Author : Satish Misra

Published on Jun 05, 2017 Updated 0 Hours ago

अधिकांश विपक्षी दलों को इसका अहसास होने लगा है कि उनका राजनीतिक वजूद अब उनकी एकता पर निर्भर करता है।

क्या विपक्षी दलों की एकजुटता मोदी की भाजपा का मुकाबला कर पाएगी

पांच राज्यों में हाल में हुए विधानसभा के चुनावों तथा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में स्थानीय नगर निगम के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की भारी चुनावी जीत ने साबित कर दिया है कि कोई भी एक राजनेता या पार्टी केवल अपनी ताकत पर अब प्रधानमंत्री की मतदाताओं पर उनकी पकड़ या उनकी लोकप्रियता की साख का मुकाबला नहीं कर सकता।

लोगों पर मोदी के जादुई प्रभाव से विपक्षी दलों के बीच खतरे की घंटी बजने लगी है। और ऐसा लगता है कि जमीनी स्तर पर मौजूद यह हकीकत राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले आगामी चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के खिलाफ एक संयुक्त मुकाबले के लिए मंच तैयार कर रही है।

अधिकांश विपक्षी दलों को इसका अहसास होने लगा है कि उनका राजनीतिक वजूद अब उनकी एकजुटता पर निर्भर करता है। उन्हें डर है कि अगर वे ऐसे ही विभाजित रहे तो जल्द ही राजनैतिक रूप से वे अप्रासंगिक हो जाएंगे। इसलिए, वर्तमान में संयुक्त मुकाबले के लिए गैर-भाजपा दलों को एकजुट करने के समानांतर प्रयास किए जा रहे हैं और उनका मानना है कि देश के संविधान एवं कुछ मूलभूत संरचनाओं पर घातक आक्रमण किया जा रहा है।

1 मई को, विपक्षी दलों एवं ट्रेड यूनियनों के एक दर्जन से अधिक नेता स्वर्गीय समाजवादी नेता मधु लिमये की 95वीं जयंती मनाने के लिए एक साझा मंच पा आए। लिमये 1977 में विपक्षी एकता के प्रमुख निर्माताओं में से एक थे जिसकी वजह से आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को पराजित करने वाली जनता पार्टी वजूद में आई। इसका नतीजा केंद्र में पहली गैर-कांग्रेस सरकार के गठन के रूप में सामने आया। इन नेताओं ने राजनीतिक स्तर पर भाजपा से लड़ने के लिए संगठित दृष्टिकोण एवं संयुक्त रणनीति की जरुरत पर जोर दिया।

इसके साथ साथ, कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले आगामी चुनावों में एक साझा उम्मीदवार पर सहमति के लिए गैर-भाजपा दलों से मिलती रही हैं। एक अन्य स्तर पर, माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी, वरिष्ठ जेडी (यू) नेता शरद यादव, एनसीपी प्रमुख शरद पवार जैसे कुछ प्रमुख नेता बीजू जनता दल (बीजेडी), भारतीय राष्ट्रीय लोकदल (आईएनएलडी) एवं तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) जैसे अन्य विपक्षी दलों के नेताओं से उनका समर्थन पाने के लिए मिलते रहे हैं। अकाली दल एवं शिवसेना जैसे राजग के कुछ सहयोगी दलों को भी अपने पाले में खींचने के कुछ चतुराई भरे प्रयास भी किए जा रहे हैं।

जून में, सभी बड़े विपक्षी दलों के नेताओं की चेन्नई में द्रमुक प्रमुख एम करुणानिधि के 95वें जन्म दिवस के समारोह पर मुलाकात होगी। इस समारोह का आयोजन विपक्षी दलों को एक साथ लाने, अपने आंतरिक मतभेदों को दूर करने के लिए किया जा रहा है जिससे कि एक संगठित विपक्ष आगामी चुनावों में लोगों को एक भरोसेमंद विकल्प प्रस्तुत कर सके।

राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव इस बात की पहली परीक्षा होगी कि क्या विपक्षी दल 2019 के आम चुनावों में एकजुट होकर भाजपा के नेतृत्व वाले राजग का मुकाबला कर सकते हैं या नहीं। और राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव के दौरान आपस में उपजी समझ और अर्जित अनुभव भाजपा के खिलाफ उनके भविष्य के चुनावी मुकाबलों के लिए जमीन तैयार कर सकता है।

राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव के केवल तीन संभावित परिणाम हो सकते हैं। पहला, भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के पास राष्ट्रपति पद के लिए अपनी पसंद का कोई व्यक्ति हो। दूसरा, सभी बाधाओं से उबरते हुए, विपक्षी दल एक संयुक्त उम्मीदवार खड़ा करने और निर्वाचन मंडल में पर्याप्त मत हासिल करने में समर्थ हो जाए जिससे कि वह मुकाबला जीत जाए। तीसरा, सत्तारूढ़ राजग और विपक्षी दलों के बीच बिना किसी चुनावी मुकाबले के नया राष्ट्रपति निर्वाचित करने पर आम सहमति हो जाए।

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल इस वर्ष 25 जुलाई को समाप्त हो रहा है। इसलिए, उस तारीख से पहले नया राष्ट्रपति का निर्वाचन एक संवैधानिक आवश्यकता है।

क्या नया राष्ट्रपति सत्तारूढ़ भाजपा के नेतृत्व वाले राजग गठबंधन और विपक्षी दलों के बीच आम सहमति से चुना जाएगा या इस बार मुकाबला होगा

जहां कांग्रेस के नेतृत्व में गैर भाजपा विपक्षी दल राष्ट्रपति भवन में अपनी पसंद के व्यक्ति के लिए एक संयुक्त उम्मीदवार पर सहमत होने के लिए आपसी परामर्श की प्रक्रिया में हैं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार अपनी रणनीति का ख्ुलासा नहीं कर रही है, संभवतः विपक्षी दलों द्वारा पहल किए जाने की प्रतीक्षा कर रही है।

 संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों एवं राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और पुद्दुचेरी की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों से निर्मित्त एक निर्वाचन मंडल भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन करता है। निर्वाचन मंडल की कुल संख्या 1098,882 है जबकि राजग की खुद की मत संख्या 53,1442 है जोकि 54,9442 की बहुमत संख्या से केवल 18,000 मत कम है।

उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड मंे विधान सभा चुनावों में भाजपा की जीत एवं कांग्र्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा) एवं बहुजन समाजवादी पार्टी (बसपा) के निम्न चुनावी प्रदर्शन के बाद, राजग अपेक्षाकृत देश के शीर्ष पद पर अपने उम्मीदवार को लेकर बेहतर स्थिति में आ गई है।

राजग को अपनी इस कमी की पूर्ति किसी एक या अन्य तीन गैर-राजग दलों-अन्नाद्रमुक, टीआरएस और बीजेडी को भरोसे में लेने के द्वारा करनी पड़ेगी। अगर विपक्षी दलों को कामयाब होने की इच्छा है तो उन्हें यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि न केवल गैर भाजपा विपक्षी दल एकजुट बनें रहें बल्कि उन्हें राजग के भी एक या दो सहयोगी दलों को भी अपने पाले में करने की जुगत करनी होगी।

आगे आने वालों हफ्तों में इसका संकेत मिलेगा कि क्या विपक्षी दल अपने मतभेदों को खत्म कर पाते हैं और भाजपा के अजेय दिख रहे नेता के तहत राजग को गंभीर चुनौती पेश करने के लिए एकजुट बने रहते हैं या नहीं।

राष्ट्रपति पद के चुनाव का चाहे जो भी परिणाम हो, पूरी प्रक्रिया यह सुनिश्चित करने की है कि यह मुख्य विपक्षी दलों के बीच बेहतर तालमेल पैदा करने में योगदान दे। यह इस वर्ष होने वाले गुजरात के विधानसभा चुनावों, अगले वर्ष होने वाले हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान के विधानसभा चुनावों तथा अंततोगत्वा 2019 के आम चुनावों, जैसे भविष्य के चुनावों के लिए भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के खिलाफ एक साझा विपक्ष का लांचिंग पैड भी साबित हो सकता है।

कागजों पर विपक्षी दलों के पास आमने-सामने के किसी भी चुनावी मुकाबले में भाजपा को शिकस्त देने के लिए पर्याप्त संख्या है। 2014 के आम चुनावों में, भाजपा ने 31.34 प्रतिशत मत हासिल करने के जरिये 282 सीटें जीती थी। भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को 38.5 प्रतिशत मतों के साथ 336 सीटें प्राप्त हुई थी।

कागजों पर विपक्षी दलों के पास आमने-सामने के किसी भी चुनावी मुकाबले में भाजपा को शिकस्त देने के लिए पर्याप्त संख्या है। 2014 के आम चुनावों में, भाजपा ने 31.34 प्रतिशत मत हासिल करने के जरिये 282 सीटें जीती थी। भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को 38.5 प्रतिशत मतों के साथ 336 सीटें प्राप्त हुई थी।

इन्हीं चुनावों में कांग्रेस को 19.4 प्रतिशत मत मिले थे, पर वह केवल 44 सीटें ही जीत पाई थी।

बहरहाल, कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग गठबंधन को संयुक्त रूप से 23 प्रतिशत मत हासिल हुए थे और गठबंधन केवल 60 सीट ही जीत पाई थी।

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में हाल में हुए विधान सभा चुनावों में भाजपा के नेतृत्व में राजग ने मतदान में पड़े वोटों के 41 प्रतिशत हिस्से के साथ 325 सीटें जीतीं। समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन को 28 प्रतिशत मत हासिल हुए और केवल 54 सीटें जीत सकी जबकि बहुजन समाजवादी पार्टी (बसपा) को 22.2 प्रतिशत मत हासिल होने के बावजूद केवल 19 सीटों से ही संतोष करना पड़ा।

यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि अगर सपा, बसपा एवं कांग्रेस ने उप्र विधान सभा चुनाव एक साथ मिल कर लड़ा होता तो भाजपा के नेतृत्व में राजग तीन दलों वाले इस गठबंधन से आसानी से हार गया होता जिसे 8.8 प्रतिशत अधिक मत हासिल हुए होते।

सिद्धांत के रूप में यह संभव प्रतीत होता है कि मोदी के करिश्माई नेतृत्व में भाजपा सीधी लड़ाई में आसानी से हार सकती है लेकिन राजनीति केवल आंकड़ों की ही बाजीगरी नहीं है, यह बहुत हद तक अनुभूति से जुड़ी लड़ाई है जहां भावनाएं, अहसास, चुनावी रणनीति एवं कल्पनाशील वायदे भी कायापलट कर देते हैं।

विपक्षी दलों के नेताओं के बीच एक समझौते से कहीं आगे विभिन्न पार्टियों के कैडरों के बीच एकता एवं सद्भाव भाजपा की चुनावी चुनौती का कारगर ढंग से सामना करने के लिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। जमीनी स्तर पर सामान्य संघर्ष एवं निर्वाचन क्षेत्र स्तर पर कार्यों में एकजुटता विभिन्न दलों के कार्यकर्ताओं के बीच एकता बढ़ाने के लिए कारगर माध्यम हैं जो कई मामलों में एक दूसरे के प्रतिद्वंदी रहे हैं। बहरहाल, उपदेश देना आसान है पर इसे अमल में लाना मुश्किल।

जाहिर है कि विपक्ष केवल संख्याओं एवं मतदान प्रतिशत पर निर्भर नहीं कर सकता। कामयाबी हासिल करने के लिए विपक्ष के नेताओं को अपने विशाल अहं को त्यागना होगा और अपनी चुनावी ताकत को लेकर अति भरोसे को छोड़ने के अतिरिक्त, एक न्यूनतम साझा एजेंडा तैयार करना होगा एवं एक ऐसी आकर्षक दृष्टि विकसित करनी होगी जो खासकर, युवा पीढ़ी की कल्पना एवं आकांक्षाओं के अनुरूप हो।

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