Author : Rupa Subramanya

Published on Apr 11, 2017 Updated 0 Hours ago

मातृत्व लाभ बिल एक तरह से गाड़ी को घोड़े के आगे बांधने जैसा है। ऐसे में गाड़ी का पलटना लाजमी है।

उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा मातृत्व लाभ विधेयक

लोकसभा ने 9 मार्च 2017 को मातृत्व लाभ (संशोधन) विधेयक, 2016 को पास कर दिया, जो राज्य सभा में शीतकालीन सत्र के दौरान पहले ही पारित हो चुका है।

अब इस विधेयक को कानून बनने के लिए सिर्फ राष्ट्रपति के दस्तखत की जरूरत है। इसका सबसे प्रमुख और सबसे ज्यादा चर्चित प्रावधान है महिला के मां बनने पर वेतन सहित छुट्टी को 12 हफ्ते से बढ़ा कर 26 हफ्ते कर दिया जाना। यह बदलाव कंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्रालय (एमएलई) के संयोजन में आयोजित उच्च स्तरीय सलाहकार समूह भारतीय श्रम सम्मेलन के 44वें सत्र के दौरान की गई सिफारिश के अनुकूल है। साथ ही यह कदम केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय की सिफारिशों और कांग्रेस नेतृत्व वाली पिछली सरकार से जुड़े रहे विभिन्न संबंधित क्षेत्रों के अन्य लोगों की राय के भी अनुरूप है।

स्वभाविक तौर पर इस विधेयक के समर्थक जोर दे कर कह रहे हैं कि यह बहुत प्रगतिशील कदम है। इनमें महिला और बाल विकास मंत्रालय की मौजूदा मंत्री मेनका गांधी भी शामिल हैं और कांग्रेस राज के दौरान के सामाजिक कार्यकर्ता भी। लेकिन खास बात है कि इस संशोधित कानून के पक्ष में जितने भारी-भरकम तर्क दिए जा रहे हैं, वे सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से ही आ रहे हैं। इनकी समीक्षा कानूनी और प्रशासनिक नजरिए से ही हो रही है और इसकी आर्थिक लागत व लाभ का विश्लेषण करने की ओर किसी का ध्यान नहीं है ।

अर्थशास्त्र के नियम के मुताबिक अगर आप मातृत्व अवकाश लाभ इस तरह बढ़ाते हैं, जिसमें इसका भुगतान पूरी तरह से नियोक्ता की ओर से किया जाना है तो ऐसे में नियोक्ताओं की ओर से ऐसे कर्मियों की मांग घटेगी, क्योंकि वे इसे बढ़ी लागत के तौर पर देखेंगे। जबकि कई देशों में ऐसे मामलों में लागत नियोक्ता और कर्मचारी के बीच साझा की जाती है या फिर पूरी तरह इसका भार सरकार उठाती है।

इसी तरह हम उम्मीद किए बैठे हैं कि मातृत्व अवकाश को बढ़ाए जाने के बाद महिलाएं अब काम के लिए ज्यादा आगे आएंगी, जो पहले इस वजह से आने से बचती थीं। ऐसे में मौलिक सिद्धांत तो यही कहता है कि इसका वास्तविक प्रभाव तो यही होगा कि या तो महिलाओं का वेतन कम हो जाएगा या अगर वेतन में बदलाव नहीं हुआ तो उनमें बेरोजगारी बढ़ेगी। किताबी अर्थशास्त्र के मुताबिक चलने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि भारत में काम करने वालों में महिलाओं की भागीदारी 25 फीसदी या उससे कम ही है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और भारत के राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) दोनों ही इन आंकड़ों की पुष्टि करते हैं। साथ ही एमएलई और आईएलओ के आंकड़े यह भी बताते हैं कि 15 से 49 वर्ष की आयु के बीच की महिला श्रमिकों में से पांच प्रतिशत से भी कम औपचारिक क्षेत्र में है। इसका मतलब यह है कि सवेतन मातृत्व अवकाश के पुराने या नए नियम का लाभ पाने वाली महिलाएं बहुत कम हैं और ये वही हैं जो औपचारिक क्षेत्र में काम करती हैं। बड़ी संख्या में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को तो किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा ही नहीं है, वेतन सहित मातृत्व अवकाश की तो बात ही छोड़िए।

इस पर भी गौर कीजिए कि भारत में कितने कानूनों पर अमल हो पाता है और उन पर निगरानी की हमारे पास क्या व्यवस्था है। सच्चाई यह भी है कि इस समय भी बहुत कम महिलाओं को सवेतन मातृत्व अवकाश का लाभ मिल पाता है। जाहिर है कि जब इसमें बढ़ोतरी की जा रही है तो इसका लाभ बहुत कम को ही मिलने वाला है।

यह भी संभव है कि औपचारिक क्षेत्र में कार्यरत कुछ महिलाओं के नियोक्ता इस बढ़ी हुई लागत से बचने की कोशिश करें, ऐसा हुआ तो उनको अपनी नौकरी खोनी पड़ सकती है। इसी तरह पढ़ाई पूरी कर औपचारिक क्षेत्र में काम करने के लिए आऩा चाह रही महिलाओं के लिए मुश्किल बढ़ सकती है, अगर नियोक्ता उन्हें मां बनने की उम्र के दौरान नौकरी पर रखने से बचने की कोशिश करने लगें।

इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता कि मातृत्व अवकाश को बढ़ाने का मुख्य मकसद प्रचार हासिल करना है। शिक्षित शहरी महिलाओं के बीच प्रचार मिले और साथ ही अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत को नार्वे और कनाडा जैसे समृद्द देशों के साथ जोड़ कर देखा जाए, जहां दुनिया में सबसे ज्यादा सवेतन मातृत्व अवकाश है।

ऐसा उदार मातृत्व अवकाश लाभ प्रदान करने के लिहाज से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भारत इसलिए अलग है, क्योंकि ऐसी उदार सामाजिक सुरक्षा देशों के समृद्ध होने के साथ धीरे-धीरे बनती है। जिन देशों में ऐसी उदार सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था आज है, उनमें 18वीं या 19वीं शताब्दि के दौरान यह निश्चित तौर पर नहीं थी, जब वे विकसित हो रहे थे। मजबूत सामाजिक सुरक्षा का रास्ता तेज आर्थिक विकास के जरिए ही मिलता है, क्योंकि इससे ढांचा और टैक्स आधार दोनों खड़े होते हैं और साथ ही ज्यादा उदार मातृत्व लाभ के लिए मांग भी पैदा होती है। ऐसे देश में जो अभी गरीब बना हुआ है, वहां कानून बना कर ऐसी उदार मातृत्व लाभ की व्यवस्था करना एक तरह से गाड़ी को घोड़े के आगे बांध दिया जाए। ऐसे में गाड़ी का पलटना लाजमी है। इसका नतीजा यह होगा कि काम नहीं मिलने की वजह से परेशान महिलाओं की संख्या बढ़ेगी। नियोक्ताओं में महिलाओं को ले कर अनिच्छा पैदा होगी। साथ ही एक और ऐसा कानून जुड़ जाएगा, जिसका वास्तव में पालन बहुत कम हो रहा होगा। जो सरकार पहले से ही अपने सीमित संसाधनों में बहुत सी चीजें करने में जुटी है, उसके सामने इसका पालन करवाना एक और चुनौती होगी। यह देख कर निराशा होती है कि ऐसी सरकार जो सैद्धांतिक रूप से आर्थिक विकास उन्मुख मॉडल को ले कर समर्पित है, वह कांग्रेस और इससे जुड़े रहे सामाजिक कार्यकर्ता, जिनमें सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली नेशनल एडवाइजरी काउंसिल (एनएसी) के सदस्य भी शामिल हैं, के सुझाए पुराने कल्याणकारी सरकार के नुस्खों को अपनाने में जुटी है। शुक्र है कि आज ना तो एनएसी है और ना ही योजना आयोग है। इसकी जगह अब नीति आयोग है, जिसे सरकार के आंतरिक थिंक टैंक के तौर पर गठित किया गया है। जहां तक हमें जानकारी है इस मामले पर ना तो उनसे संपर्क किया गया और ना ही मुख्य आर्थिक सलाहकार से। इसी तरह मातृत्व अवकाश को ले कर जो अध्ययन किए गए हैं, वे समृद्ध देशों पर आधारित हैं, जिनका भारत जैसे गरीब देश के लिए ज्यादा महत्व नहीं है।

केंद्रीय श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने इस विधेयक को “भारतीय महिलाओं के लिए एक छोटा सा तोहफा” बताया है। जबकि हकीकत में यह ऐसी खटारा कार है जिसकी ना तो हमें जरूरत है ना ही यह हमें चाहिए। भारतीय महिलाओं के हित में इस बिल को तुरंत वापस ले लेना चाहिए। भविष्य में भी ऐसा कोई कानून बनाने से पहले उस पर आने वाली लागत और होने वाले लाभ का गहराई से विश्लेषण कर लिया जाना चाहिए। ऐसा कोई बिल आगे तभी बढ़ाया जाए, जब व्यापक रूप से पूरे समाज के लिए वह लाभकारी हो ना कि उसे महज एक खास वर्ग को ध्यान में रख कर बनाया गया हो।

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