Author : Samir Saran

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jun 03, 2023 Updated 25 Days ago

ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) को चाहिए कि वो संयुक्त राष्ट्र को एक ऐसे बहुपक्षीय संगठन के रूप में परिवर्तित करने के लिए एकजुट हों, जो सभी सदस्य देशों की संप्रभु समानता को वास्तव में स्वीकार करता हो.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) का गठन उपनिवेशवाद के प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है!

हम सब इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि ये बहुत लंबा दशक रहा है; जबकि ये दशक अभी शुरू ही हुआ है. पिछले तीन वर्षों में अंतरराष्ट्रीयवाद के ढांचे को चीर फाड़ डाला गया है. और, ऐसे बहुत से अहम सवालों पर आम सहमति बनाने की क्षमता, पिछली एक सदी के सबसे निचले स्तर पर है, जिनसे शांति को समृद्ध और सुरक्षा को मज़बूत बनाया जा सकता है. वैश्विक प्रशासन के अहम संस्थानों में सुधार और उन्हें नया रूप देने की ज़रूरत साफ़ दिखाई दे रही है. इसमें कोई शक नहीं कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की तो विशेष तौर पर तुरंत मरम्मत किए जाने की ज़रूरत है.

वैश्विक प्रशासन के अहम संस्थानों में सुधार और उन्हें नया रूप देने की ज़रूरत साफ़ दिखाई दे रही है. इसमें कोई शक नहीं कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की तो विशेष तौर पर तुरंत मरम्मत किए जाने की ज़रूरत है.

फिर भी, हम सबको पता है कि संयुक्त राष्ट्र की प्रक्रिया और सुरक्षा परिषद (UNSC) के सुधार का मसला जहां के तहां अटके पड़े हैं. ये एक सच्चाई है कि संयुक्त राष्ट्र के अस्तित्व के लगभग आठ दशकों में केवल एक बार ऐसा हुआ है, जब थोड़ा बहुत सुधार किया गया हो. ये सुधार तब हुआ था, जब सुरक्षा परिषद में अस्थायी सदस्यों की संख्या छह से बढ़ाकर 10 की गई थी. उसके बाद से सुधार के सारे प्रयास मोटे तौर पर खोखली बयानबाज़ी तक सीमित रह गए हैं. ये त्रासदी ही है कि ये बयान भी सुधारों की कोई समय सीमा तय करने वाले नहीं होते. और हां, इनमें कोई ठोस बात भी नहीं होती. शायद इस परिचर्चा का ये बिल्कुल सही समय है. इसीलिए, इस मुद्दे पर परिचर्चा और वाद विवाद में नई आवाज़ें शामिल करने और इस मुद्दे में भागीदारी को आम जनता- रिसर्च करने वाले समुदाय और अकादेमिक क्षेत्र- को भी शामिल करने के विचार की सराहना की जानी चाहिए. हम उम्मीद करते हैं कि विकासशील देशों के पेशेवर लोगों और विचारकों का ये उत्सुक समूह कुछ ऐसे महत्वपूर्ण समाधान निकालेगा, जिससे इस परिचर्चा को आगे बढ़ाया जा सके.

दशकों की निष्क्रियता ने सुधारों को आदर्श बनने और अपने आप में एक मक़सद बन जाने की राह में भी अड़ंगा लगा दिया है. हमने बाधा डालने वाले दांव पेंच देखे हैं. इस विषय पर ऐसे कई क्लब और समूहों को उभरते देखा है. और, हमने ये भी देखा है कि प्रगति को अटकाने, लटकाने और भटकाने के लिए तरह तरह से कोशिशें की जाती रही हैं. अब तो सुधारों की राह में अड़ंगा लगाना ही अपने आप में एक लक्ष्य बन गया है, और शायद यही काम संयुक्त राष्ट्र जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में तैनात राजनयिकों की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी (KRA) बन गया है. इसे बदलना ही होगा. हमें प्रगति की चर्चा ठोस मायनों में करनी होगी. संवाद का नया तौर तरीक़ा क्या होना चाहिए? इस सवाल के कई जवाब हो सकते हैं. रुचिरा कंबोज जैसे राजनयिक और मताइस स्पेक्टोर जैसे विद्वान जो बातें कहते हैं, हो सकता है वही इकलौते समाधान न हों. सच तो ये है कि समाधान शायद तमाम तरह के नज़रियों और आवाज़ों को सुनने में निहित हैं, और ये ज़रूरी है कि हम उन सबको सुनें. सबसे अहम बात ये है कि हम सब इस बात पर सहमत हों कि यथास्थिति बनाए रखना कोई हल नहीं है.

अब ये मुमकिन नहीं है कि पिछली सदी में हुए एक युद्ध के विजेताओं के हाथ में ही आज की दुनिया का प्रबंधन भी रहे. वो युद्ध अब इतिहास बन चुका है और उस युद्ध के विजेताओं के इस भूतपूर्व समूह के कुछ सदस्यों के प्रभाव और उनकी क्षमताएं भी अतीत का हिस्सा बन चुकी हैं.

एक वैश्विक संस्थान के तौर पर संयुक्त राष्ट्र विश्वसनीयता के संकट से जूझ रहा है; और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार में कोई प्रगति न होने के कारण लोगों में पूरी तरह निराशा फैल जाएगी. संयुक्त राष्ट्र और इसकी भूमिका का भविष्य, बहुत नज़दीकी से इस विषय पर प्रगति से जुड़े हुए हैं. इसीलिए, हमें एक वैश्विक समुदाय के तौर पर अपने प्रयासों को नई धार देनी होगी, और ये सुनिश्चित करना होगा कि सुधारों पर होने वाली परिचर्चाओं में उन भौगोलिक क्षेत्रों से भी नई आवाज़ों और नज़रियों को शामिल किया जाए, जिनके एक स्थिर और समृद्ध भविष्य बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देने की संभावनाएं हैं. ये वही देश हैं जिन पर एक नाकारा अंतरराष्ट्रीय संस्थान का असर सबसे ज़्यादा पड़ने की आशंका है.

G20 और BRICS देशों के दृष्टिकोण

संस्थागत सुधारों पर चल रही बातचीत के लिए वो दो हालिया परिचर्चाएं प्रासंगिक हैं, जिनसे हम भारत में जुड़े रहे हैं. पहला तो निश्चित रूप से G20 की अध्यक्षता और इसके संपर्क समूहों का नतीजा है, जो बहुपक्षीय सहयोग के अलग अलग पहलुओं पर काम कर रहे हैं. बहुपक्षीय सुधार इन समूहों में चल रही परिचर्चाओं का सबसे अहम विषय है. हम सब इस सच्चाई को जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC), ख़ुद संयुक्त राष्ट्र, बहुपक्षीय विकास बैंक और वित्तीय संस्थानों की पूरी तरह मरम्मत करने की ज़रूरत है. इस शताब्दी में ये संस्थान अब हमारे किसी काम के नहीं रह गए हैं. दूसरा BRICS की आकांक्षाएं हैं. दक्षिण अफ्रीका की अध्यक्षता में इस बात को लेकर उत्सुकता और अपेक्षा है कि वैश्विक संस्थाएं, अफ्रीकी महाद्वीप की आकांक्षाओं को भी जगह देंगी. अफ्रीका ऐसा महाद्वीप है जो बड़े नाटकीय ढंग और तेज़ गति से उभर रहा है.

परिषद एक अलोकतांत्रिक और ग़ैर प्रतिनिधित्व वाली संस्था है. हम किसी ऐसे ढांचे को कैसे स्वीकार कर सकते हैं, जिसके दरवाज़े अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र समेत जनतांत्रिक एशिया के लिए बंद हों?

हम इन अलग अलग समूहों को देख सकते हैं और इस बेहद अहम मुद्दे को समझकर इस पर वाद-विवाद कर सकते हैं. ये महत्वपूर्ण क्यों है? G20 और ब्रिक्स का ज़िक्र क्यों किया गया? इन सवालों का जवाब ये है: क्योंकि हम आज बेहद गहरी विविधता वाली दुनिया में जी रहे हैं. कुछ लोग इसे बहुपक्षीय विश्व भी कहते हैं. अब ये मुमकिन नहीं है कि पिछली सदी में हुए एक युद्ध के विजेताओं के हाथ में ही आज की दुनिया का प्रबंधन भी रहे. वो युद्ध अब इतिहास बन चुका है और उस युद्ध के विजेताओं के इस भूतपूर्व समूह के कुछ सदस्यों के प्रभाव और उनकी क्षमताएं भी अतीत का हिस्सा बन चुकी हैं. अब समय आ गया है कि सबसे प्रभावशाली देशों को मज़बूत बनाया जाए और ऐसी आवाज़ों को सुना जाए जो हम सबके हितों का बेहतर ढंग से ख़याल रख सकते हैं. लेकिन, इस विशेष पहलू से हटकर, हम सुधारों के बारे में क्यों सोचें, इसके तीन कारण हैं.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) के सुधार पर ही ज़ोर क्यों?

पहला, सुरक्षा परिषद का मौजूदा ढांचा विकृत और अनैतिक है. ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) के बहुत से लोग ये मानते हैं कि सुरक्षा परिषद का मौजूदा स्वरूप असल में औपनिवेशिक व्यवस्था को बनाए रखने वाला है. दो विश्व युद्धों का बोझ उपनिवेशों ने उठाया था. जबकि इसके बाद स्थापित हुई शांति का फ़ायदा उपनिवेश क़ायम करने वालों और उनके साथियों को मिला. आज ये ऐसी बात है जिस पर बहुत से लोग सवाल उठा रहे हैं; और अब जबकि संस्थागत सुधारों में कोई प्रगति न होने से दुनिया का धैर्य ख़त्म हो रहा है, तो ये मसला भी भविष्य में होने वाली परिचर्चाओं का एक महत्वपूर्ण पहलू बनता जा रहा है.

दूसरा, सुधार महत्वपूर्ण है क्योंकि वर्तमान सुरक्षा परिषद (UNSC) बेअसर है, और वो मक़सद पूरे नहीं करती, जिनके लिए इसका गठन हुआ था. पिछले दशकों के दौरान हमने देखा है कि तमाम देशों के समूह की ख़्वाहिशों को सुरक्षा परिषद के एक या एक से अधिक स्थायी सदस्यों ने कई बार ख़ारिज किया है. अभी हाल ही में यूक्रेन का संकट इस बात की बेहतरीन मिसाल है कि सुरक्षा परिषद, दुनिया की उम्मीदों पर खरी उतरने में नाकाम रही है और ये हमें इस बात की याद दिलाता है कि यथास्थिति अब आगे नहीं चल सकती. यूक्रेन संघर्ष पर मतदान का तरीक़ा और देशों का ग़ैरहाज़िर रहना इस बात की ओर इशारा करता है कि अब सुरक्षा परिषद में ऐसे देशों को शामिल करना होगा, जो शांति और स्थिरता के वैश्विक प्रयासों को सफल बनाने में योगदान दे सकें.

आख़िर में, सुरक्षा परिषद एक अलोकतांत्रिक और ग़ैर प्रतिनिधित्व वाली संस्था है. हम किसी ऐसे ढांचे को कैसे स्वीकार कर सकते हैं, जिसके दरवाज़े अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र समेत जनतांत्रिक एशिया के लिए बंद हों? सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों (P5) में यूरोप के तीन देशों को असंगत तरीक़े से जगह दी गई थी. मगर, सुरक्षा परिषद में तीन स्थायी सदस्य होने के बावजूद भी यूरोप में शांति क़ायम नहीं रह सकी. साफ़ है कि यूरोप के तीन देशों को स्थायी सदस्य बनाना, एक महाद्वीप को कुछ ज़्यादा ही तवज्जो देना है. हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों (P5) की संरचना किस आधार पर की गई है.

लेकिन, हो सकता है कि सिर्फ़ यही नज़रिया वैध न हो. ऐसे और भी कई दृष्टिकोण हैं और हमें उनको जवाब देना होगा और उनसे संवाद करना होगा. मिसाल के तौर पर आम सहमति पर एकजुटता वाले तर्क देते हैं कि नए सदस्यों को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता नहीं दी जा सकती है. ये स्थायी सदस्यता के ख़िलाफ़ एक नज़रिया है, और इसे परिचर्चा का हिस्सा बनाया जाना चाहिए. लेकिन, हमें ये सवाल भी उठाना होगा कि अगर कोई स्थायी सदस्यता नहीं है, तो फिर ये बात सुरक्षा परिषद के मौजूदा स्थायी सदस्यों (P5) पर क्यों नहीं लागू होती? ऐसा क्यों है कि संयुक्त राष्ट्र के वो सभी सदस्य देश जो एक विश्वसनीय भूमिका निभाने के लिए सुरक्षा परिषद में बैठना चाहते हैं, वो 129 देशों का समर्थन हासिल करके इसके स्थायी सदस्य क्यों नहीं बन सकते? ऐसी परिचर्चाओं को न तो ख़ारिज किया जा सकता है, और न ही बंद किया जा सकता है. सच तो ये है कि इस मुद्दे पर बातचीत में अलग-अलग समूहों और नज़रियों को शामिल किया ही जाना चाहिए. और, हम ये उम्मीद करते हैं कि इस अकादेमिक बहस के ज़रिए हम इन अलग अलग दृष्टिकोणों को एक साथ ला सकते हैं, और विचारों की एक रंग-बिरंगी तस्वीर तैयार कर सकते हैं, और इस तरह समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.

2025 में जब संयुक्त राष्ट्र के 80 साल पूरे होंगे, तब तक सुरक्षा परिषद के सुधार पर काम शुरू हो जाना चाहिए. आइए हम सब अपने अलग अलग नज़रियों के साथ इसे अपना साझा एजेंडा बनाएं.

आख़िर में, दो बातों पर ज़ोर देना होगा. पहला, हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार को लेकर इसलिए संघर्ष कर रहे हैं, क्योंकि सरकारों के बीच वार्ता (IGN) की प्रक्रिया का मिज़ाज ही ऐसा है. संयुक्त राष्ट्र की किसी अन्य वार्ता के उलट IGN की प्रक्रिया की बुनियादी शर्त ये है कि इसकी प्रक्रिया और नतीजों पर आम सहमति हो. यानी, इसमें शुरुआत होते ही बात बनने की गुंजाइश ख़त्म हो जाती है. संयुक्त राष्ट्र की किसी भी अन्य वार्ता में शुरुआत करने के लिए आम सहमति की शर्त नहीं है. प्रक्रिया को जिस तरह बनाया गया है, उसकी ये बेहद घातक कमी है और इस मामले में तब तक कोई प्रगति नहीं हो सकती है, जब तक हम इस बुनियादी मसले पर ग़ौर न करें. दूसरा, ज़रूरत इस बात की है कि सुधारों की कोई ठोस समय-सीमा तय हो. 2024 के भविष्य के शिखर सम्मेलन के बारे में कहा जा रहा है कि ये ऐसा मंच होगा, जहां पर आख़िरकार सुरक्षा परिषद के सुधारों को आगे बढ़ाने वाली सकारात्मक परिचर्चाएं हो सकती हैं. लेकिन, 2024 के शिखर सम्मेलन को हम हर मर्ज़ का इलाज करने वाली दवा नहीं मान सकते. हमें दो साल की समय-सीमा या फिर ऐसी मियाद पर सहमत होना होगा, जिसका सुझाव अन्य देश दें कि वो ज़्यादा कारगर होगी, और फिर हमें उस पर सख़्ती से अमल करना होगा.

2025 में जब संयुक्त राष्ट्र के 80 साल पूरे होंगे, तब तक सुरक्षा परिषद के सुधार पर काम शुरू हो जाना चाहिए. आइए हम सब अपने अलग अलग नज़रियों के साथ इसे अपना साझा एजेंडा बनाएं. आइए हम सब अपनी ऊर्जा को एकजुट करके संयुक्त राष्ट्र को एक ऐसे बहुपक्षीय संगठन में परिवर्तित करें, जो वास्तव में सभी सदस्य देशों की संप्रभु समानता को मान्यता देता हो, और सुधारों के ज़रिए काम करने की ऐसी व्यवस्था बनाएं, जो अपने साथ साथ हम सबको भी 21वीं सदी के तीसरे दशक की ओर ले चले.


ये लेख, ओआरएफ़ के प्रेसिडेंट समीर सरन द्वारा ‘शिफ्टिंग द बैलेंस: पर्सपेक्टिव्स ऑन द यूनाइटेड नेशंन ऐंड यूएन सिक्योरिटी काउंसिल रिफॉर्म्स फ्रॉम ग्लोबल साउथ थिंक टैंक’ नाम के गोलमेज़ सम्मेलन में दिए गए फ्रेमिंग रिमार्क्स का एक हिस्सा है.

इस गोलमेज़ सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी प्रतिनिधि रुचिरा कम्बोज; ब्राज़ील के FGV में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफ़ेसर और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के विज़िटिंग स्कॉलर मैतियास स्पेक्टोर; और, दक्षिण अफ्रीका के साउथ अफ्रीका इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स में सीनियर रिसर्चर गुस्तावो डे कारवाल्हो ने भी हिस्सा लिया था.


The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.