Author : Ritu Sharma

Published on Aug 14, 2017 Updated 0 Hours ago

क्या 'नैतिक आतंक (मॉरल पैनिक)' भारत की अनेकता में एकता को बरबाद कर रहा है? भविष्य के लिए इसके क्या मायने हैं?

क्या भारत में ‘अनेकता में एकता’ खतरे में है

जामा मस्जिद, दिल्ली

तस्वीर: सौरव दास/फ़्लिकर

भारत को गुलामी की बेड़ियों से आजाद हुए सात दशक हो चुके हैं। यह देश अपने क्षेत्रीय और वैचारिक दृष्टिकोणों को बरकरार रखते हुए फलता-फूलता रहा है। विभिन्न समुदायों का यहां लम्बे अर्से से शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व रहा है। हालांकि ऐसा लगता है कि यहां मुसलमानों की मौजूदगी को लेकर बहुसंख्यक समुदाय के बीच चिंता और असंगत सरोकार गढ़े गए हैं और वे भारत की अवधारणा के लिए खतरा हैं।

वर्तमान दौर में बहुसंख्यक समुदाय द्वारा प्रदर्शित बेहद प्रबल ‘मॉरल पैनिक’ का संबंध सीधे तौर पर किसी तरह के वास्तविक नुकसान के प्रमाण से नहीं है। मॉरल पैनिक ब्रिटिश समाजशास्त्री स्टेनले कोहेन द्वारा 1972 में अपनी पुस्तक ‘फोक डेविल्स एंड मॉरल पैनिक्स’ में घोषित एक अवधारणा थी। उन्होंने मॉरल पैनिक को परिभाषित करते हुए कहा: “..ऐसी परिस्थिति, घटना जब कोई व्यक्ति, या व्यक्तियों का समूह सामाजिक मूल्यों और हितों के लिए खतरे के रूप में परिभाषित होने के लिए उभरता है : मास मीडिया द्वारा उसकी प्रकृति को अस्वाभाविक और घिसे-पिटे अंदाज में प्रस्तुत किया जाता है, नैतिक बाधाएं सम्पादकों, बिशपों, राजनीतिज्ञों और अन्य दक्षिणपंथी व्यक्तियों द्वारा नियंत्रित की जाती हैं, सामाजिक तौर पर मान्यताप्राप्त विशेषज्ञ उन्हें जाहिर करते हैं और उनका समाधान करते हैं, मुकाबला करने के तरीके ईजाद किए जाते हैं या (अक्सर) उनका सहारा लिया जाता है, उसके बाद परिस्थिति गायब हो जाती है, पूरी तरह छिप जाती है या बिगड़ कर और ज्यादा प्रकट हो जाती है।”

भारत के लगभग 17.2 करोड़ मुसलमानों (भारत की आबादी का 14.2 प्रतिशत) के क्षेत्रीय और प्रादेशिक फासले मिटा दिए गए हैं, और उन्हें एक विशाल समुदाय के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा है साथ ही मुस्लिम समुदाय के व्यक्तियों को गोमांस खाने , पड़ोसी देश के प्रति निष्ठा रखने या ‘पिछड़ा होने’ के कारण छिट-पुट रूप से निशाना बनाया जाने लगा है।

प्यू रिसर्च सेंटर का यह अनुमान भी बहुसंख्य समुदाय की चिंता का कारण है कि 2050 तक भारत विश्व की सबसे अधिक मुस्लिम आबादी (इंडोनेशिया को पछाड़ते हुए) का घर होगा।

कोहेन का कार्य देश के वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक समझने में सहायता कर सकता है। बहुसंख्यक हिंदुओं की प्रतिक्रिया मॉरल पैनिक कहलाने के उपयुक्त है, क्योंकि वह निम्नलिखित शर्तों को पूरा करती है। कोहेन का कहना है कि आबादी को, सबसे पहले संभावित या काल्पनिक खतरे के लिए “डर के बजाए चिंता होनी चाहिए।” एनडीए सरकार ने 2015 में धार्मिक जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक किए थे, जिससे पता चला कि 2001 से 2011 तक 18 प्रतिशत वृद्धि के राष्ट्रीय औसत के विपरीत मुस्लिम आबादी ने यहां 24 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की है। इसे मीडिया में व्यापक रूप से रिपोर्ट किया गया और दक्षिणपंथी नेताओं द्वारा बहुसंख्यक समुदाय के भीतर चिंता उत्पन्न करने के लिए इसका लगातार इस्तेमाल किया जाता रहा। हालांकि वास्तविकता यह है कि भारत की मुस्लिम आबादी पिछले दशकों के मुकाबले ज्यादा धीमी गति से बढ़ रही है और उसकी वृद्धि दर हिंदु आबादी की वृद्धि दर से भी ज्यादा तेजी से धीमी हुई है, जिसे सुविधापूर्वक नजरंदाज कर दिया गया है।

दूसरा, समस्या समझे जाने वाले लोगों/समुदाय के प्रति नैतिक नाराजगी होनी चाहिए। घिसे-पिटे ढर्रों के जरिए शत्रुता बढ़ती रहनी चाहिए और ‘हम’ बनाम ‘वे’ के बीच फासला होना चाहिए; और “फोक डेविल्स” (आसुरी छवि वाले) तैयार किए जाने चाहिए। मुस्लिम होना तेजी से, स्त्री जाति से नफरत और हिंसा का उपलक्षण बन गया और मुस्लिम होने को भारतीय होने के उल्लंघन के तौर पर देखा जाने लगा है।

घिसा-पिटा ढर्रा

इस घिसे-पिटे ढर्रे को जड़ें जमाने में समय लगा। पिछले कुछ वर्षों से ये पूर्वाग्रह कि — मुसलमानों के अनेक बच्चे होते हैं और जल्द ही उनकी तादाद हिंदुओं से ज्यादा होने वाली है बेहिचक सबाके स्वीकार है। मुस्लिम पुरुषों को बहुविवाह करने वाला, तीन बार तलाक कहकर अपनी पत्नी को तलाक दे देने वाला करार देते हुए बदनाम किया जा रहा है। ऐसी धारणा बनाई गई है कि बुर्का पहनने वाली सभी महिलाओं को मुक्ति दिलाने की आवश्यकता है। एकाएक, शिक्षा का अभाव, भारतीय उपमहाद्वीप की पितृसत्तात्मक व्यवस्था जैसे कारकों को सामाजिक बुराइयों की जड़ मानना बंद कर दिया गया है। पड़ोस में रहने वाले उच्च शिक्षा प्राप्त मुस्लिम महिलाओं और पुरुषों को महज असामान्य लोगों की तरह दूर कर दिया गया है।

पौराणिक कथाओं और इतिहास को मिलाने वाले धारावाहिकों की नई पौध ने इस प्रवृत्ति को जन्म देने में योगदान दिया है। इसलिए, अकबर को ऐसे शासक के रूप में दिखाया जाएगा, जो बेवजह खूनखराबा करने की इच्छा रखता है, जो महिलाओं की इज्जत नहीं करता और जिसकी अनेक बीवियां हैं। लेकिन इससे ठीक उलट, महाराणा प्रताप को अपनी पत्नी के प्रति समर्पित ऐसे शख्स के रूप में दिखाया जाएगा, जिसका दिल सोने जैसा है। मांसाहारी होने को भी मुस्लिम शासकों की बर्बरता के संभावित कारण के रूप में दिखाया गया है, जबकि इसके विपरीत दयालु हिंदु शासक मांसाहार से परहेज करते हैं। कोई अचरज की बात नहीं कि गोमांस यां मांस खाने वाले को तेजी से गैर कानूनी तौर पर मौत के घाट उतारने वाला असहिष्णु बन रहे भारत में अक्सर कलंक माना जाने लगे।

धर्म के सांस्कृतिक और क्षेत्रीय पहलू भी धुंधले पड़ गए हैं। राजस्थानी मुस्लिम, हिंदुओं की तरह राजस्थानी या हिंदी बोलने के विपरीत धाराप्रवाह उर्दू बोलता है।

पवित्र गाय भी एक अन्य नारा बन चुकी है। गैर कानूनी कारोबारों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने के नाम पर बूचड़खानों को निशाना बनाना, प्रमुख रूप से मांस उद्योग में शामिल समुदाय को निशाना बनाने का महज एक तरीका है। यदि निशाने पर गैर कानूनी कारोबार होते, ज्यादातर कारोबारों को कठोर कार्रवाई का सामना करना पड़ा होता।

तीसरा, समाज में इस बात पर आम सहमति होनी चाहिए कि समस्या, बन चुकी है और “कुछ किए जाने की जरूरत है।” पूरे समाज में सर्वसम्मति होने की जरूरत नहीं है।, इसकी बजाए इसे बहुसंख्य कुलीनों, मास मीडिया और हित समूहों का समर्थन होना चाहिए। सरकार की ओर से आ रहे संदेशों की त्वरित समीक्षा और समाचार चैनलों का पर्यवेक्षण इस्लाम के बारे में राजनीतिक सत्यता के आशय को दिखाएगा। जनता में इस बारे में आम सहमति दिखाई देती है कि मुसलमान इस्लाम के अनुयायी है, जो एक विदेशी धर्म है, इस तरह वे देश से ताल्लुक नहीं रखते।

चौथा, संभावित नुकसान और नैतिक आक्रामकता को आमतौर पर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है। प्रतिक्रिया की असंगतता का आकलन करना मुश्किल है, लेकिन गूडे और बेन-येहुदा असंगतता को समझने के लिए मानदंड प्रस्तुत करते हैं।

इसका आशय है कि “आतंक एकाएक उत्पन्न होता है और बिना किसी चेतावनी के फैल जाता है। इसलिए मुस्लिमों के खिलाफ शत्रुता के अचानक बढ़ने और लिचिंग (गैर कानूनी तौर पर मौत के घाट उतारने) के रूप में ‘मॉरल पैनिक’ के सामने से आने से पहले, लम्बे अर्से से अप्रकट रूप से मौजूद रही है।यह प्रतिक्रिया ज्यादा अर्से तक नहीं रहेगी, हालांकि कुछ प्रतिक्रियाएं संभवत: ‘संस्थागत’ रूप ले सकती है और अपने पीछे सांस्कृतिक या संस्थागत विरासत छोड़ सकती हैं।”

मॉरल पैनिक की शुरूआत के लिए परिस्थितियां

मॉरल पैनिक की शुरूआत के लिए तीन संभावित व्याख्याएं हो सकती हैं।

  • सबसे पहली, कोई उपयुक्त शत्रु होना चाहिए, जिसकी आसानी से निंदा की जा सके और जिसकी मीडिया जैसे ‘सांस्कृतिक राजनीति के युद्ध-क्षेत्र’ तक बहुत कम या बिल्कुल पहुंच न हो। सच्चर समिति की रिपोर्ट के अनुसार, मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व न केवल सरकार, बल्कि मीडिया संगठनों में भी बहुत कम है। इसका आशय है कि मुस्लिमों और इस्लाम के बारे में कवरेज में केवल समाज के एक खास वर्ग का नजरिया ही प्रकट किया जाएगा।
  • दूसरी आवश्यकता उपयुक्त पीड़ित की मौजूदगी है। अंतर-धार्मिक वैवाहिक संबंधों को “लव जिहाद” के नाम पर हिंदु लड़कियों को मुस्लिम पुरुषों द्वारा फुसलाए जाने के रूप में दिखाना, मुस्लिमों के खिलाफ हिंदु भावनाएं भड़काने के लिए काफी है। ‘मुस्लिमों’ द्वारा शोषित किए जाने को बार-बार दोहराने का सिलसिला भारत के बदलते डेमोग्रेफिक्स में लगातार बना हुआ है।
  • तीसरा कारक यह है कि इस्लाम को कट्टरपंथ और महिलाओं के प्रति द्वेष भाव से जोड़ने पर व्यापक सर्वसम्मति होनी चाहिए। यह सर्वसम्मति केवल समाज में ही नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतिष्ठान में भी व्याप्त है।

पहली बार, 1972 में जब से मॉरल पैनिक की अवधारणा को प्रमुखता मिली, तभी से इस पर कई बार दोबारा विचार किया जा चुका है। मैकरॉबी और थॉर्नटन (1995) ने मॉरल पैनिक के भड़कने के पीछे जनसंचार माध्यमों की भूमिका पर जोर दिया। वे कोहेन के इस आकलन से सहमत नहीं हैं कि उपयुक्त शत्रु की सांस्कृतिक राजनीति के युद्ध-क्षेत्र” तक पहुंच नहीं है। उनकी दलील है कि मल्टी-मीडिया व्यवस्थाओं वाले समाज में मीडिया के कन्टेंट को आकार देने में दर्शकों का प्रभाव कहीं ज्यादा है। इसलिए “फोक डेविल्स” को सामाजिक मूल्यों के लिए खतरे की तरह प्रस्तुत किया जाता है, वे विरोध करते हैं, लेकिन मॉरल पैनिक का उत्पन्न होना पत्रकारों, विशेषज्ञों और राजनीतिज्ञों जैसे कुलीनों द्वारा अपनाए गए रुख पर केंद्रित है। कुलीनों द्वारा अपनाए गए रुख की वजह से “फोक डेविल्स” का संदेश शायद ठीक से स्वीकार नहीं किया जाता । इसलिए मुस्लिम शायद लोकप्रिय दृष्टिकोण और विश्वासों से निपटने के लिए अपने संदेश पहुंचाने में समर्थ हो सकें, लेकिन ऐसा शायद ही होता है, जब उन्हें बहुत ज्यादा संख्या में बिकने वाले समाचार पत्र जैसे मुख्यधारा के मीडिया तक पहुंच बनाने का मौका मिले। इस्लाम और मुस्लिमों के साथ समस्या यह नहीं है कि उनके बारे में मीडिया में नकरात्मक कहानियां हैं, दरअसल समस्या यह है कि उनके बारे में सकारात्मक कहानियां या तो बहुत कम हैं या बिल्कुल नहीं हैं।


लेखिका लगभग एक दशक तक एक पत्रकार रहे हैं, रक्षा और सुरक्षा मुद्दों को कवर करते हुए। उसने PTI, IANS और The New Indian Express के साथ काम किया है।

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