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बिम्सटेक (BIMSTEC) ऐसा अकेला मंच है, जो भारत के क़रीबी सामरिक क्षेत्रों यानी दक्षिणी, पूर्वी और उत्तरी इलाक़ों को एक साथ एक ही समूह के अंतर्गत ले आता है.
ये लेख नेपाल के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल को-ऑपरेशन ऐंड एंगेजमेंट NIICE के साथ सहयोग के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है. नेपाल का अंक पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें here
कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए जब भारत ने दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन सार्क (SAARC) को फिर से सक्रिय किया, तो ये चर्चा आम हो गई कि आख़िर भारत ने महामारी से निपटने में क्षेत्रीय सहयोग के लिए बे ऑफ़ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी सेक्टोरल टेक्निकल इकोनॉमिक को-ऑपरेशन (BIMSTEC) की जगह सार्क को क्यों चुना? जबकि पिछले कुछ वर्षों में क्षेत्रीय सहयोग के लिए भारत ने बिम्सटेक को बढ़ावा देने की नीति अपनायी है. कई लोगों ने सवाल उठाया कि क्या भारत क्षेत्रीय सहयोग की कूटनीति में बदलाव के बारे में सोच रहा है? हालांकि, भारत की सार्क कूटनीति को क़रीब से समझने की कोशिश करें, तो इस वैश्विक महामारी से निपटने के लिए क्षेत्रीय संगठन सार्क को सक्रिय करने के पीछे, कूटनीतिक नहीं बल्कि राजनयिक कारण अधिक नज़र आते हैं. भारत के इस क़दम के पीछे क्षेत्रीय कूटनीति या उप क्षेत्रीय संगठनों के बारे में उसके विचार में परिवर्तन का संकेत नहीं दिखता.
भारत एक उभरती ताक़त के तौर पर क्षेत्रीय सहयोग को किस तरह से बढ़ावा दे रहा है. किसी क्षेत्र के निर्माण के लिए भारत अपने आपको नेतृत्व के तौर पर पेश कर रहा है. यही विचार भारत की मौजूदा क्षेत्रीय कूटनीति के मूल में है
ये बात इस तरह से समझी जा सकती है कि भारत एक उभरती ताक़त के तौर पर क्षेत्रीय सहयोग को किस तरह से बढ़ावा दे रहा है. किसी क्षेत्र के निर्माण के लिए भारत अपने आपको नेतृत्व के तौर पर पेश कर रहा है. यही विचार भारत की मौजूदा क्षेत्रीय कूटनीति के मूल में है. भारत अब इस बात को समझ रहा है कि क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देना उसके अपने हित में है. क्षेत्रीय और उप क्षेत्रीय संगठनों को ऐसे मंच के तौर पर देखा जाता है जो किसी देश को अपने पड़ोसियों से संवाद बेहतर करने में मदद करते हैं. ऐसे क्षेत्रीय संगठन किसी उभरती हुई शक्ति की आकांक्षाओं की भी पूर्ति करते हैं. हाल ही में भारत के विदेश मंत्री डॉक्टर एस. जयशंकर ने क्षेत्रीयवाद और भारत के विकास के बीच संबंध को और स्पष्ट रूप से परिभाषित किया था. डॉक्टर एस. जयशंकर ने कहा था कि पड़ोसियों के साथ संबंध को लेकर आर्थिक कूटनीति के ज़रिए एक क्षेत्रवाद के विषय को एक व्यापकता मिलती है. यही भारत के उत्थान की कुंजी है.
क्षेत्रीय कूटनीति को प्रमुखता देने की भारत की रणनीति की जड़ें हम, पूर्व प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल की ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ में पाते हैं. विदेश नीति के इस सिद्धांत के ज़रिए भारत के छोटे पड़ोसी राष्ट्रों को भरोसे और अच्छी नीयत के साथ जोड़ने की कोशिश की गई थी. और अपने इस प्रयास के बदले में भारत ने पड़ोसी देशों से कोई अपेक्षा नहीं की. इस सदी की शुरुआत में भारत के लिए अपने आस पास के क्षेत्र से संबंध बेहतर करने की ज़रूरत और बढ़ गई. इसका कारण देश विदेश में आया त्वरित बदलाव था, जिसका सीधा संबंध भारत के क्षेत्रीय हितों से जुड़ा हुआ था. कम से कम दो सामरिक विषय ऐसे हैं जो भारत के क्षेत्रवाद पर ज़ोर देने की वजह बने हैं. आर्थिक विकास के नए पथ पर चलने के लिए भारत के लिए ये आवश्यक हो गया था कि क्षेत्रीय अस्थिरता से उसके हितों को नुक़सान न पहुंचे. न ही उसके विकास की राह में रोड़े आएं. और दूसरा कारण था, भारत के क़रीबी क्षेत्र में चीन की बढ़ती दख़लंदाज़ी. भारतीय कूटनीति के क्षेत्रीय समीकरणों में इस बात का डर पैदा हो गया था कि वो अपने ही पड़ोसी देशों के बीच अपने प्रभुत्व को चीन के हाथों गंवा देगा.
भारत की क्षेत्रीय कूटनीति के दृष्टिकोण में नया परिवर्तन 1990 के दशक की शुरुआत से आना शुरू हो गया था. ख़ास तौर से भारत के ‘लुक ईस्ट’ नीति की शुरुआत के साथ. इसके बाद गुजराल डॉक्ट्रिन के माध्यम से पड़ोसी देशों से और भी नज़दीकी संबंध बनाने की कोशिश हुई. फिर, 2000 के दशक के मध्य में भारत की क्षेत्रीय कूटनीति में सामरिक आयाम भी जुड़ गया. इस नए दृष्टिकोण के ज़रिए भारतीय कूटनीतिक हलके में इस बात की समझ बढ़ी कि क्षेत्रीय सुरक्षा के मसले पर पड़ोसी देशों के हित आपस में जुड़े होते हैं. ऐसे माहौल में भारत ख़ुद को बाक़ी देशों से सामरिक मसलों पर अलग थलग नहीं रख सकता. इस आयाम का एहसास होने के बाद, भारत ने अपनी क्षेत्रीय सुरक्षा के नज़रिए में बदलाव किया. इससे भारत को क्षेत्रीय और उप क्षेत्रीय सुरक्षा के विषय में नेतृत्व अपने हाथ में लेकर अपने पड़ोसी देशों के साथ सामरिक संबंध बनाने की पहल करने का अवसर मिला. ताकि, पूरे क्षेत्र की सुरक्षा और स्थिरता सुनिश्चित की जा सके.
भारत की क्षेत्रीय कूटनीति के दृष्टिकोण में नया परिवर्तन 1990 के दशक की शुरुआत से आना शुरू हो गया था. ख़ास तौर से भारत के ‘लुक ईस्ट’ नीति की शुरुआत के साथ. इसके बाद गुजराल डॉक्ट्रिन के माध्यम से पड़ोसी देशों से और भी नज़दीकी संबंध बनाने की कोशिश हुई
अगर गुजराल डॉक्ट्रिन का ज़ोर इस बात पर था कि भारत अपने छोटे पड़ोसी देशों के प्रति बड़ा दिल रखे. तो, मनमोहन सिंह की सरकार ने भारत की समृद्धि को अपने पड़ोसी देशों के साथ साझा करने पर ज़ोर दिया. भारत को उम्मीद थी कि ऐसा करके वो अपने पास पड़ोस में अस्थिरता को कम कर सकेगा. क्योंकि इससे उसके विकास की राह में बाधाएं आ सकती थीं. अपने इस नए क्षेत्रीय दृष्टिकोण को आगे बढ़ाते भारत ने पड़ोसी देशों के समेकित विकास की ओर क़दम बढ़ाया. 2007 में भारत ने एलान किया था कि सार्क (SAARC) संगठन का सबसे बड़ा देश होने के नाते वो अपना बाज़ार इस क्षेत्र के कम विकसित देशों के लिए खोलेगा. और इसके बदले में वो अन्य देशों पर इस बात का दबाव नहीं डालेगा कि वो भी अपने बाज़ारों के द्वार भारत के लिए खोलें. इन देशों को भारत से होने वाले निर्यात में प्रतिबंधित संवेदनशील सामानों की लिस्ट में भी संशोधन की घोषणा की गई.
भारत के उत्थान का एक विरोधाभास ये है कि क्षेत्रीय प्रशासन में इसकी भूमिका लंबे समय से क्षेत्रीय भू-राजनीतिक जंजाल में फंसी हुई है. कई दशकों से अस्तित्व में होने के बावजूद सार्क (SAARC) एक क्षेत्रीय संगठन के तौर पर मज़बूत होने में असफल रहा है. इसकी असफलता ने क्षेत्रीय विकास की भारत की क्षमताओं को भी सीमित कर दिया. सार्क का विकास न होने के कारण, भारत ने अपनी पड़ोस की कूटनीति के लिए उप क्षेत्रवाद के ज़रिए क्षेत्रवाद को आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया. इसे हम आर्थिक क्षेत्र में अपनाए जाते हुए तो देख ही रहे हैं. साथ ही साथ सुरक्षा के मसले पर भी भारत इसी नीति को अपना रहा है. भारत ने बिम्सटेक जैसे कई उप क्षेत्रीय संगठनों के साथ अपना संपर्क और मज़बूत किया है.
2000 के दशक के मध्य में भारत ने बंगाल की खाड़ी के उप क्षेत्रीय मंच का विस्तार करते हुए इसमें नेपाल और भूटान को भी शामिल किया था. बाद में 2011 में बिम्सटेक देशों के तीसरे शिखर सम्मेलन में ढाका में इस संगठन का स्थायी सचिवालय खोलने का फ़ैसला भी लिया गया. इसके अलावा भारत ने पड़ोसी देशों के साथ ज़मीनी संपर्क बढ़ाने का काम भी शुरू किया, ताकि पूरे क्षेत्र को अपने साथ फिर से जोड़ा जा सके. भारत के लिए बिम्सटेक की सामरिक अहमियत इसे उप क्षेत्रीय नज़रिए से देखते हुए समझी जा सकती है. बिम्सटेक, भारत को तीन महत्वपूर्ण उप क्षेत्रों से जोड़ता है. हिमालय के उप क्षेत्र में ये भारत को नेपाल और भूटान से जोड़ता है. तो, बंगाल की खाड़ी में ये श्रीलंका और बांग्लादेश को भारत के क़रीब लाता है. वहीं, मीकॉन्ग उप क्षेत्र के देश म्यांमार और थाईलैंड भी बिम्सटेक के ज़रिए भारत के क़रीब आते हैं. इन संदर्भों के अनुसार, बिम्सटेक इकलौता ऐसा मंच है जो भारत के लिए अहम तीन सामरिक परिधियों (दक्षिण, पूर्व और उत्तर) को एक समूह के दायरे में ले आता है.
बिम्सटेक, पूर्वी इलाक़े के अन्य क्षेत्रीय और उप क्षेत्रीय समूहों से संपर्क बढ़ाने में भी भारत के काम आता है. क्योंकि इसके सदस्य देश आम तौर पर अपने आस पास के अन्य क्षेत्रीय अथवा उप क्षेत्रीय संगठनों के सदस्य होते हैं. मिसाल के तौर पर, म्यांमार और थाईलैंड, आसियान (ASEAN) और ग्रेटर मीकॉन्ग उप क्षेत्र (GMS) के भी सदस्य हैं. वहीं, बांग्लादेश, भूटान और नेपाल, सार्क के सदस्य भी हैं. तो, बांग्लादेश भूटान भारत और नेपाल (BBIN) उप क्षेत्रीय संगठन के भी सदस्य हैं. बांग्लादेश और म्यांमार चार सदस्यों वाले एक अन्य मंच BCIM (बांग्लादेश, चीन, भारत और म्यांमार) के भी सदस्य हैं. इसीलिए, बिम्सटेक की तरक़्क़ी भारत को पूरे उत्तरी पूर्वी हिंद महासागर क्षेत्र के क्षेत्रीय एकीकरण से जोड़ती है. जिसके केंद्र में बंगाल की खाड़ी है.
बिम्सटेक, भारत को तीन महत्वपूर्ण उप क्षेत्रों से जोड़ता है. हिमालय के उप क्षेत्र में ये भारत को नेपाल और भूटान से जोड़ता है. तो, बंगाल की खाड़ी में ये श्रीलंका और बांग्लादेश को भारत के क़रीब लाता है. वहीं, मीकॉन्ग उप क्षेत्र के देश म्यांमार और थाईलैंड भी बिम्सटेक के ज़रिए भारत के क़रीब आते हैं
आम तौर पर ये प्रवृत्ति है कि बिम्सटेक को भारत के लिए सार्क फ्रेमवर्क के विकल्प के तौर पर देखा जाता है. ऐसा माना जाता है कि भारत, बिम्सटेक को इसलिए बढ़ावा दे रहा है, क्योंकि पाकिस्तान इस क्षेत्रीय संगठन का सदस्य नहीं है. हालांकि, जैसा की पूर्वोक्त परिचर्चा से स्पष्ट है, ऐसा सोचना एक संकीर्ण नज़रिया है. और इसके ज़रिए हम भारत की विकासशील क्षेत्रीय कूटनीति के पूरे आयाम को नहीं समझ सकते. बिम्सटेक समेत भारत के अन्य क्षेत्रीय और उप क्षेत्रीय संगठनों से जुड़े हित केवल पाकिस्तान की भूमिका पर आधारित नहीं हैं. बल्कि इनके मूल में उप क्षेत्रीय आयामों में भारत के लिए उपलब्ध अवसरों और चुनौतियों पर आधारित हैं.
इसके साथ ही साथ, सार्क के सदस्य देशों के साथ क़रीबी ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक और संबंध का होना भी भारत की अंदरूनी स्थिरता और विकास के लिए महत्वपूर्ण है. जैसा कि हाल की कूटनीतिक पहलों से ज़ाहिर होता है, भारत चाहता है कि सार्क संगठन आपसी हितों के क्षेत्र में काम करे और मौजूदा वैश्विक महामारी जैसी साझा चुनौतियों का सामना करने में भी काम आए. जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोविड-19 से लड़ने की नीति पर चर्चा के दौरान, सार्क देशों के नेताओं के साथ वीडियो कांफ्रेंस में कहा था, ‘हमारे देशों की जनता के बीच आपसी संपर्क बहुत प्राचीन हैं. हमारे समाज आपस में बड़ी गहराई से जुड़े हुए हैं. इसीलिए हम सभी देशों को मिल कर तैयारी करना चाहिए. मिलकर काम करना चाहिए और मिल कर ही सफलता भी हासिल करनी चाहिए.’
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K. Yhome was Senior Fellow with ORFs Neighbourhood Regional Studies Initiative. His research interests include Indias regional diplomacy regional and sub-regionalism in South and Southeast ...
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