Author : Rajen Harshé

Published on Oct 19, 2020 Updated 0 Hours ago

सूडान में राजनीतिक अस्थिरता पूरे उत्तर और पूर्वोत्तर अफ़्रीका के साथ-साथ पश्चिम एशिया क्षेत्र को भी प्रभावित कर सकती है.

सूडान में अभूतपूर्व राजनीतिक परिवर्तन के क्या मायने हैं

सैन्य पक्ष की तरफ़ से जनरल अब्देल फताह अल बुरहान और नागरिक पक्ष से प्रधानमंत्री अब्दुल्ला हमदोक की अगुवाई वाली सूडान की संक्रमणकालीन सरकार ने आदिस अबाबा में सूडानी पीपुल्स लिबरेशन मूवमेंट (एसपीएलएम)- नार्थ गुट के नेता अब्देल अज़ीज़ आदम अल हुलु के साथ एक समझौते पर दस्तख़त करने के बाद एक अभूतपूर्व कदम कदम उठाते हुए 4 सितंबर, 2020 को सरकार से धर्म अलग करने का फ़ैसला लिया. इस फ़ैसले के साथ, किसी से भी धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा और सूडान देश का कोई आधिकारिक धर्म नहीं होगा. इस फ़ैसले से खासतौर से ईसाई अल्पसंख्यकों को, सिद्धांत रूप में, धार्मिक उत्पीड़न से राहत मिलेगी. इन घटनाक्रमों से ठीक चार दिन पहले जुबा (दक्षिण सूडान) में 31 अगस्त, 2020 को पश्चिम में दारफ़ुर क्षेत्र में और सूडान के दक्षिण में ब्लू नाइल और दक्षिण कोरडोफ़ान में लड़ाई ख़त्म करने के लिए दक्षिण सूडान के नेता सलवा कीर की मध्यस्थता से सूडान रिवोल्यूशनरी फ्रंट (एसआरएफ़) जो पांच विद्रोही गुटों का सामूहिक संगठन है, और सूडान की संक्रमणकालीन सरकार के बीच एक शांति समझौता संपन्न हुआ था. हालांकि, अब्देल वाहिद अल नूर के नेतृत्व वाला दारफ़ुर स्थित एसपीएलएम-नॉर्थ गुट और ब्लू नाइल और दक्षिण क्रोडोफ़ान आधारित सूडानी लिबरेशन आर्मी (एसएलए) इस समझौते का हिस्सा नहीं बने, क्योंकि यह उनकी मांगों को पूरा नहीं करता था. ऐसे में सूडान और उसके आस-पास के क्षेत्रों में इन दो महत्वपूर्ण घटनाक्रमों का तात्कालिक महत्व इस तरह समझा जा सकता है.

आमतौर पर पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ़्रीका और पूर्वोत्तर अफ़्रीका क्षेत्र में राजनीतिक प्रक्रियाओं के साथ-साथ सरकारें एक विचारधारा के तौर पर इस्लाम के प्रभाव में होती हैं. यहां की सरकारों को शासन प्रणाली के आधार पर निरंकुश (सीरिया), राजशाही (सऊदी अरब, खाड़ी के अमीरात) और धर्मतंत्र (ईरान) में बांटा जा सकता है.

आमतौर पर पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ़्रीका और पूर्वोत्तर अफ़्रीका क्षेत्र में राजनीतिक प्रक्रियाओं के साथ-साथ सरकारें एक विचारधारा के तौर पर इस्लाम के प्रभाव में होती हैं. यहां की सरकारों को शासन प्रणाली के आधार पर निरंकुश (सीरिया), राजशाही (सऊदी अरब, खाड़ी के अमीरात) और धर्मतंत्र (ईरान) में बांटा जा सकता है. ऐसे माहौल के बीच सूडान कई मामलों में एक ग़ैर-पारंपरिक देश के रूप में उभरा है. पहली बात, सूडान ने एक क्रूर सैन्य तानाशाह उमर अल बशीर के नेतृत्व वाली एक निरंकुश सरकार को उखाड़ फेंका है, जिसने 1989-2019 तक देश पर शासन किया. दूसरी बात, बशीर शासन की जगह अप्रैल 2019 में संक्रमणकालीन सरकार ने ली. बाद में अगस्त 2019 में गठित संक्रमणकालीन संप्रभु परिषद के नेतृत्व में नई सरकार ने 39 महीनों में सूडान को सैन्य शासन की जगह नागरिक शासन सुनिश्चित करने का औपचारिक रूप से वादा किया. तीसरी बात, सूडान एक प्रमुख अफ़्रीकी देश है जो सामाजिक रूप से धार्मिक और क्षेत्रीय विविधताओं को जगह देने वाली बहुलवादी व्यवस्था के लिए जाना जाता है. हालांकि, धार्मिक विविधताओं के बावजूद इसने तीन दशक तक धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की अनदेखी कर इस्लामी देश के रूप में काम किया. ऐसी विविधताओं को आत्म-अभिव्यक्ति की तलाश की ज़रूरत थी. इसके चलते और नतीजतन, संक्रमणकालीन सरकार के सैन्य और नागरिक शासकों द्वारा संयुक्त रूप से गठित 11 सदस्यीय संप्रभु परिषद में एक प्रतिनिधि कॉप्टिक ईसाई रखा गया है, जो सूडान में 5 लाख आबादी की नुमाइंदगी करता है. इसके अलावा, पहली बार एक महिला विदेश मामलों की कैबिनेट मंत्री है, क्योंकि लोकतंत्र समर्थक आंदोलन में महिलाओं ने भी बड़ी भूमिका निभाई थी.

आख़िरकार 1956 में आज़ादी होने के बाद से राष्ट्रीय एकीकरण का सवाल लगातार सूडान का पीछा करता रहा  है क्योंकि यह देश के उत्तरी और दक्षिणी हिस्सों के बीच दो लंबे और हिंसक गृहयुद्धों (1955-72, 1983-2005) का गवाह रहा है. हज़ारों इंसानी ज़िंदगियों व संपत्ति के नुकसान और शरणार्थियों के पड़ोसी देशों में पनाह लेने के चलते सूडान सचमुच तबाह हो चुका है. संघर्ष के नतीजे में जनमत संग्रह हुआ और सूडान से अलग होकर जुलाई 2011 में दक्षिण सूडान अलग देश बन गया. हालांकि, दारफ़ुर, ब्लू नाइल और साउथ कोरडोफ़ान जैसे इलाकों में जारी विद्रोह केंद्रीय सत्ता को चुनौती देते रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक 2003 में विद्रोहियों के संघर्ष शुरू करने से लेकर अब तक लगभग 3,00,000 लोग दारफ़ुर में जान गंवा चुके हैं. ब्लू नाइल और कोरडोफ़ान इलाक़ों में 2011 के बाद विद्रोह हुए. सौभाग्य से जुबा में हस्ताक्षर किए गए शांति समझौते में सत्ता में साझेदारी, भूमि स्वामित्व, सुरक्षा, विस्थापन, न्याय और सूडानी सेना में विद्रोहियों को शामिल किए जाने से संबंधित मुद्दों पर ध्यान दिया गया है. इसमें दारफ़ुर में नागरिकों की रक्षा के लिए के 90 दिन के भीतर विद्रोहियों और नियमित सेना के जवानों को मिलाकर बने 12,000 जवानों के संयुक्त सैन्य बल के गठन का प्रस्ताव है. इसमें 14 सदस्यीय संप्रभु परिषद में विद्रोहियों को तीन सीटें देने का प्रस्ताव है, मंत्री परिषद में विद्रोही समूहों के 25 फ़ीसद को समायोजित किया जाएगा और संक्रमणकालीन संसद में विद्रोही समूहों को 75 सीटें दी जाएंगी. शांति समझौते का फ़िलहाल संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस), यूनाइटेड किंगडम (यूके), यूरोपीय संघ (ईयू) नॉर्वे और दारफ़ुर में संयुक्त राष्ट्र अफ़्रीकी मिशन (UNAMID) द्वारा स्वागत किया गया है. वास्तव में अगस्त 2019 में पहले से ही सूडानी सरकार ने 2007 से तैनात UNAMID को 30 जून 2020 तक दारफ़ुर से वापस बुला लेने की योजना के लिए अनुरोध किया था. हालांकि, समावेशी लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक परिकल्पित संघीय व्यवस्था के माध्यम से शांति समझौते को लागू करना सरकार के लिए चुनौती होगा.

हज़ारों इंसानी ज़िंदगियों व संपत्ति के नुकसान और शरणार्थियों के पड़ोसी देशों में पनाह लेने के चलते सूडान सचमुच तबाह हो चुका है. संघर्ष के नतीजे में जनमत संग्रह हुआ और सूडान से अलग होकर जुलाई 2011 में दक्षिण सूडान अलग देश बन गया. 

मौजूदा सूडानी सरकार सेना और कई दलों के अतरंगी नाज़ुक गठबंधन जैसी दिखती है जो तथाकथित आज़ादी और बदलाव की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है. इसे सिविल सोसायटी के संगठनों के साथ ही ट्रेड यूनियन, बुद्धिजीवियों और सूडानीज़ प्रोफेशनल्स एसोसिएशन (एसपीए) जैसी संस्थाओं का भी समर्थन हासिल है. इसे विद्रोहियों के साथ-साथ संरक्षणवादी और जर्जर सूडानी अर्थव्यवस्था को संभालते हुए हालिया अतीत के साये तले बातचीत करना है.

याद रहे कि अपने शुरुआती दशक (1989-99) के दौरान बशीर शासन को हसन अल तुराबी का शागिर्द और इस्लामी विचारधारा द्वारा निर्देशित माना जाता था. तुराबी का सर्व-अरब इस्लामी प्रतिरोध के नेतृत्व का सपना था और 1996 में सूडान से निकाले जाने से पहले तक उसने पांच साल ओसामा बिन लादेन की मेज़बानी की थी. तुराबी के साथ मतभेद के बाद 1999 में बशीर ने उसे  संसद के स्पीकर के पद से बर्ख़ास्त कर दिया. बशीर दक्षिण सूडान में बदलाव को समझदारी से संभाल सकते थे. हालांकि दारफ़ुर में 2003 में शुरू हुए विद्रोह को दबाने के दौरान, उनकी सेना पर पकड़ कमज़ोर होने लगी थी, जो सुरक्षा प्रतिष्ठान के आंतरिक टकरावों के चलते एक एकीकृत कमान के रूप में काम नहीं कर पा रही थी.

वास्तव में, दारफ़ुर संकट से निपटने के लिए बशीर सरकार रैपिड सपोर्ट फ़ोर्सेज़ (आरएसएफ़) पर निर्भर थी, जिसे मुहम्मद हमदान दगलो या हेमेदती के नेतृत्व में जंजावीद मिलीशिया के बचे-खुचे हिस्से से बनाया गया था. जंजावीद और बाद में आरएसएफ़ ने सरकार-प्रायोजित क़त्लेआम से दारफ़ुर में विरोध प्रदर्शनों को कुचल दिया था. हेमेदती के पुरखे पूर्वी चाड के रहने वाले थे, जिसका वह अक्सर ज़िक्र किया करता था. उसने ख़ुद को ग्रामीण सूडान के नेता के रूप में स्थापित किया और सेंट्रल अफ़्रीकी रिपब्लिक (सीएआर- कार) में हथियारबंद गुटों व दक्षिण सूडान के विद्रोही राइक मछार के साथ साथ गठबंधन बनाया. 2017 में आरएसएफ़ सूडानी सेना के साथ, सऊदी अरब समर्थित ऑपरेशन में शामिल हुआ था जिसने उत्तरी यमन में एक बफ़र ज़ोन बनाने की कोशिश की. हेमेदती जैसा स्थानीय सरगना अपने भारी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दबदबे के कारण ग़ैर-पारंपरिक सैन्य आंत्रप्रन्योर के रूप में उभरा और 2019 में बशीर को उखाड़ फेंकने के बाद बनी संक्रमणकालीन सैन्य परिषद (टीएमसी) में वह उप प्रमुख बन गया. हेमेदती के उभार के चलते सेना ने एक तरह से अपनी एकीकृत कमान खो दी. मिसाल के तौर पर हेमेदती ने संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के अनुरोध पर लीबिया के मोर्चे पर दक्षिण त्रिपोली में चल रहे युद्ध में खलीफ़ा हफ़्तार की मदद के लिए 1200 भाड़े के सैनिक भेजे और मई 2020 में लीबिया के गृहयुद्ध में सिर्ते का समर्थन किया. कुल मिलाकर कह सकते हैं कि संक्रमण प्रक्रिया हमेशा हेमेदती की पसंद से प्रभावित होगी.

जब टीएमसी सरकार ने 3 जून 2019 को सूडानी शासन पर नागरिक कब्ज़े के विरोध को क्रूरता से दबा दिया, तो अफ़्रीकी संघ (AU) ने सूडान की सदस्यता तब तक के लिए निलंबित कर दी, जब तक संक्रमणकालीन सरकार के नेतृत्व वाली नागरिक सरकार की स्थापना नहीं हो जाती.

हालांकि, कुछ आशा की किरणें भी हैं. उदाहरण के लिए पेट्रोलियम, सोना, चांदी, तांबा, लौह अयस्क और जस्ता जैसे प्राकृतिक संसाधनों के अलावा मिस्र और इथियोपिया के बीच दबा सूडान  लाल सागर के किनारे बसा है. सूडान में राजनीतिक अस्थिरता पूरे उत्तर और उत्तर पूर्व अफ़्रीका के साथ पश्चिम एशिया क्षेत्र को भी प्रभावित कर सकती है. ज़ाहिर है, पड़ोसी मुल्क सूडान में घटनाक्रम को देख रहे हैं. जब टीएमसी सरकार ने 3 जून 2019 को सूडानी शासन पर नागरिक कब्ज़े के विरोध को क्रूरता से दबा दिया, तो अफ़्रीकी संघ (AU) ने सूडान की सदस्यता तब तक के लिए निलंबित कर दी, जब तक संक्रमणकालीन सरकार के नेतृत्व वाली नागरिक सरकार की स्थापना नहीं हो जाती. बशीर पर दो साल तक मुकदमा चला और उसे सज़ा सुनाई गई, लेकिन विद्रोही गुटों का एजेंडा तब पूरा होगा, जब सूडान की सरकार उसे अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) को सौंप देगी. इस बीच, शरीयत से प्रभावित 1992 के सार्वजनिक व्यवस्था क़ानून को ख़त्म कर दिया गया है, जिसका इस्तेमाल सूडान में महिलाओं के कपड़े की नैतिक पहरेदारी या शराब पीने पर रोक के लिए किया जाता था गया था. सरकार ने, अंततः सामाजिक सुधारों का एजेंडा अपनाया है. इसके अलावा, हमदोक पहले ही अगले दो वर्षों में सूडानी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए 10 अरब डॉलर की धनराशि हासिल करने के लिए अंतरराष्ट्रीय दाता एजेंसियों से संपर्क कर चुके हैं. जबकि दारफ़ुर के लोगों का एक बड़ा हिस्सा खाद्य असुरक्षा, हेल्थकेयर और विस्थापन से उपजी गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है, ब्लू नाइल और साउथ कोरडोफा़न जैसे इलाकों को पर्याप्त मानवीय सहायता की ज़रूरत है.

1990 के दशक में सूडान अलक़ायदा को बसाकर और अपनी ज़मीन पर कार्लोस डी जैकाल जैसे कुख्यात आतंकवादियों को शरण देकर इस्लामी दुनिया के मुखिया की तरह काम कर रहा था. इसे 1993 में आतंकवादी देश घोषित किया गया था और 2017 तक इसे कठोर पाबंदियों का सामना करना पड़ा. पाबंदियों को उठाने और सूडान को अमेरिका की सरकार-प्रायोजित आतंकवाद वाले देशों की सूची से हटाने की कोशिशें भी जारी हैं. इस लक्ष्य को पाने के लिए, अमेरिका द्वारा सूडान को इज़रायल को वैधानिक रूप से मान्यता देने के लिए प्रेरित किया जा रहा है. इसके अलावा, सूडान ने मई 2020 में लगभग एक चौथाई सदी के बाद अमेरिका में राजदूत नियुक्त किया है.

निष्कर्ष में, इस समय सूडान में चल रही और संक्रमण की जटिल प्रक्रिया की व्याख्या करते हुए कहा जा सकता है कि अपने सभी राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक निहितार्थों के साथ लोकतंत्र के नए युग की आशा के साथ-साथ बशीर के पूर्व सहयोगी हेमेदती के नेतृत्व वाले आरएसएफ़ जैसे दलों की प्रभावशाली भूमिका की भी आशंका है.

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