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हालिया घटनाक्रम में भारत जबकि चाबहार में अपने हितों को सुरक्षित करना चाहता है, इसके दो बड़े नुकसान सामने आए हैं: अफ़ग़ानिस्तान तक पहुंच और रीजनल कनेक्टिविटी में इसका नेतृत्व.
सिर्फ़ भारत की भागीदारी के बिना आगे बढ़ने वाले चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे लिंक निर्माण से चाबहार में भारत का निवेश प्रभावित नहीं होगा. यह भी जान लें— ईरान फरज़ाद-बी गैस ब्लॉक विकसित करने में भी भारत के बिना आगे बढ़ रहा है; अभी चीन-ईरान आर्थिक और सुरक्षा साझेदारी को अंतिम रूप दिया जा रहा है— आगामी घटनाएं एक अलग तस्वीर पेश करती हैं. जब ईरान और चीन पर लगाए तमाम अमेरिकी प्रतिबंधों को बढ़ाया जा रहा है, तो आपात प्रबंध जरूरी हो जाते हैं. विकास योजना में एक पसंदीदा भागीदार रहे भारत के लिए चाबहार में यह ‘तख़्तापलट’ जैसा था, जिसने ख़ासतौर पर अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया की ओर एक भरोसेमंद पहुंच के लिए आशा जगाई थी. इसका एक मतलब यह भी था कि आख़िरकार, कथित चीनी घेराव को दरकिनार करने की क्षमता हासिल हो रही थी जिसने भारत के पश्चिमी हिस्से में ग्वादर बंदरगाह और इसके बाद सीपीईसी (चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर) विकसित किया था.
लेकिन भारत के लिए चाबहार की भूमिका और महत्व पर सक्रिय बातचीत जारी है. हाल के घटनाक्रमों के मद्देनजर, अगर वह इन उपरोक्त उद्देश्यों को आगे बढ़ाता है तो भारत के लिए मुख्य रूप से इसका क्या महत्व है,?
सबसे पहले तो भारत की अफ़ग़ानिस्तान में पहुंच का नुक़सान है.एक हालिया रिपोर्ट में नई दिल्ली द्वारा फंडिंग में देरी का हवाला देते हुए कहा गया है कि ईरान, भारतीय मदद के बिना दक्षिण-पूर्वी चाबहार बंदरगाह से अफ़ग़ान सीमा के पास ज़ाहेदान तक रेलवे मार्ग का निर्माण कार्य करेगा. यह रिपोर्ट आने के कुछ दिन बाद, ईरान ने इस दावे का खंडन किया कि भारत को परियोजना से हटाया गया है, और कहा कि सबसे पहली बात तो यह है कि “ज़ाहेदान-चाबहार रेलवे के संबंध में भारत के साथ कभी कोई समझौता” किया ही नहीं गया था. उसने बाद में यह भी जोड़ा कि किसी आगामी तारीख़ से परियो जना में शामिल होने को “भारत के लिए अब भी दरवाजे़ खुले हैं.” इससे यह सवाल उठता है कि क्या भारत और ईरान एक ही नाव पर सवार हैं. क्या भारत के वाशिंगटन के दबाव में काम करने की धारणा के कारण यह गहरी दुर्भावनापूर्ण शरारत है या द्विपक्षीय संबंधों में एक दूसरे के संभावित निवेशक के रूप में देखने की ईरान की रणनीति का यह एक और पैंतरा है,?
लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में मौजूदा राजनीतिक हालात — जिसमें क़ाबुल और तालिबान के बीच आगामी वार्ता भी शामिल है, इतने तक ही सीमित नहीं है; अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की तयशुदा वापसी और जारी हिंसा— के साथ ही ईरान पर लगाई गई अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों से निपटना भारत के लिए पहले से ही मुश्किल रहा है. रियायत प्राप्त भारत बातचीत कर सकता था और वह चाबहार को विकसित करने और अफ़ग़ानिस्तान के साथ संबंधों को जारी रखने में सक्षम था. लेकिन दोतरफ़ा दांव-पेचों के बीच नई दिल्ली के लिए दांव पर है अफ़ग़ानिस्तान से )- जारी आवागमन और बी) – आवागमन का स्तर. अगर चाबहार को अफ़ग़ानिस्तान (और मध्य एशिया) में भारत के लिए सरहद से बाहर केंद्रबिंदु के रूप में देखा जा रहा है, तो यह भारत के ईरान के साथ लंबे समय तक चलने वाले संबंध हैं तो इसे अपनी कनेक्टिविटी ‘मशीनरी’ को काम पर लगाना चाहिए, यह सिर्फ़ एक साधारण रेल लिंक का मसला नहीं है.
भारत, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच 2016 का ऐतिहासिक त्रिपक्षीय समझौता तीन देशों को स्वाभाविक साझीदार के रूप में निर्बाध रूप से व्यापारिक सुविधाओं (जिसने पाकिस्तान पर निर्भरता को कम किया) को विकसित करने और मज़बूत करने के लिए एक साथ लाया. भारत का जुड़ाव ज़मीनी स्तर पर उतार-चढ़ाव से गुज़रता रहा. बजट आबंटन और जारी करना, काम में लगातार रुकावटें और अंतरराष्ट्रीय वातावरण सभी के चलते भारत के लिए रणनीतिक नज़रिये से चाबहार की भूमिका और स्थान पर बहस का दौर शुरू हो गया है, क्योंकि इसकी प्रगति धीमी और मुश्किल बनी हुई थी. चाबहार को रेलमार्ग से जोड़ने वाली एक महत्वपूर्ण परियोजना, जिसमें अफ़ग़ानिस्तान में 215 किलोमीटर लंबे ज़ारंज-डेलारम हाईवे से जोड़ा गया है जिसे भारत पहले ही बना चुका है, अब ईरान इसे अपने दम पर आगे बढ़ाने जा रहा है. भारत और अफ़ग़ानिस्तान 2019 से इस बंदरगाह के ज़रिये निर्यात कर रहे हैं, जिसमें माल बंदरगाह से ट्रकों के माध्यम से अफ़ग़ान सीमा तक जाता है. पिछले वर्ष 1 अरब डॉलर से अधिक का अफ़ग़ान माल का निर्यात बंदरगाह से किया गया था, जिसके इस वर्ष के अंत तक दोगुना हो जाने की उम्मीद है.
अगर चाबहार को अफ़ग़ानिस्तान (और मध्य एशिया) में भारत के लिए सरहद से बाहर केंद्रबिंदु के रूप में देखा जा रहा है, तो यह भारत के ईरान के साथ लंबे समय तक चलने वाले संबंध हैं तो इसे अपनी कनेक्टिविटी ‘मशीनरी’ को काम पर लगाना चाहिए, यह सिर्फ़ एक साधारण रेल लिंक का मसला नहीं है.
यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि ईरान और अफ़गानिस्तान के बीच भारत द्वारा ज़मीनी नेटवर्क, चाहे जो भी इसे बनाता है, के इस्तेमाल में रुकावट से भारत सिर्फ़ 2017 में स्थापित भारत-अफ़गानिस्तान एयर फ्रेट कॉरिडोर पर निर्भर रह जाएगा. हालांकि हवाई मार्ग ने भारतीय बाजारों में अफ़ग़ानिस्तान को ज़्यादा पहुंच मुहैया कराई है और अफ़गा़न कारोबारियों को अपने फ़ायदे के लिए भारतीय व्यापार नेटवर्क का फ़ायदा उठाने का मौका दिया है— इस हद तक कि काबुल पांच अन्य देशों के साथ अपने एयर कॉरिडोर के विस्तार में निवेश कर रहा है— ज़ाहिर है कि भारत का नुकसान, जैसा कि एक प्रेक्षक ने टिप्पणी की है, “सिर्फ़ व्यापार और आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि सैन्य क्षेत्र में भी है.”
भारत के पक्ष में सबसे कारगर चीज़ है, क्षेत्र में इसकी अनूठी स्थिति. अमेरिका और इज़रायल के साथ इसके क़रीबी रिश्ते इसे ईरान के लिए एक असामान्य सहयोगी बनाते हैं, लेकिन क़ाबुल और तेहरान के बीच टिकाऊ आर्थिक साझीदारी के मद्देनज़र एक आदर्श कारक भी है. जबकि ईरान चीन के साथ नज़दीकी आर्थिक और सामरिक साझेदारी बनाने पर विचार कर रहा है, उसे नई दिल्ली के साथ काम करने के फ़ायदे का भी एहसास होना चाहिए, उसका इकलौता साझीदार जिसे चाबहार के लिए अमेरिकी प्रतिबंधों से छूट मिली है और जो अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान को सत्ता सौंपे जाने के ख़िलाफ है.
कुल मिलाकर, भारत को बुनियादी ढांचा-निर्माण प्रतिबद्धताओं के संकल्प और ज़रूरत को ज़ाहिर करना चाहिए ताकि यह खुद को एक क्षेत्रीय हितधारक के रूप में पेश कर सके और ईरान व अफ़ग़ानिस्तान के लिए एक भरोसेमंद साझीदार बन सके. भारत-ईरान द्विपक्षीय संबंधों में बार-बार अलगाव के उदाहरण, चाहे कामकाज की समस्याओं या नौकरशाही की अड़चनों की वजह से, या अमेरिका और चीन के संदर्भ में पेश आई हों, इसका निश्चित रूप से नतीजा चाबहार में भारत की मौजूदगी, प्रभाव और प्रभावोत्पादकता में कमी होगा, जिसका इसके अफ़ग़ानिस्तान के साथ रिश्ते पर भारी असर होगा.
भारत के लिए एक दूसरा, दीर्घकालिक नुक़सान क्षेत्रीय कनेक्टिविटी में नेतृत्वकारी स्थिति को लेकर है.
ईरान सिल्क रोड इकोनॉमिक बेल्ट — कई देशों की ज़मीन से गुज़रते चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई)—और भारत के समर्थन वाले अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे (आईएनएसटीसी) के चौराहे पर है. साथ ही ग्वादर और चाबहार अरब सागर में पहुंच और मौजूदगी का सबसे सटीक केंद्र हैं. यूएस-ईरान के बिगड़ते संबंधों ने आईएनएसटीसी की संभावना पर काफ़ी हद तक ताला लगा दिया है. आपूर्ति क्षमता को इस्तेमाल करने के लिए समय-समय हुए समझौते व एमओयू और दक्षता लाभ भी मल्टी-मॉडल कॉरिडोर में भारतीय भागीदारी को बढ़ाने में नाकाम रहे हैं, यहां तक कि ईरान, रूस, अज़रबैजान और अन्य हितधारक स्थानीय मांग और आपूर्ति के लिए आकर्षक मार्ग के कुछ हिस्सों का निर्माण और विस्तार करने के लिए उतावले हैं. पाबंदियों के चलते जापान और दक्षिण कोरिया जैसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय शक्तियां जो कभी आईएनएसटीसी में भागीदारी का विस्तार करने को बेताब थीं, अब पीछे हट गई हैं; यहां तक कि चाबहार को, जिसे मानवीय आधार पर छूट मिली थी, आपूर्ति मिलने में मुश्किल आ रही है.
ईरान सिल्क रोड इकोनॉमिक बेल्ट — कई देशों की ज़मीन से गुज़रते चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई)—और भारत के समर्थन वाले अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे (आईएनएसटीसी) के चौराहे पर है. साथ ही ग्वादर और चाबहार अरब सागर में पहुंच और मौजूदगी का सबसे सटीक केंद्र हैं.
इस बीच, चीन ईरान, सऊदी अरब, यूएई, मिस्र और अन्य एमईएनए देशों के साथ संबंधों को मजबूत कर इस क्षेत्र में अपनी मौजूदगी बढ़ा रहा है. एक चौकन्ना नवागंतुक, मध्य पूर्व के देशों के लिए प्रमुख निवेशक, व्यापारिक साझीदार और पर्यटन के स्रोत के रूप में यह ज़्यादा प्रासंगिक है. यहां यह जानना जरूरी है कि, भले ही बीआरआई को दुनिया के दूसरे हिस्सों में रुकावटों का सामना करना पड़ रहा है, हितों के मिलन के चलते चीन के मेना (मिडिल ईस्ट/नॉर्थ अफ़्रीका) साझीदारों ने अपेक्षाकृत ज़्यादा ग्राह्यता दिखाई है. 2019 के मध्य तक 21 मेना देश बीआरआई अनुबंध पर हस्ताक्षर कर चुके थे; 2007-2012 से 2013 तक के मुकाबले चीनी कंपनियों ने क्षेत्र में अपना काम लगभग दोगुना कर लिया है; और अरब देशों ने पहले ही चीन के बेईडोऊ सेटेलाइट नेविगेशन सिस्टम का इस्तेमाल शुरू कर दिया है. बुनियादी ढांचा विकास— स्टेडियम, रेलवे, औद्योगिक पार्क, 5जी हाईवे, क्लीन एनर्जी परियोजनाएं— विस्तारित बीआरआई छतरी के साये तले चीनी भागीदारी के ठोस सबूत हैं. ज़मीनी हिस्से पर किए इस काम के साथ ही चीन के समुद्री बंदरगाह-इंडस्ट्रियल पार्क कॉम्प्लेक्स भी हैं जो मध्य-पूर्व तटों पर जगह-जगह फैले हैं. जिबूती और ग्वादर के बीच और इसके परे यूएई का खलीफा पोर्ट व काइज़ाद लॉजिस्टिक्स पार्क; मिस्र का पोर्ट सईद व टेडा-स्वेज़ ज़ोन; ओमान का दुक्म पोर्ट व इंडस्ट्रियल पार्क; और सऊदी अरब का जीज़ान पोर्ट व इकोनॉमिक सिटी हैं.
चीन और ईरान के बीच 25 साल के लिए 400 अरब डॉलर के समझौते को अंतिम रूप दिया जा रहा है, जिसमें ईरान के ट्रांसपोर्ट और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के साथ-साथ हाइड्रोकार्बन उद्योग के ठेके चीनी कंपनियों को दिए जा रहे हैं और चीनी कंपनियों, उपकरणों व कामगारों के लिए रास्ता बनाया जा रहा है. चीन ने चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे लिंक को फंड देने के लिए कदम नहीं उठाया है, और संभवतः चीनी फाइनेंस की वास्तविक अदायगी कभी वादा की गई रकम तक नहीं पहुंचेगी—कुछ संदेह और परियोजना में देरी को भूलना नहीं चाहिए (उदाहरण के लिए, ओमान के दुक्म पोर्ट में चीन का मौजूदा निवेश 10 अरब डॉलर के शुरुआती वादे से बहुत कम है). क्या चीनी फ़र्म अमेरिकी पाबंदियों का तोड़ने के लिए आगे आएंगी, यह देखा जाना अभी बाकी है. फिर भी, चीन की निरंतरता, सापेक्षता और यहां तक कि प्रतीकात्मक प्रगति के मुकाबले भारत की बहुत धीमी गति—जिसे एक विद्वान ने नई दिल्ली की “जोख़िम-रहित कूटनीति”— की विशेषता के रूप में परिभाषित किया है—ईरान के लिए काफी मौक़ा मिल जाता है और अंततः एक और सिद्धांत “प्रोडक्शन नोड” बना लेता है, जिसकी वजह से चीन के बीआरआई को मध्य पूर्व में रफ़्तार मिल रही है.
क्या ईरान के उत्पादन और खपत नेटवर्क में चीन की अधिमान्यता चाबहार के माध्यम से मध्य एशिया, रूस और यूरोप तक भारत की पहुंच की क्षमता को सीमित करेगी, क्योंकि माल और निवेश के पूर्व-पश्चिम आवागमन को प्राथमिकता दी जाएगी. भारत की प्रतिस्पर्धा क्षमता निश्चित रूप से चाबहार में उसका जुड़ाव ख़त्म होने से प्रभावित होगी और इससे भी और ज़्यादा असर यह होगा कि आईएनएसटीसी स्थानीय मल्टी-मॉडल संपर्कों का संग्रह भर रह जाएगा. भारत का पश्चिम में अपने विस्तारित पड़ोस में दख़ल में एक भरोसेमंद आर्थिक और विकास साझीदार के रूप में इसकी साख़ (अमेरिका और चीन के बीच अप्रभावी शक्ति जैसा हाल) सवालों के घेरे में होगी. इसके अलावा, अगर पिछले दिनों की घटनाओं को ध्यान से देखें तो चीन की ईरान में पांव जमाने की कोशिश, बीजिंग की नई दिल्ली में चीनी निवेश की समीक्षा और फ़ौरी तौर पर कई चीनी ऐप पर पाबंदी लगाने, जो हाल में सीमा पर हुए संघर्ष के जवाब में उठाया कदम था, यह दूसरे देशों में हितों पर चोट मारने के विचार को मज़बूत करता है. द्विपक्षीय संघर्षों के जवाब में हमले के एक और मोर्चे के तौर पर दूसरे देशों में हितों को नुकसान पहुंचाना. इस मोर्चे पर चीनी कार्रवाई भारत की क्षेत्रीय कनेक्टिविटी योजनाओं के लिए भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं हैं.
चीन की ईरान में पांव जमाने की कोशिश, बीजिंग की नई दिल्ली में चीनी निवेश की समीक्षा और फ़ौरी तौर पर कई चीनी ऐप पर पाबंदी लगाने, जो हाल में सीमा पर हुए संघर्ष के जवाब में उठाया कदम था, यह दूसरे देशों में हितों पर चोट मारने के विचार को मज़बूत करता है.
इसी तरह अरब सागर और लाल सागर में चीन की विस्तारवादी मौजूदगी भी दबाव बढ़ाने वाली है. यहां तक कि अगर मान भी लें कि चाबहार कभी भारत के हाथ से निकला ही नहीं था, तो भी अरब सागर बंदरगाह में चीन की भागीदारी ने चीन के समुद्री घेरे को और बढ़ा दिया है. अगर चीन चाबहार में निवेश योजना पर आगे बढ़ता है, और चाहे इस सौदे के हिस्से के रूप में या अन्यथा, ग्वादर और चाबहार के लिए “सिस्टर पोर्ट (जोड़ीदार बंदरगाह)” बनने का रास्ता साफ़ करता है, तो यह पश्चिमी हिंद महासागर के ठीक बगल में भारत की सुरक्षा रणनीति की चिंता को बढ़ाएगा— ख़ुद के लिए या किसी भी कनेक्टिविटी के लिए चीन का अनुसरण करते हुए दोनों स्थितियों में. यहां भूलना नहीं चाहिए कि इस क्षेत्र में जल्दबाजी में लाई जा रही विशालकाय बीआरआई परियोजनाओं से चीन की बढ़ती आर्थिक मौजूदगी से ज़्यादा चीनी सुरक्षा उपस्थिति की संभावना पैदा होती है. कुछ मामले इस तरह हैं: हिंद महासागर में चीनी पनडुब्बियों की बढ़ती मौजूदगी; 2019 में चीन, ईरान और रूस के बीच संयुक्त नौसैनिक अभ्यास; चीन-पाकिस्तान के बीच बढ़ते सुरक्षा संबंध.
द्विपक्षीय समीकरण इस क्षेत्र में अपनी भूमिका निभाते रहेंगे— चाहे चीन के प्रति ईरान की कूटनीति हो, भले ही इसकी एक आंख पश्चिम पर लगी है; क्या अरब देश अमेरिका और चीन के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं; क्या भारत के ईरान के साथ संबंधों के चलते अमेरिका के साथ संबंध मजबूत करता है. भारतीय हितों के साथ अफ़ग़ानिस्तान के तत्कालिक और दीर्घकालिक नुकसान को देखते हुए और एक क्षेत्रीय हितधारक व साझीदार के रूप में समझाना होगा कि, द्विपक्षीय संबंधों में दिन-प्रतिदिन बदलाव नहीं होते — और ऐसा होना भी नहीं चाहिए — चाबहार में भारत के नीतिगत विकल्प जिधर ले जाते हैं, आगे बढ़ें — साल दर साल, दशक दर दशक.
ये लेखक के निजी विचार हैं.
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Kriti M. Shah was Associate Fellow with the Strategic Studies Programme at ORF. Her research primarily focusses on Afghanistan and Pakistan where she studies their ...
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