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क्या रूस-चीन-पाकिस्तान गुट हकीकत की शक्ल अख्तियार कर रहा है?
अमेरिकी नेतृत्व वाला पश्चिमी जगत मौजूदा दौर में रूस के साथ एक नए तरह के शीत युद्ध में उलझा है। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के पुनर्निवाचित होने और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा उन्हें फोन पर बधाई दिए जाने से ऐसा लग रहा था मानो दोनों देशों के रिश्ते फिर से पटरी पर लौट आएंगे। लेकिन अमेरिका ने 1990 और 2000 के दशक में डबल एजेंट की भूमिका निभाने वाले रूस के पूर्व सैन्य जासूस सर्गेई क्रिपल को चार मार्च को लंदन में जहर दिए जाने के मामले में ब्रिटेन के कड़े रुख का समर्थन करते हुए 60 रूसी राजनयिकों को अपने देश से निष्कासित कर दिया। इनमें से 12 राजनयिक न्यूयॉर्क में, संयुक्त राष्ट्र में रूसी मिशन में काम करते थे। इतना ही नहीं, अमेरिका ने सिएटल स्थित रूसी वाणिज्य दूतावास को भी बंद करने का आदेश दे दिया।
अमेरिका ने निष्कासित किए गए इन सभी रूसी राजनयिकों को जासूस करार दिया और सिएटल स्थित रूसी वाणिज्य दूतावास को बंद करने का कारण अमेरिकी सब्मरीन बेस और बोइंग से उसकी निकटता बताया। अमेरिका और कनाडा के साथ-साथ, यूरोपीय संघ के भी कई सदस्य देशों ने अलग-अलग संख्या में रूसी राजनयिकों को अपने देश से निष्कासित कर दिया। कुल मिलाकर 27 देशों ने रूसी राजनयिकों को अपने यहां से निष्कासित किया। उन राजनयिकों को निष्कासित करते समय अमेरिका की ओर से जारी वक्तव्य में कहा गया, “आज की कार्रवाई से अमेरिका सुरक्षित हो गया, क्योंकि इससे अमेरिकियों की जासूसी और अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने वाले गुप्त अभियान चलाने की रूस की सक्षमता कम हो गई है। इन कदमों के साथ, अमेरिका और हमारे सहयोगियों तथा साझेदारों ने रूस को यह स्पष्ट कर दिया है कि उसके कार्यों के परिणाम होंगे।”
इससे पहले, ब्रिटेन ने पूर्व रूसी जासूस को जहर दिए जाने के मामले पर 23 रूसी राजनयिकों को निष्कासित कर दिया था, बदले में रूस ने भी ऐसी ही कार्रवाई की थी। ब्रिटेन के लिए, यह मामला उसकी धरती पर हमला और अंतर्राष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन की तरह था। रूस ने इस मामले में अपना हाथ होने से इंकार किया है। उसने अमेरिका तथा यूरोपीय संघ द्वारा उठाए गए कदमों की आलोचना की और बदले में उतने ही राजनयिकों को निष्कासित कर दिया तथा सेंट पीटर्सबर्ग स्थित अमेरिकी वाणिज्य दूतावास को भी बंद कर दिया।
इस ‘जैसे को तैसा’ की नीति ने रूस द्वारा क्रिमिया पर नियंत्रण किए जाने के बाद से ही तनावपूर्ण चल रहे रिश्तों में और ज्यादा तल्खी ला दी है। आस्ट्रेलिया में रूस के राजदूत ने कहा कि पश्चिम की कार्रवाई दुनिया को शीत युद्ध जैसी स्थिति में धकेल सकती है। साथ ही साथ इंडोनेशिया में रूस के राजदूत ने कहा कि यह स्थिति शीत युद्ध से भी बढ़कर हिमयुद्ध की सूरत अख्तियार कर सकती है, जो घातक साबित हो सकती है।
राष्ट्रपति पुतिन को वैसी ही जवाबी कारवाई करनी ही पड़ी, अगर वे ऐसा नहीं करते, तो उन्हें कमज़ोर समझा जाता। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में अमेरीकी राष्ट्रपति चुनावों में संभावित रूसी हस्तक्षेप के कारण उसके राजनयिकों को देश से निष्कासित कर दिया था, लेकिन तब रूस ने इस तरह की जवाबी कार्रवाई नहीं की थी, क्योंकि रूस को उम्मीद थी कि राष्ट्रपति ट्रम्प का नजरिया अलग होगा। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ।
सीरिया में, बिगड़ते संबंधों ने अब अमेरिका और रूस को आमने-सामने ला खड़ा किया है, जिससे हताहतों की तादाद और सीरियाई शासन की क्रूरता बढ़ती जा रही है और संघर्ष का कोई अंत होता नजर नहीं आ रहा है। इसका खामियाजा केवल स्थानीय आबादी को भुगतना पड़ रहा है। अब ऐसा कोई रास्ता नहीं बचा है, जिससे कि अमेरिका संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा सीरिया पर और ज्यादा प्रतिबंध लगाने के लिए दबाव बना सकें। इस मामले में कोई प्रगति न होने से हताश ट्रम्प ने सेना की सीरिया से संभावित वापसी की घोषणा कर दी है।
इतना ही नहीं, रूस का एक छोटा सा भू-भाग उत्तर कोरिया से सटा होने के कारण उसने कई तरह से उत्तर कोरिया की मदद की है। उत्तर कोरिया के शासक किम जोंग उन की हाल की चीन यात्रा से संकेत मिलता है कि उसके साथ चीन की नजदीकी फिर से बढ़ रही है। ऐसे में रूस के फिर से भटकने का रास्ता साफ हो जाएगा जिससे उत्तर कोरिया के परमाणु मामले का समाधान निकल पाना संदिग्ध हो जाएगा, जो पहले से ही संदेहास्पद है। ऐसी खबरें हैं कि दोनों कोरियाई देशों के प्रमुखों में बैठक से भी पहले, उत्तर कोरिया के विदेश मंत्री जल्द ही रूस का दौरा करने वाले हैं।
यूरोप में राजनयिक विवाद लम्बे समय तक बने से रहने से जहां दोनों महाशक्तियों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है, वहीं सीरियाई संकट के समाधान की कोशिशें नाकाम होने के संकेत भी मिल रहे हैं, जिसका असर भारत पर भी पड़ेगा। अमेरिका-रूस के रिश्तों में आ रही दूरियों ने रूस-चीन के बीच निकटता बढ़ा दी है। रूस पर अमेरिकी प्रतिबंधों की स्थिति में, वह चीन ही है, जिससे रूस मदद ले सकता है। चीन के जरिए, पाकिस्तान के साथ रूस की नजदीकी और सम्पर्क में बढ़ोतरी हुई है।
साथ ही साथ, अफगानिस्तान में भी रूस का दखल बढ़ रहा है। इतना ही नहीं, अमेरिका, तालिबान को हथियार उपलब्ध कराने का आरोप भी रूस पर लगा रहा है। बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना के प्रमुख जनरल जॉन निकोल्सन ने कहा, “हम जानते हैं कि इसमें रूसियों की साठ-गांठ हैं।” उन्होंने कहा कि ताजिकिस्तान सीमा के रास्ते से तस्करी के जरिए रूसी हथियार तालिबान तक पहुंचाए जा रहे हैं।
रूस, अफगानिस्तान में आईएसआईएस के उदय को बहुत बड़ा खतरा मानता है। इसलिए वह अफगानिस्तान में अपनी पैंठ बढ़ाने की कोशिशों में जुटा हुआ है। रूस इस बात से भी बखूबी वाकिफ है कि पाकिस्तान की मदद के बिना वह संबंध में बड़ी भूमिका नहीं निभा पाएगा। इसलिए दोनों देशों के रिश्तों में अचानक गर्माहट बढ़ गई है। उनके बीच संयुक्त सैन्य अभ्यास, राजनयिक आदान-प्रदान, और तो और सैनिक साजो-सामान बेचने का फैसला होने की भी संभावना है। समझा जाता है कि रूस का तालिबान के साथ सीधा संवाद है। यह तथ्य उसके विदेश मंत्री कबूल भी कर चुके हैं। इसके पीछे आधिकारिक कारण तालिबान की आईएसआईएस के साथ दुश्मनी बताया गया है।
भारत ने ना तो सर्गेई क्रिपल की घटना पर और न ही अमेरिका व उसके सहयोगियों द्वारा की गई कार्रवाइयों पर किसी तरह की कोई टिप्पणी की है। वह दोनों पक्षों को नजरंदाज करते हुए बीच का रास्ता अपनाने की कोशिश कर रहा है। भारत की इस चुप्पी की पश्चिमी देश भले ही सराहना करें, लेकिन रूस द्वारा इसे गलत समझा जा सकता है। रूस के लिए, इस खामोशी का अर्थ, पश्चिमी देशों की कार्रवाइयों का मौन समर्थन होगा। यहां तक कि राजनयिक मानदंडों को बरकरार रखने और दुनिया को शीत युद्ध में धकेलने संबंधी टिप्पणी को अनुकूल माना जा सकता है।
पुतिन और शी जिनपिंग दुनिया के दो बेहद ताकतवर नेता हैं, जिनका अपने देशों पर पूरा प्रभाव है। उन दोनों के हाथ मिला लेने से आने वाले दिनों में केवल उनके और पश्चिमी देशों के बीच के फासले ही बढ़ेंगे, क्योंकि वे अमेरिका-नेटो के गठजोड़ के खिलाफ एक मजबूत गुट बनेंगे। पाकिस्तान चूंकि पूरी तरह चीन की जेब में है, ऐसे में रूस-चीन-पाकिस्तान गुट के हकीकत की शक्ल अख्तियार करने की संभावना है। इसके परिणामस्वरूप, अमेरिका का अफगानिस्तान में बने रहना ज्यादा कठिन हो सकता है, जबकि भारत के लिए पाकिस्तान का विरोध करना या उसे अलग—थलग करना चुनौतीपूर्ण बन सकता है।
ऐसे में, भारत यदि दोनों पक्षों के साथ संतुलित संबंध बनाए रखना चाहता है, तो उसे कूटनीतिक क्षेत्र में ज्यादा पेशेवर रूप से काम लेना होगा। रक्षा मंत्री जल्द ही रूस की यात्रा पर जाने वाली हैं और दोनों देशों के बीच एस-400 ट्राइम्फ मिसाइल सिस्टम की खरीद पर समझौता हो सकता है। रक्षा मंत्री द्वारा भारत-रूस संबंधों को फिर से मजबूत स्थिति में लाए जाने की संभावना है। उन्हें इन दोनों मोर्चों पर सफलता मिलेगी या नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा। वैसे उनकी प्राथमिकता यही होनी चाहिए कि वह रूस को भारत के समर्थन का भरोसा दिलाएं तथा पाकिस्तान के प्रति रूस के झुकाव में कमी लाने का प्रयास करें।
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An alumnus of the National Defence Academy Major General Harsha Kakar is a graduate of the DSSC LDMC and the National Securities Studies Course at ...
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