Published on Oct 31, 2019 Updated 0 Hours ago

हमें यह बात माननी पड़ेगी कि भारतीय वित्तीय व्यवस्था में अब शहरी सहकारी बैंकों की ज़रूरत नहीं रह गई है.

क्या ख़त्म हो जाएंगे शहरी कोऑपरेटिव बैंक?

‘कोऑपरेटिव्स’ यानी सहकारी समितियां इतनी असरदार रही हैं और उनका योगदान इतना बेशकीमती रहा है कि यूनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गनाइजेशन (UNESCO) ने इस कॉन्सेप्ट को रिप्रजेंटेटिव लिस्ट ऑफ द इंटेंजिबल कल्चरल हेरिटेज ऑफ ह्यूमैनिटी में दर्ज किया है. हालांकि, भारत में अर्बन कोऑपरेटिव बैंकों (UCB) यानी शहरी सहकारी बैंकों की की हालत इसके उलट है. यहां ये बैंक फेल हो रहे हैं और उनमें अक्सर घोटालों की ख़बरें आती रही हैं. इसी कड़ी में हाल में पंजाब एंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव (PMC) बैंक का नाम जुड़ा है. इस तरह के मामलों को देखकर यह सवाल पूछना लाज़िमी हो गया है कि देश के वित्तीय क्षेत्र में आज क्या इनकी ज़रूरत रह गई है? इस सवाल का जवाब देने के क्रम में हम आपको बताएंगे कि UCB से क्या उम्मीद थी और असल में ये क्या बन गए. UCB को कोऑपरेटिव्स के नीचे दिए गए सात सिद्धांतों का पालन करना चाहिए ‒

1. स्वैच्छिक और खुली सदस्यता.

2. सदस्यों का लोकतांत्रिक नियंत्रण.

3. सदस्यों की आर्थिक भागीदारी.

4. स्वायत्तता और स्वतंत्रता.

5. शिक्षा, प्रशिक्षण और सूचना का प्रसार.

6. कोऑपरेटिव्स के बीच सहयोग.

7. समुदाय के प्रति चिंता.

देश में UCB के दो स्तरीय रेगुलेशन की व्यवस्था है. यह काम भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) और रजिस्ट्रार ऑफ कोऑपरेटिव सोसायटीज (RCS) करते हैं. रिज़र्व बैंक उन्हें लाइसेंस देता है, उनके काम करने के नियम तय करता है, कैश रिजर्व और स्टैच्यूटरी लिक्विडिटी रेशियो, कैपिटल एडिक्वेसी नॉर्म्स आदि तय करता है. RCS पर बैंक के मैनेजमेंट के चुनाव की ज़िम्मेदारी होती है. UCB के सदस्य लोकतांत्रिक तरीके से बैंक के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर का चुनाव करते हैं और इसमें एक सदस्य के पास एक वोट डालने का अधिकार होता है. अफसोस की बात यह है कि बैंक से कर्ज़ लेने वाले (बॉरोअर्स यानी कर्जदार) UCB के सदस्य होते हैं, न कि उसमें पैसा जमा कराने वाले (डिपॉजिटर्स यानी जमाकर्ता). इसलिए डायरेक्टर्स यानी निदेशकों के चुनाव में अक्सर हितों के टकराव की समस्या खड़ी होती है. इसमें एक परेशानी बैंकों के एडमिनिस्ट्रेशन में निहित राजनीतिक तत्वों का दख़ल भी है.

यह तर्क दिया जा सकता है कि इन बैंकों में पैसा जमा कराने वालों को बैंक का सदस्य माना जाना चाहिए और उनके पास वोटिंग राइट्स होने चाहिए. वहीं, जो बैंक के मेंबर नहीं हैं, उन्हें बिज़नेस के विस्तार के लिए कर्ज़ दिया जा सकता है. इन बैंकों में पैसा ज़मा करने वालों को अगर मेंबर बनाया जाता है तो उससे कोऑपरेटिव सिद्धांतों पर अमल सुनिश्चित किया जा सकेगा. शहरी सहकारी बैंकों के मालिकाना हक में इस बदलाव से फ्रॉड और स्कैम की समस्या शायद ख़त्म हो सकती है, लेकिन क्या इससे बैंकों की एफिशिएंसी और प्रॉफिटेबिलिटी (मार्जिन यानी दिए गए कर्ज पर बैंक का मुनाफ़ा) में भी सुधार होगा? इसके लिए रिज़र्व बैंक को बैंक के बोर्ड और मैनेजमेंट को रेगुलेट करना होगा और उसकी निगरानी भी करनी पड़ेगी.

अगर RBI यह ज़िम्मेदारी लेता है तो इससे शहरी सहकारी बैंकों का भला होगा. इससे UCB की वित्तीय हालत में सुधार होगा. हालांकि, इससे सदस्यों के लोकतांत्रिक नियंत्रण और उसकी स्वायत्तता व स्वतंत्रता के सहकारी सिद्धांत की अवहेलना होगी. आज शहरी सहकारी बैंकों को स्मॉल फ़ाइनेंस बैंकों, पेमेंट बैंकों, NBFC आदि से कड़ी चुनौती मिल रही है. इसी वजह से वे पैसा जमा कराने वालों को बेहद ऊंचा ब्याज़ ऑफर करते हैं. हालांकि, अच्छा डिपॉजिट बेस होने के कारण नाकाम होने का ख़तरा होने के बावज़ूद वे अपना वजूद बचाने में सफल रहे हैं. बैंक में पैसा जमा करने वालों को ऊंचा ब्याज़ देने के लिए UCB जोख़िम वाले कर्ज़ देते हैं, जबकि यह सहकारिता के 5वें और 7वें सिद्धांतों का उल्लंघन है, जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है. अगर डिपॉजिटर्स को पता होता कि उन्हें ऊंचा ब्याज़ देने के लिए ये बैंक किस तरह के जोख़िम भरे कर्ज़ बांट रहे हैं तो UCB अभी तक अपनी मौत ख़ुद ही मर चुके होते. ऐसी परिस्थिति में रिज़र्व बैंक को UCB लाइसेंस पर नियंत्रण नहीं रखना पड़ता और न ही उसे नए शहरी सहकारी बैंक खोलने पर अंकुश लगाने की ज़रूरत पड़ती. साल 2005 में इन बैंकों की संख्या 1,926 थी, जो 2018 में घटकर 1,551 रह गई थी. इस दौरान रिज़र्व बैंक ने शहरी सहकारी बैंकों में 129 मर्जर यानी विलय कराया. 2017 तक देश के शेड्यूल्ड कमर्शियल बैंकों की कुल एसेट्स यानी संपत्ति में UCB का योगदान 11 प्रतिशत के क़रीब था.

इन बैंकों के साथ एक और दिक्कत उनका छोटा कैपिटल बेस है. बैंकों के लोन देने की क्षमता इसी से निर्धारित होती है. इस समस्या को ख़त्म करने के लिए रिज़र्व बैंक UCB को स्वैच्छिक आधार पर कम से कम 50 करोड़ की नेटवर्थ, 9 प्रतिशत के क्रेडिट टू रिस्क वेटेड एसेट्स रेशियो (CRAR) और 15 प्रतिशत के कैपिटल एडिक्वेसी रेशियो के साथ स्मॉल फ़ाइनेंस बैंक में बदलने का विकल्प दिया है. अगर शहरी सहकारी बैंक ख़ुद को स्मॉल बैंक में बदलते हैं तो उन्हें सख्त़ रेगुलेटरी नियमों का पालन करना पड़ेगा और वे मज़बूत वित्तीय संस्थान में बदल जाएंगे.

ऊपर सहकारिता के जिन सिद्धांतों का ज़िक्र किया गया है, UCB उन पर अमल करने में नाकाम रहे हैं. इसके अलावा, एक बात यह भी है कि बैंकिंग के क्षेत्र में इन सिद्धांतों पर अमल करने से फ़ाइनेंशियल इनक्लूज़न यानी अधिक से अधिक लोगों तक बैंकिंग सेवाओं की पहुंच बढ़ाने का मकसद हासिल नहीं हुआ. सच तो यह है कि इन संस्थाओं को इसी मकसद के लिए बनाया गया था. जब UCB अपनी वित्तीय सेहत में सुधार करने की कोशिश करते हैं तो उनका ‘सहकारी’ चरित्र ख़त्म होने लगता है. ऐसे में सवाल यह है कि इन संस्थाओं को फिर किस वजह से बचाया जाए? फ़ाइनेंशियल इनक्लूज़न हासिल करने के कई रास्ते हैं. फ़ाइनेंशियल टेक्नोलॉजी (फिनटेक) कंपनियां MSME की फंडिंग में गैप को भरने की कोशिश कर रही हैं. इसके साथ, इंपैक्ट असेसमेंट फंड का भी दायरा बढ़ रहा है. फिनटेक और इंपैक्ट असेसमेंट फंड सहकारी सिद्धांतों के आधार पर ही कर्ज़ देते हैं. इंपैक्ट इनवेस्टमेंट को तो ‘धैर्य वाली पूंजी’ कहा जाता है क्योंकि किसी वेंचर से इसमें वाजिब रिटर्न की उम्मीद ही की जाती है. इस व्यवस्था में कर्ज़ लेने वाले के हितों का ख्याल रखा जाता है. वहीं, पारंपरिक वित्तीय व्यवस्था में डिपॉजिटर का हित सर्वोपरि होता है. आज हमें UCB को बचाने और उनकी रिकवरी पर पैसा ख़र्च करने के बजाय कर्ज़ देने की एक ऐसी व्यवस्था को बढ़ावा देना चाहिए, जिसमें इसके लिए परोपकारी (फिलैंथ्रॉपिक) फंड का इस्तेमाल होता हो. परोपकार के लिए मिले फंड से वंचित तबके के हितों को ध्यान में रखकर फ़ाइनेंशियल प्रॉडक्ट तैयार करने की आज़ादी मिलती है.

इसमें कोई शक नहीं है कि सहकारी संस्थाओं ने कल्याणकारी योजनाओं में बड़ी भूमिका निभाई है और इंसानी गतिविधियों से जुड़े कई क्षेत्रों में प्रगति में उनका अहम योगदान रहा है. इसके बावज़ूद हमें यह बात माननी पड़ेगी कि भारतीय वित्तीय व्यवस्था में अब शहरी सहकारी बैंकों की ज़रूरत नहीं रह गई है. इस सच को स्वीकार करने से हमें फ़ाइनेंशियल इनक्लूजन की ख़ातिर नए तरीकों पर ध्यान देने में मदद मिलेगी.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.