Author : Kriti M. Shah

Published on Jun 07, 2017 Updated 0 Hours ago
भारत में हिंसक नागरिक विरोध से निपटना

नागरिकों को मिला विरोध का अधिकार भारत के लोकतंत्र का आधार स्तंभ है। नागरिकों को शांतिपूर्ण तरीके से जमा होने की इजाज़त है, लेकिन कई बार विरोध और प्रदर्शन हिंसक हो जाते हैं; हरियाणा में जाटों का प्रदर्शन और आतंकी सरगना बुरहान वानी की मौत के बाद कश्मीर में आशंति हाल के उदाहरण हैं जो कि 2016 में घटित हुए। इस तरह के हालात में, ये भारत में सत्ता प्रतिष्ठान का विशेषाधिकार है कि वह हिंसक प्रदर्शनों से इस तरह से निपटे कि आम लोगों को नुकसान न हो और सार्वजनिक व्यवस्था भी बनी रहे। इस शोध-पत्र में नागरिक हिंसा के वक़्त सुरक्षा अधिकारियों द्वारा बल प्रयोग पर विचार और देश में इस तरह के विरोध से निपटने के तरीकों को समझने का प्रयास किया गया है।

प्रस्तावना

वर्ष 2016 में भारत, बड़े पैमाने पर हुए दो हिंसक नागरिक विरोध प्रदर्शनों का गवाह बना-फ़रवरी 2016 में हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन और जुलाई 2016 में कश्मीर में सुरक्षा बलों के हाथों हिज़बुल मुजाहिद्दीन के मुखिया बुरहान वानी के मारे जाने के बाद हुआ विरोध। हालांकि दोनों जनांदोलन अपने कारणों ओर उद्देश्यों के मद्देनज़र एक दूसरे से काफ़ी अलग थे लेकिन दोनों प्रदर्शनों पर राज्य सरकारों की प्रतिक्रिया की भारी आलोचना के नज़रिए से वे एक जैसे हैं। फरवरी 2016 में हरियाणा ठप्प हो गया क्योंकि जाट समुदाय के लोग सरकार से राजनैतिक और आर्थिक आरक्षण मांग रहे थे। राज्य के कई हिस्से में प्रदर्शनकारियों और सुरक्षाबलों का टकराव हुआ जिसमें 30 से ज़्यादा लोग मारे गए। इसके कुछ ही महीने बाद आतंकी सरगना बुरहान वानी की मौत ने कश्मीर में व्यापक नागरिक विरोध प्रदर्शन की आग को भड़का दिया। पत्थर फेंकने वाली और आगजनी करने वाली भीड़ के ख़िलाफ़ ज़रूरत से ज़्यादा ताक़त के इस्तेमाल के लिए सुरक्षा बलों की आलोचना हुई। भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पैलेट गन के इस्तेमाल से 90 मौतें हुईं और बहुत से लोग जख़्मी हो गए। इन घटनाओं ने भारत में ज़्यादा ताक़त के इस्तेमाल की रणनीति पर आधारित भीड़ नियंत्रण के तौर तरीकों पर सवाल खड़े कर दिए-ये वो मुद्दा है जो नया नहीं है लेकिन आज भी प्रासंगिक है।

भारत जैसे देश में जिसकी पहचान अलग-अलग धर्मों, नस्ल, भाषाई और जातीय विभाजन वाली है, वहां अक्सर पुलिस का सामना बड़े पैमाने पर होने वाले प्रदर्शन, दंगे और व्यापक नागरिक अव्यवस्था से होता है। इस तरह की अशांति की स्थिति में प्रदर्शनकारी पुलिस और सुरक्षाबल, संपत्ति और दूसरे नागरिकों के खिलाफ हिंसक तरीके से प्रतिक्रिया कर सकते हैं। इसलिए हिंसक नागरिक प्रदर्शनों से निपटने के तौरतरीकों पर सोच-विचार करना ज़रूरी हो जाता है।

भारत में लोगों के गैरक़ानूनी जमावड़े को तितर-बितर करने के लिए पुलिस परंपरागत रूप से लाठी या बैटन, पानी की बौछार और आंसू गैस का इस्तेमाल करती आई है। हालांकि इन तरीकों की अपनी ख़ूबियां हो सकती हैं लेकिन उन वाकयों को देखना भी अहम है जब पुलिस ने इन तरीकों और औज़ारों का इस्तेमाल अत्याधिक बल प्रयोग और सख़्ती के लिए किया। इस बातचीत को उस सबक पर केंद्रित करना होगा जो ऐसे नागरिक प्रदर्शनों से मिला है जो शांतिपूर्ण ढंग से शुरू हुए लेकिन बाद में हिंसक हो गए। उनका नतीजा हताहतों की बड़ी संख्या के रूप में सामने आया।

हरियाणा और कश्मीर की हालिया घटनाओं को ध्यान में रखते हुए सरकार को नागरिक प्रदर्शनों से निपटने के पुलिसिया तरीकों की दोबारा पड़ताल करने की आवश्यकता है।

बेशक हरियाणा और कश्मीर में आशांति पैदा होने की वज़हें अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन दोनों ही घटनाएं हिंसा की गवाह बनीं; इनमें से किसी भी राज्य से मिले सबक को दूसरे के साथ ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी साझा किया जा सकता है। इसलिए, इस बात का ध्यान रखते हुए कि कश्मीर में क़ानून और व्यवस्था के हालात बिल्कुल अलग किस्म के हैं, ये शोध-पत्र इस मुद्दे पर विचार करना चाहता है कि जब नागरिक आंदोलन हिंसक हो जाते हैं तो क़ानून लागू कराने वाले अफ़सर पुलिसिया तरीकों को बेहतर करने के लिए क्या कर सकते हैं। हिंसक आंदोलन को काबू करने में पुलिस की क्या भूमिका है? पुलिस को कौन से औज़ार या जान न लेने वाले औज़ार इस्तेमाल करने चाहिए? हिंसा का जवाब देते हुए सुरक्षा बल ऐसी प्रतिक्रिया कैसे दें जो विरोध की तीव्रता के अनुपात में हो और न्यायसंगत भी हो? ये कुछ सवाल उस कार्यशाला में भी उठाए गए जिसकी अगुवाई त्रिनाथ मिश्रा ने की जिन्हें पुलिस में 37 साल का अनुभव है। वह सीआरपीएफ, सीआईएसएफ के महानिदेशक और सीबीआई के निदेशक रह चुके हैं। यह शोध-पत्र उन सवालों और मुख्य मुद्दों पर टिका है जिन पर दिसंबर 2016 में ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा आयोजित कार्यशाला में विचार-विमर्श किया गया।

भारत में हिंसक नागरिक प्रदर्शन

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 बोलने की आज़ादी देता है, जो नागरिकों को इस अधिकार की इजाज़त देता है कि “ बिना हथियार के शांतिपूर्ण ढंग से जमा हो सकते हैं”, इसमें संगठन बनाने, बैठक करने और प्रदर्शन के लिए सड़कों पर आने का अधिकार शामिल है। हालांकि जमा होने का संवैधानिक अधिकार कुछ क़ानूनों द्वारा नियम कायदों में बंधा हुआ है, मसलन भारतीय दंड विधान संहिता, आपराधिक प्रक्रिया विधान और 1861 का पुलिस क़ानून। ये क़ानून सरकार को जमा होने के अधिकार के मद्देनज़र “न्यायसम्मत पाबंदियां” लगाने की शक्ति देते हैं, अगर लोगों का ऐसा कोई जमावड़ा आम शांति और व्यवस्था में ख़लल पैदा कर सकता है या इससे राष्ट्रीय प्रभुसत्ता के लिए ख़तरा पैदा हो जाए। इसके द्वारा , संविधान अनुच्छेद 19 (1) (बी) में दिए गए बोलने के अधिकार और अनुच्छेद 19 (3) परिभाषित की गई सामाजिक व्यवस्था के बीच संतुलन स्थापित करने की कोशिश करता है।

नागरिकों को जमा होने के अधिकार के लिए सहूलियत देते हुए भीड़ को नियंत्रित और व्यवस्थित करना भी पुलिस का फर्ज़ है। हालांकि, ऐसा भी वक़्त आता है जब विरोध प्रदर्शन या तो आपस में या पुलिस के साथ हिंसक हो जाते हैं। हाल के दिनों में विरोध प्रदर्शनों के हिंसक हो जाने का ख़तरा बढ़ा है। दिल्ली में किया गया कोई राजनैतिक फ़ैसला देश के किसी हिस्से में प्रतिक्रिया को जन्म दे सकता है, जिससे किसी और हिस्से में कोई और प्रतिक्रिया हो सकती है। सोशल मीडिया और फ़ौरन संदेश पहुंचाने के तरीकों ने सूचना (और दुष्प्रचार) को जंगल की आग तरह फ़ैलाना संभव बना दिया है। इससे नागरिकों के लिए तूफ़ान पैदा हो जाता है और क़ानून लागू कराने वाले अफ़सरों के लिए संकट खड़ा हो जाता है।

संविधान का अनुच्छेद 246 ‘नागरिक व्यवस्था’ और ‘पुलिस’ को राज्य के अधिकारों के अधीन रखता है। ये हर राज्य सरकार को पुलिस के ऊपर पूरा वैधानिक और प्रशासनिक अधिकार देता है। हर राज्य के पुलिस बल के दो हिस्से होते हैं: नागरिक पुलिस और सशस्त्र पुलिस। जहां नागरिक पुलिस अपराध पर नियंत्रण रखती है वहीं सशस्त्र पुलिस क़ानून और व्यवस्था की असमान्य स्थितियों से निपटने के लिए विशेष पुलिस इकाई हैं। वो बटालियन में संगठित होती हैं जिनका इस्तेमाल राज्य में आपातकाल की स्थिति से निपटने के लिए आक्रामक रिज़र्व बल की तरह होता है। हालांकि पुलिस से जुड़े मामले राज्य के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, फिर भी संविधान केंद्र सरकार को पुलिस से जुड़े विशेष मामलों में राज्य की सुरक्षा के लिए दख़ल देने का अधिकार देता है। [1] केंद्रीय गृह मंत्रालय राज्य में नागरिक और सशस्त्र पुलिस की मदद के लिए केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों की तैनाती कर सकता है। [2]

हालांकि केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल जैसे अतिरिक्त बल की तैनाती राज्य पुलिस के लिए मददगार साबित होती है, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों के लिए ये महत्वपूर्ण है कि वो ऐसी नीतियां और रणनीति बनाएं जो इन बलों को हिंसक अशांति से व्यवस्थित और क़ानूनी तरीके से निपटने में मददगार बने।

भीड़ नियंत्रण: तरीके और रणनीति

सही नीतियों का निर्माण

जब किसी विरोध प्रदर्शन की योजना बनती है या उसका पहले ही ऐलान हो जाता है तो पुलिस और सुरक्षा अधिकारी भीड़ नियंत्रण की रणनीति बनाने में सफल रहते हैं। आमतौर पर प्रशासन कुछ कारणों से पहले ही ये अनुमान लगा लेता है कि पहले से घोषित ऐसे प्रदर्शन में हिंसा हो सकती है। इससे पुलिस को गड़बड़ी होने पर ज़रूरत पड़े तो भीड़ को तितर-बितर करने की तैयारी करने का मौका मिल जाता है। अचानक हुई किसी घटना की वजह से लोगों के तुरंत फुरंत जमा होना-पुलिस के लिए ज्यादा ख़तरनाक होता है। इसीलिए ऐसे हिंसक नागरिक विरोध से निपटने के अलग-अलग तरीकों को सुझाने और पहले से निहत्थी करने वाली नीति का मसौदा तैयार करना अहम हो जाता है। ये पुलिस अफ़सरों, अर्धसैनिक बलों और क़ानून लागू करने वाले दूसरे लोगों को बेहतर तरीके और रणनीति सीखने में मददगार बनेगा ताकि वो शांतिपूर्ण और हिंसक दोनों तरह की भीड़ से क़ानून के दायरे में रह कर निपट सकें। इस नीति का मसौदा तैयार करने के दौरान अलग-अलग तरह के विरोध की ज़मीनी हक़ीकत भी ध्यान रखने की और उनके मुताबिक रणनीति बनाने की ज़रूरत है। मिसाल के तौर पर छात्रों के विरोध के वक्त सुरक्षाकर्मियों को अत्याधिक सयंम दिखाने और संतुलित रहने की ज़रूरत है। हिंसक गड़बड़ी के वक़्त किसी भी उकसावे पर दी गई पुलिस की प्रतिक्रिया से हद पार हो सकती है और ये और तीखी हो कर अंतत: प्रदर्शनकारियों को और ज़्यादा हिंसक बना सकती है। [3] राजनैतिक अंदोलन के वक़्त हिंसक होते टकराव या प्रदर्शनकारी नागरिकों के प्रति पुलिस की आक्रमकता से ऐसे विरोध लंबे वक़्त के लिए खिंच सकते हैं। बेशक, विरोध कर रहे छात्रों के हिंसक समूह और राजनैतिक अंदोलनकारियों की भीड़ से अलग-अलग ढंग से निपटने की ज़रूरत है। आखिरकार ये जन उबाल अलग अलग कारणों और अलग-अलग मक़सद के लिए होते हैं और हर किसी के प्रदर्शन का तरीका भी अलग होता है। इसलिए ये सही रहेगा कि उनसे निपटने की नीतियां भी अलग हों।

जब किसी विरोध प्रदर्शन की योजना बनती है या उसका पहले ही ऐलान हो जाता है तो पुलिस और सुरक्षा अधिकारी भीड़ नियंत्रण की रणनीति बनाने में सफल रहते हैं।

पुलिस के लिए हिंसक विरोध से निपटने की रणनीति का मसौदा तैयार करते वक्त, पांच अहम तत्वों को ज़रूर ध्यान में रखना चाहिए: सूचना, मक़सद, तरीका, और संचार। किसी भी रणनीति को इन तत्वों का ध्यान रखते हुए ही तैयार करना चाहिए।

पुलिस को चाहिए कि वो किसी भी होने वाले आंदोलन के बारे में, प्रदर्शनकारियों की शिकायतों के बारे में और दूसरी अहम बातों के बारे में जितनी ज्यादा जानकारी मिल सके उतनी जानकारी जुटाए। मिसाल के तौर पर सांप्रदायिक दंगे से निपटने की रणनीति किसी जनांदोलन को निपटने के तरीके से अलग होनी चाहिए। कोई जनांदोलन, छात्रों का विरोध प्रदर्शन , रेलवे की हड़ताल, आरक्षण के समर्थन या विरोध में प्रदर्शन या केंद्र और राज्य सरकार के ख़िलाफ़ किसी और तरह का विरोध प्रदर्शन हो सकता है। ऐसे आंदोलन के दौरान प्रदर्शनकारी रेलवे लाइन या सड़क रास्ते को जाम कर सकते हैं। आंदोलनकारी धरना या कहीं पर घेराव कर तब तक जगह न छोड़ने की धमकी दे सकते हैं जबतक कि उनकी मांग पूरी न हो जाए। एक बार जब आंदोलन के बारे में सारी जानकारी जुटा ली जाती है तो पुलिस अफ़सरों और दूसरे सुरक्षाकर्मियों को ये बताया जाना चाहिए और ट्रेनिंग भी दी जानी चाहिए कि क़ानून लागू कराने वाले अफ़सर के तौर पर उनका मक़सद क्या है। [4] दूसरी बात ये कि उनका लक्ष्य पूरी तरह से परिभाषित होना चाहिए-जैसे कि क्या उन्हें भीड़ को तितर-बितर करना है या उन्हें नागरिकों के ख़िलाफ़ ताक़त का इस्तेमाल करना है? इसके बाद उनके लक्ष्य को पाने के तरीके पर सोच विचार होना चाहिए ताकि सभी पुलिस अफ़सरों के पास पुलिस सगंठन के ढांचे, उनकी अलग-अलग ड्यूटी और जिम्मेदारियों की जानकारी रहे । इसके साथ ही लॉजिस्टिक से जुड़े तत्व जैसे कि ट्रैफ़िक का रूट, एंबुलेंस, सही उपकरण और सामान के बारे में भी पहले से योजना और तैयारी होनी चाहिए। इसके बराबर की अहमियत इस बात की भी है कि जब हिंसक और उत्तेजित भीड़ से निपटा जा रहा हो तो पुलिस को लोगों के साथ वार्तालाप और संचार करने पर भी ध्यान देना चाहिए। इसमें मीडिया को जानकारी देना, प्रेस विज्ञप्ति जारी करना शामिल है। इससे लोगों को आंदोलन के बारे में घट रही चीज़ों के बारे में बताना शामिल है। खासतौर से ये तब ज़्यादा ज़रूरी है जब कि आंदोलन कुछ दिन से जारी हो। सरकार, पुलिस अफ़सर और लोगों के बीच लगातार संचार से विश्वास जगाने में मदद मिलेगी और ये सरकार को दुष्प्रचार से निपटने का भी मौका देगी। भारतीय दंड विधान की धारा 141 से लेकर 190 तक और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 149 और 151, गैरक़ानूनी जमावड़ा करने वालों के ख़िलाफ़ ही नहीं बल्कि जमावड़े की तैयारी कर रहे लोगों के भी ख़िलाफ उन्हें रोकने और सजा देने के बहुत से विकल्प मुहैया कराती हैं। अगर पुलिस को लगता है कि लोग हिंसक गतिविधि कर सकते हैं तो ये पुलिस को उन्हें एहतियातन गिरफ़्तार करने की इजाज़त देते हैं। आंदोलन अचानक हिंसक न हो और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान न पहुंचे ये सुनिश्चित करने के लिए पुलिस चाहे तो कई तरीके इस्तेमाल कर सकती है, जिसमें पहले और दूसरे पंक्ति के नेताओं की एहतियातन गिरफ़्तारी शामिल है जिससे कि आंदोलन नेतृत्वविहीन हो जाए। पुलिस आंदोलनकारियों को एक जगह इक्ट्ठा होने से भी रोक सकती है, और अहम जगहों पर उचित तादाद में पुलिस बल तैनात कर हिंसा के इरादों को कामयाब होने से रोक सकती है।

भारत में नागरिक आशांति के बहुत से मामले सांप्रदायिक रंग में रंगे होते हैं और सांप्रदायिक हिंसक भीड़, प्रदर्शन और दंगे भारत की सेकुलर बुनियाद पर बहुत गंभीर दबाव डालते हैं। भारत का इतिहास सांप्रदायिक किस्म के और जातियता पर आधारित तमाम दंगो से भरा पड़ा है। रैपिड एक्शन फ़ोर्स (आरएएफ) जैसे बल विशेष तौर पर दंगा नियंत्रण बल के तौर पर ही प्रशिक्षित किए गए हैं। उन्हें राजनैतिक तौर पर देश के सबसे संवेदनशील हिस्सों में तैनात किया जाता

है। उन्हें सांप्रदायिक किस्म के जमावड़े से निपटने और बिना किसी भेदभाव के नागरिकों को नियंत्रित करने का प्रशिक्षण दिया गया है। सांप्रदायिक दंगों से निपटते वक्त पुलिस की रणनीति सांप्रदायिक रंग में रंगे हर तरह के हालात का फौरन जवाब देने की होनी चाहिए। इसके लिए खबरों को तोड़ामरोड़ा न जाए इसलिए प्रेस को लगातार सूचना देना, पूजास्थलों की सुरक्षा और सभी समुदायों के साथ स्वस्थ तालमेल बनाना ज़रूरी है। [5]

क़ानून लागू कराने की भूमिका और सुरक्षा कर्मचारी

नागरिक हिंसा के तीखे दौर से निपटने में राज्य पुलिस अक्सर अक्षम साबित होती है। राज्य के सशस्त्र पुलिस बल अक्सर संख्या की कमी, प्रशिक्षण की कमी और सही उपकरण की कमी से जूझते रहते हैं। इससे राज्य सरकारों को केंद्र से मदद मांगनी पड़ती है जो अंतत: केंद्रीय बलों की तैनाती करती है। केंद्र सरकार इस तोहमत से बचना चाहती है कि वो राज्य सरकार की मदद के लिए आगे नहीं आई। राज्य सरकारें भविष्य में होने वाली किसी भी ग़लती की ज़िम्मेदारी लेने से मुक्त होना चाहतीं हैं।

एक लंबे वक्त में इस तरह के इंतजाम के कारण राज्यों के पुलिस बल हिंसक नागरिक आंदोलनों से निपटने के नजरिए से कम क्षमतावान रह गए हैं।

फ़रवरी 2016 में जाटों के आरक्षण आंदोलन को दौरान घबराई हुई हरियाणा सरकार की गुज़ारिश पर केंद्रीय बल और सेना दोनों की तैनाती की गई। आरक्षण की मांग पर हुए आदंलोन के दौरान हुई हिंसा 30 लोगों की मौत हो गई और निजी और सार्वजनिक संपत्ति को भारी नुक़सान पहुंचा। आंदोलन के दौरान हरियाणा का फैसला हर स्तर पर पुलिस का नाकामी का उदाहरण बन गया। पुलिस सही तरीके से स्थिति से निपटने में नाकाम रही। या तो उसने लापरवाही दिखाई या कुछ मामले में हिंसक भीड़ से निपटने में उसने सांठगांठ की। इसकी वजह से और ज़्यादा हिंसा हुई। मामले को नज़रअंदाज करने के हरियाणा पुलिस के रवैए से जाटों के प्रदर्शनकारी गुटों को अर्थमूवर और दूसरी भारी मशीनों की मदद से रोड पर गड्ढा करने, रेलवे लाइनों को ठप करने और दुकानों को लूटने का मौका मिल गया। [6]

पुलिस और प्रशासनिक नाकामी पर बनी प्रकाश सिंह कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा-सेना ने हरियाणा में 74 कॉलम की तैनाती की जो मोटे तौर पर 12 बटालियनों के बराबर थी। रिपोर्ट ने कहा कि “ये तादाद एक सेक्टर में किसी भी आक्रमणकारी सेना के छोटे हमले से मुक़ाबले करने के लिए काफी थी, ये बेहद शर्मनाक था कि आंतरिक आशांति से निपटने के लिए सेना की इतनी भारी तादाद में तैनाती करनी पड़ी”। [7] कमेटी ने राज्य सरकार द्वारा सेना के इस्तेमाल पर भी टिप्पणी की। उसने कहा कि ये देखना काफी तकलीफ़देह था कि सेना को सही तरीके से इस्तेमाल नहीं किया गया। रिपोर्ट ने एक घटना का उल्लेख करते हुए कहा कि स्थानीय पुलिस ने हिंसा और तोड़फोड़ कर रही भीड़ को न रोक कर, सेना को कार्रवाई न करने के लिए गुमराह किया। कमेटी ने ये भी सुझाव दिया कि “राज्यों को खासतौर से ऐसी भीड़ से निपटने के लिए प्रशिक्षित कुछ बटालियनों को रखना चाहिए”। [8]

जाट आंदोलन हिंसक नागरिक आशांति के दौरान उभरने वाली बहुआयामी चुनौतियों के तमाम उदाहरणों में से एक है। जहां स्थानीय पुलिस किसी इलाके में पैदा हुए तनाव को कुछ वक़्त के लिए निपट सकती है वहीं केंद्रीय बलों को बुलाने का फैसला बहुत ही ज़िम्मेदारी से करने की ज़रूरत है। आमतौर पर जब बाहरी बलों को बुलाया जाता है तो ज़मीनी हकीकत और स्थानीय असंतोष को समझने में उनकी कमजोरी से हालात और ख़राब ही हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर हो सकता है कि बाहर से आया बल स्थानीय भाषा को न समझता हो, जिससे प्रदर्शनकारियों से सही ढंग से बातचीत करने में वो कामयाब नहीं हो पाते।

पुलिस और सुरक्षा बलों को होने वाली परेशानियां

जब हिंसा के बढ़ जाने या राज्य सरकार के सुरक्षा बलों के नाकाम हो जाने पर अचानक केंद्रीय बलों को बुलाया जाता है, तब नागरिक प्रशासन द्वारा सबकी भूमिका तय करने, योजना बनाने और तैयारी करने में पैदा होने वाली ग़लतफ़हमी की वजह से कई बार सही रणनीति को समझने और बनाने में वक़्त लग जाता है। बाहर से आए सुरक्षा बल को ये भी लग सकता है कि शांति स्थापित करने की उनकी कोशिशें स्थानीय पुलिस से तालमेल और सहयोग की कमी के कारण कमजोर पड़ जाती हैं। इसलिये बाहरी बलों को मदद के लिए बुलाने वाले नागरिक प्रशासन के लिए अहम है कि वो सबकी भूमिका और ज़िम्मेदारी को साफ़ तरीके से तय करे। नेतृत्व के ढांचे की वजह से भी समस्या खड़ी हो सकती है जिसे बेहतर संचार और तालमेल के तरीके बना कर दूर किया जा सकता है।

जब हिंसा के बढ़ जाने या राज्य सरकार के सुरक्षा बलों के नाकाम हो जाने पर अचानक केंद्रीय बलों को बुलाया जाता है, तब नागरिक प्रशासन द्वारा सबकी भूमिका तय करने, योजना बनाने और तैयारी करने में पैदा होने वाली ग़लतफ़हमी की वजह से कई बार सही रणनीति को समझने और बनाने में वक़्त लग जाता है।

मामले को भारत के पुलिस बलों का राजनीतिकरण भी पेचीदा बना देता है। अक़्सर स्थानीय पुलिस के अपने राजनैतिक रुझान और पसंद होती है जिससे नागरिक आशांति की निगरानी और उसे नियंत्रित करने की उसकी क्षमता पर असर पड़ता है। मौजूदा पुलिस सिस्टम के लक्षण ब्रिटिश राज की औपनिवेशिक विरासत और 1861 के पुलिस क़ानून पर आधारित हैं। हालांकि आज़ादी के बाद बहुत से राज्यों ने अपने पुलिस क़ानून बनाए हैं और राज्य के पुलिस बल में बदलाव किए हैं लेकिन पुलिस के ढांचे में सार्वजनिक जवाबदेही आज भी नहीं बदल सकी है। जाट आंदोलन के बाद आई जांच रिपोर्ट कहती है “विशेष मौके पर हमारे प्रतिष्ठानों और नेतृत्व ढांचे को ऊपर उठने की ज़रूरत है, फिर मामला चाहे जितना गंभीर हो उससे निपटना पड़ेगा। जिस तरह की समस्या हम सभी ने देखा वो इसलिए पैदा हुई क्योंकि संस्था को तोड़ा मरोड़ा गया, प्रक्रिया को भ्रष्ट बनाया गया और ख़ासतौर से पुलिस संगठन का इस हद तक राजनीतिकरण किया गया कि वे इस तरह से हालात से निपटने के लिए लगभग नकारा हो चुके हैं।” देश का आंतरिक सुरक्षा का ढांचा पुलिस बल पर आधारित है। [9] इसका प्रबंधन सत्ता में बैठे राजनैतिक लोगों के हाथ में है जो काफी हद तक इसकी सही कार्यकुशलता में आई अक्षमता का स्पष्टिकरण भी है।

ज़्यादातर राज्यों के पास अपने पुलिस कॉलेज और एकेडमी हैं जहां भर्ती किए गए कांस्टेबलों और पुलिस इंस्पेक्टरों को प्रशिक्षण दिया जाता है। कुछ प्रशिक्षण में शारीरिक प्रशिक्षण, हथियारों का प्रशिक्षण, क़ानून व्यवस्था को बनाए रखने के प्रशिक्षण के साथ दंगा और भीड़ नियंत्रण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। हालांकि ये बुनियादी प्रशिक्षण का हिस्सा हैं जिन्हें बाकी विषयों के साथ पढ़ाया जाता है। ये कुछ महीने से लेकर एक साल तक तक लंबे हो सकते हैं। अफ़सरों के लिए गृह मंत्रालय का ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (बीपीआरएंडडी) भी कुछ विशेष कोर्स चलाता है। फिर भी भारत भर में फैले इन ट्रेनिंग स्कूलों के बावजूद पुलिस के बजट का सिर्फ एक प्रतिशत ही इन पर खर्च किया जाता है। [10]

केंद्र और राज्य दोनों के स्तर पर ये जरूरी है कि पुलिस प्रशिक्षण में भीड़ नियंत्रण पर खासा ध्यान दिया जाए। इसमें अलग-अलग तरह के प्रदर्शन, ऐसे प्रदर्शनों से निपटने में पिछले तज़ुर्बे से मिले सबक के साथ अशांति के नजरिए से संवेदनशील अलग-अलग इलाकों से मिली ज़मीनी स्तर की नई जानकारियों का समावेश होना चाहिए। इसमें फ़ील्ड और क्लासरूम से बाहर के प्रशिक्षण को भी शामिल किया जाना चाहिए जिसमें पुलिस और सुरक्षा बल भीड़ नियंत्रण के तरकीब पर आधारित सिद्धांत और क्लासरूम में मिले ज्ञान को आजमा सकें। ये भीड़ के मिजाज़, उसके आकार और उसकी आक्रमकता पर आधारित हों। जैसा कि एक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी पी.पी.एस सिद्धू ने कहा “भीड़ नियंत्रण की व्यूह रचना पैदल सेना की मानक व्यूर रचना पर आधारित होती है। अगर जवानों को इस व्यूह रचना का अच्छा प्रशिक्षण हो तो कुशलता वाले दंगा और भीड़ नियंत्रण के लिए छोटे-मोटे बदलाव को अपनाने में कोई मुश्किल नहीं पेश आनी चाहिए”। [11]

इस रिपोर्ट में सिद्धू ने दंगा नियंत्रण के लिए चार बुनियादी व्यूह रचना (जिसे दंगे के दौरान एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए पुलिस इस्तेमाल करती है) का ज़िक्र किया; इसमें लाइन फॉर्मेशन यानी पंक्तिबद्ध व्यूह रचना (जिसका इस्तेमाल आंसू गैस के इस्तेमाल की ज़रूरत पड़ने पर भीड़ के आगे बढ़ने से रोकने के लिए होता है), वेज फॉर्मेशन यानी लंगर व्यूह रचना (जो भीड़ के तितर-बितर होते वक़्त इलाके को खाली कराने में इस्तेमाल होती है); और डॉयगनल फॉर्मेशन यानी तिरक्षी व्यूह रचना (भीड़ को ख़ास दिशा में खदेड़ने वाली व्यूह रचना) है। [12] इन व्यूह रचनाओं का मैदान में अनिवार्य अभ्यास होना चाहिए ताकि सुरक्षा बल असली हालात में इन्हें इस्तेमाल करने में सधे हुए हों और सहज हों। हालांकि तरकीबों पर आधारित ऐसे सिद्धांत क्लासरूम में बताए जा सकते हैं लेकिन इनका नियमित अभ्यास पुलिस बल को ज़्यादा बेहतर बनाएगा। इससे दंगे पर उतारू भीड़ के सामने पुलिस बल का आत्मविश्वास बढ़ा रहेगा। इन तरीकों को अलग-अलग ऐसे औजारों पर आजमाया जाना चाहिए जो प्राणघातक नहीं होते और जिन्हें भीड़ नियंत्रण के लिए पुलिस बल को दिया जाता है। देश भर के पुलिस बल के लिए लाठी सबसे पसंदीदा आम हथियार है, पुलिस बल को बेहतरीन प्रशिक्षण दिया जाए तो इसका इस्तेमाल ज़्यादा असरदार हो सकता है। जब लाठी चार्ज का आदेश दिया जाता है तो पुलिस इसका अंधाधुंध इस्तेमाल करने लगती है, प्रदर्शनकारियों पर ये ज़रूरत से ज़्यादा बरसने लगती है जिससे ज्यादा लोग जख़्मी हो जाते हैं। पुलिस को ये समझना होगा कि उनसे लाठी चार्ज के लिए कहा जाता है तो साथियों के साथ सही व्यूह रचना में लाठी से हमले के बाद व्यूह में वापस आ जाना ज्यादा असरदार होगा। इससे लोग कम जख़्मी होंगे और ये एक सुरक्षा बल के तौर पर उन्हें ज्यादा मजबूत बनाएगी और एक इकाई के तौर पर सुरक्षा बल का बचाव भी करेगी।

देश में जवानों की कमी के नज़रिए से भी पुलिस और सुरक्षा बलों का प्रशिक्षण ज़रूरी है। बीपीआरएंडडी की 2016 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक देश में नागरिक और सशस्त्र बल को मिला कर पुलिस बलों में 549,025 रिक्तियां हैं। देश में केंद्रीय पुलिस बलों की संख्या 971,262 है, जिसमें सीआरपीएफ के पास सबसे ज्यादा 294,496 लोग हैं। पुलिस फोर्स में बड़ी तादाद में रिक्तियां हैं तो इसकी वजह भर्ती में संस्थागत समस्या है। [13] जब एक वरिष्ठ पुलिस अफ़सर सेवानिवृत हो जाता है तब राज्य का पुलिस प्रशासन भर्ती की प्रक्रिया शुरू करता है। वहीं, भर्ती और बाद में होने वाले प्रशिक्षण में वक़्त लगता है, तब तक पुलिस बल में जगह खाली रहती है। कर्मचारियों की लगातार कमी का दूसरा कारण वित्त और बजट की कमी है और ये तथ्य है कि बहुत से ट्रेनिंग संस्थान भी भरे हुए हैं।लोगों की भर्ती के बावजूद, राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय ट्रेनिंग संस्था में वहां संसाधनों की कमी के कारण उनकी ज़रूरी ट्रेनिंग नहीं हो पाती। इसीलिए नागरिक आशांति की स्थिति में प्रदर्शनकारियों की तुलना में पुलिस बल की तैनाती कम रह जाती है। अक्सर इस वजह से हालात काबू से बाहर हो जाते हैं, और संख्या के मामले में कम रह जाने के कारण सुरक्षा बलों को अक्सर ताक़त के इस्तेमाल पर मजबूर होना पड़ जाता है।

विशेष बल और उचित टास्क फोर्स की तैनाती भी बराबर की अहमियत रखती है। सीआरपीएफ देश में सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला सशस्त्र बल है। हालांकि केंद्रीय पुलिस बल जैसे बीएसएफ,आइटीबीपी और आरएएफ का कार्यक्षेत्र और भमिका तय है लेकिन अक्सर उनका इस्तेमाल नागरिक प्रदर्शन के वक्त सीआरपीएफ की मददगार के तौर पर हो जाता है। सीआरपीएफ इकलौता अर्धसैनिक बल है जिसके पास अपने औजारों में दंगा नियंत्रक उपकरण भी है, इस वजह से जहां भी हिंसा भड़कती है सीआरपीएफ को अक्सर बुला लिया जाता है। फिलहाल सीआरपीएफ को वीवीआईपी सुरक्षा के लिए, आतंक विरोधी ऑपरेशन के लिए, चुनाव के वक्त सुरक्षा के लिए और दंगा नियंत्रण के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। कई किरदार एक साथ निभाने के साथ सीआरपीएफ को जल्दी-जल्दी अपनी बटालियन को एक जगह से दूसरी जगह भेजने की समस्या से भी जूझना पड़ता है। एक हफ़्ते में जहां कोई बटालियन उग्रवाद प्रभावित इलाके में माओवादियों से लड़ रही होती है वहीं अगले हफ़्ते उन्हें बड़े आराम से देश के दूसरे कोने में नागरिक हिंसा से निपटने के लिए लगाया जा सकता है। इस चलन को रोका जाना चाहिए। उनके संगठन का ढांचा, चरित्र और प्रशिक्षण का तरीका ऐसा नहीं है कि इतनी तरह की अलग-अलग ज़िम्मेदारियों को सह सकें। इसीलिए सरकार के लिए ज़रूरी है कि वो ख़ास जगहों पर ख़ास तरह के काम के लिए ख़ास टास्क फोर्स तैयार करे । ठीक उसी तरह जैसे कि हर तरह की नागरिक आशांति के लिए किसी चीज को हद से ज्यादा मोड़ने की रणनीति नहीं चल सकती ठीक उसी तरह से एक अकेली टास्क फोर्स भी नहीं हो सकती। इस मामले में जैसे सीआरपीएफ, जिसे हर तरह की क़ानून और व्यवस्था से जुड़ी चीज के लिए बुला लिया जाता है।

सीआरपीएफ इकलौता अर्धसैनिक बल है जिसके पास अपने औजारों में दंगा नियंत्रक उपकरण भी है, इस वजह से जहां भी हिंसा भड़कती है सीआरपीएफ को अक्सर बुला लिया जाता है।

सुरक्षा अधिकारियों द्वारा ताक़त का इस्तेमाल

कई बार ऐसे मौके आते हैं जब सुरक्षा बलों को नागरिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए ताक़त का इस्तेमाल करना पड़ता है। भारतीय संविधान में दंड विधान संहिता के सेक्शन 129 है जो किसी भी कार्यकारी मैजिस्ट्रेट और पुलिस थानों के इंचार्ज को गैरक़ानूनी जमावड़े को हटवाने का अधिकार है।

कश्मीर में प्रदर्शनकारी भीड़ में मुख्य तौर पर उत्तेजित नागरिक हैं जो सुरक्षा अधिकारियों के खिलाफ़ पत्थर को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। इसके जवाब में पुलिस और सुरक्षा कर्मियों द्वारा प्राण घात न करने वाली पैलेट गन का इस्तेमाल गैर-ज़रूरी ताक़त के इस्तेमाल का नमूना है। हर पैलेट में लेड का इस्तेमाल होता है। हर पैलेट लेड से भरी होती है जो दागे जाने के बाद छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट कर फट जाती है। ये चारो तरफ छितरा जाती हैं ,जिससे किनारे पर खड़े लोगों को ही लगने का खतरा नहीं होता बल्कि इसके इंसानी जिस्म को भी एक से ज्यादा जगह पर भेद देने का खतरा भी होता है। [14] रिसर्च दिखाती है कि रफ्तार के साथ चोट करन वाले दूसरे तरीके मसलन, रबर बुलेट या बीन बैग की शरीर को भेदने की किसी गोली के बराबर ही क्षमता है और ये उसकी तरह ही प्राणघातक भी हो सकते हैं। [15] बहुत से अनुमान बताते हैं कि सिर्फ 2016 में ही पैलेट गन से 90 नागरिक मारे गए जबकि 8000 से ज्यादा लोगों को जख़्म और स्थाई दृष्टिहीनता हो जाने पर अस्पतालों में भर्ती कराया गया। पैलेट गन एक घातक हथियार है और इसके प्राणघातक न होने की बात सिर्फ धोखा है।

घाटी में पैलेट गन का इस्तेमाल किसी भी तरह से नई घटना नहीं है। 2010 में पहली बार इनका इस्तेमाल दूसरे हथियारों के मुक़ाबले ‘कम-घातक’ हथियार के तौर पर शुरू हुआ था। उस साल उन्होंने 1500 लोगों को जख्मी किया और उनकी वजह से 90 दूसरे लोगों की आंखें चलीं गईं। [16] मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक 2010 के बाद से डॉक्टरों के पास लगभग हर दिन पैलेट गन से जख्मी हुए मरीज आए। 2010 की हिंसा के बाद बीपीआरएंडडी ने फरवरी 2011 में जारी की गई ‘द् स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिज़र्स टू डील विद् पब्लिक एजीटेशन विद् नॉन लीथल मेजर्स” यानी “ जन आंदोलन से गैर-प्राण घातक तरीकों से निपटने की मानक प्रक्रिया” नाम की अपनी रिपोर्ट में पैलेट गन की चर्चा तक नहीं की। [17] ये रिपोर्ट पुलिस द्वारा इस्तेमाल किए जा सकने वाले हथियार के तौर पर इसको सूचिबद्ध करने में भी नाकाम रही। [18] इसलिए ये उलझाने वाली बात है कि जम्मू-कश्मीर पुलिस और सीआरपीएफ जवान फिर क्यों इसका इतना ज्यादा और अंधाधुंध इस्तेमाल कर रहे थे।

बीपीआरएंडडी ने भीड़ नियंत्रण के हथियार के तौर पर जिनकी सिफ़ारिश की उनमें पानी की बौछार करने वाली तोप, आंसूगैस के गोले, स्टिंगर और डाइ-मार्कर ग्रेनेड, टेसर्स और लेज़र्स, नेट गन, और स्टिंग बम शामिल हैं। [19] इन सभी को “प्राण-घात न करने वाले” हथियार के तौर पर भीड़ नियंत्रण में असरदार बताया गया। दिलचस्प ये भी है कि इस सूचि में ‘भीड़ को तितर-बितर करने वाली प्लास्टिक की गोलियों’ का भी जिक्र है। प्लास्टिक गोलियों के इस्तेमाल पर बीपीआरएंडडी की मानक प्रक्रिया रिपोर्ट कहते है कि प्लास्टिक गोलियों का “अभी तक मैदानी परीक्षण नहीं हुआ है। केरल में इसकी .303 किस्म का परीक्षण हुआ था जिसे भीड़ को तितर-बितर करने के क़ाबिल नहीं पाया गया। असली इस्तेमाल के दौरान भारी दबाव के बीच पुलिस वालों से ये उम्मीद करना कि वो रेंज का सही अंदाजा लगा लेंगे-ये अवास्तविक होगा। इसे कम दूरी पर इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।” [20] जहां इज़रायल जैसे कुछ देशों में प्लास्टिक की गोलियां सवालों के घेरे में हैं वहीं भारत न सिर्फ इनका मैदानी परीक्षण करने में नाकाम रहा बल्कि वो इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल भी कर रहा है।

साल 2013 में जम्मू कश्मीर राज्य मानवाधिकार आयोग ने कहा, “ सरकारी बलों द्वारा पैलेट गन का इस्तेमाल जान के लिए गंभीर ख़तरा है”. इसने घोषणा की कि पैलेट गन से गंभीर रूप से जख़्मी होने वाले दस लोगों की याचिका पर प्रथम दृष्टया मानवाधिकार उल्लंघन का मामला बनता है। कमीशन ने क़ानून लागू करने वाले एजेंसियों को ये भी याद दिलाया कि उनके लिए कम से कम ताक़त के इस्तेमाल की मानक प्रक्रिया का पालन करना ज़रूरी है। [21] 2016 में जब भयंकर नतीजे देने तक पैलेट गन का दोबारा इस्तेमाल तब मदद के लिए इसके जैसी ही याचिका की चर्चा हुई। गृह मंत्रालय ने एक बार फिर एक्सपर्ट कमेटी बना दी जिसे “पैलेट गन की जगह प्राण-घात न करने वाले दूसरे संभव विकल्प” की खोज करनी थी। सिंतबर 2016 में घाटी की आधिकारिक यात्रा से पहले केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने घाटी में भीड़ के नियंत्रण के लिए मिर्च पर आधारित ‘पावा’ बम की इजाज़त दे दी जिसे इज्ज़त बचाने की कोशिश के तौर पर देखा गया। [22] संभव है कि ‘पावा’ बम प्राण-घात न करने वाला हथियार हो लेकिन कश्मीर में इसके असरदार रहने पर सवाल हो सकते हैं। ये बम जिनमें मिर्च पर आधारित बारूद भरे जाते हैं उन्हें चार से पांच मीटर की दूरी से दाग़ना होता है। ये बहुत कम दूरी है खासकर तब जब कश्मीर में दंगाई और प्रदर्शनकारी सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ हिंसा करने से बाज नहीं आते। इसलिए उन्हें प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ असरदार अंकुश की तरह इस्तेमाल करने की संभावना कम है। इसकी भी गुंजाइश कम ही है कि ‘पावा’ बम को दाग़ने से पहले सुरक्षा बल हिंसक प्रदर्शनकारियों को अपने इतने क़रीब आने देना चाहेंगे। हालांकि राजनैतिक तौर पर इज्ज़त बचाने वाला सरकार चाहे जो कदम उठाए, पैलेट गन का इस्तेमाल बंद नहीं हुआ है और फरवरी 2011 में जारी हुई मानक प्रक्रिया को बड़े पैमाने पर नज़रअंदाज ही रही है।

कश्मीर में राज्य और केंद्र सरकार दोनों के द्वारा पैलेट गन का इस्तेमाल लापरवाही भरा और द्वेषपूर्ण है। किसी भी हालात के खास परिस्थितियों से इतर, भारत में भीड़ नियंत्रण के तरीकों को भीड़ नियंत्रण की अंतर्राष्ट्रीय कसौटी के मानकों का पालन करना होगा। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने ‘बेसिक प्रिसिंपल ऑन यूज़ ऑफ़ फ़ोर्स एंड फ़ायरआर्म्स बाई लॉ एनफ़ोर्सेंट ऑफ़िशियल्स’ यानी “क़ानून लागू करने वाले अधिकारियों द्वारा ताक़त और अग्नेयास्त्र के बुनियादी सिद्धांत” को सूचिबद्ध किया है. इसकी शुरुआत इस कथन के साथ होती है कि सरकारों और क़ानून लागू करने वाली संस्थाओं को प्राण घात न करने वाले हथियारों और गोला-बारूद का विकास करना होगा। इनका सावधानी पूर्वक आकलन करना होगा ताकि ये लोगों की जान के ख़तरे को बहुत कम किया जा सके। आयोग के मानक ये भी सलाह देते हैं कि अगर ताक़त का इस्तेमाल किया जाना जरूरी हो जाता है तो उससे पहले उन्हें जहां तक संभव हो वहां तक “ ताक़त और अग्नेयास्त्र के इस्तेमाल से पहले अहिंसक तरीकों का इस्तेमाल कर लेना चाहिए”। सबसे अहम बात ये है कि बुनियादी सिद्धांत ये कहता है कि “ जब भी क़ानूनी तौर पर ताक़त और अग्नेयास्त्र का इस्तेमाल टाला न जा सके, क़ानून लागू कराने वाले अफ़सरों को उनके इस्तेमाल में संयम बरतना चाहिए और उन्हें उकसावे की तीव्रता के अनुपात में उतना ही इस्तेमाल करना चाहिए जितने में कि क़ानूनी मक़सद हासिल हो जाए।” [23]

इसीलिए भीड़ नियंत्रण का भारतीय तरीका न सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय मानक का पालन करने में नाकाम रहता है बल्कि अपने हिसाब से इनका अंधाधुंध और गैर-अनुपातिक इस्तेमाल होता है। प्रदर्शनकारी नागरिकों पर पैलेट गन का अंधाधुंध घातक इस्तेमाल पत्थर फेंक रहे लोगों पर बहुत ज्यादा गैर-अनुपातिक है। भीड़ नियंत्रण में कुछ उपकरणों और प्राण घात न करने वाले हथियारों के इस्तेमाल में तीन बुनियादी सिद्धांतों का पालन करना जरूरी है: ज़रूरत से ज़्यादा ताक़त का इस्तेमाल न करना; ताक़त का इस्तेमाल सजा देने के इरादे से न हो; भीड़ के तितर-बितर होते ही इनका इस्तेमाल फौरन रुक जाए। सरकार को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि भीड़ नियंत्रण करने वाले हथियार प्राण घात न करने वाले हों, और उन्हें इस तरह से इस्तेमाल किया जाए कि वो इंसानी जान के लिए और विरोध के अधिकार के लिए ख़तरा न बनें बल्कि वो इंसानी जान के रक्षक और संपत्ति के नुक़सान को बचाने वाले साबित हों।

सरकार को भीड़ नियंत्रण के लिए पैलेट गन के इस्तेमाल पर गंभीरता पूर्वक पुनर्विचार करना चाहिए। उसे भीड़ नियंत्रण के लिए प्राण घात न करने वाले हथियार के इस्तेमाल के संदर्भ में मानक प्रक्रिया को अपनाना चाहिए और हिंसक और शांति पूर्ण विरोध प्रदर्शन और किनारे पर खड़े लोगों के बीच अंतर को भी पहचानना चाहिए। लेड पर आधारित पैलेट गन के एक ही वार में एक से ज़्यादा लोगों के जद में आने और उनके जख़्मी हो जाने की आशंका होती है। सुरक्षा बलों को ताक़त का इस्तेमाल तभी करना चाहिए जब जान-माल का फ़ौरी ख़तरा नज़र आ रहा हो और भीड़ नियंत्रण के बाकी सभी विकल्प आजमाए जा चुके हों। कश्मीर जैसे सूबे में जहां सुरक्षा अधिकारियों पर पत्थर फेंकना आम और पहले से ही अनुमान लगाई जा सकने वाली बात हो गई हो वहां पर सरकार को सुरक्षा अधिकारियों को उचित रक्षा कवच मुहैया कराना चाहिए। प्रदर्शनकारियों से निपट रहे लोगों को हेल्मेट, मास्क, शरीर पर लगाया जाने वाले कवच और ढाल दिया जाना चाहिए ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि सुरक्षा अधिकारी उस हद तक न जख़्मी हो जाएं कि वो खुद भी हिंसक हो उठें।

अब आगे क्या?

बिना हथियार के शांतिपूर्ण तरीके से जमा होना और विरोध का अधिकार भारत के लोकतंत्र का बुनियादी चरित्र है। जहां नागरिकों को हिंसक प्रदर्शन से बचाना सरकार का कर्तव्य है वहीं कुछ ज़रूरी सिद्धांतों को दिमाग़ में रखना भी ज़रूरी है। कश्मीर में पैलेट गन का जैसा इस्तेमाल हुआ उसे देश के किसी भी हिस्से में दोहराया नहीं जाना चाहिए। गृह मंत्रालय को धोखे में डालने वाले ऐसे हथियारों पर पाबंदी लगा देनी चाहिए जो दावे से कहीं ज्यादा घातक हों। ये भी हैरतअंगेज़ है कि कश्मीर में लंबे वक़्त से सुरक्षा के नाजुक हालात के बावजूद, किसी भी सरकार ने सिर्फ यहां के नज़रिए से बनी कोई टास्क फोर्स या विशेष बल का गठन नहीं किया। ऐसा बल जो पूरी तरह से सिर्फ कश्मीर के लिए हो, जो यहां के लोगों को जानता हो, उनकी शिकायतों और प्रदर्शन की उनकी भविष्य की योजनाओं को जानता हो। इसकी जगह पर आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पॉवर एक्ट जैसे कानून यहां सर्वोपरि हैं, जो नागरिकों को भारत देश से और अलग-थलग कर रहे हैं। सरकार को गंभीरतापूर्वक आरएएफ जैसे एक बल के गठन पर विचार करना चाहिए जिसे खासतौर से कश्मीर घाटी के लिए ही तैयार किया गया हो। ये संख्या में ज़रूरत के मुताबिक बड़ा हो और यहां होने वाले हिंसक प्रदर्शन से निपटने के मामले में अच्छी तरह से प्रशिक्षित हो। जहां कश्मीर में सैनिकों की संख्या घटाने के हक में दलीलें दी जातीं हों वहां आरएएफ जैसा विशेष बल राज्य में मौजूद बाकी बलों की जगह ले सकेगा। घाटी में ही स्थापित होने की वजह से इस बल का उद्धेश्य खुद के और नागरिकों के बीच भरोसा जगाने और विश्वास पैदा करने में और ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने में होना चाहिए। कश्मीर आधारित स्पेशल टास्क फ़ोर्स नागरिकों की ज़मीनी स्तर की समस्याओं को सुलझाने और सेना और राज्य के ख़िलाफ़ शिकायतों को दूर करने में बड़ा योगदान दे सकती है। पिछले साल हरियाणा और कश्मीर में हुए प्रदर्शनों ने साफ़ साफ़ दिखाया है कि भारत को गैर ज़रूरी ताक़त का इस्तेमाल करने वाले और मौत और गंभीर जख़्म का कारण बनने वाले सुरक्षा बल के लोगों की जवाबदेही तय करनी होगी। सरकार को इस पर जोर देना होगा कि बलों की तैनाती गंभीर आपात स्थिति में ही हो सकती है। उन आपातस्थियों की साफ परिभाषा और उनके लिए ज़रूरी किस स्तर के बल की ज़रूरत होगी ये भी साफ होना चाहिए। राज्य के लिए ख़ासकर कश्मीर के लिए ये बेहतर होगा कि पुलिस को बेहतर प्रशिक्षण दिए जाएं और भीड़ के नियंत्रण के लिए बचाव के औज़ार दिए जाएं।ये भारतीय प्रशासन का कार्यक्षेत्र है कि वो पुलिस और सुरक्षा बलों को भीड़ से असरदार ढंग से निपटने के क़ाबिल बनाए, उन्हें प्राण घात न करने वाले उपकरण दे और ज़रूरी सुरक्षा कवच उपलब्ध कराए। सबसे ज़्यादा ज़रूरी ये है कि देश को केंद्र और राज्य के स्तर पर पुलिस सुधार के बारे में गंभीरता पूर्वक विचार करना शुरू कर देना चाहिए। सरकार और सत्ता में मौजूद राजनैतिक दल का ख़्याल किए बिना राज्य और केद्रीय पुलिस बलों को नागरिकों की सुरक्षा और उनका बचाव करना याद रखना होगा। पुलिस बल के राजनीतिकरण के कारण पैदा होने वाली समस्या को सुलझाने की दिशा में काम करके नागरिकों को ये भरोसा दिया जा सकता है कि जब भी कोई नागरिक विरोध हिंसक हो जाएगा, पुलिस बल न्याय सम्मत, क़ानून सम्मत और संवैधानिक तरीक से सार्वजनिक शांति को बनाने में कामयाब रहेंगे।


संदर्भ

[1] Commonwealth Human Rights Initiative, “Police Organisation in India”, New Delhi: 2008, accessed on 5 January 2017, 39

[2] The CAPFs comprise of the: Assam Rifles, Border Security Force (BSF), Central Industrial Security Force (CISF), Indo-Tibetan Border Police (ITBP), National Security Guard (NSG), Central Reserve Police Force (CRPF) and the Sashastra Seema Bal (SSB). CHRI, “Police Organisation in India”, 17, 41 and the Ministry of Home Affairs website

[3] P.P.S Sidhu, “Précis on Crowd Control”, Bureau of Police Research & Development, Ministry of Home Affairs (New Delhi: Government of India),2016 77

[4] The ‘intention, information, method, logistics and communication’ elements help answer fundamental questions for security personnel before they engage in an operation. This idea was discussed by Dr. Trinath Mishra, a former Indian Police Service officer with over 37 years of experience when he visited the Observer Research Foundation on 15 December 2016. These five elements are also referred to in P.P.S Sidhu’s work on crowd control.

[5] Sidhu, “Precis on Crowd Control”, 87

[6] Vipin Pubby, “Jat agitation: As police fail, Army holds up signs to show it means business”, Scroll.in, February 23 2016, accessed on February 20 2017

[7] Prakash Singh Committee Report, “Role of Officers of Civil Administration and Police During the Jat Reservation Agitation (Feb.7-22, 2016) Volume 1, accessed on January 5 2017, 179

[8] Prakash Singh Committee Report, . 176.

[9] Bureau of Police Research & Development, Ministry of Home Affairs “Standard Operating Procedures to Public Agitations with Non-lethal Measures”, (New Delhi: Government of India) February 2011, 182

[10] “Data on Police Organisations: As of January 1, 2016”, Bureau of Police Research & Development, accessed on February 3 2016, 77

[11] Sidhu, 45

[12] Sidhu,. 46-51

[13] “Data on Police Organisations: As of January 1, 2016”, Bureau of Police Research & Development, 29

[14] Physicians for Human Rights, “Blind to Justice: Excessive Use of Force and Attacks on Health Care in Jammu and Kashmir, India”, December 2016, accessed on January 16 2017

[15] Physicians for Human Rights and International Network of Civil Liberties Organisations, “Lethal in Disguise: The Health Consequences of Crowd-Control Weapons”, accessed on January 10 2017, 7

[16] Ravi Nair, “Pellet Guns in Kashmir: The Lethal Use of Non-Lethal Weapons”, The Wire, January 21 2016, accessed on January 11 2017

[17] Adil Akhzer, “What are pellet guns and why are they so lethal?”, The Indian Express, July 22 2016, accessed on January 11 2017

[18] Standard Operating Procedures to Public Agitations with Non-lethal Measures, 25-33

[19] Standard Operating Procedures to Public Agitations with Non-lethal Measures, 22

[20] Standard Operating Procedures to Public Agitations with Non-lethal Measures, 27

[21] Nair, “Pellet Guns in Kashmir: The Lethal Use of Non-Lethal Weapons”

[22] “Kashmir unrest: From pellet guns to chilli shells, the full story”, The Indian Express, accessed January 7 2017

[23] United Nations, “Basic Principles on the Use of Force and Firearms by Law Enforcement Officials”, accessed on January 15 2017,

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