उसे उत्तरी ढाका के शहरी ग़रीब महासंघ की मदद लेनी पड़ी. ये महासंघ 350 सामुदायिक विकास समितियों (CDC) का गठबंधन है. CDC के सामुदायिक नेताओं ने अपने व्यापक सांगठनिक नेटवर्क को जोड़कर ज़रूरतमंद लोगों की पहचान की और उन तक खाने-पीने का सामान पहुंचाया.

जब ढाका के स्थानीय निकाय ने लॉकडाउन के दौरान ग़रीबों को खाना बांटना चाहा तो पता चला कि ज़रूरतमंद घरों के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है और इसके लिए उसे उत्तरी ढाका के शहरी ग़रीब महासंघ की मदद लेनी पड़ी.

महामारी की वजह से पैदा आर्थिक संकट से परेशान शहरी ग़रीबों को दीर्घकालीन आजीविका की मदद मुहैया कराने में भी इसी तरह की सामूहिक कोशिश सामने आई है. उदाहरण के लिए, इंडोनेशिया के राष्ट्रीय झुग्गी सुधार कार्यक्रम (NSUP), जो बुनियादी ढांचे के विकास में मदद करता है, ने अब स्थानीय निकायों और झुग्गी समितियों के साथ साझेदारी का समझौता किया है. पिछले दो दशकों के दौरान NSUP ने 11,000 सामुदायिक संगठनों के विशाल नेटवर्क की स्थापना की है. परियोजना के संसाधनों और सांगठनिक नेटवर्क को अब झुग्गियों में पानी की सप्लाई, स्वच्छता और साफ़-सफ़ाई को बेहतर करने में लगाया जा रहा है. इससे महामारी की वजह से नौकरी गंवा चुके शहरी ग़रीबों के लिए नई नौकरियों का निर्माण भी हो रहा है.

लेकिन अपनी आपदा प्रबंधन क्षमता में कमज़ोरी और सामुदायिक भागीदारी के तौर-तरीक़ों में कमी की वजह से कई शहर जूझ रहे हैं. कोविड-19 संकट और भविष्य की महामारियों का जवाब देने के लिए नये सामाजिक नियमों के ज़रिए शहरों को सशक्त बनाने की तुरंत ज़रूरत है. इसके लिए ज़्यादा मज़बूती और भागीदारी की शासन व्यवस्था के ज़रिए सभी लोगों को जोड़ने पर ध्यान देना होगा. टिकाऊ विकास लक्ष्य (SDG) और नया शहरी एजेंडा (NUA) इसमें काफ़ी मददगार हो सकते हैं क्योंकि लोगों को जोड़ने और मज़बूती की धारणा इस तरह की वैश्विक रूपरेखा में जुड़े हुए हैं.

2015 में संयुक्त राष्ट्र ने जो SDG अपनाया वो शहरी ग़रीबों से जुड़े ख़तरों का समाधान करने में और कम लागत के घरों, साफ़ पीने के पानी और सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की सुविधा के लिए व्यापक रूपरेखा पेश करता है. टिकाऊ विकास का लक्ष्य हासिल करने में समय पर प्रगति के लिए SDG के लक्ष्य और सूचकों को स्थानीय निकायों की विकास योजनाओं की डिलीवरी प्रक्रिया और बजटीय प्राथमिकता से जोड़ने की ज़रूरत है. 2016 में संयुक्त राष्ट्र ने जो नया शहरी एजेंडा अपनाया उसमें SDG लक्ष्यों को स्थानीयकरण के ज़रिए शहरों में नये सामाजिक नियमों की गुंजाइश को और विस्तार मिला है ताकि शहरी योजना और शासन ज़्यादा समावेशी और भागीदारी वाली प्रक्रिया बन सके.

2015 में संयुक्त राष्ट्र ने जो SDG अपनाया वो शहरी ग़रीबों से जुड़े ख़तरों का समाधान करने में और कम लागत के घरों, साफ़ पीने के पानी और सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की सुविधा के लिए व्यापक रूपरेखा पेश करता है.

हाल के वर्षों में भारत ने अलग-अलग SDG लक्ष्य हासिल करने में वास्तव में ठोस प्रगति की है. इनमें सबसे महत्वपूर्ण है 2005-16 के बीच की अवधि में ग़रीबी में कमी जब क़रीब 273 मिलियन लोगों को बहुआयामी ग़रीबी से बाहर निकाला गया. ये दुनिया के किसी भी देश में सबसे ज़्यादा है. लेकिन ये बढ़ोतरी अब ख़तरे में है. शहरी ग़रीबों की आजीविका और उनके रहन-सहन के हालात को बेहतर बनाने के लिए राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय सरकारों की मिली-जुली कोशिश वास्तव में इस समय की ज़रूरत है.

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