Published on Sep 05, 2020 Updated 0 Hours ago

वर्चुअल जल व्यापार का विकल्प आज़माना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि कृषि उत्पादों के मामले में देखा गया है कि उनका एक स्थान से दूसरी जगह पर स्थानांतरण किया जा सकता है.

खेती के लिए वर्चुअल जल व्यापार: नदियों को आपस में जोड़ने का एक विकल्प?

भारत में नदियों की जो योजना प्रस्तावित है (Interlinking of Rivers-ILR), उसके पीछे तर्क ये दिया जाता है कि इससे उन जगहों की समस्याओं को दूर किया जा सकेगा, जहां पानी की कमी है. और उन जगहों से अधिक पानी का इस्तेमाल हो सकेगा, जहां अक्सर बाढ़ आ जाती है. नदियों को जोड़ने से पानी का एक राष्ट्रव्यापी ग्रिड तैयार होगा. जो पानी की कमी और इसकी अधिकता वाले क्षेत्रों की समस्याएं दूर करेगा. नदियों को जोड़ने की ये परियोजनाएं बाढ़ और सूखे के दुष्प्रभाव कम करने, सिंचाई के माध्यम से कृषि क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ाने, पीने और साफ सफाई के लिए पानी की उपलब्धता बढ़ाने, जल मार्ग से आवाजाही बढ़ाने और औद्योगिक विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रस्तावित की गई हैं. नदियों को जोड़ने का ये विचार इस सोच पर आधारित है कि किसी नदी के बेसिन में पानी अधिक है, इसका पता लगाया जा सकता. अगर हम एक तय समय सीमा के अंदर ये अंदाज़ा लगा लें कि नदी के पानी का तमाम मदों में कैसे उपयोग हो रहा है. और पानी का उपयोग कितनी मात्रा में हो रहा है. हालांकि, जानकारों ने नदियों के बेसिन को पानी की प्रचुरता और कमी के आधार पर विभाजित करने को लेकर चिंता जताई है. इन विशेषज्ञों का मानना है कि नदियों के बेसिन का ऐसा वर्गीकरण वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं है. किसी भी नदी के बेसिन में पानी की कितनी ज़रूरत है, इसका आकलन कर पाना बहुत मुश्किल है. अब अगर पक्के तौर पर ऐसा नहीं किया जा सकता, तो फिर इस बात का निर्धारण कैसे होगा कि किसी नदी के बेसिन में पानी की अधिकता है अथवा कमी. क्योंकि किसी नदी बेसिन में पानी के उपयोग के तमाम तरीक़े होते हैं. जैसे कि, खेती में, औद्योगिक और घरेलू ज़रूरतें पूरी करने में, बिजली का उत्पादन करने में, जल परिवहन में, मत्स्य और अन्य जल जीवों के पालन में, खेल कूद में और इको-सिस्टम की अन्य ज़रूरतों में भी नदी के पानी का प्रयोग होता है. ऐसे में किसी नदी के बेसिन में पानी की उपयोगिता को लेकर अगर भरोसेमंद आंकड़े नहीं हैं. तो बिना इस आधार के उस नदी पर निर्भर लोगों और उद्योगों की पानी की कुल ज़रूरत और उसकी उपलब्धता का आकलन कर पाना ख़तरे से ख़ाली नहीं है. सच तो ये है कि नदी बेसिन में पानी की अधिकता होने के इस विचार को इस तर्क से चुनौती दी गई है कि पूरे इको-सिस्टम में पानी की हर बूंद कोई न कोई मक़सद पूरा करने के काम आती है. फिर चाहे वो मानवीय आवश्यकता हो या पारिस्थितिकी की ज़रूरत पूरी करना हो. देश में पानी की बढ़ती मांग और इसकी प्रति व्यक्ति घटती उपलब्धता को देखते हुए, देश के तमाम व्यक्तियों और क्षेत्रों में पानी का समान रूप से वितरण करने का लक्ष्य प्राप्त करना ज़रूरी है. लेकिन, ऊपरी तौर पर जिन नदियों में अधिक पानी दिख रहा हो, वहां के पानी का रुख़ उन क्षेत्रों की ओर मोड़ने का निर्णय सबसे अच्छी वैकल्पिक रणनीति नहीं होगी, जहां पानी की कमी है.

नदियों को जोड़ने की आर्थिक और इकोलॉजिकल लागत

नदियों को जोड़ने के दुनिया के अन्य देशों के अनुभव को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि कहीं पर भी बड़े पैमाने पर पानी का रुख़ मोड़ने ने पर्यावरण, अर्थव्यवस्था और लोगों की रोज़ी रोटी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ सकता है. पूरी दुनिया में नदियों को जोड़ने के जो प्रोजेक्ट चल रहे हैं, उनकी अनुमानित लागत दो हज़ार 653 अरब डॉलर है. इनमें से से 532 अरब डॉलर के प्रोजेक्ट एशिया में चल रहे हैं. और इनमें से भी अकेले भारत में नदियों को जोड़ने की परियोजना की अनुमानित लागत 125 से 200 अरब डॉलर तक आंकी गई है. ऐसे विशाल प्रोजेक्ट अक्सर बहुत जोखिमों से भरे होते हैं. क्योंकि इनके लिए बड़े पैमाने पर इंजीनियरिंग की ज़रूरत होती है. भारी मात्रा में धन के निवेश की आवश्यकता होती है. फिर, ऐसी विशाल परियोजनाओं को पूरा करने के लिए लंबी समयावधि की भी ज़रूरत होती है.

नदियों के पानी को घुमा देने से उनके प्राकृतिक बहाव का क्षेत्र और उसके तटीय इलाक़ों का इकोसिस्टम प्रभावित होता है. इससे नदी के निचले इलाक़ों की ओर पानी की उपलब्धता कम होती है. इसका खेती और इको-सिस्टम पर विपरीत प्रभाव पड़ता है.

इसके अलावा, नदियों के पानी को घुमा देने से उनके प्राकृतिक बहाव का क्षेत्र और उसके तटीय इलाक़ों का इकोसिस्टम प्रभावित होता है. इससे नदी के निचले इलाक़ों की ओर पानी की उपलब्धता कम होती है. इसका खेती और इको-सिस्टम पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. इससे, तटी इलाक़ों में मिट्टी जमा हो जाने का डर होता है और इसके अलावा भू-गर्भ जल का स्तर भी गिर जाता है. नदियों का रुख़ मोड़ने से सिंचित क्षेत्र में कमी आने लगती है. नदियों के प्राकृतिक बहाव को इंजीनियरिंग से मोड़ने के ख़िलाफ़ सबसे बड़ा तर्क यही दिया जाता है. भारत में केन-बेतवा नदियों को जोड़ने का प्रोजेक्ट इसी वजह से तमाम सामाजिक और पर्यावरण संबंधी चिंताओं का शिकार हो गया है. और अंत में इन सभी कारणों से ये प्रोजेक्ट आर्थिक रूप से लाभकारी नहीं रह जाने की आशंका है. दौधन में केन नदी पर बांध बननाने से पन्ना टाइगर रिज़र्व की जैव विविधता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ने की आशंका है. क्योंकि, इससे टाइगर रिज़र्व का एक हिस्सा डूब जाने का ख़तरा है. इसके अलावा नदी का प्रवाह रोकने से निचले इलाक़ों में पानी की कमी होने का भी डर है.

नदियों को जोड़ने के प्रोजेक्ट से संबंधित इन ख़तरों को देखते हुए, योजना बनाने वालों को चाहिए कि वो जल संसाधनों के प्रबंधन के लिए किसी एक विकल्प पर निर्भर न रह कर इसका समाधान कई विकल्पों के साथ तलाशें. इसे इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्स मैनेजमेंट (IWRM) का नाम दिया गया है. जिसके तहत इको सिस्टम से संबंधित लोगों की रोज़ी रोटी का भी ख़याल रखा जाता है. और एक व्यापक जल प्रबंधन के दृष्टिकोण से पानी के संसाधनों के बेहतर उपयोग का प्रयास किया जाता है. इस विचारधारा के तहत सबसे बड़ा तर्क ये है कि पानी का रुख़ मोड़ने के प्रोजेक्ट आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण के नज़रिए से उचित नहीं हैं. क्योंकि इनमें भारी वित्तीय संसाधन चाहिए होते हैं. इंजीनियरिंग के बड़े प्रोजेक्ट लागू करने पड़ते हैं. फिर इनसे पारिस्थिकी को भी ख़तरा होता है. और वैश्विक जल चक्र पर भी विपरीत प्रभाव पड़ सकता है. इसके बजाय जल प्रबंधन संबंधी योजना बनाने वालों को चाहिए कि वो पानी की मांग संबंधी क्षेत्र पर अधिक ध्यान दें और इस समस्या का समाधान निकालने की कोशिश करें. जैसे कि पानी का अधिक कुशलता से इस्तेमाल हो. पानी की क़ीमत अधिक रख कर भी इसकी ज़रूरतें पूरी करने का स्थायी समाधान निकाला जा सकता है.

नदियों को जोड़ने के प्रोजेक्ट से संबंधित इन ख़तरों को देखते हुए, योजना बनाने वालों को चाहिए कि वो जल संसाधनों के प्रबंधन के लिए किसी एक विकल्प पर निर्भर न रह कर इसका समाधान कई विकल्पों के साथ तलाशें. इसे इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्स मैनेजमेंट (IWRM) का नाम दिया गया है.

वर्चुअल जल व्यापार की हक़ीक़त: पानी की उपलब्धता भर से समस्या का समाधान नहीं होगा

जिस चीज़ों की खेती में पानी का ज़्यादा इस्तेमाल होता है, अगर हम भारत और चीन में उनके वर्चुअल जल प्रबंधन का विश्लेषण अलग-अलग क्षेत्रों के हिसाब से करें, तो हमारे सामने तुलनात्मक लाभ और स्पष्ट हो जाते हैं. मिसाल के तौर पर, हमारे देश में खाद्यान्न के उत्पादन के क्षेत्रवार अध्ययन से देश के कुछ हिस्सों में वर्चुअल वाटर ट्रेड (VWT) की हक़ीक़त बयां हो जाती है. जैसे कि पंजाब और हरियाणा में पानी की भारी कमी है. फिर भी इन दोनों ही राज्यों में ऐसी फसलों की खेती ज़्यादा होती है, जिनमें पानी की बहुत ज़रूरत होती है. और इन राज्यों से महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों को इन्हीं अनाजों का निर्यात होता है. जबकि महाराष्ट्र और तमिलनाडु में भी पानी के संसाधन कम हैं. वहीं, पंजाब और हरियाणा से असम जैसे उत्तर पूर्व के राज्यों को भी धान और गेहूं जैसे अनाज का निर्यात होता है. जबकि पूर्वोत्तर के राज्यों में पानी की कमी नहीं है और वहां इन दोनों अनाजों की खेती के लिए माहौल मुफ़ीद है. वर्चुअल वाटर ट्रेड की इस उल्टी स्थिति के कारण हमारे देश के जल संसाधनों पर दबाव और बढ़ता जा रहा है. इसी तरह अगर हम चीन के प्रांतों के बीच वर्चुअल जल व्यापार के आंकड़ें देखें, तो चीन के उत्तरी राज्यों में देश के कुल जल संसाधनों का केवल बीस प्रतिशत उपलब्ध है. लेकिन, यहीं पर देश के दो तिहाई खेत हैं. और चीन के ये राज्य दक्षिण के उन प्रांतों को अनाज की आपूर्ति करते हैं, जहां पानी के संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं.

इसका अर्थ ये है कि खेती के उत्पादों का व्यापार केवल जल संसाधनों की उपलब्धता पर नहीं, बल्कि कई अन्य कारकों पर भी निर्भर करता है. विभिन्न क्षेत्रों में अनाज के व्यापार के प्रमुख कारक ज़मीन, मज़दूर, जानकारी और पूंजी की उपलब्धता होते हैं. इसके साथ साथ, अलग अलग क्षेत्रों के किसानों को लागत में सब्सिडी की नीतियां भी अनाज के व्यापार पर असर डालती हैं. बाज़ार तक पहुंच का भी अनाज व्यापार पर असर पड़ता है. और इसकी क़ीमतें भी तय करती हैं कि किन क्षेत्रों में किसान क्या खेती करेंगे. इसका नतीजा ये होता है कि कई बार वर्चुअल वाटर ट्रेड की केवल पानी की उपलब्धता या कमी के आधार पर उचित व्याख्या नहीं की जा सकती है. उदाहरण के लिए, पंजाब और हरियाणा से वर्चुअल जल व्यापार ये दर्शाता है कि प्रशासन की ओर से किसानों को लगातार इसकी शह मिलती है. सिंचाई के लिए ईंधन पर सब्सिडी मिलती है. कृषि उत्पादों की क़ीमतों में समर्थन प्राप्त होता है. इसी वजह से इन राज्यों के किसान ज़्यादा पानी की लागत वाली फ़सलें उगाते रहते हैं. वहीं चीन में पानी की उपलब्धता के बजाय बाज़ार और ज़मीन की उत्पादकता के प्रबंधन पर अधिक ज़ोर दिया जाता है. नतीजा ये कि पानी की कमी वाले राज्यों को ऐसे संसाधन मुहैया कराए जाते हैं, जिनसे वो ज़्यादा पानी की लागत वाली खेती करते रहते हैं.

पंजाब और हरियाणा में पानी की भारी कमी है. फिर भी इन दोनों ही राज्यों में ऐसी फसलों की खेती ज़्यादा होती है, जिनमें पानी की बहुत ज़रूरत होती है. और इन राज्यों से महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों को इन्हीं अनाजों का निर्यात होता है. जबकि महाराष्ट्र और तमिलनाडु में भी पानी के संसाधन कम हैं.

राज्यों के बीच इस वर्चुअल जल व्यापार की प्रक्रिया को बदलना होगा क्योंकि ऐसा मॉडल ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सकता है. उपज की क़ीमतों और तकनीक का इस्तेमाल, स्थानीय स्तर पर पानी के अधिकतम बेहतर प्रबंधन को बढ़ावा देने के लिए होना चाहिए. IWRM के उभरते आयाम के तहत पानी के संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल को ही प्राथमिकता बनाया जाना चाहिए. ताकि पानी की अलग अलग ज़रूरतों और मांगों को पूरा किया जा सके. और इस प्रबंधन में इको-सिस्टम को पानी की ज़रूरतों का भी ख़याल रखा जाना चाहिए. अगर हम पानी की अधिकता वाले क्षेत्रों से जल संसाधनों की कमी वाले क्षेत्रों को वर्चुअल जल व्यापार को बढ़ावा दें, तो इससे सभी क्षेत्रों की उत्पादकता भी बढ़ेगी और हम पानी भी बचा सकेंगे. बुद्धिमानी इस बात में है कि हम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर पानी के उपयोग का वर्चुअल आकलन और विश्लेषण करें. इस संदर्भ में कुछ देशों के भीतर वर्चुअल जल व्यापार को मानक बनाकर उनका अध्ययन करना लाभकारी हो सकता है. ऐसे मॉडल नदियों को जोड़ने की बड़ी परियोजनाओं का विकल्प हो सकते हैं. ख़ासतौर से खेती के उत्पादों के संदर्भ में. इसके लिए हमें वर्चुअल जल व्यापार के नुक़सानदेह प्रवाह का रुख़ मोड़ना होगा.

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